Thursday, March 21, 2024

प्रायश्चित - भगवतीचरण वर्मा


अगर कबरी बिल्ली घर-भर में किसी से प्रेम करती थी, तो रामू की बहू से और अगर रामू की बहू घर-भर में किसी से घृणा करती थी, तो कबरी बिल्ली से। रामू की बहू दो महीने हुए, मायके से प्रथम बार ससुराल आयी थी, पति की प्यारी और सास की दुलारी, चौदह वर्ष की बालिका। भंडार-घर की चाभी उसकी करधनी में लटकने लगी, नौकरों पर उसका हुक्म चलने लगा और रामू की बहू घर में सब कुछ। सासजी ने माला ली और पूजा-पाठ में मन लगाया।

लेकिन ठहरी चौदह वर्ष की बालिका, कभी भंडार-घर खुला है, तो कभी भंडार-घर में बैठे-बैठे सो गयी। कबरी बिल्ली को मौक़ा मिला, घी-दूध पर अब वह जट गयी। रामू की बहू की जान आफ़त में और कबरी बिल्ली के छक्के-पंजे। रामू की बहू हांडी में घी रखते-रखते ऊँघ गयी और बचा हुआ घी कबरी के पेट में। रामू की बहू दूध ढक कर मिसरानी को जिंस देने गयी और दूध नदारद।

अगर बात यहीं तक रह जाती, तो भी बुरा न था, कबरी रामू की बहू से कुछ ऐसा परच गयी थी कि रामू की बहू के लिए खाना-पीना दुश्वार। रामू की बहू के कमरे में रबड़ी से भरी कटोरी पहुंची और रामू जब आये, तब कटोरी साफ़ चटी हुई। बाज़ार से बालाई आयी और जब तक रामू की बहू ने पान लगाया, बालाई ग़ायब।

रामू की बहू ने तय कर लिया कि या तो वही घर में रहेगी या फिर कबरी बिल्ली ही। मोर्चाबन्दी हो गयी और दोनों सतर्क। बिल्ली फंसाने का कठघरा आया। उसमें दूध, मलाई, चूहे, और भी बिल्ली को स्वादिष्ट लगने वाले विविध प्रकार के व्यंजन रखे गये, लेकिन बिल्ली ने उधर निगाह तक न डाली। इधर कबरी ने सरगर्मी दिखलायी। अभी तक तो वह रामू की बहू से डरती थी, पर अब वह साथ लग गयी लेकिन इतने फ़ासिले पर कि रामू की बहू उस पर हाथ न लगा सके। कबरी के हौसले बढ़ जाने से रामू की बहू को घर में रहना मुश्किल हो गया। उसे मिलती थीं सास की मीठी झिड़कियां और पतिदेव को मिलता था रूखा-सूखा भोजन।

एक दिन रामू की बहू ने रामू के लिए खीर बनायी। पिस्ता, बादाम, मखाने और तरह-तरह के मेवे दूध में औटाये गये, सोने का वर्क चिपकाया गया और खीर से भरकर कटोरा कमरे के एक ऐसे ऊंचे ताक पर रखा गया, जहां बिल्ली न पहुंच सके। रामू की बहू इसके बाद पान लगाने में लग गयी। इधर बिल्ली कमरे में आयी, ताक़ के नीचे खड़े होकर उसने ऊपर कटोरे की ओर देखा, सुंघा, माल अच्छा है, ताक़ की ऊंचाई अन्दाज़ी और रामू की बहू पान लगा रही है। पान लगाकर रामू की बहू सासजी को पान देने चली गयी और कबरी ने छलाँग मारी, पंजा कटोरे में लगा और कटोरा झनझनाहट की आवाज़ के साथ फ़र्श पर। आवाज़ रामू की बहू के कान में पहुंची, सास के सामने पान फेंककर वह दौड़ी, क्या देखती है कि फूल का कटोरा टुकड़े-टुकड़े, खीर फ़र्श पर और बिल्ली डटकर खीर उड़ा रही है।

रामू की बहू को देखते ही कबरी चम्पत। रामू की बहू पर ख़ून सवार हो गया। न रहे बांस, न बजे बांसुरी। रामू की बहू ने कबरी की हत्या पर कमर कस ली। रात-भर उसे नींद न आयी। किस दांव से कबरी पर वार किया जाये कि फिर ज़िन्दा न बचे, पड़े-पड़े यही सोचती रही।

सुबह हुई, और वह देखती है कि कबरी देहरी पर बैठी बड़े प्रेम से उसे देख रही है। रामू की बहू ने कुछ सोचा। उसके बाद मुस्कराती हुई वह उठी। कबरी रामू की बहू के उठते ही खिसक गयी। रामू की बहू एक कटोरा दूध कमरे के दरवाज़े की देहरी पर रखकर चली गयी। हाथ में पाटा लेकर वह लौटी, तो देखती है कि कबरी दुध पर जुटी हुई है। मौका हाथ में आ गया। सारा बल लगाकर पाटा उसने बिल्ली पर पटक दिया। कबरी न हिली, न डुली, न चीख़ी, न चिल्लायी, बस एकदम उलट गयी।

आवाज़ जो हुई तो महरी झाड़ू छोड़कर, मिसरानी रसोई छोड़कर और सास पूजा छोड़कर घटनास्थल पर उपस्थित हो गयीं। रामू की बहू सिर झुकाये हुए अपराधिनी की भांति बातें सुन रही है। महरी बोली — “अरे राम! बिल्ली तो मर गयी, माँजी! बिल्ली की हत्या बहू से हो गयी, यह तो बुरा हुआ।”

मिसरानी बोली — “माँजी! बिल्ली की हत्या और आदमी की हत्या बराबर है। हम तो रसोई न बनावेंगी, जब तक बहू के सिर हत्या रहेगी।”

सासजी बोलीं — “हां, ठीक तो कहती हो। अब जब तक बहू के सिर से हत्या न उतर जाये, तब तक न कोई पानी पी सकता है, न खाना खा सकता है। बहू, यह क्या कर डाला?”

