Sunday, November 1, 2020

सयानी बुआ - मन्नू भण्डारी। Sayani Bua by Mannu Bhandari


सब पर मानो बुआजी का व्यक्तित्व हावी है। सारा काम वहाँ इतनी व्यवस्था से होता जैसे सब मशीनें हों, जो क़ायदे में बँधीं, बिना रुकावट अपना काम किए चली जा रही हैं। ठीक पाँच बजे सब लोग उठ जाते, फिर एक घंटा बाहर मैदान में टहलना होता, उसके बाद चाय-दूध होता। उसके बाद अन्नू को पढ़ने के लिए बैठना होता। भाई साहब भी तब अख़बार और ऑफ़िस की फ़ाइलें आदि देखा करते। नौ बजते ही नहाना शुरू होता। जो कपड़े बुआजी निकाल दें, वही पहनने होते। फिर क़ायदे से आकर मेज़ पर बैठ जाओ और खाकर काम पर जाओ।

सयानी बुआ का नाम वास्तव में ही सयानी था या उनके सयानेपन को देखकर लोग उन्हें सयानी कहने लगे थे, सो तो मैं आज भी नहीं जानती, पर इतना अवश्य कहूँगी कि जिसने भी उनका यह नाम रखा, वह नामकरण विद्या का अवश्य पारखी रहा होगा।

बचपन में ही वे समय की जितनी पाबंद थीं, अपना सामान सम्भालकर रखने में जितनी पटु थीं, और व्यवस्था की जितना क़ायल थीं, उसे देखकर चकित हो जाना पड़ता था। कहते हैं, जो पेंसिल वे एक बार ख़रीदती थीं, वह जब तक इतनी छोटी न हो जाती कि उनकी पकड़ में भी न आए तब तक उससे काम लेती थीं। क्या मजाल कि वह कभी खो जाए या बार-बार नाेंक टूटकर समय से पहले ही समाप्त हो जाए। जो रबर उन्होंने चौथी कक्षा में ख़रीदी थी, उसे नौवीं कक्षा में आकर समाप्त किया।

उम्र के साथ-साथ उनकी आवश्यकता से अधिक चतुराई भी प्रौढ़ता धारण करती गई और फिर बुआजी के जीवन में इतनी अधिक घुल-मिल गई कि उसे अलग करके बुआजी की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। उनकी एक-एक बात पिताजी हम लोगों के सामने उदाहरण के रूप में रखते थे जिसे सुनकर हम सभी ख़ैर मनाया करते थे कि भगवान करे, वे ससुराल में ही रहा करें, वर्ना हम जैसे अस्त-व्यस्त और अव्यवस्थित-जनों का तो जीना ही हराम हो जाएगा।

ऐसी ही सयानी बुआ के पास जाकर पढ़ने का प्रस्ताव जब मेरे सामने रखा गया तो कल्पना कीजिए, मुझ पर क्या बीती होगी? मैंने साफ़ इंकार कर दिया कि मुझे आगे पढ़ना ही नहीं। पर पिताजी मेरी पढ़ाई के विषय में इतने सतर्क थे कि उन्होंने समझाकर, डाँटकर और प्यार-दुलार से मुझे राज़ी कर लिया। सच में, राज़ी तो क्या कर लिया, समझिए अपनी इच्छा पूरी करने के लिए बाध्य कर दिया। और भगवान का नाम गुहारते-गुहारते मैंने घर से विदा ली और उनके यहाँ पहुँची।

इसमें संदेह नहीं कि बुआजी ने बड़ा स्वागत किया। पर बचपन से उनकी ख्याति सुनते-सुनते उनका जो रौद्र रूप मन पर छाया हुआ था, उसमें उनका वह प्यार कहाँ तिरोहित हो गया, मैं जान ही न पायी। हाँ, बुआजी के पति, जिन्हें हम भाई साहब कहते थे, बहुत ही अच्छे स्वभाव के व्यक्ति थे। और सबसे अच्छा कोई घर में लगा तो उनकी पाँच वर्ष की पुत्री अन्नू।

घर के इस नीरस और यंत्रचालित कार्यक्रम में अपने को फ़िट करने में मुझे कितना कष्ट उठाना पड़ा और कितना अपने को काटना-छाँटना पड़ा, यह मेरा अंतर्यामी ही जानता है। सबसे अधिक तरस आता था अन्नू पर। वह इस नन्ही-सी उमर में ही प्रौढ़ हो गई थी। न बच्चों का-सा उल्लास, न कोई चहचहाहट। एक अज्ञात भय से वह घिरी रहती थी। घर के उस वातावरण में कुछ ही दिनों में मेरी भी सारी हँसी-ख़ुशी मारी गई।

यों बुआजी की गृहस्थी जमे पंद्रह वर्ष बीच चुके थे, पर उनके घर का सारा सामान देखकर लगता था, मानाें सब कुछ अभी कल ही ख़रीदा हो। गृहस्थी जमाते समय जो काँच और चीनी के बर्तन उन्होंने ख़रीदे थे, आज भी ज्यों-के-त्यों थे, जबकि रोज़ उनका उपयोग होता था। वे सारे बर्तन स्वयं खड़ी होकर साफ़ करवाती थीं। क्या मजाल, कोई एक चीज़ भी तोड़ दे। एक बार नौकर ने सुराही तोड़ दी थी। उस छोटे-से छोकरे को उन्होंने इस कसूर पर बहुत पीटा था। तोड़-फोड़ से तो उन्हें सख़्त नफ़रत थी, यह बात उनकी बर्दाश्त के बाहर थी। उन्हें बड़ा गर्व था अपनी इस सुव्यवस्था का। वे अक्सर भाई साहब से कहा करती थीं कि यदि वे इस घर में न आतीं तो न जाने बेचारे भाई साहब का क्या हाल होता। मैं मन-ही-मन कहा करती थी कि और चाहे जो भी हाल होता, हम सब मिट्टी के पुतले न होकर कम-से-कम इंसान तो अवश्य हुए होते।

बुआजी की अत्यधिक सतर्कता और खाने-पीने के इतने कंट्रोल के बावजूद अन्नू को बुख़ार आने लगा, सब प्रकार के उपचार करने-कराने में पूरा महीना बीत गया, पर उसका बुख़ार न उतरा। बुआजी की परेशानी का पार नहीं, अन्नू एकदम पीली पड़ गई। उसे देखकर मुझे लगता मानो उसके शरीर में ज्वर के कीटाणु नहीं, बुआजी के भय के कीटाणु दौड़ रहे हैं, जो उसे ग्रसते जा रहे हैं। वह उनसे पीड़ित होकर भी भय के मारे कुछ कह तो सकती नहीं थी, बस सूखती जा रही है।

आख़िर डॉक्टरों ने कई प्रकार की परीक्षाओं के बाद राय दी कि बच्ची को पहाड़ पर ले जाया जाए, और जितना अधिक उसे प्रसन्न रखा जा सके, रखा जाए। सब कुछ उसके मन के अनुसार हो, यही उसका सही इलाज है। पर सच पूछो तो बेचारी का मन बचा ही कहाँ था? भाई साहब के सामने एक विकट समस्या थी। बुआजी के रहते यह सम्भव नहीं था, क्योंकि अनजाने ही उनकी इच्छा के सामने किसी और की इच्छा चल ही नहीं सकती थी। भाई साहब ने शायद सारी बात डॉक्टर के सामने रख दी, तभी डॉक्टर ने कहा कि माँ का साथ रहना ठीक नहीं होगा। बुआजी ने सुना तो बहुत आनाकानी की, पर डॉक्टर की राय के विरुद्ध जाने का साहस वे कर नहीं सकीं सो मन मारकर वहीं रहीं।

ज़ोर-शोर से अन्नू के पहाड़ जाने की तैयारी शुरू हुई। पहले दोनों के कपड़ों की लिस्ट बनी, फिर जूतों की, मोजों की, गरम कपड़ों की, ओढ़ने-बिछाने के सामान की, बर्तनों की। हर चीज़ रखते समय वे भाई साहब को सख़्त हिदायत कर देती थीं कि एक भी चीज़ खोनी नहीं चाहिए— “देखो, यह फ़्रॉक मत खो देना, सात रुपए मैंने इसकी सिलाई दी है। यह प्याले मत तोड़ देना, वरना पचास रुपए का सेट बिगड़ जाएगा। और हाँ, गिलास को तुम तुच्छ समझते हो, उसकी परवाह ही नहीं करोगे, पर देखो, यह पंद्रह बरस से मेरे पास है और कहीं खरोंच तक नहीं है, तोड़ दिया तो ठीक न होगा।”

प्रत्येक वस्तु की हिदायत के बाद वे अन्नू पर आयीं। वह किस दिन, किस समय क्या खाएगी, उसका मीनू बना दिया। कब कितना घूमेगी, क्या पहनेगी, सब कुछ निश्चित कर दिया। मैं सोच रही थी कि यहाँ बैठे-बैठे ही बुआजी ने इन्हें ऐसा बाँध दिया कि बेचारे अपनी इच्छा के अनुसार क्या ख़ाक करेंगे! सब कह चुकीं तो ज़रा आर्द्र स्वर में बोलीं, “कुछ अपना भी ख़याल रखना, दूध-फल बराबर खाते रहना।”

हिदायतों की इतनी लम्बी सूची के बाद भी उन्हें यही कहना पड़ा, “जाने तुम लोग मेरे बिना कैसे रहोगे, मेरा तो मन ही नहीं मानता। हाँ, बिना भूले रोज़ एक चिट्ठी डाल देना।”

आख़िर वह क्षण भी आ पहुँचा, जब भाई साहब एक नौकर और अन्नू को लेकर चले गए। बुआजी ने अन्नू को ख़ूब प्यार किया, रोयीं भी। उनका रोना मेरे लिए नयी बात थी। उसी दिन पहली बार लगा कि उनकी भयंकर कठोरता में कहीं कोमलता भी छिपी है। जब तक ताँगा दिखायी देता रहा, वे उसे देखती रहीं, उसके बाद कुछ क्षण निर्जीव-सी होकर पड़ी रहीं। पर दूसरे ही दिन से घर फिर वैसे ही चलने लगा।

भाई साहब का पत्र रोज़ आता था, जिसमें अन्नू की तबीयत के समाचार रहते थे। बुआजी भी रोज़ एक पत्र लिखती थीं, जिसमें अपनी उन मौखिक हिदायतों को लिखित रूप से दोहरा दिया करती थीं। पत्रों की तारीख़ में अंतर रहता था। बात शायद सबमें वही रहती थी। मेरे तो मन में आता कि कह दूँ, बुआजी रोज़ पत्र लिखने का कष्ट क्यों करती हैं? भाई साहब को लिख दीजिए कि एक पत्र गत्ते पर चिपकाकर पलंग के सामने लटका लें और रोज़ सबेरे उठकर पढ़ लिया करें। पर इतना साहस था नहीं कि यह बात कह सकूँ।

क़रीब एक महीने के बाद एक दिन भाई साहब का पत्र नहीं आया। दूसरे दिन भी नहीं आया। बुआजी बड़ी चिंतित हो उठीं। उस दिन उनका मन किसी भी काम में नहीं लगा। घर की कसी-कसायी व्यवस्था कुछ शिथिल-सी मालूम होने लगी। तीसरा दिन भी निकल गया।

अब तो बुआजी की चिंता का पार नहीं रहा। रात को वे मेरे कमरे में आकर सोयीं, पर सारी रात दुःस्वप्न देखती रहीं और रोती रहीं। मानो उनका वर्षों से जमा हुआ नारीत्व पिघल पड़ा था और अपने पूरे वेग के साथ बह रहा था। वे बार-बार कहतीं कि उन्होंने स्वप्न में देखा है कि भाई साहब अकेले चले आ रहे हैं, अन्नू साथ नहीं है और उनकी आँखें भी लाल हैं और वे फूट-फूटकर रो पड़तीं। मैं तरह-तरह से उन्हें आश्वासन देती, पर बस वे तो कुछ सुन नहीं रही थीं। मेरा मन भी कुछ अन्नू के ख़याल से, कुछ बुआजी की यह दशा देखकर बड़ा दुःखी हो रहा था।

तभी नौकर ने भाई साहब का पत्र लाकर दिया। बड़ी व्यग्रता से काँपते हाथों से उन्होंने उसे खोला और पढ़ने लगीं। मैं भी साँस रोककर बुआजी के मुँह की ओर देख रही थी कि एकाएक पत्र फेंककर सिर पीटतीं बुआजी चीख़कर रो पड़ीं। मैं धक् रह गई। आगे कुछ सोचने का साहस ही नहीं होता था। आँखों के आगे अन्नू की भोली-सी, नन्ही-सी तस्वीर घूम गई। तो क्या अब अन्नू सचमुच ही संसार में नहीं है? यह सब कैसे हो गया? मैंने साहस करके भाई साहब का पत्र उठाया। लिखा था—

प्रिय सयानी,

समझ में नहीं आता, किस प्रकार तुम्हें यह पत्र लिखूँ। किस मुँह से तुम्हें यह दुःखद समाचार सुनाऊँ। फिर भी रानी, तुम इस चोट को धैर्यपूर्वक सह लेना। जीवन में दुःख की घड़ियाँ भी आती हैं, और उन्हें साहसपूर्वक सहने में ही जीवन की महानता है। यह संसार नश्वर है। जो बना है वह एक-न-एक दिन मिटेगा ही, शायद इस तथ्य को सामने रखकर हमारे यहाँ कहा है कि संसार की माया से मोह रखना दुःख का मूल है। तुम्हारी इतनी हिदायतों के और अपनी सारी सतर्कता के बावजूद मैं उसे नहीं बचा सका, इसे अपने दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कहूँ। यह सब कुछ मेरे ही हाथों होना था…

आँसू-भरी आँखों के कारण शब्दों का रूप अस्पष्ट से अस्पष्टतर होता जा रहा था और मेरे हाथ काँप रहे थे। अपने जीवन में यह पहला अवसर था, जब मैं इस प्रकार किसी की मृत्यु का समाचार पढ़ रही थी। मेरी आँखें शब्दों को पार करतीं हुई जल्दी-जल्दी पत्र के अंतिम हिस्से पर जा पड़ीं—

धैर्य रखना मेरी रानी, जो कुछ हुआ, उसे सहने की और भूलने की कोशिश करना। कल चार बजे तुम्हारे पचास रुपए वाले सेट के दोनों प्याले मेरे हाथ से गिरकर टूट गए। अन्नू अच्छी है। शीघ्र ही हम लोग रवाना होने वाले हैं।

एक मिनट तक मैं हतबुद्धि-सी खड़ी रही, समझ ही नहीं पायी कि यह क्या-से-क्या हो गया। यह दूसरा सदमा था। ज्यों ही कुछ समझी, मैं ज़ोर से हँस पड़ी। किस प्रकार मैंने बुआजी को सत्य से अवगत कराया, वह सब मैं कोशिश करके भी नहीं लिख सकूँगी। पर वास्तविकता जानकर बुआजी भी रोते-रोते हँस पड़ीं। पाँच आने की सुराही तोड़ देने पर नौकर को बुरी तरह पीटने वाली बुआजी पचास रुपए वाले सेट के प्याले टूट जाने पर भी हँस रही थीं, दिल खोलकर हँस रही थीं, मानो उन्हें स्वर्ग की निधि मिल गई हो।

एक प्लेट सैलाब - मन्नू भंडारी। Ek Plate Sailab by Mannu Bhandari


मई की साँझ!

साढ़े छह बजे हैं। कुछ देर पहले जो धूप चारों ओर फैली पड़ी थी, अब फीकी पड़कर इमारतों की छतों पर सिमट आयी है, मानो निरन्तर समाप्त होते अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए उसने कसकर कगारों को पकड़ लिया हो।

आग बरसाती हुई हवा धूप और पसीने की बदबू से बहुत बोझिल हो आयी है। पाँच बजे तक जितने भी लोग ऑफ़िस की बड़ी-बड़ी इमारतों में बन्द थे, इस समय बरसाती नदी की तरह सड़कों पर फैल गए हैं। रीगल के सामनेवाले फ़ुट पाथ पर चलनेवालों और हॉकर्स का मिला-जुला शोर चारों और गूँज रहा हैं। गजरे बेचनेवालों के पास से गुज़रने पर सुगन्ध भरी तरावट का अहसास होता है, इसीलिए न ख़रीदने पर भी लोगों को उनके पास खड़ा होना या उनके पास से गुज़रना अच्छा लगता है।

टी-हाउस भरा हुआ है। उसका अपना ही शोर काफ़ी है, फिर बाहर का सारा शोर-शराबा बिना किसी रुकावट के खुले दरवाज़ों से भीतर आ रहा है। छतों पर फ़ुल स्पीड में घूमते पंखे भी जैसे आग बरसा रहे हैं। एक क्षण को आँख मूँद लो तो आपको पता ही नहीं लगेगा कि आप टी-हाउस में हैं या फुटपाथ पर। वही गरमी, वही शोर।

गे-लॉर्ड भी भरा हुआ है। पुरुष अपने एयर-कण्डिशण्ड चेम्बरों से थककर और औरतें अपने-अपने घरों से ऊबकर मन बहलाने के लिए यहाँ आ बैठे हैं। यहाँ न गरमी है, न भन्नाता हुआ शोर। चारों ओर हल्का, शीतल, दूधिया आलोक फैल रहा है और विभिन्न सेण्टों की मादक कॉकटेल हवा में तैर रही है। टेबिलों पर से उठते हुए फुसफुसाते-से स्वर संगीत में ही डूब जाते हैं।

गहरा मेक-अप किए डायस पर जो लड़की गा रही है, उसने अपनी स्कर्ट की बेल्ट ख़ूब कसकर बाँध रखी है, जिससे उसकी पतली कमर और भी पतली दिखायी दे रही है और उसकी तुलना में छातियों का उभार कुछ और मुखर हो उठा है। एक हाथ से उसने माइक का डण्डा पकड़ रखा है और जूते की टो से वह ताल दे रही है। उसके होठों से लिपस्टिक भी लिपटी है और मुस्कान भी। गाने के साथ-साथ उसका सारा शरीर एक विशेष अदा के साथ झूम रहा है।

पास में दोनों हाथों से झुनझुने-से बजाता जो व्यक्ति सारे शरीर को लचका-लचकाकर ताल दे रहा है, वह नीग्रो है। बीच-बीच में जब वह उसकी ओर देखती है तो आँखें मिलते ही दोनों ऐसे हँस पड़ते हैं मानो दोनों के बीच कहीं ‘कुछ’ है। पर कुछ दिन पहले जब एक एंग्लो-इण्डियन उसके साथ बजाता था, तब भी यह ऐसे ही हँसती थी, तब भी इसकी आँखें ऐसे की चमकती थीं। इसकी हँसी और इसकी आँखों की चमक का इसके मन के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। वे अलग ही चलती हैं।

डायस की बग़लवाली टेबिल पर एक युवक और युवती बैठे हैं। दोनों के सामने पाइनएप्पल जूस के ग्लास रखे हैं। युवती का ग्लास आधे से अधिक ख़ाली हो गया है, पर युवक ने शायद एक-दो सिप ही लिए हैं। वह केवल स्ट्रॉ हिला रहा है।

युवती दुबली और गौरी है। उसके बाल कटे हुए हैं। सामने आ जाने पर सिर को झटक देकर वह उन्हें पीछे कर देती है। उसकी कलफ़ लगी साड़ी का पल्ला इतना छोटा है कि कन्धे से मुश्किल से छह इंच नीचे तक आ पाया है। चोलीनुमा ब्लाउज़ से ढकी उसकी पूरी की पूरी पीठ दिखायी दे रही है।

“तुम कल बाहर गयी थीं?” युवक बहुत ही मुलायम स्वर में पूछता है।

“क्यों?” बाँयें हाथ की लम्बी-लम्बी पतली उँगलियों से ताल देते-देते ही वह पूछती है।

“मैंने फ़ोन किया था।”

“अच्छा? पर किसलिए? आज मिलने की बात तो तय हो ही गयी थी।”

“यों ही तुमसे बात करने का मन हो आया था।”

युवक को शायद उम्मीद थी कि उसकी बात की युवती के चेहरे पर कोई सुखद प्रतिक्रिया होगी। पर वह हल्के से हँस दी। युवक उत्तर की प्रतीक्षा में उसके चेहरे की ओर देखता रहा, पर युवती का ध्यान शायद इधर-उधर के लोगों में उलझ गया था। इस पर युवक खिन्न हो गया। वह युवती के मुँह से सुनना चाह रहा था कि वह कल विपिन के साथ स्कूटर पर घूम रही थी। इस बात के जवाब में वह क्या-क्या करेगा—यह सब भी उसने सोच लिया था और कल शाम से लेकर अभी युवती के आने से पहले तक उसको कई बार दोहरा भी लिया था। पर युवती की चुप्पी से सब गड़बड़ा गया। वह अब शायद समझ ही नहीं पा रहा था कि बात कैसे शुरू करे।

“ओ गोरा!” बाल्कनी की ओर देखते हुए युवती के मुँह से निकला—

“यह सारी की सारी बाल्कनी किसने रिजर्व करवा ली?” बाल्कनी की रेलिंग पर एक छोटी-सी प्लास्टिक की सफ़ेद तख़्ती लगी थी, जिस पर लाल अक्षरों में लिखा था— ‘रिज़र्व्ड’।

युवक ने सिर झुकाकर एक सिप लिया— “मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूँ।”

उसकी आवाज़ कुछ भारी हो आयी थी, जैसे गला बैठ गया हो। युवती ने सिप लेकर अपनी आँखें युवक के चेहरे पर टिका दीं। वह हल्के-हल्के मुस्करा रही थी और युवक को उसकी मुस्कराहट से थोड़ा कष्ट हो रहा था।

“देखो, मैं इस सारी बात में बहुत गम्भीर हूँ।” झिझकते-से स्वर में वह बोला।

“गम्भीर?” युवती खिलखिला पड़ी तो उसके बाल आगे को झूल आए। सिर झटककर उसने उन्हें पीछे किया।

“मैं तो किसी भी चीज़ को गम्भीरता से लेने में विश्वास ही नहीं करती। ये दिन तो हँसने-खेलने के हैं, हर चीज़ को हल्के-फुल्के ढंग से लेने के। गम्भीरता तो बुढ़ापे की निशानी है। बूढ़े लोग मच्छरों और मौसम को भी बहुत गम्भीरता से लेते हैं… और मैं अभी बूढ़ा होना नहीं चाहती।”

ओर उसने अपने दोनों कन्धे जोर से उचका दिए। वह फिर गाना सुनने में लग गयी। युवक का मन हुआ कि वह उसकी मुलाक़ातों और पुराने पत्रों का हवाला देकर उससे अनेक बातें पूछे, पर बात उसके गले में ही अटककर रह गयी और वह खाली-खाली नज़रों से इधर-उधर देखने लगा। उसकी नज़र ‘रिज़र्व्ड’ की उस तख़्ती पर जा लगी। एकाएक उसे लगने लगा जैसे वह तख़्ती वहाँ से उठकर उन दोनों के बीच आ गयी है और प्लास्टिक के लाल अक्षर नियॉन लाइट के अक्षरों की तरह दिप्-दिप् करने लगे।

तभी गाना बन्द हो गया और सारे हॉल में तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी। गाना बन्द होने के साथ ही लोगों की आवाज़ें धीमी हो गयीं, पर हॉल के बीचों-बीच एक छोटी टेबिल के सामने बैठे एक स्थूलकाय खद्दरधारी व्यक्ति का धाराप्रवाह भाषण स्वर के उसी स्तर पर जारी रहा। सामने पतलून और बुश-शर्ट पहने एक दुबला-पतला-सा व्यक्ति उनकी बातों को बड़े ध्यान से सुन रहा है। उनके बोलने से थोड़ा-थोड़ा थूक उछल रहा है जिसे सामनेवाला व्यक्ति ऐसे पोंछता है कि उन्हें मालूम न हो। पर उनके पास शायद इन छोटी-मोटी बातों पर ध्यान देने लायक़ समय ही नहीं है। वे मूड में आए हुए हैं—

“गाँधीजी की पुकार पर कौन व्यक्ति अपने को रोक सकता था भला? क्या दिन थे वे भी! मैंने बिज़नेस की तो की ऐसी की तैसी और देश-सेवा के काम में जुट गया। फिर तो सारी ज़िन्दगी पॉलिटिकल-सफ़रर की तरह ही गुज़ार दी!”

