Tuesday, January 30, 2024

धर्म संकट - अमृतलाल नागर


शाम का समय था, हम लोग प्रदेश, देश और विश्‍व की राजनीति पर लंबी चर्चा करने के बाद उस विषय से ऊब चुके थे। चाय बड़े मौके से आई, लेकिन उस ताजगी का सुख हम ठीक तरह से उठा भी न पाए थे कि नौकर ने आकर एक सादा बंद लिफाफा मेरे हाथ में रख दिया। मैंने खोलकर देखा, सामने वाले पड़ोसी रायबहादुर गिर्राजकिशन (गिरिराज कृष्‍ण) का पत्र था, काँपते हाथों अनमिल अक्षरों और टेढ़ी पंक्तियों में लिखा था:

माई डियर प्रताप,

“मैंने फुल्‍ली को आदेश दे रक्‍खा है कि मेरी मृत्‍यु के बाद यह पत्र तुम्‍हें फौरन पहुँचाया जाए। तुम मेरे अभिन्‍न मित्र के पुत्र हो। रमेश से अधिक सदा आज्ञाकारी रहे हो। मेरी निम्‍नलिखित तीन अंतिम इच्‍छाओं को पूरा करना – ”

1. रमेश को तुरंत सूचना देना। मेरी आत्‍मा को तभी शांति मिलेगी, जब उसके हाथों मेरे अंतिम संस्‍कार होंगे। मैंने उसके साथ अन्याय किया है।

2. फुल्‍ली को मैंने पाँच हजार रुपये दिए हैं और पाँच-पाँच सौ रुपये बाकी चारों नौकरों को। नोट मेरे तकिए में रूई की परत के अंदर हैं। उसी में वसीयत और तिजोरी की चाभी भी है। घर में किसी को यह रहस्‍य नहीं मालूम। तकिया अब फौरन अपने कब्जे में कर लेना। घर के भंडार-घर और संदूकों की चाभियाँ तिजोरी में हैं। रमेश के आने पर पाँच पंचों के सामने उसे सौंप देना।

3. मैंने अपनी वसीयत में यह शर्त रक्‍खी है कि मेरी पत्‍नी अगर मुझे माफ कर दे और गलत ही सही, मगर जो पतिव्रत उस पर आन पड़ा है उसे साधकर, रमेश को छोड़कर, बाइज्‍जत यहाँ रहे तो यह मकान और दस हजार रुपया उसे दिया जाए लेकिन यह काम उसी हालत में होना चाहिए, जबकि हम और तुम्‍हारे द्वारा नियुक्‍त मुहल्‍ले के चार भले आदमी मेरी पत्‍नी की सच्‍चरित्रता के संबंध में आवश्‍स्‍त हो जाएँ।

पत्र पर छह रोज पहले की तारीख पड़ी थी। मुझे यह समझने में देर न लगी कि रायबहादुर साहब गत हो चुके हैं। पत्र मैंने बड़े बाबू के सामने मेज पर रखा दिया। इंजीनियर साहब और प्रोफेसर साहब भी झुककर पढ़ने लगे।

चाय बेमजा हो गई। हम सभी उठकर रायबहादुर साहब के यहाँ गए। उनका रोबीला चेहरा रोग और मानसिक चिंताओं से जर्जर होकर मृत्‍यु के बाद भी उनके अंतिम दिनों के असीम कष्‍टों का परिचय दे रहा था। मृत रायबहादुर के चेहरे को देखते हुए उनके साथ बीते इतने वर्षों की स्‍मृतियाँ मेरे मन में जाग उठी।

रायबहादुर बाबू गिर्राजकिशन बी.ए. उन हिंदुस्‍तानियों में से थे, जिन्‍हें तकदीर की चूक के कारण इंग्लैंड में जन्म नहीं मिल पाया था। उनका रंग भी गोरा न था, बल्कि गेहुएँ से काले की ओर ही अधिक झुकता हुआ था। फिर भी भरसक उन्‍होंने अपने-आपको अंग्रेजनुमा ही बनाए रक्‍खा। गरीब हिंदुस्तानियों पर अकड़ दिखाने में वे सदा अंग्रेजों से चार जूते आगे रहे। कई हिंदीवादियों ने उनसे शुद्ध नाम गिरिराजकृष्‍ण रखने को कहा, मगर वे उन्‍हें मूर्ख बतलाकर गिर्राज ही बने रहे। रायबहादुर गिर्राजकिशन के नाम के साथ बी.ए. जोड़ना भी नितांत आवश्‍यक था। सन 23 में रायबहादुर गिर्राज अपनी बिरादरी के रायसाहेब दीनानाथ की बदौलत इलाहाबाद में छोटे लाट के दफ्तर में भरती हुए थे। अपनी अंग्रेजपरस्‍ती और हाईक्‍लास खुशामद के दम पर रायबहादुर ऊँची कुर्सियों पर चढ़ बैठे। स्‍वराज्‍य होने पर आंतरिक कष्‍ट भोगने के बावजूद तीन वर्षों तक स्‍वराजी अफसरों, नेताओं और मंत्रियों की भी बाअदब खुशामद की। गिर्राज बाबू इन लोगों के सामने जिस प्रकार खुद दुम हिलाते, उसी प्रकार अपने सामने अपने मातहतों की भी हिलवाते थे। आजादी के बाद भी दफ्तर में अपना भला चाहने वाला कोई बाबू उनके आगे हिंदी का एक शब्‍द नहीं बोल सकता था और घर के लिए भी यही मशहूर था कि रायबहादुर की भैंस तक अंग्रेजी में ही डकारती। अगर कोई कसर थी तो सही कि ‘लेडी गिर्राज’ के वास्‍ते अंग्रेजी का करिया अक्षर भी भैंस बराबर ही था।

रायबहादुर गिर्राज पहली लड़ाई के जमाने के मॉडर्न आदमी थे। सुबह आँख खुलते ही घंटी बजाते, सफदे कोट, पतलून और साफे से लैस फुल्‍ली आया का लड़का घसीटे ‘छोटी हाजिरी’ लेकर हाजिर होता। ठीक आठ बजे बड़ी हाजिरी पर बैठते, बेटी-बेटा साथ होते, पर ले‍डी गिर्राज अंडा-बिस्‍कुट-समाज में कभी न बैठीं। परम कट्टर छूत-पाकवाली न होते हुए भी मांस-मछली से उन्‍हें परहेज था। बशीरत चपरासी के बाप मुन्‍ने बावर्ची को हफ्ते में दो दिन ड्यूटी देनी पड़ती थी। घर के निचले हिस्‍से में विलायती रसोई थी। एक तरह से कहना चाहिए कि नीचे का पूरा घर ही विलायती था। वहाँ ले‍डी गिर्राज के बजाय फुल्‍ली आया का साम्राज्‍य था। फुल्‍ली पहले अंग्रेजी कोठियों में काम करती थी। अंग्रेजी ढंग से हिंदुस्‍थानी बोलती है। अंग्रेजी घर के कायदे जानती है। छोटी-बड़ी हाजिरी, लंच, डिनर, चाय सबका समय साधती थी, इसलिए गिर्राज बाबू के बाबू, नियम से दो पेग, खाने से पहले चुसकियों में मर्यादा करते थे, फुल्ली उसका इंतजाम भी बखूबी कर देती थी। इसलिए आमतौर पर मजाक-मजाक में ही मशहूर हो गया था कि रायबहादुर साहब से कोई काम करवाने के वास्‍ते बजाय लेडी गिर्राज के ले‍डी फुल्‍ली की सिफारिश ज्यादह पुरअसर होती है।