महरी ने कहा — “फिर क्या हो, कहो तो पंडितजी को बुलाय लाईं।”

सास की जान में जान आयी — “अरे हां! जल्दी दौड़ के पंडितजी को बुला ला।”

बिल्ली की हत्या की ख़बर बिजली की तरह पड़ोस में फैल गयी। पड़ोस की औरतों का राम के घर में तांता बंध गया। चारों तरफ से प्रश्नों की बौछार और राम की बहू सिर झुकाये बैठी। पंडित परमसुख को जब यह ख़बर मिली, उस समय वह पूजा कर रहे थे। ख़बर पाते ही वह उठ पड़े। पंडिताइन से मुसकराते हुए बोले — “भोजन न बनाना। लाला घासीराम की पतोहू ने बिल्ली मार डाली, प्रायश्चित्त होगा, पकवानों पर हाथ लगेगा।”

पंडित परमसुख चौबे छोटे और मोटे आदमी थे। लम्बाई चार फ़ीट दस इंच, और तोंद का घेरा अट्ठावन इंच। चेहरा गोल-मटोल, मूंछे बड़ी-बड़ी, रंग गोरा, चोटी कमर तक पहुंचती हुई। कहा जाता है कि मथुरा में जब पंसेरी खुराक वाले पंडितों को ढूँढा जाता था, तो पंडित परमसुखजी को उस लिस्ट में प्रथम स्थान दिया जाता था।

पंडित परमसुख पहुंचे और कोरम पूरा हुआ। पंचायत बैठी — सासजी, मिसरानी, किसनू की माँ, छन्नू की दादी और पंडित परमसुख! बाक़ी स्त्रियां बहू से सहानुभूति प्रकट कर रही थीं। किसनू की माँ ने कहा — “पंडितजी, बिल्ली की हत्या करने से कौन नरक मिलता है?”

पंडित परमसुख ने पत्रा देखते हुए कहा — “बिल्ली की हत्या अकेले से तो नरक का नाम नहीं बतलाया जा सकता, वह महूरत भी जब मालूम हो, जब बिल्ली की हत्या हुई, तब नरक का पता लग सकता है।”

“यही कोई सात बजे सुबह” — मिसरानीजी ने कहा।

पंडित परमसुख ने पत्रे के पन्ने उलटे, अक्षरों पर उंगलियां चलायीं, मत्थे पर हाथ लगाया और कुछ सोचा। चेहरे पर धुंधलापन आया, माथे पर बल पड़े, नाक कुछ सिकुड़ी और स्वर गम्भीर हो गया — “हरे कृष्ण! हरे कृष्ण! बड़ा बुरा हुआ, प्रात:काल ब्रह्म मुहूर्त में बिल्ली की हत्या! घोर कुम्भीपाक नरक का विधान है! रामू की माँ, यह तो बड़ा बुरा हुआ।”

रामू की माँ की आँखों में आँसू आ गये — “तो फिर पंडितजी, अब क्या होगा, आप ही बतलायें।”

पंडित परमसुख मुस्कराये — “रामू की माँ, चिन्ता की कौन-सी बात है? हम पुरोहित कौन दिन के लिए हैं? शास्त्रों में प्रायश्चित्त का विधान है, सो प्रायश्चित्त से सब कुछ ठीक हो जायेगा।”

रामू की माँ ने कहा — “पंडितजी, उसी के लिए तो आपको बुलवाया था। अब आगे बतलाओ कि क्या किया जाये।”

“किया क्या जाये — यही, एक सोने की बिल्ली बनवाकर बहू से दान करवा दी जाये। जब तक बिल्ली न दे दी जायेगी, तब तक तो घर अपवित्र रहेगा। बिल्ली दान देने के बाद इक्कीस दिन का पाठ हो जाये।”

छन्नू की दादी बोली — “हां, और क्या? पंडितजी ठीक तो कहते हैं। बिल्ली अभी दान दे दी जाये और पाठ फिर हो जाये।”

रामू की माँ ने कहा — “तो पंडितजी, कितने तोले की बिल्ली बनवायी जाये?”

पंडित परमसुख मुस्कराये। अपनी तोंद पर हाथ फेरते हुए बोले — “बिल्ली कितने तोले की बनावायी जाये? अरे, रामू की माँ! शास्त्रों में तो लिखा है कि बिल्ली के वजन-भर सोने की बिल्ली बनवायी जाये। लेकिन अब कलियुग आ गया है, धर्म-कर्म का नाश हो गया है, श्रद्धा नहीं रही। सो रामू की माँ, बिल्ली के तौल-भर की बिल्ली तो क्या बनेगी, क्योंकि बिल्ली बीस-इक्कीस सेर से कम की क्या होगी? हां, कम-से-कम इक्कीस तोले की बिल्ली बनवाकर दान करवा दो, और आगे तो अपनी-अपनी श्रद्धा!”

रामू की माँ ने आँखें फाड़कर पंडित परमसुख को देखा — “अरे, बाप रे! इक्कीस तोला सोना! पंडितजी, यह तो बहुत है, तोला-भर की बिल्ली से काम न निकलेगा?”

पंडित परमसुख हंस पड़े — “रामू की माँ! एक तोला सोने की बिल्ली! अरे, रुपये का लोभ बहू से बढ़ गया? बहू के सिर बड़ा पाप है, इसमें इतना लोभ ठीक नहीं।”

मोल-तोल शुरू हुआ और मामला ग्यारह तोले की बिल्ली पर ठीक हो गया। इसके बाद पूजा-पाठ की बात आयी। पंडित परमसुख ने कहा — “उसमें क्या मुश्किल है, हम लोग किस दिन के लिए हैं? रामू की माँ, मैं पाठ कर दिया करूंगा, पूजा की सामग्री आप हमारे घर भिजवा देना।”

“पूजा का सामान कितना लगेगा?”

“अरे, कम-से-कम सामान में हम पूजा कर देंगे। दान के लिए करीब दस मन गेहूं, एक मन चावल, एक मन दाल, मन-भर तिल, पांच मन जौ और पांच मन चना, चार पसेरी घी और मन-भर नमक भी लगेगा। बस, इतने से काम चल जायेगा।”

“अरे बाप रे! इतना सामान! पंडितजी इसमें तो सौ-डेढ़ सौ रुपया ख़र्च हो जायेगा।” रामू की माँ ने रुआंसी होकर कहा।

“फिर इससे कम में तो काम न चलेगा। बिल्ली की हत्या कितना बड़ा पाप है? रामू की माँ, ख़र्च को देखते वक्त पहले बहू के पाप को तो देख लो! यह तो प्रायश्चित्त है, कोई हंसी-खेल थोड़े ही है — और जैसी जिसकी मरजादा, प्रायश्चित्त में उसे वैसा खर्च भी करना पड़ता है। आप लोग कोई ऐसे-वैसे थोड़े हैं। अरे, सौ-डेढ़ सौ रुपया आप लोगों के हाथ का मैल है।”

पंडित परमसुख की बात से पंच प्रभावित हुए। किसनू की माँ ने कहा — “पंडितजी ठीक तो कहते हैं। बिल्ली की हत्या कोई ऐसा-वैसा पाप तो है नहीं — बड़े पाप के लिए बड़ा खर्च भी चाहिए।”

छन्नू की दादी ने कहा — “और नहीं तो क्या? दान-पुन्न से ही पाप कटते हैं। दान-पुन्न में किफ़ायत ठीक नहीं।”

मिसरानी ने कहा — “और फिर माँजी, आप लोग बड़े आदमी ठहरे। इतना ख़र्च कौन आप लोगों को अखरेगा?”