सामनेवाला व्यक्ति चेहरे पर श्रद्धा के भाव लाने का भरसक प्रयत्न करने लगा।

“देश आज़ाद हुआ तो लगा कि असली काम तो अब करना है। सब लोग पीछे पड़े कि मैं खड़ा होऊँ, मिनिस्ट्री पक्की है, पर नहीं साहब, यह काम अब अपने बस का नहीं रहा। जेल के जीवन ने काया को जर्जर कर दिया, फिर यह भी लगा कि नव-निर्माण में नया ख़ून ही आना चाहिए, सो बहुत पीछे पड़े तो बेटों को झोंका इस चक्कर में। उन्हें समझाया, ज़िन्दगी-भर के हमारे त्याग और परिश्रम का फल है यह आज़ादी, तुम लोग अब इसकी ल़ाज रखो, बिज़नेस हम सम्भालते हैं।”

युवक शब्दों को ठेलता-सा बोला— “आपकी देश-भक्ति को कौन नहीं जानता?”

वे संतोष की एक डकार लेते हैं और जेब से रूमाल निकालकर अपना मुँह और मूँछों को साफ़ करते हैं। रूमाल वापस जेब में रखते हैं और पहलू बदलकर दूसरी जेब से चाँदी की डिबिया निकालकर पहले ख़ुद पान खाते हैं, फिर सामनेवाले व्यक्ति की ओर बढ़ा देते हैं।

“जी नहीं, मैं पान नहीं खाता।” कृतज्ञता के साथ ही उसके चेहरे पर बेचैनी का भाव उभर जाता है।

“एक यही लत है जो छूटती नहीं।” पान की डिबिया को वापस जेब में रखते हुए वे कहते हैं, “इंग्लैण्ड गया तो हर सप्ताह हवाई जहाज़ से पानों की गड्डी आती थी।”

जब मन की बेचैनी केवल चेहरे से नहीं सम्भलती तो वह धीरे-धीरे हाथ रगड़ने लगता है।

पान को मुँह में एक ओर ठेलकर वे थोड़ा-सा हकलाते हुए कहते हैं, “अब आज की ही मिसाल लो। हमारे वर्ग का एक भी आदमी गिना दो जो अपने यहाँ के कर्मचारी की शिकायत इस प्रकार सुनता हो? पर जैसे ही तुम्हारा केस मेरे सामने आया, मैंने तुम्हें बुलाया, यहाँ बुलाया।”

“जी हाँ।” उसके चेहरे पर कृतज्ञता का भाव और अधिक मुखर हो जाता है। वह अपनी बात शुरू करने के लिए शब्द ढूँढने लगता है। उसने बहुत विस्तार से बात करने की योजना बनायी थी, पर अब सारी बात को संक्षेप में कह देना चाहता है।

“सुना है, तुम कुछ लिखते-लिखाते भी हो?” एकाएक हॉल में फिर संगीत गूँज उठता है। वे अपनी आवाज़ को थोड़ा और ऊँचा करते हैं। युवक का उत्सुक चेहरा थोड़ा और आगे को झुक आता है।

“तुम चाहो तो हमारी इस मुलाक़ात पर एक लेख लिख सकते हो। मेरा मतलब… लोगों को ऐसी बातों से नसीहत और प्रेरणा लेनी चाहिए… यानी…”

पान शायद उन्हें वाक्य पूरा नहीं करने देता। तभी बीच की टेबिल पर  ‘आई.. उई…’ का शोर होता है और सबका ध्यान अनायास ही उधर चला जाता है। बहुत देर से ही वह टेबिल लोगों का ध्यान अनायास ही खींच रही थी। किसी के हाथ से कॉफ़ी का प्याला गिर पड़ा है। बैरा झाड़न लेकर दौड़ पड़ा और असिस्टेण्ट मैनेजर भी आ गया। दो लड़कियाँ खड़ी होकर अपने कुर्तों को रूमाल से पोंछ रही हैं। बाक़ी लड़कियाँ हँस रही हैं। सभी लड़कियों ने चूड़ीदार पाजामे और ढीले-ढीले कुर्ते पहन रखे हैं। केवल एक लड़की साड़ी में है और उसने ऊँचा-सा जूड़ा बना रखा है। बातचीत और हाव-भाव से सब ‘मिरेण्डियन्स’ लग रही हैं। मेज़ साफ़ होते ही खड़ी लड़कियाँ बैठ जाती हैं और उनकी बातों का टूटा क्रम (?) चल पड़ता है।

“पापा को इस बार हार्ट-अटैक हुआ है सो छुट्टियों में कहीं बाहर तो जा नहीं सकेंगे। हमने तो सारी छुट्टियाँ यहीं बोर होना है। मैं और ममी सप्ताह में एक पिक्चर तो देखते ही हैं, इट्स ए मस्ट फ़ॉर अस। छुट्टियों में तो हमने दो देखनी हैं।”

“हमारी किटी ने बड़े स्वीट पप्स दिए हैं। डैडी इस बार उसे ‘मीट’ करवाने बम्बई ले गए थे। किसी प्रिन्स का अल्सेशियन था। ममी बहुत बिगड़ी थीं। उन्हें तो दुनिया में सब कुछ वेस्ट करना ही लगता है। पर डैडी ने मेरी बात रख ली एण्ड इट पेड अस ऑल्सो। रीयली पप्स बहुत स्वीट हैं।”

“इस बार ममी ने, पता है, क्या कहा है? छुट्टियों में किचन का काम सीखो। मुझे तो बाबा, किचन के नाम से ही एलर्जी है! मैं तो इस बार मोराविया पढूँगी! हिन्दीवाली मिस ने हिन्दी-नॉवेल्स की एक लिस्ट पकड़ायी है। पता नहीं, हिन्दी के नावेल्स तो पढ़े ही नहीं जाते!”

वह ज़ोर से कन्धे उचका देती है। तभी बाहर का दरवाज़ा खुलता है और चुस्त-दुरुस्त शरीर और रोबदार चेहरा लिए एक व्यक्ति भीतर आता है। भीतर का दरवाज़ा खुलता है तब वह बाहर का दरवाज़ा बन्द हो चुका होता है, इसलिए बाहर के शोर और गरम हवा का लवलेश भी भीतर नहीं आ पाता।

सीढ़ियों के पासवाले कोने की छोटी-सी टेबिल पर दीवाल से पीठ सटाये एक महिला बड़ी देर से बैठी है। ढलती उम्र के प्रभाव को भरसक मेकअप से दबा रखा है। उसके सामने कॉफ़ी का प्याला रखा है और वह बेमतलब थोड़ी-थोड़ी देर के लिए सब टेबिलों की ओर देख लेती है। आनेवाले व्यक्ति को देखकर उसके ऊब भरे चेहरे पर हल्की-सी चमक आ जाती है और वह उस व्यक्ति को अपनी ओर मुख़ातिब होने की प्रतीक्षा करती है। ख़ाली जगह देखने के लिए वह व्यक्ति चारों ओर नज़र दौड़ा रहा है। महिला को देखते ही उसकी आँखों में परिचय का भाव उभरता है और महिला के हाथ हिलाते ही वह उधर ही बढ़ जाता है।

“हल्लोऽऽ! आज बहुत दिनों बाद दिखायी दीं मिसेज़ रावत!” फिर कुरसी पर बैठने से पहले पूछता है, “आप यहाँ किसी के लिए वेट तो नहीं कर रही हैं?”

“नहीं जी, घर में बैठे-बैठे या पढ़ते-पढ़ते जब तबीयत ऊब जाती है तो यहाँ आ बैठती हूँ। दो कप कॉफ़ी के बहाने घण्टा-डेढ़ घण्टा मज़े से कट जाता है। कोई जान-पहचान का फ़ुरसत में मिल जाए तो लम्बी ड्राइव पर ले जाती हूँ। आपने तो किसी को टाइम नहीं दे रखा है न?”

“नो… नो… बाहर ऐसी भयंकर गरमी है कि बस। एकदम आग बरस रही है। सोचा, यहाँ बैठकर एक कोल्ड कॉफ़ी ही पी ली जाए।” बैठते हुए उसने कहा।

जवाब से कुछ आश्वस्त हो मिसेज़ रावत ने बैरे को कोल्ड कॉफ़ी का ऑर्डर दिया— “और बताइए, मिसेज़ आहूजा कब लौटनेवाली हैं? सालभर तो हो गया न उन्हें?”

“गॉड नोज़।” वह कन्धे उचका देता है और फिर पाइप सुलगाने लगता है। एक कश खींचकर टुकड़ों-टुकड़ों में धुआँ उड़ाकर पूछता है, “छुट्टियों में इस बार आपने कहाँ जाने का प्रोग्राम बनाया है?”

“जहाँ का भी मूड आ जाए, चल देंगे। बस इतना तय है कि दिल्ली में नहीं रहेंगे। गरमियों में तो यहाँ रहना असम्भव है। अभी यहाँ से निकलकर गाड़ी में बैठेंगे तब तक शरीर झुलस जाएगा! सड़कें तो जैसे भट्टी हो रही हैं।”

गाने का स्वर डायस से उठकर फिर सारे हॉल में तैर गया… ‘ऑन सण्डे आइ एम हैप्पी…’

“नॉनसेन्स! मेरा तो सण्डे ही सबसे बोर दिन होता है!”

तभी संगीत की स्वर-लहरियों के साये में फैले हुए भिनभिनाते-से शोर को चीरता हुए एक असंयत-सा कोलाहल सारे हॉल में फैल जाता है। सबकी नज़रें दरवाज़े की ओर उठ जाती हैं। विचित्र दृश्य है। बाहर और भीतर के दरवाज़े एक साथ खुल गए हैं और नन्हें-मुन्ने बच्चों के दो-दो, चार-चार के झुण्ड हल्ला-गुल्ला करते भीतर घुस रहे हैं। सड़क का एक टुकड़ा दिखायी दे रहा है, जिस पर एक स्टेशन-बैगन खड़ी है, आस-पास कुछ दर्शक खड़े हैं और उसमें-से बच्चे उछल-उछलकर भीतर दाख़िल हो रहे हैं— ‘बॉबी, इधर आ जा!’—’निद्धू, मेरा डिब्बा लेते आना…!’

बच्चों के इस शोर के साथ-साथ बाहर की गरम हवा, बाहर का शोर भी भीतर आ रहा है। बच्चे टेबिलों से टकराते, एक-दूसरे को धकेलते हुए सीढ़ियों पर जाते हैं। लकड़ी की सीढ़ियाँ कार्पेट बिछा होने के बावजूद धम्-धम् करके बज उठी हैं।

हॉल की संयत शिष्टता एक झटके के साथ बिखर जाती है। लड़की गाना बन्द करके मुग्ध भाव से बच्चों को देखने लगती है। सबकी बातों पर विराम-चिह्न लग जाता है और चेहरों पर एक विस्मयपूर्ण कौतुक फैल जाता है।

कुछ बच्चे बाल्कनी की रेलिंग पर झूलते हुए-से हॉल में गुब्बारे उछाल रहे हैं, कुछ गुब्बारे कार्पेट पर आ गिरे हैं, कुछ कन्धों पर सिरों से टकराते हुए टेबिलों पर लुढ़क रहे हैं तो कुछ बच्चों की किलकारियों के साथ-साथ हवा में तैर रहे हैं… नीले, पीले, हरे, गुलाबी…

कुछ बच्चे ऊपर उछल-उछलकर कोई नर्सरी राइम गाने लगते हैं तो लकड़ी का फ़र्श धम्-धम् बज उठता है।

हॉल में चलती फ़िल्म जैसे अचानक टूट गयी है।

Wednesday, October 7, 2020

राजा निरबंसिया - कमलेश्वर I Raja Niransiya by Kamleshwar


''एक राजा निरबंसिया थे,'' मां कहानी सुनाया करती थीं। उनके आसपास ही चार-पांच बच्चे अपनी मुठ्ठियों में फूल दबाए कहानी समाप्त होने पर गौरों पर चढाने के लिए उत्सुक-से बैठ जाते थे। आटे का सुन्दर-सा चौक पुरा होता, उसी चौक पर मिट्टी की छः गौरें रखी जातीं, जिनमें से ऊपरवाली के बिन्दिया और सिन्दूर लगता, बाकी पांचों नीचे दबी पूजा ग्रहण करती रहतीं। एक ओर दीपक की बाती स्थिर-सी जलती रहती और मंगल-घट रखा रहता, जिस पर रोली से सथिया बनाया जाता। सभी बैठे बच्चों के मुख पर फूल चढाने की उतावली की जगह कहानी सुनने की सहज स्थिरता उभर आती।

''एक राजा निरबंसिया थे,'' मां सुनाया करती थीं, ''उनके राज में बडी ख़ुशहाली थी। सब वरण के लोग अपना-अपना काम-काज देखते थे। कोई दुखी नहीं दिखाई पडता था। राजा के एक लक्ष्मी-सी रानी थी, चंद्रमा-सी सुन्दर और राजा को बहुत प्यारी। राजा राज-काज देखते और सुख-से रानी के महल में रहते। ''

मेरे सामने मेरे ख्यालों का राजा था, राजा जगपती! तब जगपती से मेरी दांतकाटी दोस्ती थी, दोनों मिडिल स्कूल में पढने जाते। दोनों एक-से घर के थे, इसलिए बराबरी की निभती थी। मैं मैट्रिक पास करके एक स्कूल में नौकर हो गया और जगपती कस्बे के ही वकील के यहां मुहर्रिर। जिस साल जगपती मुहर्रिर हुआ, उसी वर्ष पास के गांव में उसकी शादी हुई, पर ऐसी हुई कि लोगों ने तमाशा बना देना चाहा। लडक़ीवालों का कुछ विश्वास था कि शादी के बाद लडक़ी की विदा नहीं होगी।

ब्याह हो जाएगा और सातवीं भांवर तब पडेग़ी, जब पहली विदा की सायत होगी और तभी लडक़ी अपनी ससुराल जाएगी। जगपती की पत्नी थोडी-बहुत पढी-लिखी थी, पर घर की लीक को कौन मेटे! बारात बिना बहू के वापस आ गई और लडक़ेवालों ने तय कर लिया कि अब जगपती की शादी कहीं और कर दी जाएगी, चाहें कानी-लूली से हो, पर वह लडक़ी अब घर में नहीं आएगी। लेकिन साल खतम होते-होते सब ठीक-ठाक हो गया। लडक़ीवालों ने माफी मांग ली और जगपती की पत्नी अपनी ससुराल आ गई।

जगपती को जैसे सब कुछ मिल गया और सास ने बहू की बलाइयां लेकर घर की सब चाबियां सौंप दीं, गृहस्थी का ढंग-बार समझा दिया। जगपती की मां न जाने कब से आस लगाए बैठीं थीं। उन्होंने आराम की सांस ली। पूजा-पाठ में समय कटने लगा, दोपहरियां दूसरे घरों के आंगन में बीतने लगीं। पर सांस का रोग था उन्हें, सो एक दिन उन्होंने अपनी अन्तिम घडियां गिनते हुए चन्दा को पास बुलाकर समझाया था - ''बेटा, जगपती बडे लाड-प्यार का पला है। जब से तुम्हारे ससुर नहीं रहे तब से इसके छोटे-छोटे हठ को पूरा करती रही हूं , अब तुम ध्यान रखना।'' फिर रुककर उन्होंने कहा था, ''जगपती किसी लायक हुआ है, तो रिश्तेदारों की आंखों में करकने लगा है। तुम्हारे बाप ने ब्याह के वक्त नादानी की, जो तुम्हें विदा नहीं किया। मेरे दुश्मन देवर-जेठों को मौका मिल गया। तूमार खडा कर दिया कि अब विदा करवाना नाक कटवाना है। जगपती का ब्याह क्या हुआ, उन लोगों की छाती पर सांप लोट गया। सोचा, घर की इज्जत रखने की आड लेकर रंग में भंग कर दें। अब बेटा, इस घर की लाज तुम्हारी लाज है। आज को तुम्हारे ससुर होते, तो भला....'' कहते कहते मां की आंखों में आंसू आ गए, और वे जगपती की देखभाल उसे सौंपकर सदा के लिए मौन हो गई थीं।

एक अरमान उनके साथ ही चला गया कि जगपती की सन्तान को, चार बरस इन्तजार करने के बाद भी वे गोद में न खिला पाईं। और चन्दा ने मन में सब्र कर लिया था, यही सोचकर कि कुल-देवता का अंश तो उसे जीवन-भर पूजने को मिल गया था। घर में चारों तरफ जैसे उदारता बिखरी रहती, अपनापा बरसता रहता। उसे लगता, जैसे घर की अंधेरी, एकान्त कोठरियों में यह शान्त शीतलता है जो उसे भरमा लेती है। घर की सब कुण्डियों की खनक उसके कानों में बस गई थी, हर दरवाजे की चरमराहट पहचान बन गई थीं।

''एक रोज राजा आखेट को गए,'' मां सुनाती थीं, ''राजा आखेट को जाते थे, तो सातवें रोज ज़रूर महल में लौट आते थे। पर उस दफा जब गए, तो सातवां दिन निकल गया, पर राजा नहीं लौटे। रानी को बडी चिन्ता हुई। रानी एक मन्त्री को साथ लेकर खोज में निकलीं । ''

और इसी बीच जगपती को रिश्तेदारी की एक शादी में जाना पडा। उसके दूर रिश्ते के भाई दयाराम की शादी थी। कह गया था कि दसवें दिन जरूर वापस आ जाएगा। पर छठे दिन ही खबर मिली कि बारात घर लौटने पर दयाराम के घर डाका पड ग़या। किसी मुखबिर ने सारी खबरें पहुंचा दी थीं कि लडक़ीवालों ने दयाराम का घर सोने-चांदी से पाट दिया है,आखिर पुश्तैनी जमींदार की इकलौती लडक़ी थी। घर आए मेहमान लगभग विदा हो चुके थे। दूसरे रोज जगपती भी चलनेवाला था, पर उसी रात डाका पडा। जवान आदमी, भला खून मानता है! डाकेवालों ने जब बन्दूकें चलाई, तो सबकी घिग्घी बंध गई पर जगपती और दयाराम ने छाती ठोककर लाठियां उठा लीं। घर में कोहराम मच गया फ़िर सन्नाटा छा गया। डाकेवाले बराबर गोलियां दाग रहे थे। बाहर का दरवाजा टूट चुका था। पर जगपती ने हिम्मत बढाते हुए हांक लगाई, ''ये हवाई बन्दूकें इन ठेल-पिलाई लाठियों का मुकाबला नहीं कर पाएंगी, जवानो।''

पर दरवाजे तड-तड टूटते रहे, और अन्त में एक गोली जगपती की जांघ को पार करती निकल गई, दूसरी उसकी जांघ के ऊपर कूल्हे में समा कर रह गई।

चन्दा रोती-कलपती और मनौतियां मानती जब वहां पहुँची, तो जगपती अस्पताल में था। दयाराम के थोडी चोट आई थी। उसे अस्पताल से छुट्टी मिल गई थीं। जगपती की देखभाल के लिए वहीं अस्पताल में मरीजों के रिश्तेदारों के लिए जो कोठरियां बनीं थीं, उन्हीं में चन्दा को रुकना पडा। कस्बे के अस्पताल से दयाराम का गांव चार कोस पडता था। दूसरे-तीसरे वहां से आदमी आते-जाते रहते, जिस सामान की जरूरत होती, पहुंचा जाते।