वैसे राजबहादुर गिर्राज में किसी ने भी कोई ऐब की बात नहीं देखी-सुनी थी, अगर ऐब था तो यही कि वे मॉडर्न थे। चुरुट मुँह में लगाए बगैर वे बात नहीं कर पाते थे। अगर कोई हिंदी सभा का चंदा माँगने आए तो उससे अकड़कर कहते कि मॉडर्न जमाने में गँवारू भाषाओं का उद्धार करना हिमाकत की बात है। धर्म के संबंध में पहले तो वे यह कहा करते थे कि यह ढोंग और पागलपन की वस्‍तु है, मगर बाद में उसे इंडियन कल्‍चर का एक सनातन रूप मानकर सहन कर जाते थे। गिर्राज साहब थोड़ा-बहुत लेने-देने का काम करते थे और उसकी बदौलत उन्‍होंने हैसियत भी बनाई। अच्‍छा मॉडर्न ढंग का मकान बनवाया। उसका नाम ‘दि नाइटिंगेल’ रक्खा। मोटर खरीदी। सदा दो-चार नौकर पाले। घर से लेकर दफ्तर तक घड़ी साधकर सबसे ड्यूटी करवाई। पत्‍नी को भी मिलने के वास्‍ते फुल्‍ली के द्वारा उनसे ‘अप्‍वाइंटमेंट’ लेना पड़ता था। लेडी इससे जल-फुँक गई कि मैं फुल्‍ली से भी गई-बीती हो गई।

लेडी गिर्राज ने अपने फूहड़पन में उनके ऊपर एक बहुत बड़ा लांछन लगा दिया। रायबहादुर साहब सिद्धांततः और स्‍वभावतः अवैध रिश्‍तों से नफरत करते थे, इसलिए अपनी पत्‍नी के द्वारा झूठा लांछन लगाए जाने के बाद फिर उन्‍होंने कभी उनका मुँह न देखा। बड़ी लड़की के विवाह के अवसर पर उन्‍होंने कन्‍यादान इसलिए स्‍वयं न किया कि उन्‍हें पूजा के पटरे पर अपनी पत्‍नी के साथ बैठना पड़ता।

इसके बाद दो वर्ष में लेडी गिर्राज घुल-घुलकर मर गईं; मगर मरीं भी तो नियति के साथ षड्यंत्र करके ठीक इनके रिटायर होने के दिन। रायबहादुर गिर्राज को बहुत शिकायत हुई; अपने बेटे-बेटी से कहा, “तुम्‍हारी मम्मी को कभी टाइम का सेंस नहीं रहा। अगर मरना ही था तो कल सुबह मरतीं, परसों सुबह मर सकती थीं। आज शाम को दफ्तर में मेरी फेयरवेल पार्टी हो जाने के बाद कभी मर सकती थीं। जिंदगी में एड्रेस पाने का यह पहला मौका आया था सो इस तरह तबाहोबर्बाद कर दिया। ईडियट कहीं की!”

इसके बाद, मरनेवाली तो खैर, मर ही चुकी थी मगर जो भी मातम-पुरसी के लिए मुँह बिसूरते हुए आए, उन्‍हें भी रायबहादुर साहब की डाँट खानी पड़ी। जो कहता कि साहब सुनकर बड़ा दुख हुआ, उससे ही कहते, “आपको दुख करने की जरूरत क्‍या है? मुझे कोई दुख नहीं हुआ। जो आदमी पैदा होता है, उन सबको एक साथ फौरन मर जाना चाहिए। जाइए, मेरे यहाँ मातम-पुरसी के लिए आने की जरूरत नहीं।”

छोटी लड़की की शादी उन्‍होंने पत्‍नी की मृत्‍यु के तीन महीने बाद पूर्व निश्‍चय के अनुसार ही की। स्‍वयं ब्‍याहनेवाली लड़की और उनके पुत्र को इसमें आपत्ति थी, मगर उन्‍होंने किसी की एक न सुनी, कहा, “आई हैव नो रिगार्ड फॉर योर मम्‍मी। शी वाज एक परफेक्‍ट फूल!” लड़की की शादी बड़ी धूमधाम से की। एक आई.सी.एस. के बेटे को अपना दामाद बनाया और बहुत कुछ दान-दहेज देकर रिटायर होने के बाद भी रोब जतलाया।

लड़का रमेश तब एम.ए. फाइनल में पढ़ रहा था। नामी तेज था; सदा फर्स्‍ट क्‍लास रेकार्ड रहा। एम.ए. के बाद आई.ए.एस. में बैठनेवाला था। लड़कीवाले अनेक व्‍यक्ति रमेश की माँग करने के लिए रायबहादुर की सेवा में आने लगे। रायबहादुर गिर्राज को अब मातहत क्‍लर्कों पर न सही तो बे‍टीवालों पर ही चुरुट का रोब झाड़कर भरपूर संतोष मिल जाता था। दहेज के मामले में वे पक्‍के मॉडर्न थे यानी पच्‍चीस हजार माँगते थे। एकाध पिछले जानकार ने दुहाई दी कि आप तो दहेज के विरुद्ध थे, उसको पुरानी प्रथा बतलाते थे तो बोले, “साहब, जब मुझ से बड़े अफसर, आई.सी.एस. आदमी, यानी मेरे समधी साहब, दहेज लेने को मॉडर्न प्रथा मानते हैं तो मैंने भी अपने विचार बदल दिए हैं। निहायत साइंटिफिक बात है कि आपको दामाद चाहिए और मुझे 25 हजार रुपया। मेरा रमेश आई.ए.एस. पास करेगा। आप अपनी लड़की का फ्यूचर देखकर अगर इतनी रक्‍कम देना स्‍वीकार करते हैं तो बैठिए, वरना मेरी कुरसी की गद्दी मैली मत कीजिए।”

वे ऐसी लड़की चाहते थे, जो सुंदर हो, बी.ए. हो, गाती नाचती हो, सीना-पिरोना-बुनना जानती हो, अंग्रेजी में फटाफट बात करें। अफसर किस्म के मॉडर्न मेहमानों की खातिर करने में तमीजदार हो और ऊपर से उसका बाप नगद पच्‍चीस हजार रुपये भी दे जाए। बिरादरी के कई अच्‍छी हैसियतवाले बेटियों के बापों के चेहरे रायबहादुर गिर्राज के चुरुट की अकड़ से धुआँ-छुआँ हो गए।

एक दिन इनके द्वारा नौकर रखाए गए पुराने मातहत एक सजातीय बाबू देवीशंकर पधारे। गिर्राज की महिमाओं का बखान करते हुए उन्‍होंने कहा, “सर, मैं आपकी च्‍वायस को जानता हूँ और एक लड़की मेरी नजर में है।”

इन बाबू के साथ उन्‍होंने रीता को देखने का अवसर पाया। रीता रायसाहब चमनलाल की इकलौती बेटी थी। रायसाहब चमनलाल ने अपने जमाने में बड़े ऐश, बड़े नाम किए। वे शहर की तवायफों के सरताज थे, रेस के घोड़ों के सरपस्‍त थे और बड़े ही औला-पौला आदमी थे। अपने जीवन-काल में लाखों कमाए और लाखों फूँके। एक लड़की हुई, उसे बड़े लाड़ से पाला-पोसा, पढ़ाया। हाई स्‍कूल तक रीता ने परीक्षाओं तथा वाद-विवाद और नृत्‍य-प्रतियोगिताओं में अनेक पुरस्‍कार प्राप्‍त कर अपने पिता को संतुष्‍ट किया था। रायसाहब विधुर थे, रीता की एक विधवा मौसी उनकी लड़की की देखभाल करने के लिए उनके यहाँ रहती थी, सो तब तरह से उनकी ही हो गई थी। रायसाहब ने आँख मूँदकर अपना घर अपनी रक्षिता साली को सौंप रक्‍खा था।