रामू की माँ ने अपने चारों ओर देखा — सभी पंच पंडितजी के साथ। पंडित परमसुख मुस्करा रहे थे। उन्होंने कहा — “रामू की माँ! एक तरफ़ तो बहू के लिए कुम्भीपाक नरक है और दूसरी तरफ तुम्हारे ज़िम्मे थोड़ा-सा ख़र्च है। सो उससे मुंह न मोड़ो।”

एक ठण्डी सांस लेते हुए रामू की माँ ने कहा — “अब तो जो नाच नचाओगे, नाचना ही पड़ेगा।”

पंडित परमसुख ज़रा कुछ बिगड़कर बोले — “रामू की माँ! यह तो ख़ुशी की बात है। अगर तुम्हें अखरता है, तो न करो। मैं चला।”

इतना कहकर पंडितजी ने पोथी-पत्रा बटोरा।

“अरे पंडितजी! रामू की माँ को कुछ नहीं अखरता। बेचारी को कितना दु:ख है! बिगड़ो न।” मिसरानी, छन्नू की दादी और किसनू की माँ ने एक स्वर में कहा।

रामू की माँ ने पंडितजी के पैर पकड़े और पंडितजी ने अब जमकर आसन जमाया।

“इक्कीस दिन के पाठ के इक्कीस रुपये और इक्कीस दिन तक दोनों बखत पांच-पांच ब्राह्मणों को भोजन करवाना पड़ेगा।” कुछ रुककर पंडित परमसुख ने कहा — “सो इसकी चिन्ता न करो। मैं अकेले दोनों समय भोजन कर लूंगा और मेरे अकेले भोजन करने से पांच ब्राह्मणों के भोजन का फल मिल जायेगा।”

“यह तो पंडितजी ठीक ही कहते हैं। पंडितजी की तोंद तो देखो।” मिसरानी ने मुस्कराते हुए पंडितजी पर व्यंग्य किया।

“अच्छा, तो फिर प्रायश्चित्त का प्रबन्ध करवाओ रामू की माँ, ग्यारह तोला सोना निकालो, मैं उसकी बिल्ली बनवा लाऊ। दो घण्टे में बनवाकर लौटूँगा। तब तक पूजा का सब प्रबन्ध कर रखो, और देखो, पूजा के लिए…” पंडितजी की बात ख़त्म भी न हुई थी कि महरी हांफती हुई कमरे में घुस आयी और सब लोग चौंक उठे।

रामू की माँ ने घबराकर कहा- “अरी! क्या हुआ री?”

महरी ने लड़खड़ाते स्वर में कहा — “माँजी, बिल्ली तो उठकर भाग गयी!”

Tuesday, March 19, 2024

जामुन का पेड़ - कृष्ण चंदर

रात को बड़े ज़ोर का अंधड़ चला। सेक्रेटेरिएट के लॉन में जामुन का एक पेड़ गिर पड़ा। सुबह जब माली ने देखा तो उसे मालूम हुआ कि पेड़ के नीचे एक आदमी दबा पड़ा है।

माली दौड़ा-दौड़ा चपरासी के पास गया, चपरासी दौड़ा-दौड़ा क्‍लर्क के पास गया, क्‍लर्क दौड़ा-दौड़ा सुपरिन्‍टेंडेंट के पास गया। सुपरिन्‍टेंडेंट दौड़ा-दौड़ा बाहर लॉन में आया। मिनटों में ही गिरे हुए पेड़ के नीचे दबे आदमी के इर्दगिर्द मजमा इकट्ठा हो गया।

“बेचारा जामुन का पेड़ कितना फलदार था।” एक क्‍लर्क बोला।

“इसकी जामुन कितनी रसीली होती थी।” दूसरा क्‍लर्क बोला।

“मैं फलों के मौसम में झोली भरके ले जाता था। मेरे बच्‍चे इसकी जामुनें कितनी ख़ुशी से खाते थे।” तीसरे क्‍लर्क का यह कहते हुए गला भर आया।

“मगर यह आदमी?” माली ने पेड़ के नीचे दबे आदमी की तरफ़ इशारा किया।

“हाँ, यह आदमी…” सुपरिन्‍टेंडेंट सोच में पड़ गया।

“पता नहीं ज़िंदा है कि मर गया।” एक चपरासी ने पूछा।

“मर गया होगा। इतना भारी तना जिसकी पीठ पर गिरे, वह बच कैसे सकता है?” दूसरा चपरासी बोला।

“नहीं मैं ज़िंदा हूँ।” दबे हुए आदमी ने बमुश्किल कराहते हुए कहा।

“ज़िंदा है?” एक क्‍लर्क ने हैरत से कहा।

“पेड़ को हटाकर इसे निकाल लेना चाहिए।” माली ने मशविरा दिया।

“मुश्किल मालूम होता है।” एक काहिल और मोटा चपरासी बोला। “पेड़ का तना बहुत भारी और वज़नी है।”

“क्‍या मुश्किल है?” माली बोला। “अगर सुपरिन्‍टेंडेंट साहब हुकम दें तो अभी पंद्रह बीस माली, चपरासी और क्‍लर्क ज़ोर लगा के पेड़ के नीचे दबे आदमी को निकाल सकते हैं।”

“माली ठीक कहता है।” बहुत से क्‍लर्क एक साथ बोल पड़े। “लगाओ ज़ोर हम तैयार हैं।”

एकदम बहुत से लोग पेड़ को काटने पर तैयार हो गए।

“ठहरो।”, सुपरिन्‍टेंडेंट बोला, “मैं अंडर-सेक्रेटरी से मशविरा कर लूँ।”

सु‍परिन्‍टेंडेंट अंडर सेक्रेटरी के पास गया। अंडर सेक्रेटरी डिप्‍टी सेक्रेटरी के पास गया। डिप्‍टी सेक्रेटरी जाइंट सेक्रेटरी के पास गया। जाइंट सेक्रेटरी चीफ़ सेक्रेटरी के पास गया। चीफ़ सेक्रेटरी ने जाइंट सेक्रेटरी से कुछ कहा। जाइंट सेक्रेटरी ने डिप्‍टी सेक्रेटरी से कहा। डिप्‍टी सेक्रेटरी ने अंडर सेक्रेटरी से कहा। फ़ाइल चलती रही। इसी में आधा दिन गुज़र गया।