पर धीरे-धीरे उन लोगों ने भी खबर लेना छोड दिया। एक दिन में ठीक होनेवाला घाव तो था नहीं। जांघ की हड्डी चटख गई थी और कूल्हे में ऑपरेशन से छः इंच गहरा घाव था।

कस्बे का अस्पताल था। कम्पाउण्डर ही मरीजों की देखभाल रखते। बडा डॉक्टर तो नाम के लिए था या कस्बे के बडे आदमियों के लिए। छोटे लोगों के लिए तो कम्पोटर साहब ही ईश्वर के अवतार थे। मरीजों की देखभाल करनेवाले रिश्तेदारों की खाने-पीने की मुश्किलों से लेकर मरीज की नब्ज तक संभालते थे। छोटी-सी इमारत में अस्पताल आबाद था। रोगियों को सिर्फ छः-सात खाटें थी। मरीजों के कमरे से लगा दवा बनाने का कमरा था, उसी में एक ओर एक आरामकुर्सी थी और एक नीची-सी मेज। उसी कुर्सी पर बडा डॉक्टर आकर कभी-कभार बैठता था, नहीं तो बचनसिंह कपाउण्डर ही जमे रहते। अस्पताल में या तो फौजदारी के शहीद आते या गिर-गिरा के हाथ-पैर तोड लेनेवाले एक-आध लोग। छठे-छमासे कोई औरत दिख गई तो दीख गई, जैसे उन्हें कभी रोग घेरता ही नहीं था। कभी कोई बीमार पडती तो घरवाले हाल बताके आठ-दस रोज क़ी दवा एक साथ ले जाते और फिर उसके जीने-मरने की खबर तक न मिलती।

उस दिन बचनसिंह जगपती के घाव की पट्टी बदलने आया। उसके आने में और पट्टी खोलने में कुछ ऐसी लापरवाही थी, जैसे गलत बंधी पगडी क़ो ठीक से बांधने के लिए खोल रहा हो। चन्दा उसकी कुर्सी के पास ही सांस रोके खडी थी। वह और रोगियों से बात करता जा रहा था। इधर मिनट-भर को देखता, फिर जैसे अभ्यस्त-से उसके हाथ अपना काम करने लगते। पट्टी एक जगह खून से चिपक गई थी, जगपती बुरी तरह कराह उठा। चन्दा के मुंह से चीख निकल गई। बचनसिंह ने सतर्क होकर देखा तो चन्दा मुख में धोती का पल्ला खोंसे अपनी भयातुर आवाज दबाने की चेष्टा कर रही थी। जगपती एकबारगी मछली-सा तडपकर रह गया। बचनसिंह की उंगलियां थोडी-सी थरथराई कि उसकी बांह पर टप-से चन्दा का आंसू चू पडा।

बचनसिंह सिहर-सा गया और उसके हाथों की अभ्यस्त निठुराई को जैसे किसी मानवीय कोमलता ने धीरे-से छू दिया। आहों, कराहों, दर्द-भरी चीखों और चटखते शरीर के जिस वातावरण में रहते हुए भी वह बिल्कुल अलग रहता था, फोडों को पके आम-सा दबा देता था, खाल को आलू-सा छील देता था। उसके मन से जिस दर्द का अहसास उठ गया था, वह उसे आज फिर हुआ और वह बच्चे की तरह फूंक-फूंककर पट्टी को नम करके खोलने लगा। चन्दा की ओर धीरे-से निगाह उठाकर देखते हुए फुसफुसाया, ''च..च रोगी की हिम्मत टूट जाती है ऐसे।''

पर जैसे यह कहते-कहते उसका मन खुद अपनी बात से उचंट गया। यह बेपरवाही तो चीख और कराहों की एकरसता से उसे मिली थी, रोगी की हिम्मत बढाने की कर्तव्यनिष्ठा से नहीं। जब तक वह घाव की मरहम-पट्टी करता रहा, तब तक किन्हीं दो आंखों की करूणा उसे घेरे रही।

और हाथ धोते समय वह चन्दा की उन चूडियों से भरी कलाइयों को बेझिझक देखता रहा, जो अपनी खुशी उससे मांग रही थीं। चन्दा पानी डालती जा रही थी और बचनसिंह हाथ धोते-धोते उसकी कलाइयों, हथेलियों और पैरों को देखता जा रहा था। दवाखाने की ओर जाते हुए उसने चन्दा को हाथ के इशारे से बुलाकर कहा, ''दिल छोटा मत करना जांघ का घाव तो दस रोज में भर जाएगा, कूल्हे का घाव कुछ दिन जरूर लेगा। अच्छी से अच्छी दवाई दूंगा। दवाइयां तो ऐसी हैं कि मुर्दे को चंगा कर दें। पर हमारे अस्पताल में नहीं आतीं, फिर भी..''

''तो किसी दूसरे अस्पताल से नहीं आ सकतीं वो दवाइयां?'' चन्दा ने पूछा।

''आ तो सकती हैं, पर मरीज को अपना पैसा खरचना पडता है उनमें । ''बचनसिंह ने कहा।

चन्दा चुप रह गई तो बचनसिंह के मुंह से अनायास ही निकल पडा, ''किसी चीज क़ी जरूरत हो तो मुझे बताना। रही दवाइयां, सो कहीं न कहीं से इन्तजाम करके ला दूंगा। महकमे से मंगाएंगे, तो आते-अवाते महीनों लग जाएंगे। शहर के डॉक्टर से मंगवा दूंगा। ताकत की दवाइयों की बडी ज़रूरत है उन्हें। अच्छा, देखा जाएगा। '' कहते-कहते वह रुक गया।

चन्दा से कृतज्ञता भरी नजरों से उसे देखा और उसे लगा जैसे आंधी में उडते पत्ते को कोई अटकाव मिल गया हो। आकर वह जगपती की खाट से लगकर बैठ गई। उसकी हथेली लेकर वह सहलाती रही। नाखूनों को अपने पोरों से दबाती रही।

धीरे-धीरे बाहर अंधेरा बढ चला। बचनसिंह तेल की एक लालटेन लाकर मरीज़ों के कमरे के एक कोने में रख गया। चन्दा ने जगपती की कलाई दबाते-दबाते धीरे से कहा, ''कम्पाउण्डर साहब कह रहे थे '' और इतना कहकर वह जगपती का ध्यान आकृष्ट करने के लिए चुप हो गई।

''क्या कह रहे थे?'' जगपती ने अनमने स्वर में बोला।

''कुछ ताकत की दवाइयां तुम्हारे लिए जरूरी हैं!''

''मैं जानता हूं।''

''पर.. ''

''देखो चन्दा, चादर के बराबर ही पैर फैलाए जा सकते हैं। हमारी औकात इन दवाइयों की नहीं है।

''औकात आदमी की देखी जाती है कि पैसे की, तुम तो..''

''देखा जाएगा।''

''कम्पाउण्डर साहब इन्तजाम कर देंगे, उनसे कहूंगी मैं।''

''नहीं चन्दा, उधारखाते से मेरा इलाज नहीं होगा चाहे एक के चार दिन लग जाएं।''

''इसमें तो ''

''तुम नहीं जानतीं, कर्ज क़ोढ क़ा रोग होता है, एक बार लगने से तन तो गलता ही है, मन भी रोगी हो जाता है।''

''लेकिन..''कहते-कहते वह रुक गई।

जगपती अपनी बात की टेक रखने के लिए दूसरी ओर मुंह घुमाकर लेटा रहा।

और तीसरे रोज जगपती के सिरहाने कई ताकत की दवाइयां रखी थीं, और चन्दा की ठहरने वाली कोठरी में उसके लेटने के लिए एक खाट भी पहुंच गई थी। चन्दा जब आई, तो जगपती के चेहरे पर मानसिक पीडा की असंख्य रेखाएं उभरी थीं, जैसे वह अपनी बीमारी से लडने के अलावा स्वयं अपनी आत्मा से भी लड रहा हो । चन्दा की नादानी और स्नेह से भी उलझ रहा हो और सबसे ऊपर सहायता करनेवाले की दया से जूझ रहा हो।

चन्दा ने देखा तो यह सब सह न पाई। उसके जी में आया कि कह दे, क्या आज तक तुमने कभी किसी से उधार पैसे नहीं लिए? पर वह तो खुद तुमने लिए थे और तुम्हें मेरे सामने स्वीकार नहीं करना पडा था। इसीलिए लेते झिझक नहीं लगी, पर आज मेरे सामने उसे स्वीकार करते तुम्हारा झूठा पौरूष तिलमिलाकर जाग पडा है। पर जगपती के मुख पर बिखरी हुई पीडा में जिस आदर्श की गहराई थी, वह चन्दा के मन में चोर की तरह घुस गई, और बडी स्वाभाविकता से उसने माथे पर हाथ फेरते हुए कहा, ''ये दवाइयां किसी की मेहरबानी नहीं हैं। मैंने हाथ का कडा बेचने को दे दिया था, उसी में आई हैं।''

''मुझसे पूछा तक नहीं और..'' जगपती ने कहा और जैसे खुद मन की कमजोरी को दबा गया - कडा बेचने से तो अच्छा था कि बचनसिंह की दया ही ओढ ली जाती। और उसे हल्का-सा पछतावा भी था कि नाहक वह रौ में बडी-बडी बातें कह जाता है, ज्ञानियों की तरह सीख दे देता है।

और जब चन्दा अंधेरा होते उठकर अपनी कोठरी में सोने के लिए जाने को हुई, तो कहते-कहते यह बात दबा गई कि बचनसिंह ने उसके लिए एक खाट का इन्तजाम भी कर दिया है। कमरे से निकली, तो सीधी कोठरी में गई और हाथ का कडा लेकर सीधे दवाखाने की ओर चली गई, जहां बचनसिंह अकेला डॉक्टर की कुर्सी पर आराम से टांगें फैलाए लैम्प की पीली रोशनी में लेटा था। जगपती का व्यवहार चन्दा को लग गया था, और यह भी कि वह क्यों बचनसिंह का अहसान अभी से लाद ले, पति के लिए जेवर की कितनी औकात है। वह बेधडक-सी दवाखाने में घुस गई। दिन की पहचान के कारण उसे कमरे की मेज-क़ुर्सी और दवाओं की अलमारी की स्थिति का अनुमान था, वैसे कमरा अंधेरा ही पडा था, क्योंकि लैम्प की रोशनी केवल अपने वृत्त में अधिक प्रकाशवान होकर कोनों के अंधेरे को और भी घनीभूत कर रही थी। बचनसिंह ने चन्दा को घुसते ही पहचान लिया। वह उठकर खडा हो गया। चन्दा ने भीतर कदम तो रख दिया पर सहसा सहम गई, जैसे वह किसी अंधेरे कुएं में अपने-आप कूद पडी हो, ऐसा कुआं, जो निरन्तर पतला होता गया है और जिसमें पानी की गहराई पाताल की पर्तों तक चली गई हो, जिसमें पडकर वह नीचे धंसती चली जा रही हो, नीचे ..अंधेरा..एकान्त, घुटन..पाप!

बचनसिंह अवाक् ताकता रह गया और चन्दा ऐसे वापस लौट पडी, जैसे किसी काले पिशाच के पंजों से मुक्ति मिली हो। बचनसिंह के सामने क्षण-भर में सारी परिस्थिति कौंध गई और उसने वहीं से बहुत संयत आवाज में जबान को दबाते हुए जैसे वायु में स्पष्ट ध्वनित कर दिया - ''चन्दा!'' वह आवाज इतनी बे-आवाज थी और निरर्थक होते हुए भी इतनी सार्थक थी कि उस खामोशी में अर्थ भर गया। चन्दा रुक गई। बचनसिंह उसके पास जाकर रुक गया।

सामने का घना पेड स्तब्ध खडा था, उसकी काली परछाई की परिधि जैसे एक बार फैलकर उन्हें अपने वृत्त में समेट लेती और दूसरे ही क्षण मुक्त कर देती। दवाखाने का लैम्प सहसा भभककर रुक गया और मरीजों के कमरे से एक कराह की आवाज दूर मैदान के छो तक जाकर डूब गई।

चन्दा ने वैसे ही नीचे ताकते हुए अपने को संयत करते हुए कहा, ''यह कडा तुम्हें देने आई थी।''

''तो वापस क्यों चली जा रही थीं?''

चन्दा चुप। और दो क्षण रुककर उसने अपने हाथ का सोने का कडा धीरे-से उसकी ओर बढा दिया, जैसे देने का साहस न होते हुए भी यह काम आवश्यक था। बचनसिंह ने उसकी सारी काया को एक बार देखते हुए अपनी आंखें उसके सिर पर जमा दीं, उसके ऊपर पडे कपडे क़े पार नरम चिकनाई से भरे लम्बे-लम्बे बाल थे, जिनकी भाप-सी महक फैलती जा रही थी। वह धीरे-धीरे से बोला, ''लाओ।''

चन्दा ने कडा उसकी ओर बढा दिया। कडा हाथ में लेकर वह बोला, ''सुनो।''

चन्दा ने प्रश्न-भरी नजरें उसकी ओर उठा दी। उनमें झांकते हुए, अपने हाथ से उसकी कलाई पकडते हुए उसने वह कडा उसकी कलाई में पहना दिया। चन्दा चुपचाप कोठरी की ओर चल दी और बचनसिंह दवाखाने की ओर।

कालिख बुरी तरह बढ ग़ई थी और सामने खडे पेड क़ी काली परछाई गहरी पड ग़ई थी। दोनों लौट गए थे। पर जैसे उस कालिख में कुछ रह गया था, छूट गया था। दवाखाने का लैम्प जो जलते-जलते एक बार भभका था, उसमें तेल न रह जाने के कारण बत्ती की लौ बीच से फट गई थी, उसके ऊपर धुएं की लकीरें बल खाती, सांप की तरह अंधेरे में विलीन हो जाती थीं।

सुबह जब चन्दा जगपती के पास पहुंची और बिस्तर ठीक करने लगी तो जगपती को लगा कि चन्दा बहुत उदास थी। क्षण-क्षण में चन्दा के मुख पर अनगिनत भाव आ-जा रहे थे, जिनमें असमंजस था, पीडा थी और निरीहता थी। कोई अदृश्य पाप कर चुकने के बाद हृदय की गहराई से किए गए पश्चाताप जैसी धूमिल चमक?

''रानी मन्त्री के साथ जब निराश होकर लौटीं, तो देखा, राजा महल में उपस्थित थे। उनकी खुशी का ठिकाना न रहा।'' मां सुनाया करती थीं, ''पर राजा को रानी का इस तरह मन्त्री के साथ जाना अच्छा नहीं लगा। रानी ने राजा को समझाया कि वह तो केवल राजा के प्रति अटूट प्रेम के कारण अपने को न रोक सकी। राजा-रानी एक-दूसरे को बहुत चाहते थे। दोनों के दिलो में एक बात शूल-सी गडती रहती कि उनके कोई सन्तान न थी। राजवंश का दीपक बुझने जा रहा था। सन्तान के अभाव में उनका लोक-परलोक बिगडा जा रहा था और कुल की मर्यादा नष्ट होने की शंका बढती जा रही थी।''

दूसरे दिन बचनसिंह ने मरीजों की मरहम-पट्टी करते वक्त बताया था कि उसका तबादला मैनपुरी के सदर अस्पताल में हो गया है और वह परसों यहां से चला जाएगा। जगपती ने सुना, तो उसे भला ही लगा। आए दिन रोग घेरे रहते हैं, बचनसिंह उसके शहर के अस्पताल में पहुंचा जा रहा है, तो कुछ मदद मिलती ही रहेगी। आखिर वह ठीक तो होगा ही और फिर मैनपुरी के सिवा कहां जाएगा? पर दूसरे ही क्षण उसका दिल अकथ भारीपन से भर गया। पता नहीं क्यों, चन्दा के अस्तित्व का ध्यान आते ही उसे इस सूचना में कुछ ऐसे नुकीले कांटे दिखाई देने लगे, जो उसके शरीर में किसी भी समय चुभ सकते थे, जरा-सा बेखबर होने पर बींध सकते थे। और तब उसके सामने आदमी के अधिकार की लक्ष्मण-रेखाएं धुएं की लकीर की तरह कांपकर मिटने लगीं और मन में छुपे सन्देह के राक्षस बाना बदल योगी के रूप में घूमने लगे।

और पन्द्रह-बीस रोज बाद जब जगपती की हालत सुधर गई, तो चन्दा उसे लेकर घर लौट आई। जगपती चलने-फिरने लायक हो गया था। घर का ताला जब खोला, तब रात झुक आई थी। और फिर उनकी गली में तो शाम से ही अंधेरा झरना शुरू हो जाता था। पर गली में आते ही उन्हें लगा, जैसे कि वनवास काटकर राजधानी लौटे हों। नुक्कड पर ही जमुना सुनार की कोठरी में सुरही फिंक रही थी, जिसके दराजदार दरवाजों से लालटेन की रोशनी की लकीर झांक रही थी और कच्ची तम्बाकू का धुंआ रूंधी गली के मुहाने पर बुरी तरह भर गया था। सामने ही मुंशीजी अपनी जिंगला खटिया के गङ्ढे में, कुप्पी के मध्दिम प्रकाश में खसरा-खतौनी बिछाए मीजान लगाने में मशगूल थे। जब जगपती के घर का दरवाजा खडक़ा, तो अंधेरे में उसकी चाची ने अपने जंगले से देखा और वहीं से बैठे-बैठे अपने घर के भीतर ऐलान कर दिया - ''राजा निरबंसिया अस्पताल से लौट आए क़ुलमा भी आई हैं।''

ये शब्द सुनकर घर के अंधेरे बरोठे में घुसते ही जगपती हांफकर बैठ गया, झुंझलाकर चन्दा से बोला, ''अंधेरे में क्या मेरे हाथ-पैर तुडवाओगी? भीतर जाकर लालटेन जला लाओ न।''

''तेल नहीं होगा, इस वक्त जरा ऐसे ही काम.. ''

''तुम्हारे कभी कुछ नहीं होगा । न तेल न..'' कहते-कहते जगपती एकदम चुप रह गया। और चन्दा को लगा कि आज पहली बार जगपती ने उसके व्यर्थ मातृत्व पर इतनी गहरी चोट कर दी, जिसकी गहराई की उसने कभी कल्पना नहीं की थी। दोनों खामोश, बिना एक बात किए अन्दर चले गए।

रात के बढते सन्नाटे में दोनों के सामने दो बातें थीं। जगपती के कानों में जैसे कोई व्यंग्य से कह रहा था - राजा निरबंसिया अस्पताल से आ गए!

और चन्दा के दिल में यह बात चुभ रही थी - तुम्हारे कभी कुछ नहीं होगा। और सिसकती-सिसकती चन्दा न जाने कब सो गई। पर जगपती की आंखों में नींद न आई। खाट पर पडे-पडे उसके चारों ओर एक मोहक, भयावना-सा जाल फैल गया। लेटे-लेटे उसे लगा, जैसे उसका स्वयं का आकार बहुत क्षीण होता-होता बिन्दु-सा रह गया, पर बिन्दु के हाथ थे, पैर थे और दिल की धडकन भी। कोठरी का घुटा-घुटा-सा अंधियारा, मटमैली दीवारें और गहन गुफाओं-सी अलमारियां, जिनमें से बार-बार झांककर देखता था और वह सिहए उठता था फ़िर जैसे सब कुछ तब्दील हो गया हो। उसे लगा कि उसका आकार बढता जा रहा है, बढता जा रहा है। वह मनुष्य हुआ, लम्बा-तगडा-तन्दुरूस्त पुरूष हुआ, उसकी शिराओं में कुछ फूट पडने के लिए व्याकुलता से खौल उठा। उसके हाथ शरीर के अनुपात से बहुत बडे, ड़रावने और भयानक हो गए, उनके लम्बे-लम्बे नाखून निकल आए वह राक्षस हुआ, दैत्य हुआ..आदिम, बर्बर!

और बडी तेजी से सारा कमरा एकबारगी चक्कर काट गया। फिर सब धीरे-धीरे स्थिर होने लगा और उसकी सांसें ठीक होती जान पडीं। फ़िर जैसे बहुत कोशिश करने पर घिग्घी बंध जाने के बाद उसकी आवाज फ़ूटी, ''चन्दा!''

चन्दा की नरम सांसों की हल्की सरसराहट कमरे में जान डालने लगी। जगपती अपनी पाटी का सहारा लेकर झुका। कांपते पैर उसने जमीन पर रखे और चन्दा की खाट के पाए से सिर टिकाकर बैठ गया। उसे लगा, जैसे चन्दा की इन सांसों की आवाज में जीवन का संगीत गूंज रहा है। वह उठा और चन्दा के मुख पर झुक गया। उस अंधेरे में आंखें गडाए-गडाए जैसे बहुत देर बाद स्वयं चन्दा के मुख पर आभा फूटकर अपने-आप बिखरने लगी। उसके नक्श उज्ज्वल हो उठे और जगपती की आंखों को ज्योति मिल गई। वह मुग्ध-सा ताकता रहा।

चन्दा के बिखरे बाल, जिनमें हाल के जन्मे बच्चे के गभुआरे बालों की-सी महक, दूध की कचाइंध, शरीर के रस की-सी मिठास और स्नेह-सी चिकनाहट और वह माथा जिस पर बालों के पास तमाम छोटे-छोटे, नरम-नरम-नरम-से रोएं- रेशम से और उस पर कभी लगाई गई सेंदुर की बिन्दी का हल्का मिटा हुआ-सा आभास । नन्हें-नन्हें निर्द्वन्द्व सोए पलक! और उनकी मासूम-सी कांटों की तरह बरौनियां और सांस में घुलकर आती हुई वह आत्मा की निष्कपट आवाज क़ी लय फ़ूल की पंखुरी-से पतले-पतले ओंठ, उन पर पडी अछूती रेखाएं, जिनमें सिर्फ दूध-सी महक!