बाद में रायसाहब चमनलाल की जन्‍मकुंडली के ग्रह-नक्षत्र पहटे, बड़ा घाटा आया। दिवालिए होने की नौबत आ गई। अपनी लड़की के वास्‍ते कुछ रकम बचाने की नीयत से उन्‍होंने एक बँगला अपनी साली के नाम से खरीदा और लगभग एक लाख रुपया नगद और जेवरों के रूप में बचाकर उसी के नाम से जमा करवा दिया। फिर रायसाहब दिवालिए हो गए और जिस दिन उन्‍हें अपनी महलनुमा कोठी सदा के लिए छोड़नी थी, उस दिन उन्‍होंने गहरे नशे में अपनी कनपटी पर रिवाल्‍वर रखकर अपनी इहलीला समाप्‍त कर दी। रायसाहब की मृत्‍यु के बाद मौसी सयानी हो गई और रीता अनाथ।

लड़की देखने गए तो उसकी दो चोटियों में ति‍तलियों जैसे रिबन देखकर रायबहादुर साहब के पेंशन प्राप्‍त जीवन में नई रस की गुलाबी आई। अनेक वर्षों का सोया हुआ मॉडर्न पत्‍नी का अभाव जाग उठा। लड़की रीता बातचीत में तेंज, आँखें नचाने में बाकमल और हँसने में बिजली थी। देखकर लौटे तो रास्‍ते में देवीशंकर से बोले, “लड़की तो अच्‍छी है और दहेज का भी मुझे कोई खास नहीं, क्‍योंकि तुम तो जानते ही हो कि मैं इन सब मामलों में बड़ा मॉडर्न हूँ। खाली एक प्रयोजन हैं के – अ – क्‍या नाम के, आई मीन, तुम्‍हारा क्‍या खयाल है, देवीशंकर, अभी तो मैं भी शादी कर सकता हूँ?”

देवीशंकर रायबहादुर को घूरते लगे। मुँह पर खुशामद से ‘हाँ’ के बजाय ‘ना’ भला क्‍यों कर कहते। मौसी के लिए इससे बढ़कर कोई शुभ संवाद न हो सकता था। अठारह वर्ष की आयु की रीता छप्पन वर्षीय रायबहादुर गिर्राजकिशन की पत्‍नी बनी।

और इसके बाद की तमाम बातें अपने क्रम में बढ़ गईं। रीता ने प्रथम दिन से ही अपने पति से कोई संबंध न रक्खा। हठपूर्वक अपने कमरे के अंदर बंद रही। रायबहादुर रुपये-पैसे, गहनों और खुशामदों की बड़ी-बड़ी नुमायशें लगाकर हार गए। फिर एक दिन फुल्‍ली ने बतलाया कि रमेश और रीता रायबहादुर द्वारा स्‍थापित संबंध को भूलकर परस्‍पर नया संबंध स्‍थापित कर रहे हैं। रायबहादुर आग हो गए। रमेश तब एम.ए. के अंतिम वर्ष में पढ़ रहा था। पिता ने क्रोध में अंधे होकर उस पर प्रहार किया और घर से निकाल दिया। रीता तब भी उनकी न हुई।

रमेश को दो महीने बाद ही दिल्‍ली में कोई नौकरी मिल गई और उसके महीने-भर बाद ही रीता रायबहादुर के घर से गायब होकर दिल्‍ली पहुँच गई। जाने से पूर्व वह एक अलबेला काम कर गई थी। मुहल्‍ले के पच्‍चास घरों में हर पते पर उसका लिखा पोस्‍टकार्ड उसके गायब होने के दूसरे ही दिन पहली डाक से पहुँचा। उसमें मात्र इतना ही लिखा था- “बाबू गिरिराजकृष्‍ण ने मुझे जबरदस्‍ती अपनी पत्‍नी बनाया था, मगर मैंने उन्‍हें कभी अपना पति न माना और न अपना धर्म ही दिया। विवाह से पहले मुझे बतलाया गया कि मैं उनके पुत्र को ब्‍याही जाऊँगी। तब से मैंने उनके पुत्र को ही अपना पति माना; इस घर में आकर भी उन्‍हें ही भगवान की साक्षी में अपने को सौंपा और अब मैं अपने पति के पास ही जा रही हूँ।”

रीता के भागने से रायबहादुर बाबू गिर्राजकिशन को इतना कष्‍ट नहीं पहुँचा था, जितना कि उसके द्वारा भेजे गए इस सार्वजनिक पत्र से वे दुखी हुए। इसके बाद रायबहादुर का जीवन बदल गया। उनमें पूजा-पाठ और आस्तिकता की भावना जागी, साथ ही अकेलापन भी हठ पकड़ गया। पिछले आठ वर्षों में वे एक दिन भी अपने घर से बाहर निकलकर कहीं न गए। लेन-देन का काम करते थे, वह भी धीरे-धीरे समाप्‍त कर दिया। मुहल्‍ले में किसी से भी संपर्क न रक्‍खा। पिछले कुछ दिनों से बीमार थे, मगर मुहल्‍लेवाले उनकी हालत देखने-पूछने भी न गए, जाते तो मिलते भी नहीं और अचानक मेरे पास अब यह पत्र आया।

हम सभी मुहल्‍लेवाले एकाएक यह निर्णय न कर पाए कि इस स्थिति में क्‍या करना चाहिए। वैद्यजी और बड़े बाबू इस पक्ष में थे कि पुलिस को सूचना दे दी जाए और इस पत्र को लिखी हुई बातों का अमल भी कानून के हाथों ही हो, परंतु मैं तो मृत व्‍यक्ति की अंतिम इच्‍छा पूरी करने के पक्ष में था। रायबहादुर कैसे भी रहे हों, इसी मुहल्‍ले के थे। कइयों को उन्‍होंने कभी नौकरियाँ भी दिलाई थीं, उपकार किया था। इंजीनियर साहब भी मेरे ही मत के थे। बाद में सभी राजी हो गए। मुहल्‍ले के एक मित्र के पास रमेश के पत्र आया करते थे। उसी से पता लेकर तार भेजा गया, जिसमें यह स्‍पष्‍ट लिख दिया था कि यदि कल प्रातःकाल तक तुम स्‍वयं अथवा तुम्‍हारा पत्र उत्तर न आएगा तो रायबहादुर की अंत्‍योष्टि क्रिया मुहल्‍लेवालों द्वारा ही पंचनामें से संपन्‍न कर दी जाएगी।

सुबह चार बजे तार का जवाब आया कि रमेश टैक्‍सी द्वारा दिल्‍ली से चल रहा है और सुबह तक पहुँच जाएगा। प्रातःकाल करीब-करीब सभी मुहल्‍लेवाले रायबहादुर के घर पर उ‍पस्थित थे, तभी टैक्‍सी दरवाजे पर रुकी। रमेश, रीता और तीन बच्‍चे उतरे। रमेश के मुँह पर तो सामाजिक लज्‍जा और संकोच की मलिन छाया थी, परंतु रीता का चेहरा सतेज और निर्विकार था।