दोपहर को खाने पर, दबे हुए आदमी के इर्दगिर्द बहुत भीड़ हो गई थी। लोग तरह-तरह की बातें कर रहे थे। कुछ मनचले क्‍लर्कों ने मामले को अपने हाथ में लेना चाहा। वह हुकूमत के फ़ैसले का इंतज़ार किए बग़ैर पेड़ को ख़ुद से हटाने की तैयारी कर रहे थे कि इतने में, सुपरिन्‍टेंडेंट फाइल लिए भागा-भागा आया, बोला, “हम लोग ख़ुद से इस पेड़ को यहाँ से नहीं हटा सकते। हम लोग वाणिज्‍य विभाग के कर्मचारी हैं और यह पेड़ का मामला है, पेड़ कृषि विभाग के तहत आता है। इसलिए मैं इस फ़ाइल को अर्जेंट मार्क करके कृषि विभाग को भेज रहा हूँ। वहाँ से जवाब आते ही इसको हटवा दिया जाएगा।”

दूसरे दिन कृषि विभाग से जवाब आया कि पेड़ हटाने की ज़िम्मेदारी तो वाणिज्‍य विभाग की ही बनती है।

यह जवाब पढ़कर वाणिज्‍य विभाग को गुस्‍सा आ गया। उन्‍होंने फ़ौरन लिखा कि पेड़ों को हटवाने या न हटवाने की ज़िम्मेदारी कृषि विभाग की ही है। वाणिज्‍य विभाग का इस मामले से कोई ताल्‍लुक़ नहीं है।

दूसरे दिन भी फ़ाइल चलती रही। शाम को जवाब आ गया, “हम इस मामले को हार्टिकल्‍चर विभाग के सुपुर्द कर रहे हैं, क्‍योंकि यह एक फलदार पेड़ का मामला है और कृषि विभाग सिर्फ़ अनाज और खेती-बाड़ी के मामलों में फ़ैसला करने का हक़ रखता है। जामुन का पेड़ एक फलदार पेड़ है, इसलिए पेड़ हार्टिकल्‍चर विभाग के अधिकार क्षेत्र में आता है।”

रात को माली ने दबे हुए आदमी को दाल-भात खिलाया। हालाँकि लॉन के चारों तरफ़ पुलिस का पहरा था, कि कहीं लोग क़ानून को अपने हाथ में लेकर पेड़ को ख़ुद से हटवाने की कोशिश न करें। मगर एक पुलिस कांस्‍टेबल को रहम आ गया और उसने माली को दबे हुए आदमी को खाना खिलाने की इजाज़त दे दी।

माली ने दबे हुए आदमी से कहा, “तुम्‍हारी फ़ाइल चल रही है। उम्‍मीद है कि कल तक फ़ैसला हो जाएगा।”

दबा हुआ आदमी कुछ न बोला।

माली ने पेड़ के तने को ग़ौर से देखकर कहा, “अच्‍छा है तना तुम्‍हारे कूल्‍हे पर गिरा। अगर कमर पर गिरता तो रीढ़ की हड्डी टूट जाती।”

दबा हुआ आदमी फिर भी कुछ न बोला।

माली ने फिर कहा, “तुम्‍हारा यहाँ कोई वारिस हो तो मुझे उसका अता-पता बताओ। मैं उसे ख़बर देने की कोशिश करूँगा।”

“मैं लावारिस हूँ।” दबे हुए आदमी ने बड़ी मुश्किल से कहा।

माली अफ़सोस ज़ाहिर करता हुआ वहाँ से हट गया।

तीसरे दिन हार्टिकल्‍चर विभाग से जवाब आ गया। बड़ा कड़ा जवाब लिखा गया था। काफ़ी आलोचना के साथ। उससे हार्टिकल्‍चर विभाग का सेक्रेटरी साहित्यिक मिज़ाज का आदमी मालूम होता था। उसने लिखा था, “हैरत है, इस समय जब ‘पेड़ उगाओ’ स्‍कीम बड़े पैमाने पर चल रही है, हमारे मुल्‍क में ऐसे सरकारी अफ़सर मौजूद हैं, जो पेड़ काटने की सलाह दे रहे हैं, वह भी एक फलदार पेड़ को! और वह भी जामुन के पेड़ को! जिसके फल जनता बड़े चाव से खाती है। हमारा विभाग किसी भी हालत में इस फलदार पेड़ को काटने की इजाज़त नहीं दे सकता।”

“अब क्‍या किया जाए?” एक मनचले ने कहा, “अगर पेड़ नहीं काटा जा सकता तो इस आदमी को काटकर निकाल लिया जाए! यह देखिए…”,

उस आदमी ने इशारे से बताया, “अगर इस आदमी को बीच में से यानी धड़ की जगह से काटा जाए, तो आधा आदमी इधर से निकल आएगा और आधा आदमी उधर से बाहर आ जाएगा और पेड़ भी वहीं का वहीं रहेगा।”

“मगर इस तरह से तो मैं मर जाऊँगा!” दबे हुए आदमी ने एतराज़ किया।

“यह भी ठीक कहता है।” एक क्‍लर्क बोला।

आदमी को काटने का नायाब तरीक़ा पेश करने वाले ने एक पुख़्ता दलील पेश की, “आप जानते नहीं हैं। आजकल प्‍लास्टिक सर्जरी के जरिए धड़ की जगह से, इस आदमी को फिर से जोड़ा जा सकता है।”

अब फ़ाइल को मेडिकल डिपार्टमेंट में भेज दिया गया। मेडिकल डिपार्टमेंट ने फ़ौरन इस पर एक्‍शन लिया और जिस दिन फ़ाइल मिली उसने उसी दिन विभाग के सबसे क़ाबिल प्‍लास्टिक सर्जन को जाँच के लिए मौक़े पर भेज दिया।

सर्जन ने दबे हुए आदमी को अच्‍छी तरह टटोलकर, उसकी सेहत देखकर, ख़ून का दबाव, साँस की गति, दिल और फेफड़ों की जाँच करके रिपोर्ट भेज दी कि, “इस आदमी का प्‍लास्टिक ऑपरेशन तो हो सकता है, और ऑपरेशन कामयाब भी हो जाएगा, मगर आदमी मर जाएगा।

लिहाज़ा यह सुझाव भी रद्द कर दिया गया।

रात को माली ने दबे हुए आदमी के मुँह में खिचड़ी डालते हुए उसे बताया, “अब मामला ऊपर चला गया है। सुना है कि सेक्रेटेरियट के सारे सेक्रेटरियों की मीटिंग होगी। उसमें तुम्‍हारा केस रखा जाएगा। उम्‍मीद है सब काम ठीक हो जाएगा।”

दबा हुआ आदमी एक आह भरकर आहिस्‍ते से बोला, “हमने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन ख़ाक हो जाएँगे हम, तुमको ख़बर होने तक।”

माली ने अचम्भे से मुँह में उँगली दबायी। हैरत से बोला, “क्‍या तुम शायर हो।”