उसकी आंखों के सामने ममता-सी छा गई, केवल ममता, और उसके मुख से अस्फुट शब्द निकल गया, ''बच्ची!''

डरते-डरते उसके बालों की एक लट को बडे ज़तन से उसने हथेली पर रखा और उंगली से उस पर जैसे लकीरें खींचने लगा। उसे लगा, जैसे कोई शिशु उसके अंक में आने के लिए छटपटाकर, निराश होकर सो गया हो। उसने दोनों हथेलियों को पसारकर उसके सिर को अपनी सीमा में भर लेना चाहा कि कोई कठोर चीज उसकी उंगलियों से टकराई। वह जैसे होश में आया।

बडे सहारे से उसने चन्दा के सिर के नीचे टटोला। एक रूमाल में बंधा कुछ उसके हाथ में आ गया। अपने को संयत करता वह वहीं जमीन पर बैठ गया, उसी अन्धेरे में उस रूमाल को खोला, तो जैसे सांप सूंघ गया, चन्दा के हाथों के दोनों सोने के कडे उसमें लिपटे थे!

और तब उसके सामने सब सृष्टि धीरे-धीरे टुकडे-टुकडे होकर बिखरने लगी। ये कडे तो चन्दा बेचकर उसका इलाज कर रही थी। वे सब दवाइयां और ताकत के टॉनिक,उसने तो कहा था, ये दवाइयां किसी की मेहरबानी नहीं हैं, मैंने हाथ के कडे बेचने को दे दिए थे पर उसका गला बुरी तरह सूख गया। जबान जैसे तालु से चिपककर रह गई। उसने चाहा कि चन्दा को झकाझोरकर उठाए, पर शरीर की शक्ति बह-सी गई थी, रक्त पानी हो गया था। थोडा संयत हुआ, उसने वे कडे उसी रूमाल में लपेटकर उसकी खाट के कोने पर रख दिए और बडी मुश्किल से अपनी खाट की पाटी पकडकर लुढक गया। चन्दा झूठ बोली! पर क्यों? कडे आज तक छुपाए रही। उसने इतना बडा दुराव क्यों किया? आखिर क्यों? किसलिए? और जगपती का दिल भारी हो गया। उसे फिर लगा कि उसका शरीर सिमटता जा रहा है और वह एक सींक का बना ढांचा रह गया नितान्त हल्का, तिनके-सा, हवा में उडकर भटकने वाले तिनके-सा।

उस रात के बाद रोज जगपती सोचता रहा कि चन्दा से कडे मांगकर बेच ले और कोई छोटा-मोटा कारोबार ही शुरू कर दे, क्योंकि नौकरी छूट चुकी थी। इतने दिन की गैरहाजिरी के बाद वकील साहब ने दूसरा मुहर्रिर रख लिया था। वह रोज यही सोचता पर जब चन्दा सामने आती, तो न जाने कैसी असहाय-सी उसकी अवस्था हो जाती। उसे लगता, जैसे कडे मांगकर वह चन्दा से पत्नीत्व का पद भी छीन लेगा। मातृत्व तो भगवान ने छीन ही लिया। वह सोचता आखिर चन्दा क्या रह जाएगी? एक स्त्री से यदि पत्नीत्व और मातृत्व छीन लिया गया, तो उसके जीवन की सार्थकता ही क्या? चन्दा के साथ वह यह अन्याय कैसे करे? उससे दूसरी आंख की रोशनी कैसे मांग ले? फिर तो वह नितान्त अन्धी हो जाएगी और उन कडों कोमांगने के पीछे जिस इतिहास की आत्मा नंगी हो जाएगी, कैसे वह उस लज्जा को स्वयं ही उधारकर ढांपेगा?

और वह उन्हीं खयालों में डूबा सुबह से शाम तक इधर-उधर काम की टोह में घूमता रहता। किसी से उधार ले ले? पर किस सम्पत्ति पर? क्या है उसके पास, जिसके आधार पर कोई उसे कुछ देगा? और मुहल्ले के लोग जो एक-एक पाई पर जान देते हैं, कोई चीज ख़रीदते वक्त भाव में एक पैसा कम मिलने पर मीलों पैदल जाकर एक पैसा बचाते हैं, एक-एक पैसे की मसाले की पुडिया बंधवाकर ग्यारह मर्तबा पैसों का हिसाब जोडकर एकाध पैसा उधारकर, मिन्नतें करते सौदा घर लाते हैं; गली में कोई खोंचेवाला फंस गया, तो दो पैसे की चीज क़ो लड-झगडकर - चार दाने ज्यादा पाने की नीयत से दो जगह बंधवाते हैं। भाव के जरा-से फर्क पर घण्टों बहस करते हैं, शाम को सडी-ग़ली तरकारियों को किफायत के कारण लाते हैं, ऐसे लोगों से किस मुंह से मांगकर वह उनकी गरीबी के अहसास पर ठोकर लगाए! पर उस दिन शाम को जब वह घर पहुंचा, तो बरोठे में ही एक साइकिल रखी नजर आई। दिमाग पर बहुत जोर डालने के बाद भी वह आगन्तुक की कल्पना न कर पाया। भीतरवाले दरवाजे पर जब पहुंचा, तो सहसा हंसी की आवाज सुनकर ठिठक गया। उस हंसी में एक अजीब-सा उन्माद था। और उसके बाद चन्दा का स्वर - ''अब आते ही होंगे, बैठिए न दो मिनट और! अपनी आंख से देख लीजिए और उन्हें समझाते जाइए कि अभी तन्दुरूस्ती इस लायक नहीं, जो दिन-दिन-भर घूमना बर्दाश्त कर सकें।''

''हां भई, कमजोरी इतनी जल्दी नहीं मिट सकती, खयाल नहीं करेंगे तो नुकसान उठाएंगे!'' कोई पुरूष-स्वर था यह।

जगपती असमंजस में पड ग़या। वह एकदम भीतर घुस जाए? इसमें क्या हर्ज है? पर जब उसने पैर उठाए, तो वे बाहर जा रहे थे। बाहर बरोठे में साइकिल को पकडते ही उसे सूझ आई, वहीं से जैसे अनजान बनता बडे प्रयत्न से आवाज क़ो खोलता चिल्लाया, ''अरे चन्दा! यह साइकिल किसकी है? कौन मेहरबान..''

चन्दा उसकी आवाज सुनकर कमरे से बाहर निकलकर जैसे खुश-खबरी सुना रही थी, ''अपने कम्पाउण्डर साहब आए हैं। खोजते-खोजते आज घर का पता पाए हैं, तुम्हारे इन्तजार में बैठे हैं।''

''कौन बचनसिंह? अच्छा..अच्छा। वही तो मैं कहूं, भला कौन..'' कहता जगपती पास पहुंचा, और बातों में इस तरह उलझ गया, जैसे सारी परिस्थिति उसने स्वीकार कर ली हो। बचनसिंह जब फिर आने की बात कहकर चला गया, तो चन्दा ने बहुत अपनेपन से जगपती के सामने बात शुरू की, ''जाने कैसे-कैसे आदमी होते हैं । ''

''क्यों, क्या हुआ? कैसे होते हैं आदमी?'' जगपती ने पूछा।

''इतनी छोटी जान-पहचान में तुम मर्दों के घर में न रहते घुसकर बैठ सकते हो? तुम तो उल्टे पैरों लौट आओगे।'' चन्दा कहकर जगपती के मुख पर कुछ इच्छित प्रतिक्रिया देख सकने के लिए गहरी निगाहों से ताकने लगी।

जगपती ने चन्दा की ओर ऐसे देखा, जैसे यह बात भी कहने की या पूछने की है! फिर बोला, ''बचनसिंह अपनी तरह का आदमी है, अपनी तरह का अकेला।''

''होगा,पर'' कहते-कहते चन्दा रुक गई।

''आडे वक्त काम आने वाला आदमी है, लेकिन उससे फायदा उठा सकना जितना आसान है उतना...मेरा मतलब है कि ज़िससे कुछ लिया जाएगा, उसे दिया भी जाएगा।'' जगपती ने आंखें दीवार पर गडाते हुए कहा। और चन्दा उठकर चली गई।

उस दिन के बाद बचनसिंह लगभग रोज ही आने-जाने लगा। जगपती उसके साथ इधर-उधर घूमता भी रहता। बचनसिंह के साथ वह जब तक रहता, अजीब-सी घुटन उसके दिल को बांध लेती, और तभी जीवन की तमाम विषमताएं भी उसकी निगाहों के सामने उभरने लगतीं, आखिर वह स्वयं एक आदमी है,बेकार.. यह माना कि उसके सामने पेट पालने की कोई इतनी विकराल समस्या नहीं, वह भूखों नहीं मर रहा है, जाडे में कांप नहीं रहा है, पर उसके दो हाथ-पैर हैं,शरीर का पिंजरा है, जो कुछ मांगता है,कुछ! और वह सोचता, यह कुछ क्या है? सुख? शायद हां, शायद नहीं। वह तो दुःख में भी जी सकने का आदी है, अभावों में जीवित रह सकने वाला आश्चर्यजनक कीडा है। तो फिर वासना? शायद हां, शायद नहीं। चन्दा का शरीर लेकर उसने उस क्षणिकता को भी देखा है। तो फिर धन...शायद हां, शायद नहीं। उसने धन के लिए अपने को खपाया है। पर वह भी तो उस अदृश्य प्यास को बुझा नहीं पाया। तो फिर? तो फिर क्या? वह कुछ क्या है, जो उसकी आत्मा में नासूर-सा रिसता रहता है, अपना उपचार मांगता है? शायद काम! हां, यही, बिल्कुल यही, जो उसके जीवन की घडियों को निपट सूना न छोडे, ज़िसमें वह अपनी शक्ति लगा सके, अपना मन डुबो सके, अपने को सार्थक अनुभव कर सके, चाहे उसमें सुख हो या दुख, अरक्षा हो या सुरक्षा, शोषण हो या पोषण..उसे सिर्फ काम चाहिए! करने के लिए कुछ चाहिए। यही तो उसकी प्रकृत आवश्यकता है, पहली और आखिरी मांग है, क्योंकि वह उस घर में नहीं पैदा हुआ, जहां सिर्फ जबान हिलाकर शासन करनेवाले होते हैं। वह उस घर में भी नहीं पैदा हुआ, जहां सिर्फ मांगकर जीनेवाले होते हैं। वह उस घर का है, जो सिर्फ काम करना जानता है, काम ही जिसकी आस है। सिर्फ वह काम चाहता है, काम।

और एक दिन उसकी काम-धाम की समस्या भी हल हो गई। तालाब वाले ऊंचे मैदान के दक्षिण ओर जगपती की लकडी क़ी टाल खुल गई। बोर्ड् तक टंग गया। टाल की जमीन पर लक्ष्मी-पूजन भी हो गया और हवन भी हुआ। लकडी क़ो कोई कमी नहीं थी। गांव से आनेवाली गाडियों को, इस कारोबार में पैरे हुए आदमियों की मदद से मोल-तोल करवा के वहां गिरवा दिया गया। गांठें एक ओर रखी गईं, चैलों का चट्टा करीने से लग गया और गुद्दे चीरने के लिए डाल दिए गए। दो-तीन गाडियों का सौदा करके टाल चालू कर दी गई। भविष्य में स्वयं पेड ख़रीदकर कटाने का तय किया गया। बडी-बडी स्क़ीमें बनीं कि किस तरह जलाने की लकडी से बढाते-बढाते एक दिन इमारती लकडी क़ी कोठी बनेगी। चीरने की नई मशीन लगेगी। कारबार बढ ज़ाने पर बचनसिंह भी नौकरी छोडकर उसी में लग जाएगा। और उसने महसूस किया कि वह काम में लग गया है, अब चौबीसों घण्टे उसके सामने काम है,उसके समय का उपयोग है। दिन-भर में वह एक घण्टे के लिए किसी का मित्र हो सकता है, कुछ देर के लिए वह पति हो सकता है, पर बाकी समय? दिन और रात के बाकी घण्टे,उन घण्टों के अभाव को सिर्फ उसका अपना काम ही भर सकता है और अब वह कामदार था

वह कामदार तो था, लेकिन जब टाल की उस ऊंची जमीन पर पडे छप्पर के नीचे तखत पर वह गल्ला रखकर बैठता, सामने लगे लकडियों के ढेर, कटे हुए पेड क़े तने, जडों को लुढक़ा हुआ देखता, तो एक निरीहता बरबस उसके दिल को बांधने लगती। उसे लगता, एक व्यर्थ पिशाच का शरीर टुकडे-टुकडे करके उसके सामने डाल दिया गया है।फिर इन पर कुल्हाडी चलेगी और इनके रेशे-रेशे अलग हो जाएंगे और तब इनकी ठठरियों को सुखाकर किसी पैसेवाले के हाथ तक पर तौलकर बेच दिया जाएगा। और तब उसकी निगाहें सामने खडे ताड पर अटक जातीं, जिसके बडे-बडे पत्तों पर सुर्ख गर्दनवाले गिद्ध पर फडफ़डाकर देर तक खामोश बैठे रहते। ताड क़ा काला गडरेदार तना और उसके सामने ठहरी हुई वायु में निस्सहाय कांपती, भारहीन नीम की पत्तियां चकराती झडती रहतीं धूल-भरी धरती पर लकडी क़ी गाडियोंके पहियों की पडी हुई लीक धुंधली-सी चमक उठती और बगलवाले मूंगफल्ली के पेंच की एकरस खरखराती आवाज क़ानों में भरने लगती। बगलवाली कच्ची पगडण्डी से कोई गुजरकर, टीले के ढलान से तालाब की निचाई में उतर जाता, जिसके गंदले पानी में कूडा तैरता रहता और सूअर कीचड में मुंह डालकर उस कूडे क़ो रौंदते दोपहर सिमटती और शाम की धुन्ध छाने लगती, तो वह लालटेन जलाकर छप्पर के खम्भे की कील में टांग देता और उसके थोडी ही देर बाद अस्पतालवाली सडक से बचनसिंह एक काले धब्बे की तरह आता दिखाई पडता। गहरे पडते अन्धेरे में उसका आकार धीरे-धीरे बढता जाता और जगपती के सामने जब वह आकर खडा होता, तो वह उसे बहुत विशाल-सा लगने लगता, जिसके सामने उसे अपना अस्तित्व डूबता महसूस होता।

एक-आध बिक्री की बातें होतीं और तब दोनों घर की ओर चल देते। घर पहुंचकर बचनसिंह कुछ देर जरूर रुकता, बैठता, इधर-उधर की बातें करता। कभी मौका पड ज़ाता, तो जगपती और बचनसिंह की थाली भी साथ लग जाती। चन्दा सामने बैठकर दोनों को खिलाती।

बचनसिंह बोलता जाता, ''क्या तरकारी बनी है। मसाला ऐसा पडा है कि उसकी भी बहार है और तरकारी का स्वाद भी न मरा। होटलों में या तो मसाला ही मसाला रहेगा या सिर्फ तरकारी ही तरकारी। वाह! वाह! क्या बात है अन्दाज की!''

और चन्दा बीच-बीच में टोककर बोलती जाती, ''इन्हें तो जब तक दाल में प्याज का भुना घी न मिले, तब तक पेट ही नहीं भरता।''

या - ''सिरका अगर इन्हें मिल जाए, तो समझो, सब कुछ मिल गया। पहले मुझे सिरका न जाने कैसा लगता था, पर अब ऐसा जबान पर चढा है कि '' या - ''इन्हें कागज-सी पतली रोटी पसन्द ही नहीं आती। अब मुझसे कोई पतली रोटी बनाने को कहे, तो बनती ही नहीं, आदत पड ग़ई है, और फिर मन ही नहीं करता.. '' पर चन्दा की आंखें बचनसिंह की थाली पर ही जमीं रहतीं। रोटी निबटी, तो रोटी परोस दी, दाल खत्म नहीं हुई, तो भी एक चमचा और परोस दी। और जगपती सिर झुकाए खाता रहता। सिर्फ एक गिलास पानी मांगता और चन्दा चौंककर पानी देने से पहले कहती, ''अरे तुमने तो कुछ लिया भी नहीं!'' कहते-कहते वह पानी दे देती और तब उसके दिल पर गहरी-सी चोट लगती, न जाने क्यों वह खामोशी की चोट उसे बडी पीडा दे जाती पर वह अपने को समझा लेती, कोई मेहमान तो नहीं हैं मांग सकते थे। भूख नहीं होगी।

जगपती खाना खाकर टाल पर लेटने चला जाता, क्योंकि अभी तक कोई चौकीदार नहीं मिला था। छप्पर के नीचे तख्त पर जब वह लेटता, तो अनायास ही उसका दिल भर-भर आता। पता नहीं कौन-कोन से दर्द एक-दूसरे से मिलकर तरह-तरह की टीस, चटख और ऐंठन पैदा करने लगते। कोई एक रग दुखती तो वह सहलाता भी, जब सभी नसें चटखती हों तो कहां-कहां राहत का अकेला हाथ सहलाए!

लेटे-लेटे उसकी निगाह ताड क़े उस ओर बनी पुख्ता कब्र पर जम जाती, जिसके सिराहने कंटीला बबूल का एकाकी पेड सुन्न-सा खडा रहता। जिस कब्र पर एक पर्दानशीन औरत बडे लिहाज से आकर सवेरे-सवेरे बेला और चमेली के फूल चढा जाती, घूम-घूमकर उसके फेरे लेती और माथा टेककर कुछ कदम उदास-उदास-सी चलकर एकदम तेजी से मुडकर बिसातियों के मुहल्ले में खो जाती। शाम होते फिर आती। एक दीया बारती और अगर की बत्तियां जलाती, फिर मुडते हुए ओढनी का पल्ला कन्धों पर डालती, तो दीये की लौ कांपती, कभी कांपकर बुझ जाती, पर उसके कदम बढ चुके होते, पहले धीमे, थके, उदास-से और फिर तेज सधे सामान्य-से। और वह फिर उसी मुहल्ले में खो जाती और तब रात की तनहाइयों में बबूल के कांटों के बीच, उस सांय-सांय करते ऊंचे-नीचे मैदान में जैसे उस कब्र से कोई रूह निकलकर निपट अकेली भटकती रहती।

तभी ताड पर बैठे सुर्ख गर्दनवाले गिध्द मनहूस-सी आवाज में किलबिला उठते और ताड क़े पत्ते भयानकता से खडबडा उठते। जगपती का बदन कांप जाता और वह भटकती रूह जिन्दा रह सकने के लिए जैसे कब्र की इंटों में, बबूल के साया-तले दुबक जाती। जगपती अपनी टांगों को पेट से भींचकर, कम्बल से मुंह छुपा औंधा लेट जाता। तडक़े ही ठेके पर लगे लकडहारे लकडी चीरने आ जाते। तब जगपती कम्बल लपेट, घर की ओर चला जाता

''राजा रोज सवेरे टहलने जाते थे,'' मां सुनाया करती थीं, ''एक दिन जैसे ही महल के बाहर निकलकर आए कि सडक पर झाडू लगानेवाली मेहतरानी उन्हें देखते ही अपना झाडूपंजा पटककर माथा पीटने लगी और कहने लगी, ''हाय राम! आज राजा निरबंसिया का मुंह देखा है, न जाने रोटी भी नसीब होगी कि नहीं न जाने कौन-सी विपत टूट पडे!'' राजा को इतना दुःख हुआ कि उल्टे पैरों महल को लौट गए। मन्त्री को हुक्म दिया कि उस मेहतरानी का घर नाज से भर दें। और सब राजसी वस्त्र उतार, राजा उसी क्षण जंगल की ओर चले गए। उसी रात रानी को सपना हुआ कि कल की रात तेरी मनोकामना पूरी करनेवाली है। रानी बहुत पछता रही थी। पर फौरन ही रानी राजा को खोजती-खोजती उस सराय में पहुंच गई, जहां वह टिके हुए थे। रानी भेस बदलकर सेवा करने वाली भटियारिन बनकर राजा के पास रात में पहुंची। रातभर उनके साथ रही और सुबह राजा के जगने से पहले सराय छोड महल में लौट गई। राजा सुबह उठकर दूसरे देश की ओर चले गए। दो ही दिनों में राजा के निकल जाने की खबर राज-भर में फैल गई, राजा निकल गए, चारों तरफ यही खबर थी । ''

और उस दिन टोले-मुहल्ले के हर आंगन में बरसात के मेह की तरह यह खबर बरसकर फैल गई कि चन्दा के बाल-बच्चा होने वाला है।

नुक्कड पर जमुना सुनार की कोठरी में फिंकती सुरही रुक गई। मुंशीजी ने अपना मीजान लगाना छोड विस्फारित नेत्रों से ताककर खबर सुनी। बंसी किरानेवाले ने कुएं में से आधी गईं रस्सीं खींच, डोल मन पर पटककर सुना। सुदर्शन दर्जी ने मशीन के पहिए को हथेली से रगडकर रोककर सुना। हंसराज पंजाबी ने अपनी नील-लगी मलगुजी कमीज की आस्तीनें चढाते हुए सुना। और जगपती की बेवा चाची ने औरतों के जमघट में बडे विश्वास, पर भेद-भरे स्वर में सुनाया - ''आज छः साल हो गए शादी को न बाल, न बच्चा, न जाने किसका पाप है उसके पेट में। और किसका होगा सिवा उस मुसटण्डे कम्पोटर के! न जाने कहां से कुलच्छनी इस मुहल्ले में आ गई! इस गली की तो पुश्तों से ऐसी मरजाद रही है कि गैर-मर्द औरत की परछाई तब नहीं देख पाए। यहां के मर्द तो बस अपने घर की औरतों को जानते हैं, उन्हें तो पडोंसी के घर की जनानियों की गिनती तक नहीं मालूम।'' यह कहते-कहते उनका चेहरा तमतमा आया और सब औरतें देवलोक की देवियां की तरह गम्भीर बनीं, अपनी पवित्रता की महानता के बोझ से दबी धीरे-धीरे खिसक गई।