रीता के आने का संवाद पाकर अनेक स्त्रियाँ कौतूहलवश आ गईं। रीता ने रायबहादुर की लाश के पास अपनी चूड़ियाँ तोड़ीं और माँग का सिंदूर पोंछा। रमेश ने पिता का अंतिम संस्‍कार किया। स्त्रियाँ रीता से तरह-तरह के प्रश्‍न करती थीं, परंतु वह कोई उत्तर न देती थी। क्रियाकर्म इत्‍यादि में रायबहादुर के सजा‍तीय, नाते-रिश्‍तेदार आदि बहुत कम आए। ब्रह्मभोज में गरीबी से एकदम टूटे हुए ब्राह्मण ही आए। किसी प्रकार क्रियाकर्म समाप्‍त हुआ। रमेश के वहाँ से चलने का समय आया।

मैंने रायबहादुर के अंतिम पत्र के अनुसार संभ्रांत मुहल्‍लेवालों के साथ रीता-रमेश को बुलाकर सबके सामने उनका वह अंतिम पत्र पढ़ा और वह तकिया, जो मुहरबंद पेटी में मैंने रखवा दिया था, खुलवाया। फुल्‍ली और नौकरों को रायबहादुर की इच्‍छानुसार रुपये दे दिए गए। रायबहादुर की अंतिम माँग पर रीता का निर्णय सुनने के लिए हम सभी उत्‍सुक बैठे थे। रीता बोली, “मैं धर्म और ईश्‍वर के सम्‍मुख सच्चरित्र हूँ। मैंने अपने तन-मन से उन्‍हें सदा ससुर ही माना। धार्मिक कानून की जिस मजबूरी से उन्‍होंने मुझे अपनी पत्‍नी बनाया था, उसे मैंने विधिवत उनकी लाश को सौंप भी दिया। उनकी चूड़ियाँ, उनका सिंदूर उन्‍हें सौंपा, लेकिन मेरी चूड़ियाँ, मेरा सिंदूर अक्षय है।” कहकर उसने देर से अपने हाथ के नीचे दबी हुई रूमाल की पोटली को उठाया, उसमें हरी चूड़ियाँ थीं और एक चाँदी की डिबिया थी। चूड़ियाँ पहनीं और डिबीया खोलकर रमेश की और रखते हुए बोली, “जिन्‍होंने मेरी गोद भरी है, उन्‍होंने मेरी माँग भी भरी है – लीजिए मेरी माँग भर दीजिए।”

रमेश ने रीता की माँग में सिंदूर की रेखा खींच दी। फिर रीता बोली, “घर के संबंध में मुझे केवल यही कहना है कि अगर आप पाँच पंच मुझे दुश्‍चरित्र मानते हों तो उसे धर्मशाला बना दीजिए।”

हममें से कोई खम ठोंककर एकाएक यह नहीं कह पाया कि रीता दुश्‍चरित्र है। मैंने अनुभव किया कि सभी के मनों को इस प्रश्‍न से धक्‍का लगा था। अपने परंपरागत धार्मिक, सामाजिक संस्‍कारों के कारण हम रीता को सचरित्रा मानने से भी मन ही मन हिचकते थे, पर यों क्‍या कहें।

रीता हमारी हिचक पर एक बार कहकर उठ गई। उसने कहा, “मुझे रायबहादुर साहब का घर और दस हजार रुपये पाने की इच्‍छा नहीं। मेरे पति ने मुझे सुहाग की छाँव दे रक्‍खी है। लेकिन मैं आपके सामने कसौटी रखती हूँ – बोलिए घर किसका है?”

घर को छोड़कर बाकी सब सामान के साथ रमेश, रीता और उनके बच्‍चे दिल्‍ली चले गए। हम अभी तक कोई निर्णय नहीं कर पाए। घर की चाभी मेरे पास है। वह तोले डेढ़ का लोहे का टुकड़ा इस समय मेरे मन-प्राणों का बोझ बना हुआ है।

Monday, January 29, 2024

मेरा दुश्मन - कृष्ण बलदेव वैद


वह इस समय दूसरे कमरे में बेहोश पड़ा है। आज मैंने उसकी शराब में कोई चीज़ मिला दी थी कि ख़ाली शराब वह शरबत की तरह गट-गट पी जाता है और उस पर कोई ख़ास असर नहीं होता। आँखों में लाल डोर-से झूलने लगते हैं, माथे की शिकनें पसीने में भीगकर दमक उठती हैं, होंठों का ज़हर और उजागर हो जाता है, और बस—होशोहवास बदस्‍तूर क़ायम रहते हैं।

हैरान हूँ कि यह तरकीब मुझे पहले कभी क्‍यों नहीं सूझी। शायद सूझी भी हो, और मैंने कुछ सोचकर इसे दबा दिया हो। मैं हमेशा कुछ-न-कुछ सोचकर कई बातों को दबा जाता हूँ। आज भी मुझे अंदेशा तो था कि वह पहले ही घूँट में ज़ायका पहचानकर मेरी चोरी पकड़ लेगा। लेकिन गिलास ख़त्म होते-होते उसकी आँखें बुझने लगी थीं और मेरा हौसला बढ़ गया था। जी में आया था कि उसी क्षण उसकी गरदन मरोड़ दूँ, लेकिन फिर नतीजों की कल्‍पना से दिल दहलकर रह गया था। मैं समझता हूँ कि हर बुज़दिल आदमी की कल्‍पना बहुत तेज़ होती है, हमेशा उसे हर ख़तरे से बचा ले जाती है। फिर भी हिम्‍मत बांधकर मैंने एक बार सीधे उसकी ओर देखा ज़रूर था। इतना भी क्‍या कम है कि साधारण हालात में मेरी निगाहें सहमी हुई-सी उसके सामने इधर-उधर फड़फड़ाती रहती हैं। साधारण हालात में मेरी स्थिति उसके सामने बहुत असाधारण रहती है।

ख़ैर, अब उसकी आँखें बंद हो चुकी थीं और सर झूल रहा था। एक ओर लुढ़ककर गिर जाने से पहले उसकी बाँहें दो लदी हुई ढीली टहनियों की सुस्‍त-सी उठान के साथ मेरी ओर उठ आयी थीं। उसे इस तरह लाचार देखकर भ्रम हुआ था कि वह दम तोड़ रहा है।

लेकिन मैं जानता हूँ कि वह मूजी किसी भी क्षण उछल कर खड़ा हो सकता है। होश सँभालने पर वह कुछ कहेगा नहीं। उसकी ताकत उसकी खामोशी में है। बातें वह उस जमाने में भी बहुत कम किया करता था, लेकिन अब तो जैसे बिलकुल गूँगा हो गया हो।

उसकी गूँगी अवहेलना की कल्‍पना-मात्र से मुझे दहशत हो रही है। कहा न, कि मैं एक बुजदिल इंसान हूँ।

वैसे मैं न जाने कैसे समझ बैठा था कि इतने अर्से की अलहदगी के बाद अब मैं उसके आतंक से पूरी तरह आजाद हो चुका हूँ। इसी खुशफहमी में शायद उस रोज उसे मैं अपने साथ ले आया था। शायद मन में कहीं उस पर रोब गाँठने, उसे नीचा दिखाने की दुराशा भी रही हो। हो सकता है कि मैंने सोचा हो कि वह मेरी जीती-जागती खूबसूरत बीवी, चहकते-मटकते तंदुरुस्‍त बच्‍चों और आरास्‍ता-पैरास्‍ता अलीशान कोठी को देख कर खुद ही मैदान छोड़ कर भाग जाएगा और हमेशा के लिए मुझे उससे निजात मिल जाएगी। शायद मैं उस पर यह साबित कर दिखाना चाहता था कि उससे पीछा छुड़ा लेने के बाद किस खुशगवार हद तक मैंने अपनी जिंदगी को सँभाल-सँवार लिया है।