दबे हुए आदमी ने आहिस्‍ते से सर हिला दिया।

दूसरे दिन माली ने चपरासी को बताया, चपरासी ने क्‍लर्क को और क्‍लर्क ने हेड-क्‍लर्क को। थोड़ी ही देर में सेक्रेटेरिएट में यह बात फैल गई कि दबा हुआ आदमी शायर है। बस फिर क्‍या था। लोग बड़ी संख्‍या में शायर को देखने के लिए आने लगे। इसकी ख़बर शहर में फैल गई। और शाम तक मुहल्‍ले-मुहल्‍ले से शायर जमा होना शुरू हो गए। सेक्रेटेरिएट का लॉन भाँति-भाँति के शायरों से भर गया। सेक्रेटेरिएट के कई क्‍लर्क और अंडर-सेक्रेटरी तक, जिन्‍हें अदब और शायर से लगाव था, रुक गए। कुछ शायर दबे हुए आदमी को अपनी ग़ज़लें सुनाने लगे, कई क्‍लर्क अपनी ग़ज़लों पर उससे सलाह मशविरा माँगने लगे।

जब यह पता चला कि दबा हुआ आदमी शायर है, तो सेक्रेटेरिएट की सब-कमेटी ने फ़ैसला किया कि चूँकि दबा हुआ आदमी एक शायर है, लिहाज़ा इस फ़ाइल का ताल्‍लुक़ न तो कृषि विभाग से है और न ही हार्टिकल्‍चर विभाग से बल्कि सिर्फ़ संस्‍कृति विभाग से है। अब संस्‍कृति विभाग से गुज़ारिश की गई कि वह जल्‍द से जल्‍द इस मामले में फ़ैसला करे और इस बदनसीब शायर को इस पेड़ के नीचे से रिहाई दिलवायी जाए।

फ़ाइल संस्‍कृति विभाग के अलग-अलग सेक्‍शन से होती हुई साहित्‍य अकादमी के सचिव के पास पहुँची। बेचारा सचिव उसी वक़्त अपनी गाड़ी में सवार होकर सेक्रेटेरिएट पहुँचा और दबे हुए आदमी से इंटरव्‍यू लेने लगा।

“तुम शायर हो”, उसने पूछा।

“जी हाँ!” दबे हुए आदमी ने जवाब दिया।

“क्‍या तख़ल्‍लुस रखते हो?”

“अवस!”

“अवस!” सचिव ज़ोर से चीख़ा। क्‍या तुम वही हो जिसका मजमुआ-ए-कलाम-ए-अक्‍स के फूल हाल ही में प्रकाशित हुआ है।

दबे हुए शायर ने इस बात पर सिर हिलाया।

“क्‍या तुम हमारी अकादमी के मेम्बर हो?” सचिव ने पूछा।

“नहीं!”

“हैरत है!” सचिव ज़ोर से चीख़ा। “इतना बड़ा शायर! अवस के फूल का लेखक! और हमारी अकादमी का मेम्बर नहीं है! उफ़ उफ़ कैसी ग़लती हो गई हमसे! कितना बड़ा शायर और कैसे गुमनामी के अंधेरे में दबा पड़ा है!”

“गुमनामी के अंधेरे में नहीं बल्कि एक पेड़ के नीचे दबा हुआ… भगवान के लिए मुझे इस पेड़ के नीचे से निकालिए।”

“अभी बंदोबस्‍त करता हूँ।” सचिव फ़ौरन बोला और फ़ौरन जाकर उसने अपने विभाग में रिपोर्ट पेश की।

दूसरे दिन सचिव भागा-भागा शायर के पास आया और बोला, “मुबारक हो, मिठाई खिलाओ, हमारी सरकारी अकादमी ने तुम्‍हें अपनी साहित्‍य समिति का सदस्‍य चुन लिया है। ये लो आर्डर की कॉपी।”

“मगर मुझे इस पेड़ के नीचे से तो निकालो।” दबे हुए आदमी ने कराहकर कहा। उसकी साँस बड़ी मुश्किल से चल रही थी और उसकी आँखों से मालूम होता था कि वह बहुत कष्‍ट में है।

“यह हम नहीं कर सकते।” सचिव ने कहा, “जो हम कर सकते थे वह हमने कर दिया है। बल्कि हम तो यहाँ तक कर सकते हैं कि अगर तुम मर जाओ तो तुम्‍हारी बीवी को पेंशन दिला सकते हैं। अगर तुम आवेदन दो तो हम यह भी कर सकते हैं।”

“मैं अभी ज़िंदा हूँ।” शायर रुक-रुककर बोला, “मुझे ज़िंदा रखो।”

“मुसीबत यह है…” सरकारी अकादमी का सचिव हाथ मलते हुए बोला, “हमारा विभाग सिर्फ संस्‍कृति से ताल्‍लुक़ रखता है। आपके लिए हमने वन विभाग को लिख दिया है। अर्जेंट लिखा है।”

शाम को माली ने आकर दबे हुए आदमी को बताया कि कल वन विभाग के आदमी आकर इस पेड़ को काट देंगे और तुम्‍हारी जान बच जाएगी।

माली बहुत ख़ुश था। हालाँकि दबे हुए आदमी की सेहत जवाब दे रही थी। मगर वह किसी न किसी तरह अपनी ज़िन्दगी के लिए लड़े जा रहा था। कल तक… सुबह तक… किसी न किसी तरह उसे ज़िंदा रहना है।

दूसरे दिन जब वन विभाग के आदमी आरी, कुल्‍हाड़ी लेकर पहुँचे तो उन्‍हें पेड़ काटने से रोक दिया गया। मालूम हुआ कि विदेश मंत्रालय से हुक्‍म आया है कि इस पेड़ को न काटा जाए। वजह यह थी कि इस पेड़ को दस साल पहले पिटोनिया के प्रधानमंत्री ने सेक्रेटेरिएट के लॉन में लगाया था। अब यह पेड़ अगर काटा गया तो इस बात का पूरा अंदेशा था कि पिटोनिया सरकार से हमारे सम्बन्ध हमेशा के लिए बिगड़ जाएँगे।

“मगर एक आदमी की जान का सवाल है!” एक क्‍लर्क ग़ुस्से से चिल्‍लाया।

“दूसरी तरफ़ दो हुकूमतों के ताल्लुक़ात का सवाल है।” दूसरे क्‍लर्क ने पहले क्‍लर्क को समझाया, “और यह भी तो समझ लो कि पिटोनिया सरकार हमारी सरकार को कितनी मदद देती है। क्‍या हम इनकी दोस्‍ती की ख़ातिर एक आदमी की ज़िन्दगी को भी क़ुरबान नहीं कर सकते।”

“शायर को मर जाना चाहिए?”

“बिलकुल!”