सुबह यह खबर फैलने से पहले जगपती टाल पर चला गया था। पर सुनी उसने भी आज ही थी। दिन-भर वह तख्त पर कोने की ओर मुंह किए पडा रहा। न ठेके की लकडियां चिराई, न बिक्री की ओर ध्यान दिया, न दोपहर का खाना खाने ही घर गया। जब रात अच्छी तरह फैल गई, वह हिंसक पशु की भांति उठा। उसने अपनी अंगुलियां चटकाई, मुठ्ठी बांधकर बांह का जोर देखा, तो नसें तनीं और बाह में कठोर कम्पन-सा हुआ। उसने तीन-चार पूरी सांसें खींचीं और मजबूत कदमों से घर की ओर चल पडा। मैदान खत्म हुआ, कंकड क़ी सडक आई,सडक खत्म हुई, गली आई। पर गली के अन्धेरे में घुसते वह सहम गया, जैसे किसी ने अदृश्य हाथों से उसे पकडकर सारा रक्त निचोड लिया, उसकी फटी हुई शक्ति की नस पर हिम-शीतल होंठ रखकर सारा रस चूस लिया। और गली के अंधेरे की हिकारत-भरी कालिख और भी भारी हो गई, जिसमें घुसने से उसकी सांस रुक जाएगी,घुट जाएगी।

वह पीछे मुडा, पर रुक गया। फिर कुछ संयत होकर वह चोरों की तरह निःशब्द कदमों से किसी तरह घर की भीतरी देहरी तक पहुंच गया।

दाईं ओर की रसोईवाली दहलीज में कुप्पी टिमटिमा रही थीं और चन्दा अस्त-व्यस्त-सी दीवार से सिर टेके शायद आसमान निहारते-निहारते सो गई थी। कुप्पी का प्रकाश उसके आधे चेहरे को उजागर किए था और आधा चेहरा गहन कालिमा में डूबा अदृश्य था। वह खामोशी से खडा ताकता रहा। चन्दा के चेहरे पर नारीत्व की प्रौढता आज उसे दिखाई दी। चेहरे की सारी कमनीयता न जाने कहां खो गई थी, उसका अछूतापन न जाने कहां लुप्त हो गया था। फूला-फूला मुख। जैसे टहनी से तोडे फ़ूल को पानी में डालकर ताजा किया गया हो, जिसकी पंखुरियों में टूटन की सुरमई रेखाएं पड ग़ई हों, पर भीगने से भारीपन आ गया हो। उसके खुले पैर पर उसकी निगाह पडी, तो सूजा-सा लगा। एडियां भरी, सूजी-सी और नाखूनों के पास अजब-सा सूखापन। जगपती का दिल एक बार मसोस उठा। उसने चाहा कि बढकर उसे उठा ले। अपने हाथों से उसका पूरा शरीर छू-छूकर सारा कलुष पोंछ दे, उसे अपनी सांसों की अग्नि में तपाकर एक बार फिर पवित्र कर ले, और उसकी आंखों की गहराई में झांककर कहे- देवलोक से किस शापवश निर्वासित हो तुम इधर आ गई, चन्दा? यह शाप तो अमिट था।

तभी चन्दा ने हडबडाकर आंखें खोलीं। जगपती को सामने देख उसे लगा कि वह एकदम नंगी हो गई हो। अतिशय लज्जित हो उसने अपने पैर समेट लिए। घुटनों से धोती नीचे सरकाई और बहुत संयत-सी उठकर रसोई के अंधेरे में खो गई। जगपती एकदम हताश हो, वहीं कमरे की देहरी पर चौखट से सिर टिका बैठ गया। नजर कमरे में गई, तो लगा कि पराए स्वर यहां गूंज रहे हैं, जिनमें चन्दा का भी एक है। एक तरफ घर के हर कोने से, अन्धेरा सैलाब की तरह बढता आ रहा था।एक अजीब निस्तब्धता,असमंजस। गति, पर पथभ्रष्ट! शक्लें, पर आकारहीन।

''खाना खा लेते,'' चन्दा का स्वर कानों में पडा। वह अनजाने ऐसे उठ बैठा, जैसे तैयार बैठा हो। उसकी बात की आज तक उसने अवज्ञा न की थी। खाने तो बैठ गया, पर कौर नीचे नहीं सरक रहा था। तभी चन्दा ने बडे सधे शब्दों में कहा, ''कल मैं गांव जाना चाहती हूं।''

जैसे वह इस सूचना से परिचित था, बोला, ''अच्छा।''

चन्दा फिर बोली, ''मैंने बहुत पहले घर चिठ्ठी डाल दी थी, भैया कल लेने आ रहे हैं।''

''तो ठीक है।'' जगपती वैसे ही डूबा-डूबा बोला।

चन्दा का बांध टूट गया और वह वहीं घुटनों में मुंह दबाकर कातर-सी फफक-फफककर रो पडी। न उठ सकी, न हिल सकी।

जगपती क्षण-भर को विचलित हुआ, पर जैसे जम जाने के लिए। उसके ओठ फडक़े और क्रोध के ज्वालामुखी को जबरन दबाते हुए भी वह फूट पडा, ''यह सब मुझे क्या दिखा रही है? बेशर्म! बेगैरत! उस वक्त नहीं सोचा था, जब..ज़ब..मेरी लाश तले..''

''तब.. तब क़ी बात झूठ है । '', सिसकियों के बीच चन्दा का स्वर फूटा, ''लेकिन जब तुमने मुझे बेच दिया...''

एक भरपूर हाथ चन्दा की कनपटी पर आग सुलगाता पडा। और जगपती अपनी हथेली दूसरी से दबाता, खाना छोड क़ोठरी में घुस गया और रात-भर कुण्डी चढाए उसी कालिख में घुटता रहा। दूसरे दिन चन्दा घर छोड अपने गांव चली गई।

जगपती पूरा दिन और रात टाल पर ही काट देता, उसी बीराने में, तालाब के बगल, कब्र, बबूल और ताड क़े पडोंस में। पर मन मुर्दा हो गया था। जबरदस्ती वह अपने को वहीं रोके रहता। उसका दिल होता, कहीं निकल जाए। पर ऐसी कमजोरी उसके तन और मन को खोखला कर गई थी कि चाहने पर भी वह जा न पाता। हिकारत-भरी नजरें सहता, पर वहीं पडा रहता। काफी दिनों बाद जब नहीं रह गया, तो एक दिन जगपती घर पर ताला लगा, नजदीक के गांव में लकडी कटाने चला गया। उसे लग रहा था कि अब वह पंगु हो गया है, बिलकुल लंगडा, एक रेंगता कीडा, जिसके न आंख है, न कान, न मन, न इच्छा। वह उस बाग में पहुंच गया, जहां खरीदे पेड कटने थे। दो आरेवालों ने पतले पेड क़े तने पर आरा रखा और कर्र-कर्र का अबाध शोर शुरू हो गया। दूसरे पेड पर बन्ने और शकूरे की कुल्हाडी बज उठी। और गांव से दूर उस बाग में एक लयपूर्ण शोर शुरू हो गया। जड पर कुल्हाडी पडती तो पूरा पेड थर्रा जाता।

करीब के खेत की मेड पर बैठे जगपती का शरीर भी जैसे कांप-कांप उठता। चन्दा ने कहा था, ''लेकिन जब तुमने मुझे बेच दिया'' क्या वह ठीक कहती थी! क्या बचनसिंह ने टाल के लिए जो रूपए दिए थे, उसका ब्याज इधर चुकता हुआ? क्या सिर्फ वही रूपए आग बन गए, जिसकी आंच में उसकी सहनशीलता, विश्वास और आदर्श मोम-से पिघल गए?

''शक़ूरे!'' बाग से लगे दडे पर से किसी ने आवाज लगाई। शकूरे ने कुल्हाडी रोककर वहीं से हांक लगाई, ''कोने के खेत से लीक बनी है, जरा मेड मारकर नंघा ला गाडी।''

जगपती का ध्यान भंग हुआ। उसने मुडकर दडे पर आंखें गडाईं। दो भैंसा-गाडियां लकडी भरने के लिए आ पहुंची थीं। शकूरे ने जगपती के पास आकर कहा, ''एक गाडी का भुर्त तो हो गया, बल्कि डेढ क़ा,अब इस पतरिया पेड क़ो न छांट दें?''

जगपती ने उस पेड क़ी ओर देखा, जिसे काटने के लिए शकूरे ने इशारा किया था। पेड क़ी शाख हरी पत्तियों से भरी थी। वह बोला, ''अरे, यह तो हरा है अभी इसे छोड दो।''

''हरा होने से क्या, उखट तो गया है। न फूल का, न फल का। अब कौन इसमें फल-फूल आएंगे, चार दिन में पत्ती झुरा जाएंगी।'' शकूरे ने पेड क़ी ओर देखते हुए उस्तादी अन्दाज से कहा।

''जैसा ठीक समझो तुम,'' जगपती ने कहा, और उठकर मेड-मेड पक्के कुएं पर पानी पीने चला गया।

दोपहर ढलते गाडियां भरकर तैयार हुईं और शहर की ओर रवाना हो गईं। जगपती को उनके साथ आना पडा। गाडियां लकडी से लदीं शहर की ओर चली जा रही थीं और जगपती गर्दन झुकाए कच्ची सडक की धूल में डूबा, भारी कदमों से धीरे-धीरे उन्हीं की बजती घण्टियों के साथ निर्जीव-सा बढता जा रहा था। 

''कई बरस बाद राजा परदेस से बहुत-सा धन कमाकर गाडी में लादकर अपने देश की ओर लौटे, ''मां सुनाया करती थीं,'' राजा की गाडी का पहिया महल से कुछ दूर पतेल की झाडी में उलझ गया। हर तरह कोशिश की, पर पहिया न निकला। तब एक पण्डित ने बताया कि सकट के दिन का जन्मा बालक अगर अपने घर की सुपारी लाकर इसमें छुआ दे, तो पहिया निकल जाएगा। वहीं दो बालक खेल रहे थे। उन्होंने यह सुना तो कूदकर पहुँचे और कहने लगे कि हमारी पैदाइश सकट की है, पर सुपारी तब लाएंगे, जब तुम आधा धन देने का वादा करो। राजा ने बात मान ली। बालक दौडे-दौडे घर गए। सुपारी लाकर छुआ दी, फिर घर का रास्ता बताते आगे-आगे चले। आखिर गाडी महल के सामने उन्होंने रोक ली।

राजा को बडा अचरज हुआ कि हमारे ही महल में ये दो बालक कहां से आ गए? भीतर पहुँचे, तो रानी खुशी से बेहाल हो गई।

''पर राजा ने पहले उन बालकों के बारे में पूछा, तो रानी ने कहा कि ये दोनों बालक उन्हीं के राजकुमार हैं। राजा को विश्वास नहीं हुआ। रानी बहुत दुखी हुई।''

गाडियां जब टाल पर आकर लगीं और जगपती तखत पर हाथ-पैर ढीले करके बैठ गया, तो पगडण्डी से गुजरते मुंशीजी ने उसके पास आकर बताया, अभी उस दिन वसूली में तुम्हारी ससुराल के नजदीक एक गांव में जाना हुआ, तो पता लगा कि पन्द्रह-बीस दिन हुए, चन्दा के लडक़ा हुआ है।'' और फिर जैसे मुहल्ले में सुनी-सुनाई बातों पर पर्दा डालते हुए बोले, ''भगवान के राज में देर है, अंधेर नहीं, जगपती भैया!''

जगपती ने सुना तो पहले उसने गहरी नजरों से मुंशीजी को ताका, पर वह उनके तीर का निशाना ठीक-ठीक नहीं खोज पाया। पर सब कुछ सहन करते हुए बोला, ''देर और अंधेर दोनों हैं!''

''अंधेर तो सरासर है,तिरिया चरित्तर है सब! बडे-बडे हार गए हैं,'' कहते-कहते मुंशीजी रुक गए, पर कुछ इस तरह, जैसे कोई बडी भेद-भरी बात है, जिसे उनकी गोल होती हुई आंखें समझा देंगी। जगपती मुंशीजी की तरफ ताकता रह गया। मिनट-भर मनहूस-सा मौन छाया रहा, उसे तोडते हुए मुंशीजी बडी दर्द-भरी आवाज में बोले, ''सुन तो लिया होगा, तुमने?''

''क्या?'' कहने को जगपती कह गया, पर उसे लगा कि अभी मुंशीजी उस गांव में फैली बातों को ही बडी बेदर्दी से कह डालेंगे, उसने नाहक पूछा।

तभी मुंशीजी ने उसकी नाक के पास मुंह ले जाते हुए कहा, ''चन्दा दूसरे के घर बैठ रही है,क़ोई मदसूदन है वहीं का। पर बच्चा दीवार बन गया है। चाहते तो वो यही हैं कि मर जाए तो रास्ता खुले, पर रामजी की मर्जी। सुना है, बच्चा रहते भी वह चन्दा को बैठाने को तैयार है।''

जगपती की सांस गले में अटककर रह गई। बस, आंखें मुंशीजी के चेहरे पर पथराई-सी जडी थीं।

मुंशीजी बोले, ''अदालत से बच्चा तुम्हें मिल सकता है। अब काहे का शरम-लिहाज!''

''अपना कहकर किस मुंह से मांगूं, बाबा? हर तरफ तो कर्ज से दबा हूं, तन से, मन से, पैसे से, इज्जत से, किसके बल पर दुनिया संजोने की कोशिश करूं?'' कहते-कहते वह अपने में खो गया।

मुंशीजी वहीं बैठ गए। जब रात झुक आई तो जगपती के साथ ही मुंशीजी भी उठे। उसके कन्धे पर हाथ रखे वे उसे गली तक लाए। अपनी कोठरी आने पर पीठ सहलाकर उन्होंने उसे छोड दिया। वह गर्दन झुकाए गली के अंधेरे में उन्हीं ख्यालों में डूबा ऐसे चलता चला आया, जैसे कुछ हुआ ही न हो। पर कुछ ऐसा बोझ था, जो न सोचने देता था और न समझने। जब चाची की बैठक के पास से गुजरने लगा, तो सहसा उसके कानों में भनक पडी - ''आ गए सत्यानासी! कुलबोरन!''

उसने जरा नजर उठाकर देखा, तो गली की चाची-भौजाइयां बैठक में जमा थीं और चन्दा की चर्चा छिडी थी। पर वह चुपचाप निकल गया।

इतने दिनों बाद ताला खोला और बरोठे के अंधेरे में कुछ सूझ न पडा, तो एकाएक वह रात उसकी आंखों के सामने घूम गई, जब वह अस्पताल से चन्दा के साथ लौटा था। बेवा चाची का वह जहर-बुझ तीर, ''आ गए राजा निरबंसिया अस्पताल से।'' और आज ''सत्यानासी! कुलबोरन!'' और स्वयं उसका वह वाक्य, जो चन्दा को छेद गया था, ''तुम्हारे कभी कुछ न होगा।'' और उस रात की शिशु चन्दा!

चन्दा का लडक़ा हुआ है। वह कुछ और जनती, आदमी का बच्चा न जनती। वह और कुछ भी जनती, कंकड-पत्थर! वह नारी न बनती, बच्ची ही बनी रहती, उस रात की शिशु चन्दा। पर चन्दा यह सब क्या करने जा रही है? उसके जीते-जी वह दूसरे के घर बैठने जा रही है? कितने बडे पाप में धकेल दिया चन्दा को पर उसे भी तो कुछ सोचना चाहिए। आखिर क्या? पर मेरे जीते-जी तो यह सब अच्छा नहीं। वह इतनी घृणा बर्दाश्त करके भी जीने को तैयार है, या मुझे जलाने को। वह मुझे नीच समझती है, कायर,नहीं तो एक बार खबर तो लेती। बच्चा हुआ तो पता लगता। पर नहीं, वह उसका कौन है? कोई भी नहीं। औलाद ही तो वह स्नेह की धुरी है, जो आदमी-औरत के पहियों को साधकर तन के दलदल से पार ले जाती है नहीं तो हर औरत वेश्या है और हर आदमी वासना का कीडा। तो क्या चन्दा औरत नहीं रही? वह जरूर औरत थी, पर स्वयं मैंने उसे नरक में डाल दिया। वह बच्चा मेरा कोई नहीं, पर चन्दा तो मेरी है। एक बार उसे ले आता, फिर यहां रात के मोहक अंधेरे में उसके फूल-से अधरों को देखता,निर्द्वन्द्व सोई पलकों को निहारता,साँसों की दूध-सी अछूती महक को समेट लेता।

आज का अंधेरा! घर में तेल भी नहीं जो दीया जला ले। और फिर किसके लिए कौन जलाए? चन्दा के लिए पर उसे तो बेच दिया था। सिवा चन्दा के कौन-सी सम्पत्ति उसके पास थी, जिसके आधार पर कोई कर्ज देता? कर्ज न मिलता तो यह सब कैसे चलता? काम पेड कहां से कटते? और तब शकूरे के वे शब्द उसके कानों में गूंज गए, ''हरा होने से क्या, उखट तो गया है। '' वह स्वयं भी तो एक उखटा हुआ पेड है, न फल का, न फूल का, सब व्यर्थ ही तो है। जो कुछ सोचा, उस पर कभी विश्वास न कर पाया। चन्दा को चाहता रहा, पर उसके दिल में चाहत न जगा पाया। उसे कहीं से एक पैसा मांगने पर डांटता रहा, पर खुद लेता रहा और आज वह दूसरे के घर बैठ रही है उसे छोडकर वह अकेला है, हर तरफ बोझ है, जिसमें उसकी नस-नस कुचली जा रही हैं, रग-रग फट गई है। और वह किसी तरह टटोल-टटोलकर भीतर घर में पहुंचा।

''रानी अपने कुल-देवता के मन्दिर में पहुंचीं,'' मां सुनाया करती थीं, ''अपने सतीत्व को सिध्द करने के लिए उन्होंने घोर तपस्या की। राजा देखते रहे। कुल-देवता प्रसन्न हुए और उन्होंने अपनी दैवी शक्ति से दोनों बालकों को तत्काल जन्मे शिशुओं में बदल दिया। रानी की छातियों में दूध भर आया और उनमें से धार फूट पडी, ज़ो शिशुओं के मुंह में गिरने लगी। राजा को रानी के सतीत्व का सबूत मिल गया। उन्होंने रानी के चरण पकड लिए और कहा कि तुम देवी हो! ये मेरे पुत्र हैं! और उस दिन से राजा ने फिर से राज-काज संभाल लिया। ''

पर उसी रात जगपती अपना सारा कारोबार त्याग, अफीम और तेल पीकर मर गया क्योंकि चन्दा के पास कोई दैवी शक्ति नहीं थी और जगपती राजा नहीं, बचनसिंह कम्पाउण्डर का कर्जदार था।

''राजा ने दो बातें कीं,'' मां सुनाती थीं, ''एक तो रानी के नाम से उन्होंने बहुत बडा मन्दिर बनवाया और दूसरे, राज के नए सिक्कों पर बडे राजकुमार का नाम खुदवाकर चालू किया, जिससे राज-भर में अपने उत्तराधिकारी की खबर हो जाए । ''

जगपती ने मरते वक्त दो परचे छोडे, एक चन्दा के नाम, दूसरा कानून के नाम।

चन्दा को उसने लिखा था, ''चन्दा, मेरी अन्तिम चाह यही है कि तुम बच्चे को लेकर चली आना।अभी एक-दो दिन मेरी लाश की दुर्गति होगी, तब तक तुम आ सकोगी। चन्दा, आदमी को पाप नहीं, पश्चाताप मारता है, मैं बहुत पहले मर चुका था। बच्चे को लेकर जरूर चली आना।''

कानून को उसने लिखा था, ''किसी ने मुझे मारा नहीं है,क़िसी आदमी ने नहीं। मैं जानता हूं कि मेरे जहर की पहचान करने के लिए मेरा सीना चीरा जाएगा। उसमें जहर है। मैंने अफीम नहीं, रूपए खाए हैं। उन रूपयों में कर्ज क़ा जहर था, उसी ने मुझे मारा है। मेरी लाश तब तक न जलाई जाए, जब तक चन्दा बच्चे को लेकर न आ जाए। आग बच्चे से दिलवाई जाए। बस।''

मां जब कहानी समाप्त करती थीं, तो आसपास बैठे बच्चे फूल चढाते थे।

मेरी कहानी भी खत्म हो गई, पर.....