लेकिन ये सब लँगड़े बहाने हैं। हकीकत शायद यह है कि उस रोज मैं उसे अपने साथ नहीं लाया था, बल्कि वह खुद ही मेरे साथ चला आया था, जैसे मैं उसे नहीं बल्कि वह मुझे नीचा दिखाना चाहता हो। जाहिर है कि उस समय यह बारीक बात मेरी समझ में नहीं आई होगी। मौके पर ठीक बात मैं कभी नहीं सोच पाता। यही तो मुसीबत है। वैसे मुसीबतें और भी बहुत हैं, लेकिन उन सबका जिक्र यहाँ बेकार होगा।

खैर, माला के सामने उस रोज मैंने इसी किस्‍म की कोई लँगड़ी सफाई पेश करने की कोशिश की थी और उस पर कोई असर नहीं हुआ था। वह उसे देखते ही बिफर उठी थी। सबसे पहले अपनी बेवकूफी और सारी स्थिति का एहसास शायद मुझे उसी क्षण हुआ था। मुझे उस कमबख्त से वहीं घर से दूर, उस सड़क के किनारे किसी-न-किसी तरह निबट लेना चाहिए था। अगर अपनी उस सहमी हुई खामोशी को तोड़ कर मैंने अपनी तमाम मजबूरियाँ उसके सामने रख दी होतीं, माला का एक खाका-सा खींच दिया होता, साफ-साफ उससे कह दिया होता – “देखो गुरु, मुझ पर दया करो और मेरा पीछा छोड़ दो” – तो शायद वहीं हम किसी समझौते पर पहुँच जाते। और नहीं तो वह मुझे कुछ मोहलत तो दे ही देता। छूटते ही दो मोरचों को एक साथ सँभालने की दिक्‍कत तो पेश न आती। कुछ भी हो, मुझे अपने घर नहीं लाना चाहिए था। लेकिन अब यह सारी समझदारी बेकार थी।

माला और वह एक-दूसरे को यूँ घूर रहे थे जैसे दो पुराने और जानी दुश्‍मन हों। एक क्षण के लिए मैं यह सोच कर आश्‍वस्‍त हुआ था कि माला सारी स्थिति खुद सँभाल लेगी और फिर दूसरे ही क्षण मैं माला की लानत-मुलामत की कल्‍पना कर सहम गया था। बात को मजाक में घोल देने की कोशिश में मैंने एक खास गिलगिले लहजे में – जो मेरे पास ऐसे नाजुक मौकों के लिए सुरक्षित रहता है – कहा था, “डार्लिंग, जरा रास्‍ता तो छोड़ो, कि हम बहुत लंबी सैर से लौटे हैं, जरा बैठ जाएँ तो जो सजा जी में आए, दे देना।”

वह रास्‍ते से तो हट गई थी, लेकिन उसके तनाव में कोई कमी नहीं हुई थी, और न ही उसने मुझे बैठने दिया था। साथ ही उस मुरदार ने मेरी तरफ यूँ देखा था जैसे कह रहा हो – “तो तुम वाकई इस औरत के गुलाम बन कर रह गए हो।” और खुद मैं उन दोनों की तरफ यूँ देख रहा था जैसे एक की नजर बचा कर दूसरे से कोई साजिशी सम्बन्ध पैदा कर लेने की ख्‍वाहिश हो।

फिर माला ने मौका पाते ही मुझे अलग ले जा कर डाँटना-डपटना शुरू कर दिया था – “मैं पूछती हूँ कि यह तुम किस आवारागर्द को पकड़ कर साथ ले आए हो? जरूर कोई तुम्‍हारा पुराना दोस्‍त होगा? है न? इत्‍ते बरस शादी को हो चले लेकिन तुम अभी तक वैसे-के-वैसे ही रहे। मेरे बच्‍चे उसे देख कर क्‍या कहेंगे? पड़ोसी क्‍या सेाचेंगे? अब कुछ बोलोगे भी?”

मैं हैरान था कि क्‍या बोलूँ! माला के सामने मैं बोलता कम हूँ, ज्‍यादा समय तोलने में ही बीत जाता है और उसका मिजाज और बिगड़ जाता है। वैसे उसका गुस्‍सा वजा था। उसका गुस्‍सा हमेशा वजा होता है। हमारी कामयाब शादी की बुनियाद भी इसी पर कायम है – उसकी हर बात हमेशा सही होती है और मैं अपनी हर गलती को चुपचाप और फौरन कबूल कर लेता हूँ। बीच-बीच में महज मुझे खुश कर देने के खयाल से वह इस किस्‍म की शि‍कायतें जरूर कर दिया करती है – “तुम्‍हें न जाने हर मामूली-से-मामूली बात पर मेरे खिलाफ डट जाने में क्‍या मजा आता है? मानती हूँ कि तुम मुझसे कहीं ज्‍यादा समझदार हो, लेकिन कभी-कभी मेरी बात रखने के लिए ही सही… वगैरा-वगैरा।”

मुझे उसके ये झूठे उलाहने बहुत पसंद हैं, गो मैं उनसे ज्‍यादा खुश नहीं हो पाता। फिर भी वह समझती है कि इनसे मेरा भ्रम बना रहता है और मैं जानता हूँ कि बागडोर उसी के हाथ में रहती है और यह ठीक ही है।

तो माला दाँत पीस कर कह रही थी – “अब कुछ बोलोगे भी? मेरे बच्‍चे पार्क से लौट कर इस मनहूस आदमी को बैठक में बैठा देखेंगे, तो क्‍या कहेंगे? उन पर क्‍या असर होगा? उफ, इतना गंदा आदमी! सारा घर महक रहा है। बताओ न, मैं अपने बच्‍चों से क्‍या कहूँगी?”

अब जाहिर है कि माला को कुछ भी नहीं बता सकता था। सो मैं सिर झुकाए खड़ा रहा और वह मुँह उठाए बहुत देर तक बरसती रही।

वैसे यहाँ यह साफ कर दूँ कि वे बच्‍चे माला अपने साथ नहीं लाई थी। वे मेरे भी उतने ही हैं जितने कि उसके, लेकिन ऐसे मौकों पर वह हमेशा ‘मेरे बच्‍चे’ कह कर मुझसे उन्‍हें यूँ अलग कर लिया करती है, जैसे कोई कीचड़ से लाल निकाल रहा हो। कभी-कभी मुझे इस बात पर बहुत दुख भी होता था, लेकिन फिर ठंडे दिल से सोचने पर महसूस होता है कि शारीरिक सच्चाई कुछ भी हो, रूहानी तौर पर हमारे सभी बच्‍चे माला के ही है, उनके रंग-ढंग में मेरा हिस्‍सा बहुत कम है। और यह ठीक ही है, क्योंकि अगर वे मुझ पर जाते तो उन्‍हें भी मेरी तरह सीधा होने में न जाने कितनी देर लग जाती। मैं खुश हूँ कि उनका कानूनी और शायद जिस्‍मानी, बाप हूँ, उनके लिए पैसे कमाता हूँ, और दिलोजान से उनकी माँ की सेवा में दिन-रात जुटा रहता हूँ।

खैर! कुछ देर यूँ ही सिर नीचा किए खड़े रहने के बाद आखिर मैंने निहायत आजिजाना आवाज में कहना शुरू किया था – “अरे भई, मैं तो उस कमबख्‍त को ठीक तरह से पहचानता भी नहीं, उससे दोस्‍ती का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। अब अगर रास्‍ते में कोई आदमी मिल जाए तो…।”