अंडर सेक्रेटरी ने सुपरिंटेंडेंट को बताया। आज सुबह प्रधानमंत्री दौरे से वापस आ गए हैं। आज चार बजे विदेश मंत्रालय इस पेड़ की फ़ाइल उनके सामने पेश करेगा। वो जो फ़ैसला देंगे वही सबको मंज़ूर होगा।

शाम चार बजे ख़ुद सुपरिन्‍टेंडेंट शायर की फाइल लेकर उसके पास आया, “सुनते हो?” आते ही ख़ुशी से फ़ाइल लहराते हुए चिल्‍लाया, “प्रधानमंत्री ने पेड़ को काटने का हुक्‍म दे दिया है। और इस मामले की सारी अंतर्राष्‍ट्रीय ज़िम्मेदारी अपने सिर पर ले ली है। कल यह पेड़ काट दिया जाएगा और तुम इस मुसीबत से छुटकारा पा लोगे।”

“सुनते हो आज तुम्‍हारी फ़ाइल मुकम्‍मल हो गई।” सुपरिन्‍टेंडेंट ने शायर के बाज़ू को हिलाकर कहा। मगर शायर का हाथ सर्द था। आँखों की पुतलियाँ बेजान थीं और चींटियों की एक लम्बी क़तार उसके मुँह में जा रही थी।

उसकी ज़िन्दगी की फ़ाइल मुकम्‍मल हो चुकी थी।

सिक्का बदल गया - कृष्णा सोबती


खद्दर की चादर ओढ़े, हाथ में माला लिए शाहनी जब दरिया के किनारे पहुंची तो पौ फट रही थी। दूर-दूर आसमान के परदे पर लालिमा फैलती जा रही थी। शाहनी ने कपड़े उतारकर एक ओर रक्खे और ‘श्रीराम, श्रीराम’ करती पानी में हो ली। अंजलि भरकर सूर्य देवता को नमस्कार किया, अपनी उनीदी आंखों पर छींटे दिये और पानी से लिपट गयी!

चनाब का पानी आज भी पहले-सा ही सर्द था, लहरें लहरों को चूम रही थीं। वह दूर सामने काश्मीर की पहाड़ियों से बंर्फ पिघल रही थी। उछल-उछल आते पानी के भंवरों से टकराकर कगारे गिर रहे थे लेकिन दूर-दूर तक बिछी रेत आज न जाने क्यों खामोश लगती थी! शाहनी ने कपड़े पहने, इधर-उधर देखा, कहीं किसी की परछाई तक न थी। पर नीचे रेत में अगणित पांवों के निशान थे। वह कुछ सहम-सी उठी!

आज इस प्रभात की मीठी नीरवता में न जाने क्यों कुछ भयावना-सा लग रहा है। वह पिछले पचास वर्षों से यहां नहाती आ रही है। कितना लम्बा अरसा है! शाहनी सोचती है, एक दिन इसी दुनिया के किनारे वह दुलहिन बनकर उतरी थी। और आज…आज शाहजी नहीं, उसका वह पढ़ा-लिखा लड़का नहीं, आज वह अकेली है, शाहजी की लम्बी-चौड़ी हवेली में अकेली है। पर नहींयह क्या सोच रही है वह सवेरे-सवेरे! अभी भी दुनियादारी से मन नहीं फिरा उसका! शाहनी ने लम्बी सांस ली और ‘श्री राम, श्री राम’, करती बाजरे के खेतों से होती घर की राह ली। कहीं-कहीं लिपे-पुते आंगनों पर से धुआं उठ रहा था। टनटनबैलों, की घंटियां बज उठती हैं। फिर भी…फिर भी कुछ बंधा-बंधा-सा लग रहा है। ‘जम्मीवाला’ कुआं भी आज नहीं चल रहा। ये शाहजी की ही असामियां हैं। शाहनी ने नंजर उठायी। यह मीलों फैले खेत अपने ही हैं। भरी-भरायी नई फसल को देखकर शाहनी किसी अपनत्व के मोह में भीग गयी। यह सब शाहजी की बरकतें हैं। दूर-दूर गांवों तक फैली हुई जमीनें, जमीनों में कुएं सब अपने हैं। साल में तीन फसल, जमीन तो सोना उगलती है। शाहनी कुएं की ओर बढ़ी, आवांज दी, “शेरे, शेरे, हसैना हसैना…।”

शेरा शाहनी का स्वर पहचानता है। वह न पहचानेगा! अपनी मां जैना के मरने के बाद वह शाहनी के पास ही पलकर बड़ा हुआ। उसने पास पड़ा गंडासा ‘शटाले’ के ढेर के नीचे सरका दिया। हाथ में हुक्का पकड़कर बोला”ऐ हैसैना-सैना…।” शाहनी की आवांज उसे कैसे हिला गयी है! अभी तो वह सोच रहा था कि उस शाहनी की ऊंची हवेली की अंधेरी कोठरी में पड़ी सोने-चांदी की सन्दूकचियां उठाकर…कि तभी ‘शेरे शेरे…। शेरा गुस्से से भर गया। किस पर निकाले अपना क्रोध? शाहनी पर! चीखकर बोला”ऐ मर गयीं एं एब्ब तैनू मौत दे”

हसैना आटेवाली कनाली एक ओर रख, जल्दी-जल्दी बाहिर निकल आयी। “ऐ आयीं आं क्यों छावेले (सुबह-सुबह) तड़पना एं?”

अब तक शाहनी नंजदीक पहुंच चुकी थी। शेरे की तेजी सुन चुकी थी। प्यार से बोली, “हसैना, यह वक्त लड़ने का है? वह पागल है तो तू ही जिगरा कर लिया कर।”

“जिगरा !” हसैना ने मान भरे स्वर में कहा”शाहनी, लड़का आंखिर लड़का ही है। कभी शेरे से भी पूछा है कि मुंह अंधेरे ही क्यों गालियां बरसाई हैं इसने?” शाहनी ने लाड़ से हसैना की पीठ पर हाथ फेरा, हंसकर बोली”पगली मुझे तो लड़के से बहू प्यारी है! शेरे”

“हां शाहनी!”