Saturday, September 26, 2020

दूसरी दुनिया - निर्मल वर्मा (Dusri Duniya by Nirmal Verma )

बहुत पहले मैं एक लड़की को जानता था। वह दिन-भर पार्क में खेलती थी। उस पार्क में बहुत-से पेड़ थे, जिनमें मैं बहुत कम को पहचानता था। मैं सारा दिन लायब्रेरी में रहता था और जब शाम को लौटता था, तो वह उन पेड़ों के बीच बैठी दिखाई देती थी। बहुत दिनों तक हम एक-दूसरे से नहीं बोले। मैं लंदन के उस इलाके में सिर्फ कुछ दिनों के लिए ठहरा था। उन दिनों मैं एक जगह से दूसरी जगह बदलता रहता था, सस्ती जगह की तलाश में।

वे काफी गरीबी के दिन थे।

वह लड़की भी काफी गरीब रही होगी, यह मैं आज सोचता हूँ। वह एक आधा-उधड़ा स्वेटर पहने रहती, सिर पर कत्थई रंग का टोप, जिसके दोनों तरफ उसके बाल निकले रहते। कान हमेशा लाल रहते और नाक का ऊपरी सिरा भी - क्योंकि वे अक्तूबर के अंतिम दिन थे - सर्दियाँ शुरू होने से पहले के दिन और ये शुरू के दिन कभी-कभी असली सर्दियों से भी ज्यादा क्रूर होते थे।

सच कहूँ तो ठंड से बचने के लिए ही मैं लायब्रेरी आता था। उन दिनों मेरा कमरा बर्फ हो जाता था। रात को सोने से पहले मैं अपने सब स्वेटर और जुराबें पहन लेता था, रजाई पर अपने कोट और ओवरकोट जमा कर लेता था - लेकिन ठंड फिर भी नहीं जाती थी। यह नहीं कि कमरे में हीटर नहीं था, किंतु उसे जलाने के लिए उसके भीतर एक शिलिंग डालना पड़ता था। पहली रात जब मैं उस कमरे में सोया था, तो रात-भर उस हीटर को पैसे खिलाता रहा - हर आधा घंटे बाद उसकी जठराग्नि शांत करनी पड़ती थी। दूसरे दिन, मेरे पास नाश्ते के पैसे भी नहीं बचे थे। उसके बाद मैंने हीटर को अलग छोड़ दिया। मैं रात-भर ठंड से काँपता रहता, लेकिन यह तसल्ली रहती कि वह भी भूखा पड़ा है। वह मेज पर ठंडा पड़ा रहता - मैं बिस्तर पर - और इस तरह हम दोनों के बीच शीत-युद्ध जारी रहता।

सुबह होते ही मैं जल्दी-से-जल्दी लायब्रेरी चला आता। पता नहीं, कितने लोग मेरी तरह वहाँ आते थे - लायब्रेरी खुलने से पहले ही दरवाजे पर लाइन बना कर खड़े हो जाते थे। उनमें से ज्यादातर बूढ़े लोग होते थे जिन्हें पेंशन बहुत कम मिलती थी, किंतु सर्दी सबसे ज्यादा लगती थी। मेजों पर एक-दो किताबें खोल कर वे बैठ जाते। कुछ ही देर बाद मैं देखता, मेरे दाएँ-बाएँ सब लोग सो रहे हैं। कोई उन्हें टोकता नहीं था। एक-आध घंटे बाद लायब्रेरी का कोई कर्मचारी वहाँ चक्कर लगाने आ जाता, खुली किताबों को बंद कर देता और उन लोगों को धीरे से हिला देता, जिनके खर्राटे दूसरों की नींद या पढ़ाई में खलल डालने लगे हों।

ऐसी ही एक ऊँघती दोपहर में मैंने उस लड़की को देखा था - लायब्रेरी की लंबी खिड़की से। उसने अपना बस्ता एक बेंच पर रख दिया था और खुद पेड़ों के पीछे छिप गई थी। वह कोई धूप का दिन न था, इसलिए मुझे कुछ हैरानी हुई थी कि इतनी ठंड में वह लड़की बाहर खेल रही है। वह बिल्कुल अकेली थी। बाकी बेंचें खाली पड़ी थीं। और उस दिन पहली बार मुझे यह जानने की तीव्र उत्सुकता हुई थी कि वे कौन-से खेल हैं, जिन्हें कुछ बच्चे अकेले में खेलते हैं।

दोपहर होते ही वह पार्क में आती, बेंच पर अपना बैग रख देती और फिर पेड़ों के पीछे भाग जाती। मैं कभी-कभी किताब से सिर उठा कर उसकी ओर देख लेता। पाँच बजने पर सरकारी अस्पताल का गजर सुनाई देता। घंटे बजते ही, वह लड़की जहाँ भी होती, दौड़ते हुए अपनी बेंच पर आ बैठती। वह बस्ते को गोद में रख कर चुपचाप बैठी रहती, जब तक दूसरी तरफ से एक महिला न दिखाई दे जाती। मैं कभी उन महिला का चेहरा ठीक से न देख सका। वह हमेशा नर्स की सफेद पोशाक में आती थीं। और इससे पहले कि बेंच तक पहुँच पातीं - वह लड़की अपना धीरज खो कर भागने लगती और उन्हें बीच में ही रोक लेती। वे दोनों गेट की तरफ मुड़ जातीं और मैं उन्हें उस समय तक देखता रहता जब तक वे आँखों से ओझल न हो जातीं।

मैं यह सब देखता था, हिचकॉक के हीरो की तरह, खिड़की से बाहर, जहाँ यह पैंटोमिम रोज दुहराया जाता था। यह सिलसिला शायद सर्दियों तक चलता रहता, यदि एक दिन अचानक मौसम ने करवट न ली होती।

एक रात सोते हुए मुझे सहसा अपनी रजाई और उस पर रखे हुए कोट बोझ जान पड़े। मेरी देह पसीने से लथपथ थी, जैसे बहुत दिनों बाद बुखार से उठ रहा हूँ। खिड़की खोल कर बाहर झाँका, तो न धुंध, न कोहरा, लंदन का आकाश नीली मखमली डिबिया-सा खुला था, जिसमें किसी ने ढेर-से तारे भर दिए थे। मुझे लगा, जैसे यह गर्मियों की रात है और मैं विदेश में न हो कर अपने घर की छत पर लेटा हूँ।

अगले दिन खुल कर धूप निकली थी, मैं अधिक देर तक लायब्रेरी में नहीं बैठ सका। दोपहर होते ही मैं बाहर निकल पड़ा और घूमता हुआ उस रेस्तराँ में चला आया, जहाँ मैं रोज खाना खाने जाया करता था। वह एक सस्ता यहूदी रेस्तराँ था। वहाँ सिर्फ डेढ़ शिलिंग में कोशर गोश्त, दो रोटियाँ और बियर का एक छोटा गिलास मिल जाता था। रेस्तराँ की यहूदी मालकिन, जो युद्ध से पहले लिथूनिया से आई थीं, एक ऊँचे स्टूल पर बैठी रहतीं। काउंटर पर एक कैश-बॉक्स रखा रहता और उसके नीचे एक सफेद सियामी बिल्ली ग्राहकों को घूरती रहती। मुझे शायद वह थोड़ा-बहुत पहचानने लगी थी, क्योंकि जितनी देर मैं खाता रहता, उतनी देर वह अपनी हरी आँखों से मेरी तरफ टुकुर-टुकुर ताकती रहती। गरीबी और ठंड और अकेलेपन के दिनों में बिल्ली का सहारा भी बहुत होता है, यह मैं उन दिनों सोचा करता था। मैं यह भी सोचता था कि किसी दिन मैं भी ऐसा ही हिंदुस्तानी रेस्तराँ खोलूँगा और एक-साथ तीन बिल्लियाँ पालूँगा।

रेस्तराँ से बाहर आया, तो दोबारा लायब्रेरी जाने की इच्छा मर गई। लंबी मुद्दत बाद उस दिन घर से चिट्ठियाँ और अखबार आए थे। मैं उन्हें पार्क की खुली धूप में पढ़ना चाहता था। मुझे हल्का-सा आश्चर्य हुआ, जब मेरी नजर पार्क के फूलों पर गई। वे बहुत छोटे फूल थे, जो घास के बीच अपना सिर उठा कर खड़े थे। इन्हीं फूलों के बारे में शायद जीसस ने कहा था, लिलीज ऑफ द फील्ड, ऐसे फूल, जो आनेवाले दिनों के बारे में नहीं सोचते।

वे गुजरी हुई गर्मियों की याद दिलाते थे।

मैं घास के बीच उन फूलों पर चलने लगा।

बहुत अच्छा लगा। आनेवाले दिनों की दुश्चिंताएँ झरने लगीं। मैं हल्का-सा हो गया। मैंने अपने जूते उतार दिए और घास पर नंगे पाँव चलने लगा। मैं बेंच के पास पहुँचा ही था कि मुझे अपने पीछे एक चीख सुनाई दी। कोई तेजी से भागता हुआ मेरी तरफ आ रहा था। पीछे मुड़ कर देखा, तो वही लड़की दिखाई दी। वह पेड़ों से निकल कर बाहर आई और मेरा रास्ता रोक कर खड़ी हो गई।

'यू आर कॉट,' उसने हँसते हुए कहा, 'अब आप जा नहीं सकते।'

मैं समझा नहीं। जहाँ खड़ा था, वहीं खड़ा रहा।

'आप पकड़े गए...' उसने दोबारा कहा, 'आप मेरी जमीन पर खड़े हैं।'

मैंने चारों तरफ देखा, घास पर फूल थे, किनारे पर खाली बेंचें थीं, बीच में तीन एवरग्रीन पेड़ और एक मोटे तनेवाला ओक खड़ा था। उसकी जमीन कहीं दिखाई न दी।

'मुझे मालूम नहीं था,' मैंने कहा और मुड़ कर वापस जाने लगा।

'नहीं, नहीं... आप जा नहीं सकते,' बच्ची एकदम मेरे सामने आ कर खड़ी हो गई। उसकी आँखें चमक रही थीं, 'वे आपको जाने नहीं देंगे।'

'कौन नहीं जाने देगा?' मैंने पूछा।

उसने पेड़ों की तरफ इशारा किया, जो अब सचमुच सिपाही-से दिखाई दे रहे थे, लंबे हट्टे-कट्टे पहरेदार। मैं बिना जाने उनके अदृश्य फंदे में चला आया था।

कुछ देर तक हम चुपचाप आमने-सामने खड़े रहे। उसकी आँखें बराबर मुझ पर टिकी थीं - उत्तेजित और सतर्क। जब उसने देखा, मेरा भागने का कोई इरादा नहीं है, तो वह कुछ ढीली पड़ी।

'आप छूटना चाहते हैं?' उसने कहा।

'कैसे?' मैंने उसकी ओर देखा।

'आपको इन्हें खाना देना होगा। ये बहुत दिन से भूखे हैं।' उसने पेड़ों की ओर संकेत किया। वे हवा में सिर हिला रहे थे।

'खाना मेरे पास नहीं है।' मैंने कहा।

'आप चाहें, तो ला सकते हैं।' उसने आशा बँधाई, 'ये सिर्फ फूल-पत्ते खाते हैं।'

मेरे लिए यह मुश्किल नहीं था। वे अक्तूबर के दिन थे और पार्क में फूलों के अलावा ढेरों पत्ते बिखरे रहा करते थे। मैं नीचे झुका ही था कि उसने लपक कर मेरा हाथ रोक लिया।

'नहीं, नहीं - यहाँ से नहीं। यह मेरी जमीन है। आपको वहाँ जाना होगा।' उसने पार्क के फेंस की ओर देखा। वहाँ मुरझाए फूलों और पत्तों का ढेर लगा था। मैं वहाँ जाने लगा कि उसकी आवाज सुनाई दी।

'ठहरिए - मैं आपके साथ आती हूँ, लेकिन अगर आप बच कर भागेंगे तो... यहीं मर जाएँगे।' वह रुकी, मेरी तरफ देखा, 'आप मरना चाहते हैं?'

मैंने जल्दी से सिर हिलाया। वह इतना गर्म और उजला दिन था कि मरने की मेरी कोई इच्छा नहीं थी।

हम फेंस तक गए। मैंने रूमाल निकाला और फूल-पत्तियों को बटोरने लगा। मुक्ति पाने के लिए आदमी क्या कुछ नहीं करता।

वापस लौटते हुए वह चुप रही। मैं कनखियों से उसकी ओर देख लेता था। वह काफी बीमार-सी बच्ची जान पड़ती थी। उन बच्चों की तरह गंभीर, जो हमेशा अकेले में अपने साथ खेलते हैं। जब वह चुप रहती थी, तो होंठ बिचक जाते थे - नीचे का होंठ थोड़ा-सा बाहर निकल आता, जिसके ऊपर दबी हुई नाक बेसहारा-सी दिखाई देती थी। बाल बहुत छोटे थे - और बहुत काले-गोल छल्लों में धुली हुई रुई की तरह बँटे हुए, जिन्हें छूने को अनायास हाथ आगे बढ़ जाता था। लेकिन वह अपनी दूरी में हर तरह की छुअन से परे जान पड़ती थी।

'अब आप इन्हें खाना दे सकते हैं।' उसने कहा। वह पेड़ों के पास आ कर रुक गई थी।

'क्या वे मुझे छोड़ देंगे?' मैं कोई गारंटी, कोई आश्वासन पाना चाहता था।

इस बार वह मुस्कराई - और मैंने पहली बार उसके दाँत देखे - एकदम सफेद और चमकीले - जैसे अक्सर नीग्रो लड़कियों के होते हैं।

मैंने वे पत्तियाँ रूमाल से बाहर निकालीं, चार हिस्सों में बाँटी और बराबर-बराबर से पेड़ों के नीचे डाल दी।

मैं स्वतंत्र हो गया था - कुछ खाली-सा भी।

मैंने जेब से चिट्ठियाँ और अखबार निकाले और उस बेंच पर बैठ गया, जहाँ उसका बैग रखा था। वह काले चमड़े का बैग था, भीतर किताबें ठुँसी थीं, ऊपर की जेब से आधा कुतरा हुआ सेब बाहर झाँक रहा था।

वह ओझल हो गई। मैंने चारों तरफ ध्यान से देखा, तो उसकी फ्रॉक का एक कोना झाड़ियों से बाहर दिखाई दिया। वह एक खरगोश की तरह दुबक कर बैठी थी - मेरे ही जैसे, किसी भूले-भटके यात्री पर झपटने के लिए। किंतु बहुत देर तक पार्क से कोई आदमी नहीं गुजरा। हवा चलती तो पेड़ों के नीचे जमा की हुई पत्तियाँ घूमने लगतीं - एक भँवर की तरह - और वह अपने शिकार को भूल कर उनके पीछे भागने लगती।

कुछ देर बाद वह बेंच के पास आई, एक क्षण मुझे देखा, फिर बस्ते की जेब से सेब निकाला। मैं अखबार पढ़ता रहा और उसके दाँतों के बीच सेब की कुतरन सुनता रहा।

अचानक उसकी नजर मेरी चिट्ठियों पर पड़ी, जो बेंच पर रखी थीं। उसके हिलते हुए जबड़े रुक गए।

'यह आपकी हैं?'

'हाँ।' मैंने उसकी ओर देखा।

'और यह?'

उसने लिफाफे पर लगे टिकट की ओर उँगली उठाई। टिकट पर हाथी की तस्वीर थी, जिसकी सूँड़ ऊपर हवा में उठी थी। वह अपने दाँतों के बीच हँसता-सा दिखाई दे रहा था।

'तुम कभी जू गई हो?' मैंने पूछा।

'एक बार पापा के साथ गई थी। उन्होंने मुझे एक पेनी दी थी और हाथी ने अपनी सूँड़ से उस पेनी को मेरे हाथ से उठाया था।'

'तुम डरी नहीं?'

'नहीं, क्यों?' उसने सेब कुतरते हुए मेरी ओर देखा।

'पापा तुम्हारे साथ यहाँ नहीं आते?'

'एक बार आए थे। तीन बार पकड़े गए।'

वह धीमे से हँसी - जैसे मैं वहाँ न हूँ, जैसे कोई अकेले में हँसता है, जहाँ एक स्मृति पचास तहें खोलती है।

अस्पताल की घड़ी का गजर सुनाई दिया, तो हम दोनों चौंक गए। लड़की ने बेंच से बस्ता उठाया और उन पेड़ों के पास-पास गई, जो चुप खड़े थे। बच्ची हर पेड़ के पास जाती थी, छूती थी, कुछ कहती थी, जिसे सिर्फ पेड़ सुन पाते थे। आखिर में वह मेरे पास आई और मुझसे हाथ मिलाया, जैसे मैं भी उन पेड़ों में से एक हूँ।

उसकी निगाहें पीछे मुड़ गईं। मैंने देखा, कौन है? वह महिला दिखाई दीं। वह नर्सोंवाली सफेद पोशाक हरी घास पर चमक रही थी। बच्ची उन्हें देखते ही भागने लगी। मैंने ध्यान से देखा - यह वही महिला थीं, जिन्हें मैं लायब्रेरी की खिड़की से देखता था। छोटा कद, कंधे पर थैला और बच्ची-जैसे ही काले घुँघराले बाल। वे मुझसे काफी दूर थीं, लेकिन उनकी आवाज सुनाई दे जाती थी - अलग-अलग शब्द नहीं, सिर्फ दो स्वरों की एक आहट। वे घास पर बैठ गई थीं। बच्ची मुझे भूल गई थी।

मैंने जूते पहने। अखबार और चिट्ठियाँ जेब में रख दीं। अभी समय काफी है, मैंने सोचा। एक-दो घंटे लायब्रेरी में बिता सकता हूँ। पार्क के जादू से अलग, अपने अकेले कोने में।

मैं बीच पार्क में चला आया। पेड़ों की फुनगियों पर आग सुलगने लगी थी। समूचा पार्क सोने में गल रहा था। बीच में पत्तों का दरिया था, हवा में हिलता हुआ।

कौन... कौन है? कोई मुझे बुला रहा था और मैं चलता गया, रुका नहीं। कभी-कभी आदमी खुद अपने को बुलाने लगता है, बाहर से भीतर - और भीतर से कुछ भी नहीं होता। लेकिन यह बुलावा और दिनों की तरह नहीं था। यह रुका नहीं, इसलिए अंत में मुझे ही रुकना पड़ा। इस बार कोई शक नहीं हुआ। सचमुच कोई चीख रहा था, 'स्टॉप, स्टॉप...!' मैंने पीछे मुड़ कर देखा, लड़की खड़ी हो कर दोनों हाथ हवा में हिला रही थी।

सच! मैं फिर पकड़ा गया था - दोबारा से। बेवकूफों की तरह मैं उसकी जमीन पर चला आया था, चार पेड़ों से घिरा हुआ। इस बार माँ और बेटी दोनों हँस रही थीं।

वे झूठी गर्मियों के दिन थे। ये दिन ज्यादा देर नहीं टिकेंगे, इसे सब जानते थे। लायब्रेरी उजाड़ रहने लगी। मेरे पड़ोसी, बूढ़े पेंशनयाफ्ता लोग, अब बाहर धूप में बैठने लगे। आकाश इतना नीला दिखाई देता कि लंदन की धुंध भी उसे मैला न कर पाती। उसके नीचे पार्क एक हरे टापू-सा लेटा रहता।

ग्रेता (यह उसका नाम था) हमेशा वहाँ दिखाई देती थी। कभी दिखाई न देती, तो भी बेंच पर उसका बस्ता देख कर पता चल जाता कि वह यहीं कहीं है, किसी कोने में दुबकी है। मैं बचता हुआ आता, पेड़ों से, झाड़ियों से, घास के फूलों से। हर रोज वह कहीं-न-कहीं, एक अदृश्य भयानक फंदा छोड़ जाती और जब पूरी सतर्कता के बावजूद मेरा पाँव उसमें फँस जाता, तो वह बदहवास चीखती हुई मेरे सामने आ खड़ी होती। मैं पकड़ लिया जाता। छोड़ दिया जाता। फिर पकड़ लिया जाता...।

यह खेल नहीं था। वह एक पूरी दुनिया थी। उस दुनिया से मेरा कोई वास्ता नहीं था - हालाँकि मैं कभी-कभी उसमें बुला लिया जाता था। ड्रामे में एक ऐक्स्ट्रा की तरह। मुझे हमेशा तैयार रहना पड़ता था, क्योंकि वह मुझे किसी भी समय बुला सकती थी। एक दोपहर हम दोनों बेंच पर बैठे थे, अचानक वह उठ खड़ी हुई।

'हलो मिसेज टामस...!' उसने मुस्कराते हुए कहा, 'आज आप बहुत दिन बाद दिखाई दीं - यह मेरे इंडियन दोस्त हैं, इनसे मिलिए।'

मैं अवाक उसे देखता रहा। वहाँ कोई न था।

'आप बैठे हैं? इनसे हाथ मिलाइए।' उसने मुझे कुछ झिड़कते हुए कहा।

मैं खड़ा हो गया, खाली हवा से हाथ मिलाया। ग्रेता खिसक कर मेरे पास बैठ गई, ताकि कोने में मिसेज टामस बैठ सकें।

'आप बाजार जा रही थीं?' उसने खाली जगह को देखते हुए कहा, 'मैं आपका थैला देख कर समझ गई। नहीं, माफ कीजिए, मैं आपके साथ नहीं आ सकती। मुझे बहुत काम करना है। इन्हें देखिए (उसने पेड़ों की तरफ इशारा किया), ये सुबह से भूखे हैं, मैंने अभी तक इनके लिए खाना भी नहीं बनाया - आप चाय पिएँगी या कॉफी? ओह - आप घर से पी कर आई हैं। क्या कहा - मैं आपके घर क्यों नहीं आती? आजकल वक्त कहाँ मिलता है! सुबह अस्पताल जाना पड़ता है, दोपहर को बच्चों के साथ - आप तो जानती हैं। मैं इतवार को आऊँगी। आप जा रही हैं...'

उसने खड़े हो कर दोबारा हाथ मिलाया। मिसेज टामस शायद जल्दी में थीं। विदा लेते समय उन्होंने मुझे देखा नहीं। बदले में मैं बेंच पर ही बैठा रहा।

कुछ देर तक हम चुपचाप बैठे रहे। फिर सहसा वह चौंक पड़ी।

'आप कुछ सुन रहे हैं?' उसने मेरी कुहनी को झिंझोड़ा।

'कुछ भी नहीं।' मैंने कहा।

'फोन की घंटी - कितनी देर से बज रही है। जरा देखिए, कौन है?'

मैं उठ कर बेंच के पीछे गया, नीचे घास से एक टूटी टहनी उठाई और जोर से कहा, 'हलो!'