न जाने मेरे फिकरे का अंत क्‍योंकर होता। शायद होता भी कि नहीं, लेकिन माला ने बीच में ही पाँव पटक कर कह दिया – “झूठ, सरासर झूठ।”

यह कह कर वह अंदर चली गई और मैं कुछ देर तक और वहीं सिर नीचा किए खड़ा रहने के बाद वापस उस कमरे में लौट आया, जहाँ बैठा वह बीड़ी पी रहा था और मुस्‍करा रहा था, जैसे सब जानता हो कि मैं किस मरहले से गुजर कर आ रहा हूँ।

अब हुआ दरअसल यह था कि उस शाम माला से, कुछ दूर अकेला घूम आने की इजाजत माँग कर मैं यूँ ही बिना मतलब घर से बाहर निकल गया था। आम तौर पर वह ऐसी इजाजतें आसानी से नहीं देती और न ही मैं माँगने की हिम्‍मत कर पाता हूँ। बिना मतलब घूमना उसे बहुत बुरा लगता है। कहीं भी जाना हो, किसी से भी मिलना हो, कुछ भी करना या न करना हो, मतलब का साफ और सही फैसला वह पहले से ही कर लेती है। ठीक ही करती है। मैं उसकी समझदारी की दाद देता हूँ। वैसे घर से दूर अकेला मैं किसी मतलब से भी नहीं आ पाता। माला की सोहबत की कुछ ऐसी आदत-सी पड़ गई है, कि उसके बगैर सब सूना-सूना-सा लगता है। जब वह साथ रहती है तो किसी किस्‍म का कोई ऊल-जलूल विचार मन में उठ ही नहीं पाता, हर चीज ठोस और बामतलब दिखाई देती है। अंदर की हालत ऐसी रहती है, जैसे माला के हाथों सजाया हुआ कोई कमरा हो, जिसमें हर चीज करीने से पड़ी हो, बेकायदगी की कोई गुंजाइश न हो। और जब वह साथ नहीं होती, तो वही होता है जो उस शाम हुआ, या फिर उसी किस्‍म का कोई और हादसा, क्योंकि उससे पहले वैसी बात कभी नहीं हुई थी।

तो उस शाम न जाने किस धुन में मैं बहुत दूर निकल गया था। आम तौर पर घर से दूर होने पर भी मैं घर ही के बारे में सोचता रहता हूँ – इसलिए नहीं कि घर में किसी किस्‍म की कोई परेशानी है। गाड़ी न सिर्फ चल रही है, बल्कि खूब चल रही है। बागडोर जब माला-जैसी औरत के हाथ हो, तो चलेगी नहीं तो और करेगी भी क्‍या? नहीं, घर में कोई परेशानी नहीं – अच्‍छी तनख्‍वाह, अच्‍छी बीवी, अच्‍छे बच्‍चे, अच्‍छे बा-रसूख दोस्‍त, उनकी बीवियाँ भी खूब हट्टी-कट्टी और अच्‍छी, अच्‍छा सरकारी मकान, अच्‍छा खुशनुमा लॉन, पास-पड़ोस भी अच्‍छा, महँगाई के बावजूद दोनों वक्‍त अच्‍छा खाना, अच्‍छा बिस्‍तर और अच्‍छी बिस्‍तरी जिंदगी। मैं पूछता हूँ, इस सबके अलावा और चाहिए भी क्‍या एक अच्‍छे इंसान को? फिर भी अकेला होने पर घरेलू मामलों को बार-बार उलट-पलट कर देखने से वैसा ही इत्‍मीनान मिलता है, जैसा किसी भी सेहतमंद आदमी को बार-बार आईने में अपनी सूरत देख कर मिलता होगा। मेरा मतलब है कि वक्‍त अच्‍छी तरह से कट जाता है, ऊब नहीं होती। यह भी माला के ही सुप्रभाव का फल है, नहीं तो एक जमाना था कि मैं हरदम ऊब का शिकार रहा करता था।

हो सकता है कि उस शाम दिमाग कुछ देर के लिए उसी गुजरे हुए जमाने की ओर भटक गया हो। कुछ भी हो, मैं घर से बहुत दूर निकल गया था और फिर अचानक वह मेरे सामने आ खड़ा हुआ था।

महसूस हुआ था जैसे मुझे अकेला देख कर घात में बैठे हुए किसी खतरनाक अजनबी ने ही रास्‍ता रोक लेना चाहा हो। मैं ठिठक कर रुक गया था। उसकी सुती हुई आँखों से फिसल कर मेरी निगाह उसकी मुस्‍कराहट पर जा टिकी थी, जहाँ अब मुझे उसके साथ बिताए हुए उस सारे गर्द-आलूद जमाने की एक टिमटिमाती हुई-सी झलक दिखाई दे रही थी। महसूस हो रहा था कि बरसों तक रूपोश रहने के बाद फिर मुझे पकड़ कर किसी के सामने पेश कर दिया गया हो। मेरा सिर इस पेशी के खयाल से दब कर झुक गया था।

कुछ, या शायद कितनी ही देर हम सड़क के उस नंगे और आवारा अँधेरे में एक-दूसरे के रूबरू खड़े रहे थे। अगर कोई तीसरा उस समय देख रहा होता, तो शायद समझता कि हम किसी लाश के सिरहाने खड़े कोई प्रार्थना कर रहे हैं, या एक-दूसरे पर झपट पड़ने से पहले किसी मंत्र का जाप।

वैसे यह सच है कि उसे पहचानते ही मैंने माला को याद करना शुरू कर दिया था, कि हर संकट में मैं हमेशा उसी का नाम लेता हूँ। साथ ही यहाँ से दुम दबा कर भाग उठने की ख्‍वाहिश भी मन में उठती रही थी। एक उड़ती हुई-सी तमन्‍ना यह भी हुई थी कि वापस घर लौटने के बजाय चुपचाप उस कमबख्‍त के साथ हो लूँ, जहाँ वह ले जाना चाहे चला जाऊँ और माला को खबर तक न हो। इस विचार पर तब भी मैं बहुत चौंका था और अभी तक हैरान हूँ, क्‍योंकि आखिर उसी से पीछा छुड़ाने के लिए ही तो मैंने माला की गोद में पनाह ली थी। अगर आज से कुछ बरस पहले मैंने उसके खिलाफ बगावत न की होती तो। लेकिन उस भागने को बगावत का नाम दे कर मैं अपने-आपको धोखा दे रहा हूँ, मैंने सोचा था और मेरा मुँह शर्म के मारे जल उठा था।

उस हरामजादे ने जरूर मेरी सारी परेशानी को भाँप लिया होगा। उससे मेरी कोई कमजोरी छिपी नहीं और उससे भाग कर माला की गोद में पनाह लेने की एक बड़ी वजह यही थी। उसकी हँसी मुझे सूखे पत्‍तों की हैबतनाक खड़खड़ाहट सुनाई दे रही थी और उस खड़खडाहाट में उसके साए में गुजारे हुए जमाने की बेशुमार बातें आपस में टकरा रही थीं। बड़ी ही मुश्किल से आँख उठा कर उसकी ओर देखा था। उसका हाथ मेरी तरफ बढ़ा हुआ था। कसे हुए दाँतों से मैंने उसकी आँखों का सामना किया था। अपना हाथ उसके खुरदरे हाथ में देते हुए और उसकी साँसों की बदबूदार हरारत अपने चेहरे पर झेलते हुए मैंने महसूस किया था जैसे इतनी मुद्दत आजाद रह लेने के बाद फिर अपने-आपको उसके हवाले कर दिया हो। अजीब बात है, एहसास से जितनी तकलीफ मुझे होनी चाहिए थी, उतनी हुई नहीं थी। शायद हर भगोड़ा मुजरिम दिल से यही चाहता है कि उसे कोई पकड़ ले।