“मालूम होता है, रात को कुल्लूवाल के लोग आये हैं यहां?” शाहनी ने गम्भीर स्वर में कहा।

शेरे ने जरा रुककर, घबराकर कहा, “नहीं शाहनी…” शेरे के उत्तर की अनसुनी कर शाहनी जरा चिन्तित स्वर से बोली, “जो कुछ भी हो रहा है, अच्छा नहीं। शेरे, आज शाहजी होते तो शायद कुछ बीच-बचाव करते। पर…” शाहनी कहते-कहते रुक गयी। आज क्या हो रहा है। शाहनी को लगा जैसे जी भर-भर आ रहा है। शाहजी को बिछुड़े कई साल बीत गये, परपर आज कुछ पिघल रहा है शायद पिछली स्मृतियां…आंसुओं को रोकने के प्रयत्न में उसने हसैना की ओर देखा और हल्के-से हंस पड़ी। और शेरा सोच ही रहा है, क्या कह रही है शाहनी आज! आज शाहनी क्या, कोई भी कुछ नहीं कर सकता। यह होके रहेगा क्यों न हो? हमारे ही भाई-बन्दों से सूद ले-लेकर शाहजी सोने की बोरियां तोला करते थे। प्रतिहिंसा की आग शेरे की आंखों में उतर आयी। गंड़ासे की याद हो आयी। शाहनी की ओर देखानहीं-नहीं, शेरा इन पिछले दिनों में तीस-चालीस कत्ल कर चुका है परपर वह ऐसा नीच नहीं…सामने बैठी शाहनी नहीं, शाहनी के हाथ उसकी आंखों में तैर गये। वह सर्दियों की रातें कभी-कभी शाहजी की डांट खाके वह हवेली में पड़ा रहता था। और फिर लालटेन की रोशनी में वह देखता है, शाहनी के ममता भरे हाथ दूध का कटोरा थामे हुए ‘शेरे-शेरे, उठ, पी ले।’ शेरे ने शाहनी के झुर्रियां पड़े मुंह की ओर देखा तो शाहनी धीरे से मुस्करा रही थी। शेरा विचलित हो गया। ‘आंखिर शाहनी ने क्या बिगाड़ा है हमारा? शाहजी की बात शाहजी के साथ गयी, वह शाहनी को जरूर बचाएगा। लेकिन कल रात वाला मशवरा! वह कैसे मान गया था फिरोंज की बात! ‘सब कुछ ठीक हो जाएगासामान बांट लिया जाएगा!’

“शाहनी चलो तुम्हें घर तक छोड़ आऊं!”

शाहनी उठ खड़ी हुई। किसी गहरी सोच में चलती हुई शाहनी के पीछे-पीछे मंजबूत कदम उठाता शेरा चल रहा है। शंकित-सा-इधर उधर देखता जा रहा है। अपने साथियों की बातें उसके कानों में गूंज रही हैं। पर क्या होगा शाहनी को मारकर?

“शाहनी!”

“हां शेरे।”

शेरा चाहता है कि सिर पर आने वाले खतरे की बात कुछ तो शाहनी को बता दे, मगर वह कैसे कहे?”

“शाहनी”

शाहनी ने सिर ऊंचा किया। आसमान धुएं से भर गया था। “शेरे”

शेरा जानता है यह आग है। जबलपुर में आज आग लगनी थी लग गयी! शाहनी कुछ न कह सकी। उसके नाते रिश्ते सब वहीं हैं

हवेली आ गयी। शाहनी ने शून्य मन से डयोढ़ी में कदम रक्खा। शेरा कब लौट गया उसे कुछ पता नहीं। दुर्बल-सी देह और अकेली, बिना किसी सहारे के! न जाने कब तक वहीं पड़ी रही शाहनी। दुपहर आयी और चली गयी। हवेली खुली पड़ी है। आज शाहनी नहीं उठ पा रही। जैसे उसका अधिकार आज स्वयं ही उससे छूट रहा है! शाहजी के घर की मालकिन…लेकिन नहीं, आज मोह नहीं हट रहा। मानो पत्थर हो गयी हो। पड़े-पड़े सांझ हो गयी, पर उठने की बात फिर भी नहीं सोच पा रही। अचानक रसूली की आवांज सुनकर चौंक उठी।

“शाहनी-शाहनी, सुनो ट्रकें आती हैं लेने?”

“ट्रके…?” शााहनी इसके सिवाय और कुछ न कह सकी। हाथों ने एक-दूसरे को थाम लिया। बात की बात में खबर गांव भर में फैल गयी। बीबी ने अपने विकृत कण्ठ से कहा”शाहनी, आज तक कभी ऐसा न हुआ, न कभी सुना। गजब हो गया, अंधेर पड़ गया।”

शाहनी मूर्तिवत् वहीं खड़ी रही। नवाब बीबी ने स्नेह-सनी उदासी से कहा”शाहनी, हमने तो कभी न सोचा था!”

शाहनी क्या कहे कि उसीने ऐसा सोचा था। नीचे से पटवारी बेगू और जैलदार की बातचीत सुनाई दी। शाहनी समझी कि वक्त आन पहुंचा। मशीन की तरह नीचे उतरी, पर डयोढ़ी न लांघ सकी। किसी गहरी, बहुत गहरी आवांज से पूछा”कौन? कौन हैं वहां?”

कौन नहीं है आज वहां? सारा गांव है, जो उसके इशारे पर नाचता था कभी। उसकी असामियां हैं जिन्हें उसने अपने नाते-रिश्तों से कभी कम नहीं समझा। लेकिन नहीं, आज उसका कोई नहीं, आज वह अकेली है! यह भीड़ की भीड़, उनमें कुल्लूवाल के जाट। वह क्या सुबह ही न समझ गयी थी?

बेगू पटवारी और मसीत के मुल्ला इस्माइल ने जाने क्या सोचा। शाहनी के निकट आ खड़े हुए। बेगू आज शाहनी की ओर देख नहीं पा रहा। धीरे से जरा गला सांफ करते हुए कहा”शाहनी, रब्ब नू एही मंजूर सी।”

शाहनी के कदम डोल गये। चक्कर आया और दीवार के साथ लग गयी। इसी दिन के लिए छोड़ गये थे शाहजी उसे? बेजान-सी शाहनी की ओर देखकर बेगू सोच रहा है ‘क्या गुंजर रही है शाहनी पर! मगर क्या हो सकता है! सिक्का बदल गया है…’

शाहनी का घर से निकलना छोटी-सी बात नहीं। गांव का गांव खड़ा है हवेली के दरवाजे से लेकर उस दारे तक जिसे शाहजी ने अपने पुत्र की शादी में बनवा दिया था। तब से लेकर आज तक सब फैसले, सब मशविरे यहीं होते रहे हैं। इस बड़ी हवेली को लूट लेने की बात भी यहीं सोची गयी थी! यह नहीं कि शाहनी कुछ न जानती हो। वह जानकर भी अनजान बनी रही। उसने कभी बैर नहीं जाना। किसी का बुरा नहीं किया। लेकिन बूढ़ी शाहनी यह नहीं जानती कि सिक्का बदल गया है…

देर हो रही थी। थानेदार दाऊद खां जरा अकड़कर आगे आया और डयोढ़ी पर खड़ी जड़ निर्जीव छाया को देखकर ठिठक गया! वही शाहनी है जिसके शाहजी उसके लिए दरिया के किनारे खेमे लगवा दिया करते थे। यह तो वही शाहनी है जिसने उसकी मंगेतर को सोने के कनफूल दिये थे मुंह दिखाई में। अभी उसी दिन जब वह ‘लीग’ के सिलसिले में आया था तो उसने उद्दंडता से कहा था’शाहनी, भागोवाल मसीत बनेगी, तीन सौ रुपया देना पड़ेगा!’ शाहनी ने अपने उसी सरल स्वभाव से तीन सौ रुपये दिये थे। और आज…?