'कौन है?' उसने कुछ अधीरता से पूछा।

'मिसेज टामस।' मैंने कहा।

'ओह - फिर मिसेज टामस!' उसने एक थकी-सी जम्हाई ली, धीमे कदमों से पास आई, मेरे हाथ से टहनी खींच कर कहा, 'हलो, मिसेज टामस - आप बाजार से लौट आईं? क्या-क्या लाईं? मीट-बॉल्स, फिश-फिंगर्स, आलू के चिप्स?' उसकी आँखें आश्चर्य से फैलती जा रही थीं। वह शायद चुन-चुन कर उन सब चीजों का नाम ले रही थी, जो उसे सबसे अधिक अच्छी लगती थीं।

फिर वह चुप हो गई - जैसे मिसेज टामस ने कोई अप्रत्याशित प्रस्ताव उसके सामने रखा हो। 'ठीक है मिसेज टामस, मैं अभी आती हूँ - नहीं, मुझे देर नहीं लगेगी। मैं अभी बस-स्टेशन की तरफ जा रही हूँ - गुड बाई, मिसेज टामस!'

उसने चमकती आँखों से मेरी ओर देखा।

'मिसेज टामस ने मुझे डिनर पर बुलाया है - आप क्या करेंगे?'

'मैं सोऊँगा।'

'पहले इन्हें कुछ खिला देना... नहीं तो ये रोएँगे।' उसने पेड़ों की ओर इशारा किया, जो ठहरी हवा में निस्पंद खड़े थे।

वह तैयार होने लगी। अपने बिखरे बालों को सँवारा, पाउडर लगाने का बहाना किया - हथेली का शीशा बना कर उसमें झाँका - धूप और पेड़ों की छाया के बीच वह सचमुच सुंदर जान पड़ रही थी।

जाते समय उसने मेरी तरफ हाथ हिलाया। मैं उसे देखता रहा, जब तक वह पेड़ों और झाड़ियों के घने झुरमुट में गायब नहीं हो गई।

ऐसा हर रोज होने लगा। वह मिसेज टामस से मिलने चली जाती और मैं बेंच पर लेटा रहता। मुझे अकेला नहीं लगता था। पार्क की अजीब, अदृश्य आवाजें मुझे हरदम घेरे रहतीं। मैं एक दुनिया से निकल कर दूसरी दुनिया में चला आता। वह पार्क के सुदूर कोनों में भटकती फिरती। मैं लायब्रेरी की किताबों का सिरहाना बना कर बेंच पर लेट जाता। लंदन के बादलों को देखता - वे घूमते रहते और जब कभी कोई सफेद टुकड़ा सूरज पर अटक जाता, तब पार्क में अँधेरा-सा घिर जाता।

ऐसे ही एक दिन जब मैं बेंच पर लेटा था, मुझे अपने नजदीक एक अजीब-सी खड़खड़ाहट सुनाई दी। मुझे लगा, मैं सपने में मिसेज टामस को देख रहा हूँ। वे मेरे पास-बिल्कुल पास - आ कर खड़ी हो गई हैं, मुझे बुला रही हैं।

मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा।

सामने बच्ची की माँ खड़ी थीं। उन्होंने ग्रेता का हाथ पकड़ रखा था और कुछ असमंजस में वे मुझे निहार रही थीं।

'माफ कीजिए,' उन्होंने सकुचाते हुए कहा, 'आप सो तो नहीं रहे थे?'

मैं कपड़े झाड़ता हुआ उठ खड़ा हुआ।

'आज आप जल्दी आ गईं?' मैंने कहा। उनकी सफेद पोशाक, काली बेल्ट और बालों पर बँधे स्कार्फ को देख कर मेरी आँखें चुँधिया-सी गईं। लगता था, वे अस्पताल से सीधी यहाँ चली आ रही थीं।

'हाँ, मैं जल्दी आ गई,' वे मुस्कराने लगीं, 'शनिवार को काम ज्यादा नहीं रहता - मैं दोपहर को ही आ जाती हूँ।'

वे वेस्टइंडीज के चौड़े उच्चारण के साथ बोल रही थीं जिसमें हर शब्द का अंतिम हिस्सा गुब्बारे-सा उड़ता दिखाई देता था।

'मैं आपसे कहने आई थी, आज आप हमारे साथ चाय पीने चलिएगा? ...हम लोग पास में ही रहते हैं।'

उनके स्वर में कोई संकोच या दिखावा नहीं था, जैसे वे मुझे मुद्दत से जानती हों!

मैं तैयार हो गया। मैं अरसे से किसी के घर नहीं गया था। अपने बेड-सिटर से लायब्रेरी और पार्क तक परिक्रमा लगाता था। मैं लगभग भूल गया था कि उसके परे एक और दुनिया है - जहाँ ग्रेता रहती होगी, खाती होगी, सोती होगी।

वह आगे-आगे चल रही थी। कभी-कभी पीछे मुड़ कर देख लेती थीं कि कहीं हम बहुत दूर तो नहीं छूट गए। उसे शायद कुछ अनोखा-सा लग रहा था कि मैं उसके घर आ रहा हूँ। अजीब मुझे भी लग रहा था - उसके घर आना नहीं, बल्कि उसकी माँ के साथ चलना। वे उम्र में काफी छोटी जान पड़ती थीं, शायद अपने कद के कारण। मेरे साथ चलते हुए वे कुछ इतनी छोटी दिखाई दे रही थीं कि भ्रम होता था कि मैं किसी दूसरी ग्रेता के साथ चल रहा हूँ।

रास्ते-भर वे चुप रहीं। सिर्फ जब उनका घर सामने आया, तो वे ठिठक गईं।

'आप भी तो कहीं पास रहते हैं?' उन्होंने पूछा।

'ब्राइड स्ट्रीट में,' मैंने कहा, 'ट्यूब स्टेशन के बिल्कुल सामने।'

'आप शायद हाल में ही आए हैं?' उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, 'इस इलाके में बहुत कम इंडियन रहते हैं।'

वे नीचे उतरने लगीं। उनका घर बेसमेंट में था और हमें सीढ़ियाँ उतर कर नीचे जाना पड़ा था। बच्ची दरवाजा खोल कर खड़ी थी। कमरे में दिन के समय भी अँधेरा था। बत्ती जलाई, तो तीन-चार कुर्सियाँ दिखाई दीं। बीच में एक मेज थी। जरूरत से ज्यादा लंबी और नंगी - जैसे उस पर पिंग-पाँग खेली जाती है। दीवार से सटा सोफा था, जिसके सिरहाने एक रजाई लिपटी रखी थी। लगता था, वह कमरा बहुत-से कामों के काम आता था, जिसमें खाना, सोना-और मौका पड़ने पर - अतिथि-सत्कार भी शामिल था।

'आप बैठिए, मैं अभी चाय बना कर लाती हूँ।'

वे पर्दा उठा कर भीतर चली गईं। मैं और ग्रेता कमरे में अकेले बैठे रहे। हम दोनों पार्क के पतझड़ी उजाले में एक-दूसरे को पहचानने लगे थे। पर कमरे के भीतर न कोई मौसम था, न कोई माया। वह अचानक एक बहुत कम उम्रवाली बच्ची बन गई थी, जिसका जादू और आतंक दोनों झर गए थे।

'तुम यहाँ सोती हो?' मैंने सोफे की ओर देखा।

'नहीं, यहाँ नहीं,' उसने सिर हिलाया, 'मेरा कमरा भीतर है - आप देखेंगे?'

किचेन से आगे एक कोठरी थी, जो शायद बहुत पहले गोदाम रहा होगा। वहाँ एक नीली चिक लटक रही थी। उसने चिक उठाई और दबे कदमों से भीतर चली आई।

'धीरे से आइए - वह सो रहा है!'

'कौन?'

'हिश!' उसने अपना हाथ मुँह पर रख दिया।

मैंने सोचा, कोई भीतर है। पर भीतर बिल्कुल सूना था। कमरे की हरी दीवारें थीं, जिन पर जानवरों की तस्वीरें चिपकी थीं। कोने में उसकी खाट थी, जो खटोला-सी दिखाई देती थी। तकिए पर थिगलियों में लिपटा एक भालू लेटा था, गुदड़ी के लाल-जैसा।

'वह सो रहा है।' उसने फुसफुसाते हुए कहा।

'और तुम?' मैंने कहा, 'तुम यहाँ नहीं सोती?'

'यहाँ सोती हूँ। जब पापा यहाँ थे, तो वे दूसरे पलंग पर सोते थे। माँ ने अब उस पलंग को बाहर रखवा दिया है।'

'कहाँ रहते हैं वे?' इस बार मेरा स्वर भी धीमा हो गया, भालू के डर से नहीं, अपने उस डर से जो कई दिनों से मेरे भीतर पल रहा था।

'अपने घर रहते हैं - और कहाँ?'

उसने तनिक विस्मय से मुझे देखा। उसे लगा, मैं पूरी तरह आश्वस्त नहीं हुआ हूँ। वह अपनी मेज के पास गई, जहाँ उसकी स्कूल की किताबें रखी थीं। दराज खोला और उसके भीतर से चिट्ठियों का पुलिंदा बाहर निकाला। पुलिंदे पर रेशम का लाल फीता बँधा था, मानो वह क्रिसमस का कोई उपहार हो। वह उन्हें उठा कर मेरे पास ले आई - सबसे ऊपरवाले लिफाफे पर लगा टिकट दिखाया।

'वे यहाँ रहते हैं।' उसने कहा।

मुझे याद आया, वह मेरी नकल कर रही है - बहुत पहले पार्क में मैंने उसे अपने देश की चिट्ठी दिखाई थी।

बैठक से उसकी माँ हमें बुला रही थीं। आवाज सुनते ही वह कमरे से बाहर चली गई।

मैं एक क्षण वहीं ठिठका रहा। खटोले पर भालू सो रहा था। दीवारों पर जानवरों की आँखें मुझे घूर रही थीं। बिस्तर के पास ही एक छोटी-सी बेसिनी थी, जिस पर उसका टूथ-ब्रश, साबुन और कंघा रखे थे।

बिल्कुल मेरे बेड-सिट की तरह - मैंने सोचा। किंतु मुझसे बहुत अलग। मैं अपना कमरा छोड़ कर कहीं भी जा सकता था, उसका कमरा अपनी चीजों में शाश्वत-सा जान पड़ता था।

मेज पर चिट्ठियों का पुलिंदा पड़ा था, रेशमी डोर में बँधा हुआ, जिसे जल्दी में वह अकेला छोड़ गई थी।

'कमरा देख लिया आपने?' उन्होंने मुस्कराते हुए कहा।

'यहाँ जो भी आता है, सबसे पहले उसे अपना कमरा दिखाती है।' वे कपड़े बदल कर आई थीं। लाल छींट की स्कर्ट और खुला-खुला भूरे रंग का कार्डीगन। कमरे में सस्ती सेंट की गंधें फैली थीं।

'आप चाय नहीं - दावत दे रही हैं।' मैंने मेज पर रखे सामान को देख कर कहा। टोस्ट, जैम, मक्खन, चीज - पता नहीं, इतनी सारी चीजें मैंने पहले कब देखी थीं।

'अस्पताल की कैंटीन से ले आती हूँ - वहाँ सस्ते में मिल जाता है।'

वे परेशान लगती थीं। हँसती थीं, लेकिन परेशानी अपनी जगह कायम रहती थी। पता नहीं, बच्ची कहाँ थी? वे उसे चीखते हुए बुला रही थीं और चाय ठंडी हो रही थी।

वे सिर पकड़ कर बैठी रहीं। फिर याद आया, मैं भी हूँ। 'आप शुरू कीजिए - वह बाग में बैठी होगी।'

'आपका अपना बाग है?' मैंने पूछा।

'बहुत छोटा-सा किचन के पीछे। जब हम यहाँ आए थे, उजाड़ पड़ा था। मेरे पति ने उसे साफ किया। अब तो थोड़ी-बहुत सब्जी भी निकल आती है।'

'आपके पति यहाँ नहीं रहते?'

'उन्हें यहाँ काम नहीं मिला - दिन-भर पार्क में घूमते रहते थे। वही आदत ग्रेता को पड़ी है...।'

उनके स्वर में हल्की-सी थकान थी। खीज से खाली - लेकिन ऐसी थकान, जो पोली धूल-सी हर चीज पर बैठ जाती है।

'पार्क में तो मैं भी घूमता हूँ।' मैंने उन्हें हल्का करना चाहा। वे हो भी गईं। हँसने लगीं।

'आपकी बात अलग है।' उन्होंने डूबे स्वर में कहा, 'आप अकेले हैं। लेकिन लंदन में अगर परिवार साथ हो, तो बिना नौकरी के नहीं रहा जा सकता।'

वे मेज की चीजें साफ करने लगीं। बर्तनों को जमा करके मैं किचन में ले गया। सिंक के आगे खिड़की थी, जहाँ से उनका बाग दिखाई देता था। बीच में एक वीपिंग-विलो खड़ा था, जिसकी शाखाएँ एक उल्टी छतरी की सलाखों की तरह झूल रही थीं।

पीछे मुड़ा तो वे दिखाई दीं। दरवाजे पर तौलिया ले कर खड़ी थीं।

'क्या देख रहे हैं?'

'आपके बाग को... यह तो कोई बहुत छोटा नहीं है।'

'है नहीं - पर इस पेड़ ने सारी जगह घेर रखी है। मैं इसे कटवाना चाहती थी, लेकिन वह अपनी जिद पर अड़ गई - जिस दिन पेड़ कटना था, वह रात-भर रोती रही।'

वे चुप हो गईं - जैसे उस रात को याद करना अपने में एक रोना हो।

'क्या कहती थी?'

'कहती क्या थी - अपनी जिद पर अड़ी थी। बहुत पहले कभी इसके पापा ने कहा होगा कि पेड़ के नीचे समर-हाउस बनाएँगे - अब आप बताइए, यहाँ खुद रहने को जगह है नहीं, बाग में गुड़ियों का समर-हाउस बनेगा?'

'समर-हाउस?'

'हाँ, समर-हाउस - जहाँ ग्रेता अपने भालू के साथ रहेगी।'

वे हँसने लगीं - एक उदास-सी हँसी जो एक खाली जगह से उठ कर दूसरी खाली जगह पर खत्म हो जाती है - और बीच की जगह को भी खाली छोड़ जाती है।

मेरे जाने का समय हो गया था - लेकिन ग्रेता कहीं दिखाई नहीं दी। हम सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर चले आए। लंदन की मैली धूप पड़ोस की चिमनियों पर रेंग रही थी।

जब विदा लेने के लिए मैंने हाथ आगे बढ़ाया, तो उन्होंने कुछ सकुचाते हुए कहा, 'आप कल खाली हैं?'

'कहिए - मैं तकरीबन हर रोज खाली रहता हूँ।'

'कल इतवार है...' उन्होंने कहा, 'ग्रेता की छुट्टी है, पर मेरी अस्पताल में ड्यूटी है। क्या मैं उसे आपके पास छोड़ सकती हूँ?'

'कितने बजे आना होगा?'

'नहीं, आप आने की तकलीफ न करें। अस्पताल जाते हुए मैं इसे लायब्रेरी के सामने छोड़ दूँगी... शाम को लौटते हुए ले लूँगी।'

मैंने हामी भरी और सड़क पर चला आया। कुछ दूर चल कर जेब से पैसे निकाले और उन्हें गिनने लगा। आज खाने के पैसे बच जाएँगे, यह सोच कर खुशी हुई। मैंने बची हुई रेजगारी को मुट्ठी में दबाया और घर की तरफ चलने लगा।

मैं लायब्रेरी के दरवाजे पर खड़ा था।

उन्हें देर हो गई थी - शायद सर्दी के कारण। धूप कहीं न थी। लंदन की इमारतों पर अवसन्न-सा आलोक फैला था - पीली और जर्द, जिसमें वे और भी दरिद्र और दुखी दिखाई देती थीं।

मुझे उनकी सफेद पोशाक दिखाई दी। दोनों पार्क से गुजरते हुए आ रही थीं। आगे-आगे वे और पीछे भागती हुई ग्रेता। जब उन्होंने मुझे देख लिया तो हवा में हाथ हिलाया, बच्ची को जल्दी से चूमा और तेज कदमों से अस्पताल की तरफ मुड़ गईं।

किंतु बच्ची में कोई जल्दी न थी। वह धीमे कदमों से मेरे पास आई। सर्दी में नाक लाल-सुर्ख हो गई थी। उसने पूरी बाँहोंवाला ब्राउन स्वेटर पहन रखा था - सिर पर वही पुरानी कैप थी, जिसे मैं पार्क में देखा करता था।

वह निढाल-सी खड़ी थी।

'चलोगी?' मैंने उसका हाथ पकड़ा।

उसने चुपचाप सिर हिला दिया। मुझे हल्की-सी निराशा हुई। मैंने सोचा था, वह पूछेगी, कहाँ - और तब मैं उसे आश्चर्य में डाल दूँगा। पर उसने पूछा कुछ भी नहीं और हम सड़क पार करने लगे।

जब हम पार्क को छोड़ कर आगे बढ़े तो एक बार उसने प्रश्न-भरी निगाहों से मेरी ओर देखा - जैसे वह अपने किसी सुरक्षित घेरे से बाहर जा रही हो। पर मैं चुप रहा - और उसने कुछ पूछा नहीं। तब मुझे पहली बार लगा कि जब बच्चे माँ-बाप के साथ नहीं होते तो सब प्रश्नों को पुड़िया बना कर किसी अँधेरे गड्ढे में फेंक देते हैं।

ट्यूब में बैठ कर वह कुछ निश्चिंत नजर आई। उसने मेरा हाथ छोड़ दिया और खिड़की के बाहर देखने लगी।

'क्या अभी से रात हो गई?' उसने पूछा।

'रात कैसी?'

'देखो - बाहर कितना अँधेरा है।'

'हम जमीन के नीचे हैं।' मैंने कहा।

वह कुछ सोचने लगी, फिर धीरे से कहा, 'नीचे रात है, ऊपर दिन।'

हम दोनों हँसने लगे। मैंने पहले कभी ऐसा नहीं सोचा था।

धीरे-धीरे रोशनी नजर आने लगी। ऊपर आकाश का एक टुकड़ा दिखाई दिया - और फिर अथाह सफेदी में डूबा दिन सुरंग के बाहर निकल आया।

ट्यूब-स्टेशन की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए वह रुक गई। मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा।

'रुक क्यों गईं!'

'मुझे बाथरूम जाना है।'

मुझे दहशत हुई। टॉयलेट नीचे था और वह इस तरह अपने को रोके बहुत दूर तक नहीं जा सकती थी। मैंने उसे गोद में उठा लिया और उल्टे पाँव सीढ़ियों पर भागने लगा। गलियारे के दूसरे सिरे पर टॉयलेट दिखाई दिया - पुरुषों के लिए - मैं जल्दी से उसे भीतर ले गया। दरवाजा बंद करके बाहर आया, तो लगा जैसे वह नहीं, मैं मुक्त हो रहा हूँ।

वह बाहर आई तो परेशान-सी नजर आई। 'अब क्या बात है?'

'चेन बहुत ऊँची है।' उसने कहा।

'तुम ठहरो, मैं खींच आता हूँ।'

उसने मेरा कोट पकड़ लिया। वह खुद खींचना चाहती थी। उसके साथ मैं भीतर गया, उसे दोबारा गोद में उठाया और तब तक उठाता गया, जब तक उसका हाथ चेन तक नहीं पहुँच गया। हम दोनों विस्मय से टॉयलेट में पानी को बहता देखते रहे, जैसे यह चमत्कार जिंदगी में पहली बार देख रहे हों।

हम सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। ऊपर आए तो उसने कस कर मेरा हाथ भींच लिया। ट्रिफाल्गर स्कैयर आगे था, चारों तरफ भीड़, उजाला, शोर। मैं उसे आश्चर्य में डालना चाहता था। किंतु वह डर गई थी। वह इतना डर गई थी कि मेरी इच्छा हुई कि मैं उसे दोबारा नीचे ले जाऊँ - ट्यूब-स्टेशन में, जहाँ जमीन का अपना सुरक्षित अँधेरा था।

लेकिन जल्दी ही डर बह गया - और कुछ देर बाद उसने मेरा हाथ भी छोड़ दिया। वह स्कैयर के अनोखे उजाले में खो गई थी। वह उन शेरों के नीचे चली आई थी, जो काले पत्थरों पर अपने पंजे खोल कर भीड़ को निहार रहे थे। बहुत-से बच्चे कबूतरों को दाना डाल रहे थे।

पंखों की छाया एक बादल-सा दिखाई देती थी, जो हवा में कभी इधर जाती थी, कभी उधर-सिर के ऊपर से निकल जाती थी और कानों में सिर्फ एक गर्म, सनसनाती फड़फड़ाहट बाकी रह जाती थी।

वह सुन रही थी। वह मुझे भूल गई थी।

मैं उसकी आँख बचा कर स्कैयर के बीच चला आया। वहाँ एक लाल लकड़ी का केबिन था, जहाँ दाने बिकते थे। एक कप दाने के दाम - चार पेंस। मैंने एक कप खरीदा और भीड़ में उसे ढूँढ़ने लगा।

बच्चे बहुत थे - कबूतरों से घिरे हुए। किंतु वह जहाँ थी, वहाँ खड़ी थी। अपनी जगह से एक इंच भी न हिली थी। मैं उसके पीछे गया और दानों का कप उसके आगे कर दिया।

वह मुड़ी और हकबका कर मेरी ओर देखा। बच्चे कृतज्ञ नहीं होते, सिर्फ अपना लेते हैं। एक तीसरी आँख खुल जाती है, जो सब चुप्पियों को पाट देती है। उसने कप को लगभग मेरे हाथों से खींचते हुए कहा, 'क्या वे आएँगे?'

'जरूर आएँगे... पहले तुम्हें एक-एक दाना डालना होगा - उन्हें पास बुलाने के लिए, फिर...'