घर पहुँचने तक कोई बात नहीं हुई थी। अपनी-अपनी खामोशी में लिपटे हुए हम धीमे-धीमे चल रहे थे, जैसे कंधों पर कोई लाश उठाए हुए हों।

सो, जब माला की डाँट-डपट सुन लेने के बाद, मुँह बनाए, मैं वापस बैठक में लौटा, तो वह बदजात मजे में बैठा बीड़ी पी रहा था। एक क्षण के लिए भ्रम हुआ, जैसे वह कमरा उसी का हो। फिर कुछ सँभल कर, उससे नजर मिलाए बगैर, मैंने कमरे की सारी खिड़कियाँ खोल दीं, पंखे को और तेज कर दिया, एक झुँझलाई हुई ठोकर से उसके जूतों को सोफे के नीचे धकेल दिया, रेडियो चलाना ही चाहता था कि उसकी फटी हुई हँसी सुनाई दी और मैं बेबस हो, उससे दूर हट कर चुपचाप बैठ गया।

जी में आया कि हाथ बाँध कर उसके सामने खड़ा हो जाऊँ, सारी हकीकत सुना कर कह दूँ – “देखो दोस्‍त, अब मेरे हाल पर रहम करो और माला के आने से पहले चुपचाप यहाँ से चले जाओ, वरना नतीजा बुरा होगा।”

लेकिन मैंने कुछ कहा नहीं। कहा भी होता तो सिवाय एक और जहरीली हँसी के उसने मेरी अपील का कोई जवाब न दिया होता। वह बहुत जालिम है, हर बात की तह तक पहुँचने का कायल, और भावुकता से उसे सख्‍त नफरत है।

उसे कमरे का जायजा लेते देख मैंने दबी निगाह से उसकी ओर देखना शुरू कर दिया। टाँगे समेटे वह सोफे पर बैठा हुआ एक जानवर-सा दिखाई दिया। उसकी हालत बहुत खस्‍ता दिखाई दी, लेकिन उसकी शक्‍ल अब भी मुझसे कुछ-कुछ मिलती थी। इस विचार से मुझे कोफ्त भी हुई और एक अजीब किस्‍म की खुशी भी महसूस हुई। एक जमाना था जब वही एक मात्र मेरा आदर्श हुआ करता था, जब हम दोनों घंटों एक साथ घूमा करते थे, जब हमने बार-बार कई नौकरियों से एक साथ इस्‍तीफे दिए थे, कुछ-एक से एक साथ निकाले भी गए थे, जब हम अपने-आपको उन तमाम लोगों से बेहतर और ऊँचा समझते थे जो पिटी-पिटाई लकीरों पर चलते हुए अपनी सारी जिंदगी एक बदनुमा और रवायती घरौंदे की तामीर में बरबाद कर देते हैं, जिनके दिमाग हमेशा उस घरौंदे की चहारदीवारी में कैद रहते है, जिनके दिल सिर्फ अपने बच्चों की किलकारियों पर ही झूमते हैं, जिनकी बेवकूफ बीवियाँ दिन-रात उन्‍हें तिगनी का नाच नचाती हैं, और जिन्‍हें अपनी सफेदपोशी के अलावा और किसी बात का कोई गम नहीं होता। कुछ देर मैं उस जमाने की याद में डूबा रहा। महसूस हुआ, जैसे वह फिर उसी दुनिया से एक पैगाम लाया हो, फिर मुझे उन्‍हीं रोमानी वीरानों में भटका देने की कोशिश करना चाहता हो, जिनसे भाग कर मैने अपने लिए एक फूलों की सेज सँवार ली है, और जहाँ मैं बहुत सुखी हूँ।

वह मुस्‍करा रहा था, जैसे उसने मेरे अंदर झाँक लिया हो। उसे इस तरह आसानी से अपने ऊपर काबिज होते देख, मैंने बात बदलने के लिए कहा – “कितने रोज यहाँ ठहरोगे?”

उसकी हँसी से एक बार फिर हमारे घर की सजी-सँवारी फ़िज़ा दहक गई, और मुझे खतरा हुआ कि माला उसी दम वहाँ पहुँच कर उसका मुँह नोच लेगी। लेकिन यह खतरा इस बात का गवाह है कि इतने बरसों की दासता के बावजूद मैं अभी तक माला को पहचान नहीं पाया। थोड़ी ही देर में वह एक बहुत खूबसूरत साड़ी पहने मुस्‍कराती-इठलाती हुई हमारे सामने आ खड़ी हुई। हाथ जोड़ कर बड़े दिलफरेब अंदाज में नमस्‍कार करती हुई बोली, “आप बहुत थके हुए दिखाई देते हैं, मैंने गरम पानी रखवा दिया है, आप ‘वाश’ कर लें, तो कुछ पी कर ताजादम हो जाएँ। खाना तो हम लोग देर से ही खाएँगे।”

मैं बहुत खुश हुआ। अब मामला माला ने अपने हाथ में ले लिया था और मैं यूँ ही परेशान हो रहा था। मन हुआ कि उठ कर माला को चूम लूँ। मैंने कनखियों से उस हरामजादे की तरफ देखा, वह वाकई सहमा हुआ-सा दिखाई दिया। मैंने सोचा, अब अगर वह खुद-ब-खुद ही न भाग उठा तो मैं समझूँगा कि माला की सारी समझ-सीख और रंग-रूप बेकार है। कितना लुत्‍फ आए अगर वह कमबख्‍त भी भाग खड़ा होने के बजाय माला के दाँव में फँस जाए और फिर मैं उससे पूछूँ – “अब बता, साले, अब बात समझ में आई?” मैंने आँखें बंद कर लीं और उसे माला के इर्द-गिर्द नाचते हुए, उस पर फिदा होते हुए, उसके साथ लेटे हुए देखा। एक अजीब राहत का ए‍हसास हुआ। आँखें खोलीं तो वह गुसलखाने में जा चुका था और माला झुकी हुई सोफे को ठीक कर रही थी। मैंने उसकी आँखों में आँखें डाल कर मुस्कराने की कोशिश की, लेकिन फिर उसकी तनी हुई सूरत से घबरा कर नजरें झुका लीं। जाहिर था कि उसने अभी मुझे माफ नहीं किया था।

नहा कर वह बाहर निकला, तो उसने मेरे कपड़े पहने हुए थे। इस बीच माला ने बीअर निकाल ली थी और उसका गिलास भरते हुए पूछ रही थी – “आप खाने में मिर्च कम लेते हैं या ज्यादा?” मैंने बहुत मुश्किल से हँसी पर काबू किया – उस साले को तो खाना ही कब मिलता होगा, मैं सोच रहा था और माला की होशियारी पर खुश हो रहा था।

कुछ देर हम बैठे पीते रहे, माला उससे घुल-मिल कर बातें करती रही, उससे छोटे-छोटे सवाल पूछती रही – “आपको यह शहर कैसा लगा? बीअर ठंडी तो है न? आप अपना सामान कहाँ छोड़ आए?” – और वह बगलें झाँकता रहा। हमारे बच्‍चों ने आकर अपने ‘अंकल’ को ग्रीट किया, बारी-बारी उसके घुटनों पर बैठ कर अपना नाम वगैरा बताया, एक-दो गाने गाए और फिर ‘गुड नाइट’ कह कर अपने कमरे में चले गए। माला की मीठी बातों से यूँ लग रहा था जैसे हमारे अपने ही हलके का कोई बेतकल्‍लुफ दोस्‍त कुछ दिनों के लिए हमारे पास आ ठहरा हो, और उसकी बड़ी-सी गाड़ी हमारे दरवाजे़ के सामने खड़ी हो।