“शाहनी!” डयोढ़ी के निकट जाकर बोला”देर हो रही है शाहनी। (धीरे से) कुछ साथ रखना हो तो रख लो। कुछ साथ बांध लिया है? सोना-चांदी”

शाहनी अस्फुट स्वर से बोली”सोना-चांदी!” जरा ठहरकर सादगी से कहा”सोना-चांदी! बच्चा वह सब तुम लोगों के लिए है। मेरा सोना तो एक-एक जमीन में बिछा है।”

दाऊद खां लज्जित-सा हो गया। “शाहनी तुम अकेली हो, अपने पास कुछ होना जरूरी है। कुछ नकदी ही रख लो। वक्त का कुछ पता नहीं”

“वक्त?” शाहनी अपनी गीली आंखों से हंस पड़ी। “दाऊद खां, इससे अच्छा वक्त देखने के लिए क्या मैं जिन्दा रहूंगी!” किसी गहरी वेदना और तिरस्कार से कह दिया शाहनी ने।

दाऊद खां निरुत्तर है। साहस कर बोला”शाहनी कुछ नकदी जरूरी है।”

“नहीं बच्चा मुझे इस घर से”शाहनी का गला रुंध गया”नकदी प्यारी नहीं। यहां की नकदी यहीं रहेगी।”

शेरा आन खड़ा गुजरा कि हो ना हो कुछ मार रहा है शाहनी से। “खां साहिब देर हो रही है”

शाहनी चौंक पड़ी। देरमेरे घर में मुझे देर ! आंसुओं की भँवर में न जाने कहाँ से विद्रोह उमड़ पड़ा। मैं पुरखों के इस बड़े घर की रानी और यह मेरे ही अन्न पर पले हुए…नहीं, यह सब कुछ नहीं। ठीक हैदेर हो रही हैपर नहीं, शाहनी रो-रोकर नहीं, शान से निकलेगी इस पुरखों के घर से, मान से लाँघेगी यह देहरी, जिस पर एक दिन वह रानी बनकर आ खड़ी हुई थी। अपने लड़खड़ाते कदमों को संभालकर शाहनी ने दुपट्टे से आंखें पोछीं और डयोढ़ी से बाहर हो गयी। बडी-बूढ़ियाँ रो पड़ीं। किसकी तुलना हो सकती थी इसके साथ! खुदा ने सब कुछ दिया था, मगरमगर दिन बदले, वक्त बदले…

शाहनी ने दुपट्टे से सिर ढाँपकर अपनी धुंधली आंखों में से हवेली को अन्तिम बार देखा। शाहजी के मरने के बाद भी जिस कुल की अमानत को उसने सहेजकर रखा आज वह उसे धोखा दे गयी। शाहनी ने दोनों हाथ जोड़ लिए यही अन्तिम दर्शन था, यही अन्तिम प्रणाम था। शाहनी की आंखें फिर कभी इस ऊंची हवेली को न देखी पाएंगी। प्यार ने जोर मारासोचा, एक बार घूम-फिर कर पूरा घर क्यों न देख आयी मैं? जी छोटा हो रहा है, पर जिनके सामने हमेशा बड़ी बनी रही है उनके सामने वह छोटी न होगी। इतना ही ठीक है। बस हो चुका। सिर झुकाया। डयोढ़ी के आगे कुलवधू की आंखों से निकलकर कुछ बन्दें चू पड़ीं। शाहनी चल दीऊंचा-सा भवन पीछे खड़ा रह गया। दाऊद खां, शेरा, पटवारी, जैलदार और छोटे-बड़े, बच्चे, बूढ़े-मर्द औरतें सब पीछे-पीछे।

ट्रकें अब तक भर चुकी थीं। शाहनी अपने को खींच रही थी। गांववालों के गलों में जैसे धुंआ उठ रहा है। शेरे, खूनी शेरे का दिल टूट रहा है। दाऊद खां ने आगे बढ़कर ट्रक का दरवांजा खोला। शाहनी बढ़ी। इस्माइल ने आगे बढ़कर भारी आवांज से कहा” शाहनी, कुछ कह जाओ। तुम्हारे मुंह से निकली असीस झूठ नहीं हो सकती!” और अपने साफे से आंखों का पानी पोछ लिया। शाहनी ने उठती हुई हिचकी को रोककर रुंधे-रुंधे से कहा, “रब्ब तुहानू सलामत रक्खे बच्चा, खुशियां बक्शे…।”

वह छोटा-सा जनसमूह रो दिया। जरा भी दिल में मैल नहीं शाहनी के। और हमहम शाहनी को नहीं रख सके। शेरे ने बढ़कर शाहनी के पांव छुए, “शाहनी कोई कुछ कर नहीं सका। राज भी पलट गया” शाहनी ने कांपता हुआ हाथ शेरे के सिर पर रक्खा और रुक-रुककर कहा”तैनू भाग जगण चन्ना!” (ओ चा/द तेरे भाग्य जागें) दाऊद खां ने हाथ का संकेत किया। कुछ बड़ी-बूढ़ियां शाहनी के गले लगीं और ट्रक चल पड़ी।

अन्न-जल उठ गया। वह हवेली, नई बैठक, ऊंचा चौबारा, बड़ा ‘पसार’ एक-एक करके घूम रहे हैं शाहनी की आंखों में! कुछ पता नहींट्रक चल दिया है या वह स्वयं चल रही है। आंखें बरस रही हैं। दाऊद खां विचलित होकर देख रहा है इस बूढ़ी शाहनी को। कहां जाएगी अब वह?

“शाहनी मन में मैल न लाना। कुछ कर सकते तो उठा न रखते! वकत ही ऐसा है। राज पलट गया है, सिक्का बदल गया है…”

रात को शाहनी जब कैंप में पहुंचकर जमीन पर पड़ी तो लेटे-लेटे आहत मन से सोचा ‘राज पलट गया है…सिक्का क्या बदलेगा? वह तो मैं वहीं छोड़ आयी।…’

और शाहजी की शाहनी की आंखें और भी गीली हो गयीं!

आसपास के हरे-हरे खेतों से घिरे गांवों में रात खून बरसा रही थी।

शायद राज पलटा भी खा रहा था और सिक्का बदल रहा था..