उसने मेरी बात नहीं सुनी। वह उस तरफ भागती गई, जहाँ इक्के-दुक्के कबूतर भटक रहे थे। शुरू-शुरू में उसने डरते हुए हथेली आगे बढ़ाई। कबूतर उसके पास आते हुए झिझक रहे थे, जैसे उसके डर ने उन्हें भी छू लिया हो। किंतु ज्यादा देर वे अपना लालच नहीं रोक सके। नखरे छोड़ कर पास आए - इधर-उधर देखने का बहाना किया - और फिर खटाखट उसकी हथेली से दाने चुगने लगे। वह अब अपनी फ्रॉक फैला कर बैठ गई थी। एक हाथ में दोना, दूसरे हाथ में दाने। मैं अब उसे देख भी नहीं सकता था। पंखों की सलेटी, फड़फड़ाती छत ने उसे अपने में ढक लिया था।

मैं बेंच पर बैठ गया। फव्वारों को देखने लगा, जिनके छींटे उड़ते हुए घुटनों तक आ जाते थे। बादल इतने नीचे झुक आए थे कि नेल्सन का सिर सिर्फ एक काले धब्बे-सा दिखाई देता था।

दिन बीत रहा था।

कुछ ही देर में मैंने देखा, वह सामने खड़ी है।

'मैं एक कप और लूँगी।' उसने कहा।

'अब नहीं...' मैंने कुछ हिचकिचाते हुए कहा, 'काफी देर हो गई है। अब चाय पिएँगे - और तुम आइसक्रीम लोगी।'

उसने सिर हिलाया।

'मैं एक कप और लूँगी।'

उस स्वर में जिद नहीं थी। कुछ क्षण पहले जो पहचान आई थी, वह मानो मुझसे नहीं, उससे आग्रह कर रही हो।

मैंने उसके हाथ से खाली कप लिया और दुकान की तरफ बढ़ गया। पीछे मुड़ कर देखा। वह मुझे देख रही थी। मैं दुकान के पीछे मुड़ गया। वहाँ भीड़ थी और उसकी आँखें मुझ तक नहीं पहुँच सकती थीं। कोने में सिमट कर मैंने जेब से पैसे निकाले। चाय और आइसक्रीम के पैसे एक तरफ किए, ट्यूब के किराए के पैसे दूसरी तरफ - बाकी सिर्फ दो पेंस बचे थे। मैंने चाय के कुछ पेंस उसमें मिलाए और दुकानदार के आगे लगी क्यू में शामिल हो गया।

इस बार जब मैंने उसे कप दिया, तो उसने मुझे देखा भी नहीं। वह तुरंत भागती हुई उस जगह चली गई, जहाँ सबसे ज्यादा कबूतर इकट्ठा थे। अब उसका हौसला बढ़ गया था। और कबूतर भी उसे पहचानने लगे थे। वे आसपास उड़ते हुए कभी उसके हाथों, उसके कंधों, उसके सिर पर बैठ जाते थे। वह हँसती जा रही थी, पीला चेहरा एक ज्वरग्रस्त खिंचाव में विकृत-सा हो गया था - और हाथ - वे हाथ, जो मुझे हमेशा इतने निरीह जान पड़ते थे - अब एक अजीब बेचैनी में कभी खुलते थे, कभी बंद होते थे, जैसे वे किसी भी क्षण कबूतरों की फड़फड़ाती मांसल धड़कनों को दबोच लेंगे। उसे पता भी न चला, कब दानों की कटोरी खाली हो गई - वह कुछ देर तक हवा में हथेली खोले बैठी रही। सहसा उसे आभास हुआ, कबूतर उसे छोड़ कर दूसरे बच्चों के आसपास मँडराने लगे हैं। वह खड़ी हो गई और बिना कहीं देखे चुपचाप मेरे पास चली आई।

वह एकटक मुझे देख रही थी। मुझे शक हुआ, वह मुझपर शक कर रही है। मैं बेंच से उठ खड़ा हुआ।

'अब चलेंगे।' मैंने कहा।

'मैं एक कप और लूँगी।'

'अब और नहीं - तुम दो ले चुकी हो।' मैंने गुस्से में कहा, 'तुम्हें मालूम है, हमारे पास कितने पैसे बचे हैं?'

'सिर्फ एक और - उसके बाद हम लौट जाएँगे।'

लोग हमें देखने लगे थे। मैं बहस कर रहा था - दानों की एक कटोरी के लिए। मैंने उसे उठा कर बेंच पर बिठा दिया, 'ग्रेता, तुम बहुत जिद्दी हो। अब तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा।'

उसने ठंडी आँखों से मुझे देखा।

'आप बुरे आदमी हैं। मैं आपके साथ कभी नहीं खेलूँगी।' मुझे लगा, जैसे उसने मेरी तुलना किसी अदृश्य व्यक्ति से की हो। मैं खाली-सा बैठा रहा। कभी-कभी ऐसा होता है कि अपने लिए कोई उम्मीद नहीं रहती। सिर्फ घोर हैरानी होने लगती है, अपने होने पर, अपने होने पर ही हैरानी होने लगती है। फिर मुझे वह आवाज सुनाई दी, जो आज भी मुझे अकेले में सुनाई दे जाती है... और मुँह मोड़ लेता हूँ।

वह रो रही थी। हाथ में दानों का खाली कप था, और उसकी कैप खिसक कर माथे पर चली आई थी। वह चुप्पी का रोना था। अलग-अलग साँसों के बीच बिंधा हुआ। मुझसे वह नहीं सहा गया। मैंने उसके हाथ से कप लिया और लाइन में जा कर खड़ा हो गया। इस बार पैसों को गिनना भी याद नहीं आया। मैं सिर्फ उसका रोना सुन रहा था, हालाँकि वह मुझसे बहुत दूर थी, और बीच में कबूतरों की फड़फड़ाहट और बच्चों की चीखों के कारण कुछ भी सुनाई नहीं देता था। पर इन सबके परे मेरे भीतर का सन्नाटा था, जिसके बीच उसकी रुँधी साँसें थीं - और वे मैं अंतहीन दूरी से सुन सकता था।

किंतु इस बार पहले जैसा नहीं हुआ। बहुत देर तक कोई कबूतर उसके पास नहीं आया। उसकी अपनी घबराहट के कारण या घिरते अँधेरे के कारण - वे पास तक आते थे, लेकिन उसकी खुली हथेली की अवहेलना करके दूसरे बच्चों के पास चले जाते थे। हताश हो कर उसने दानों की कटोरी जमीन पर रख दी और स्वयं मेरे पास बेंच पर आ कर बैठ गई।

उसके जाते ही कबूतरों का जमघट कटोरी के इर्द-गिर्द जमा होने लगा। कुछ देर बाद हमने देखा, दानों की कटोरी औंधी पड़ी है - और उसमें एक भी दाना नहीं है।

'अब चलोगी?' मैंने कहा।

वह तुरंत बेंच से उठ खड़ी हुई, जैसे वह इतनी देर से सिर्फ इसकी ही प्रतीक्षा कर रही हो। उसकी आँखें चमक रही थीं - एक भीगी हुई चमक - जो आँसुओं के बाद चली जाती है।

उन दिनों ट्रिफाल्गर स्कैयर के सामने लायंस का रेस्तराँ होता था। गंदा और सस्ता दोनों ही। सड़क पार करके हम वहीं चले आए।

इस बीच मैंने जेब में हाथ डाल कर पैसों को गिन लिया था - मैंने उसके लिए दो टोस्ट मँगवाए, अपने लिए चाय। आइसक्रीम को भुला देना ही बेहतर था।

वह पहली बार किसी रेस्तराँ में आई थी। गहरी उत्सुकता से चारों तरफ देख रही थी। मुझे लगा, कुछ देर पहले का संताप घुलने लगा है। हम करीब-करीब दोबारा एक-दूसरे के करीब आ गए थे। लेकिन पहले जैसे नहीं - कबूतरों की छाया अब भी हम दोनों के बीच फड़फड़ा रही थी।

'मैं क्या बहुत बुरा आदमी हूँ?' मैंने पूछा।

उसने आँखें उठाईं, एक क्षण मुझे देखती रही, फिर बहुत अधीर स्वर में कहा, 'मैंने आपको नहीं कहा था।'

'मुझे नहीं कहा था?' मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा, 'फिर किसको कहा था?'

'मि. टामस को - वे बुरे आदमी हैं। एक दिन जब मैं उनके घर गई, वे डाँट रहे थे और मिसेज टामस बेचारी रो रही थीं।'

'ओह!' मैंने कहा।

'आप समझे - मैंने आपको कहा था?'

वह हँसने लगी, जैसे मैंने सचमुच बड़ी मूर्खता की भूल की है - और उसकी हँसी देख कर, न जाने क्यों, मेरा दिल बैठने लगा।

'हम यहाँ फिर कभी आएँगे?' उसने कहा।

'गर्मियों में,' मैंने कहा, 'गर्मियों में टेम्स पर चलेंगे, वह यहाँ से बहुत पास है।'

'क्या वहाँ कबूतर होंगे?' उसने पूछा।

मुझे बुरा लगा, जैसे कोई लड़की अपने प्रेमी की चर्चा बार-बार छेड़ दे। किंतु मैं उसे दोबारा निराश नहीं करना चाहता था। गर्मियाँ काफी दूर थीं, बीच में पतझड़ और बर्फ के दिन आएँगे - तब तक मेरा झूठ भी पिघल जाएगा, मैंने सोचा।

हम बाहर आए, तो पीला-सा अँधेरा घिर आया था। हालाँकि दोपहर अभी बाकी थी। उसने खोई हुई आँखों से स्कैयर की तरफ देखा, जहाँ कबूतर अब भी उड़ रहे थे। मेरी जेब में अब उतने ही पैसे थे, जिनसे ट्यूब का किराया दिया जा सके। इस बार उसने कोई आग्रह नहीं किया। बच्चे एक सीमा के बाद, बड़ों की गरीबी न सही, मजबूरी सूँघ लेते हैं।

मैंने सोचा था, ट्रेन में बैठेंगे, तो मैं उससे समर-हाउस के बारे में पूछूँगा - उस विलो के बारे में भी, जो अकेला उसके बाग में खड़ा था। मैं उसे दोबारा उसकी अपनी दुनिया में लाना चाहता था - जहाँ पहली बार हम दोनों एक-दूसरे से मिले थे। पर ऐसा हुआ नहीं। सीट पर बैठते ही उसकी आँखें मुँदने लगीं। ट्रिफाल्गर स्कैयर से इसलिंग्टन तक का काफी लंबा फासला था। कुछ देर बाद उसने मेरे कंधों पर अपना सिर टिका लिया और सोने लगी।

इस बीच मैंने एक-आध बार उसके चेहरे को देखा था - मुझे हैरानी हुई कि सोते हुए वह हू-ब-हू वैसी ही लग रही है, जैसी पहली बार मैंने उसे देखा था पार्क में पेड़ों के बीच-तल्लीन और साबुत। कबूतरों के लिए जो भटकाव आया था, वह अब कहीं न था। आँसू कब के सूख चले थे। नींद में वह उतनी ही मुकम्मिल जान पड़ती थी, जितनी झाड़ियों के बीच और तब मुझे अजीब-सा विचार आया। पार्क में उसने कई बार मुझे पकड़ा था, किंतु उसके सोते हुए तल्लीन चेहरे को देख कर मुझे लगा कि वह हमेशा से पकड़ी हुई लड़की है, जबकि मेरे जैसे लोग सिर्फ कभी-कभी पकड़ में आते हैं और उसे इसका कोई पता नहीं है और यह एक तरह का वरदान है, क्योंकि दूसरों को हमेशा छूटने का, मुक्त होने का भ्रम रहता है, जबकि बच्ची को इस तरह की कोई आशा नहीं थी। तब पहली बार मैंने उसे छूने का साहस किया। मैं धीरे-धीरे उसके गालों को छूने लगा, जो आँसुओं के बाद गर्म हो आए थे, कुछ वैसे ही, जैसे बारिश के बाद घास की पत्तियाँ हो जाती हैं।

वह जगी नहीं। ट्यूब-स्टेशन आने तक आराम से सोती रही।

उस रात बारिश शुरू हुई, सो हफ्ते-भर चलती रही। झूठी गर्मियों के दिन खत्म हो गए। सारे शहर पर पीली धुंध की परतें जमी रहतीं। सड़क पर चलते हुए कुछ भी दिखाई न देता-न पेड़, न लैंप पोस्ट, न दूसरे आदमी।

मुझे वे दिन याद हैं, क्योंकि उन्हीं दिनों मुझे काम मिला था। लंदन में वह मेरी पहली नौकरी थी। काम ज्यादा था लेकिन मुश्किल नहीं। एक पब में काउंटर के पीछे सात घंटे खड़ा रहना पड़ता था। बियर और लिकर के गिलास धोने पड़ते थे। ग्यारह बजे घंटी बजानी पड़ती थी और पियक्कड़ लोगों को बाहर खदेड़ना पड़ता था। कुछ दिन तक मैं कहीं बाहर न जा सका। घर लौटता और बिस्तर पकड़ लेता, मानो पिछले महीनों की नींद कोई पुराना बदला निकाल रही हो। नींद खुलती, तो बारिश दिखाई देती, जो घड़ी की टिक-टिक की तरह बराबर चलती रहती। कभी-कभी भ्रम होता कि मैं मर गया हूँ - और अपनी कब्र की दूसरी तरफ से - बारिश की टप-टप सुन रहा हूँ।

लेकिन एक दिन आकाश दिखाई दिया - पूरा नहीं - सिर्फ एक नीली डूबी-सी फाँक - और उसे देख कर मुझे अकस्मात पार्क के दिन याद हो आए, यहूदी रेस्तराँ की बिल्ली और बाजार जाती हुई मिसेज टामस। वह मेरी छुट्टी का दिन था। उस दिन मैंने अपने सबसे बढ़िया कपड़े पहने और कमरे से बाहर निकल आया।

लायब्रेरी खुली थी। सब पुराने चेहरे वहाँ दिखाई दिए। पार्क खाली पड़ा था। पेड़ों पर पिछले दिनों की बारिश चमक रही थी। वे सिकुड़े-से दिखाई देते थे, जैसे आनेवाली सर्दियों की अफवाह उन्हें छू गई हो।

मैं दोपहर तक प्रतीक्षा करता रहा। ग्रेता कहीं दिखाई न दी - न बेंच पर, न पेड़ों के पीछे। धीरे-धीरे पार्क का पीला, पतझड़ी आलोक मंद पड़ने लगा। पाँच बजे अस्पताल का गजर सुनाई दिया और मेरी आँखें अनायास फाटक की ओर उठ गईं।

कुछ देर तक कोई दिखाई नहीं दिया। फाटक के ऊपर लोहे का हैंडिल शाम की आखिरी धूप में चमक रहा था। उसके पीछे अस्पताल की लाल ईंटोंवाली इमारत दिखाई दे रही थी। मुझे मालूम था, उन्हें घर जाने के लिए पार्क के बीच से निकलना होगा, किंतु फिर भी मैं अनिश्चित निगाहों से कभी फाटक को देखता था, कभी सड़क को। यह खयाल भी आता था कि शायद आज उनकी ड्यूटी अस्पताल में न हो और वे दोनों घर में ही बैठी हों।

सड़क की बत्तियाँ जलने लगीं। मुझे अजीब-सी घबराहट हुई, जैसे प्रतीक्षा का अंत आ पहुँचा है और मैं उसे टालता जा रहा हूँ। मैं बेंच से उठ खड़ा हुआ-खड़े हो कर प्रतीक्षा करना ज्यादा आसान जान पड़ा। किंतु तभी मुझे फाटक के निकट सरसराहट सुनाई दी। उनके चेहरे को बाद में देखा, उनकी सफेद पोशाक पहले दिखाई दी। वे तेज कदमों से पार्क के बीच पगडंडी पर चल रही थीं। उन्होंने मुझे नहीं देखा था। यदि वे मेरी दिशा में आ रही होतीं, तो भी शायद धुँधलके में मुझे नहीं पहचान पातीं।

मैं भागता हुआ उनके पीछे चला आया।

'मिसेज पार्कर!' पहली बार मैंने उन्हें उनके नाम से बुलाया था।

वे ठहर गईं और भौंचक-सी मेरी ओर देखने लगीं। 'आप यहाँ कैसे?' अब भी वे अपने को नहीं सँभाल पाई थीं।

'मैं यहाँ दोपहर से बैठा हूँ।' मैंने मुस्कराते हुए कहा।

वे हकबकाई-सी मुझे देख रही थीं। उन्होंने मुझे पहचान लिया था, लेकिन जैसे उस पहचान का मतलब नहीं टोह पा रही थीं। मैं कुछ असमंजस में पड़ गया और सहज स्वर में पूछा, 'आज आप इतनी देर से लौट रही हैं? पाँच का गजर तो कब का बज चुका है?'

'पाँच का गजर?' उन्होंने विस्मय से पूछा।

'आप हमेशा पाँच बजे लौटती थीं।' मैंने कहा।

'ओह!' उन्हें याद आया, जैसे मैं किसी प्रागैतिहासिक घटना का उल्लेख कर रहा हूँ।

'आप लंदन में ही थे?' उन्होंने पूछा।

'मुझे काम मिल गया, इतने दिनों से इसलिए नहीं आ सका। ग्रेता कैसी है?'

वे हिचकिचाईं - एक छोटे क्षण की हिचकिचाहट, जो कुछ भी मानी नहीं रखती - लेकिन शाम के धुँधलके में मुझे वह अपशकुन-सा जान पड़ी।

'मैं आपको बताना चाहती थी, लेकिन मुझे आपका घर नहीं मालूम था...'

'वह ठीक है?'

'हाँ, ठीक है,' उन्होंने जल्दी में कहा, 'लेकिन वह अब यहाँ नहीं है। कुछ दिन पहले उसके पिता आए थे, वे उसे अपने साथ ले गए...'

मैं उन्हें देखता रहा। मेरे भीतर जो कुछ था, वह ठहर गया - मैं उसके भीतर था, ठहराव के, और वहाँ से दुनिया बिल्कुल बाहर दिखाई देती थी। मैंने कभी इतनी सफाई से बाहर को नहीं देखा था।

'कब की बात है?'

'जिस दिन आप उसके साथ ट्रिफाल्गर स्कैयर गए थे - उसके दूसरे दिन ही वे आए थे... आप जानते हैं, उन्हें वहाँ काम मिल गया है।'

'और आप?' मैंने कहा, 'आप यहाँ अकेली रहेंगी?'

'मैंने अभी कुछ सोचा नहीं है।' उन्होंने धीरे से सिर उठाया, आवाज हल्के से काँपती थी, और एक क्षण के लिए मुझे उनके चेहरे पर बच्ची दिखाई दी, ऊपर उठा हुआ होंठ और भीगी आँखें, हवा में उड़ते हुए कबूतरों को निहारती हुई।

'आप कभी घर जरूर आइएगा...' उन्होंने विदा माँगी और मैंने हाथ आगे बढ़ा दिया। मैं बहुत दूर तक उन्हें देखता रहा। फिर काफी देर तक बेंच पर बैठा रहा। मुझे कहीं नहीं जाना था, न ही प्रतीक्षा करनी थी। धीरे-धीरे पेड़ों के ऊपर तारे निकलने लगे। मैंने पहली बार लंदन के आकाश में इतने तारे देखे थे, साफ और चमकीले, जैसे बारिश ने उन्हें भी धो डाला हो।

'इट इज टाइम डियर!'

पार्क के चौकीदार ने दूर से ही आवाज लगाई। वह गेट की चाभियाँ खनखनाता हुआ पार्क का चक्कर लगा रहा था। टॉर्च की रोशनी में वह हर बेंच, झाड़ी और पेड़ के नीचे देख लेता था कि कहीं कोई छूट तो नहीं गया - कोई खोया हुआ बच्चा, कोई शराबी, कोई घरेलू बिल्ली।

वहाँ कोई नहीं था। कोई भी चीज नहीं छूटी थी। मैं उठ खड़ा हुआ और गेट की तरफ चलने लगा। सहसा हवा उठी थी। हल्का-सा झोंका अँधेरे में चला आया और पेड़ सरसराने लगे। और तब मुझे धीमी-सी आवाज सुनाई दी, एक असीम उत्साह में लिपटी हुई - 'स्टॉप... स्टॉप...' मेरे पाँव बीच पार्क में ठिठक गए। चारों ओर देखा। कोई न था। न कोई आवाज, न खटका - सिर्फ पेड़ों की शाखाएँ हवा में डोल रही थीं। उस समय एक पगली उत्कट, नंगी-सी, आकांक्षा मेरे भीतर जागने लगी कि यहीं बैठ जाऊँ। इन पेड़ों के बीच जहाँ मैं पहली बार पकड़ा गया था। मेरी अब और आगे जाने की इच्छा नहीं थी। मैं इस बार अंतिम और अनिवार्य रूप में पकड़ लिया जाना चाहता था...

'इट इज क्लोजिंग टाइम!' चौकीदार ने इस बार बहुत पास आ कर कहा, मेरी तरफ जिज्ञासा से देखा कि क्या मैं वही आदमी हूँ, जो अभी कुछ देर पहले बेंच पर बैठा था।

इस बार मैं नहीं मुड़ा। पार्क से बाहर आ कर ही साँस ली। मेरा गला सूख गया था और देह खोखली-सी जान पड़ती थी। पार्क में सामने पब की लालटेन झूलती दिखाई दी। मैंने जेब से पर्स निकाला, पैसे गिनने के लिए। पुरानी गरीबी की यह आदत अब भी बची थी। मैंने हैरानी से देखा कि मेरे पास पूरे दो पौंड हैं - और तब मुझे याद आया कि मैं उन्हें कबूतरों के दानों के लिए लाया था।

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