मैं बहुत खुश था और जब माला खाना लगवाने के लिए बाहर गई, तो उस शाम पहली बार मैंने बेधड़क उस कमीने की तरफ देखा। वह तीन-चार गिलास बीअर के पी चुका था और उसके चेहरे की जर्दी कुछ कम हो चुकी थी। लेकिन उसकी मुस्कराहट में माला के बाहर जाते ही फिर वही ज़हर और चैलेंज आ गया था और मुझे महसूस हुआ जैसे वह कह रहा हो – “बीवी तुम्‍हारी मुझे पसंद है, लेकिन बेटे! उसे खबरदार कर दो, मैं इतना पिलपिला नहीं जितना वह समझती है।”

एक क्षण के लिए फिर मेरा जोश कुछ ढीला पड़ गया। लगा जैसे बात इतनी आसानी से सुलझनेवाली नहीं। याद आया कि खूबसूरत और शोख औरतें उस जमाने में भी उसे बहुत पसंद थीं, लेकिन उनका जादू ज्‍यादा देर तक नहीं चलता था। फिर भी, मैंने सोचा, बात अब मेरे हाथ से निकल गई है और सिवाय इंतजार के मैं और कुछ नहीं कर सकता था।

खाना उस रोज बहुत उम्‍दा बना था और खाने के बाद माला खुद उसे उसके कमरे तक छोड़ने गई थी। लेकिन उस रात मेरे साथ माला ने कोई बात नहीं की। मैंने कई मजाक किए, कहा – “नहा-धो कर वह काफी अच्‍छा लग रहा था, क्‍यों?” बहुत छेड़-छाड़ की, कई कोशिशें कीं कि सुल‍हनामा हो जाए, लेकिन उसने मुझे अपने पास फटकने नहीं दिया। नींद उस रात मुझे नहीं आई, फिर भी अंदर से मुझे इत्‍मीनान था कि किसी-न-किसी तरह माला दूसरे रोज उसे भगा सकने में जरूर कामयाब हो जाएगी।

लेकिन मेरा अंदाजा गलत निकला। माना कि माला बहुत चालाक है, बहुत समझदार है, बहुत मनमोहिनी है, लेकिन उस हरामजादे की ढिठाई का भी कोई मुकाबला नहीं। तीन दिन तक माला उसकी खातिर-तबाजा करती रही। मेरे कपड़ों में वह अब बिलकुल मुझ जैसा हो गया था और नजर यूँ आता था जैसे माला के दो पति हों। मैं तो सुबह-सबेरे गाड़ी ले कर दफ्तर को निकल जाता था, पीछे उन दोनों में न जाने क्‍या बातें होती थीं। लेकिन जब कभी उसे मौका मिलता वह मुझे अंदर ले जा कर डाँटने लगती – “अब यह मुरदार यहाँ से निकलेगा भी कि नहीं। जब तक यह घर में है, हम किसी को न तो बुला सकते हैं, न किसी के यहाँ जा सकते हैं। मेरे बच्‍चे कहते हैं कि इसे बात करने तक की तमीज नहीं। आखिर यह चाहता क्‍या है?”

मैं उसे क्‍या बताता कि वह क्‍या चाहता है? कभी कहता – “थोड़ा सब्र और करो अब जाने की सोच रहा होगा।” कभी कहता – “क्‍या बताऊँ, मैं तो खु़द शर्मिंदा हूँ।” कभी कहता – “तुमने खु़द ही तो सिर पर चढ़ा लिया है। अगर तुम्‍हारा बर्ताव रूखा होता तो…”

माला ने अपना बर्ताव तो नहीं बदला, लेकिन चौथे रोज अपने बच्‍चों-सहित घर छोड़ कर अपने भाई के यहाँ चली गई। मैंने बहुतेरा रोका, लेकिन वह नहीं मानी। उस रोज वह कमबख्‍त बहुत हँसा था, जोर-जोर से, बार-बार।

आज माला को गए पाँच रोज हो गए हैं। मैंने दफ्तर जाना छोड़ दिया है। वह फिर अपने असली रंग में आ गया है। मेरे कपड़े उतार कर उसने फिर अपना वह मैला-सा कुर्ता-पायजामा पहन लिया है। कहता कुछ नहीं, लेकिन मैं जानता हूँ कि क्‍या चाहता है – “वह मौका फिर हाथ नहीं आएगा! वह चली गई है। बेहतर यही है कि उसके लौटने से पहले तुम भी यहाँ से भाग चलो। उसकी चिंता मत करो, वह अपना इंतजाम खुद कर लेगी।”

और आज आखिर मैं उसे थोड़ी देर के लिए बेहोश कर देने में कामयाब हो गया हूँ। अब मेरे सामने दो रास्‍ते हैं। एक यह कि होश आने से पहले मैं उसे जान से मार डालूँ। और दूसरा यह कि अपना जरूरी सामान बाँध कर तैयार हो जाऊँ और ज्‍यूँ ही उसे होश आए, हम दोनों फिर उसी रास्‍ते पर चल दें, जिससे भाग कर कुछ बरस पहले मैंने माला की गोद में पनाह ली थी। अगर माला इस समय यहाँ होती तो कोई तीसरा रास्‍ता भी निकाल लेती। लेकिन वह नहीं है और मैं नहीं जानता कि मैं क्या करूँ?

Sunday, January 21, 2024

आधे घण्टे का ख़ुदा - कृष्ण चंदर


वो आदमी उसका पीछा कर रहे थे। इतनी बुलंदी से वो दोनों नीचे सपाट खेतों में चलते हुए दो छोटे से खिलौनों की तरह नज़र आ रहे थे। दोनों के कंधों पर तीलियों की तरह बारीक राइफ़लें रखी नज़र आ रही थीं। यक़ीनन उनका इरादा उसे जान से मार देने का था। मगर वो लोग अभी इससे बहुत दूर थे। निगाह की सीध से उसने नीचे की तरफ़ देखते हुए दिल ही दिल में अंदाज़ा किया। जहाँ पर मैं हूँ वहाँ तक इन दोनों को पहुंचने में चार घंटे लगेंगे। तब तक उसने पुर उम्मीद निगाह से घूम कर अपने ऊपर पहाड़ की चोटी को देखा। सारदो पहाड़ की बारह हज़ार फुट ऊँची चोटी इससे अब सिर्फ़ एक घंटे की मुसाफ़त पर थी। एक दफ़ा वो चोटी पर पहुंच जाये फिर दोनों के हाथ न आ सकेगा।

सारदो पहाड़ की दूसरी तरफ़ गडियाली का घना जंगल था जो उसका देखा-भाला था। जिसके चप्पे चप्पे से वो उतनी ही आगाही रखता था जितना उस जंगल का कोई जंगली जानवर रख सकता है। उस जंगल के खु़फ़ीया रास्ते, जानवरों के भट्ट, पानी पीने के मुक़ाम सब उसे मालूम थे। अगर एक दफ़ा वो सारदो पहाड़ की चोटी पर पहुंच गया तो फिर अपना पीछा करने वालों के हाथ न आ सकेगा। जब वो चोटी पर पहुंच जाएगा तो उसे दूसरी तरफ़ की सरसब्ज़ ढलवानों पर गडियाली का जंगल दिखाई देगा और जंगल से परे सरहद का पुल जिसे डायनामेट लगा कर उड़ा दिया गया था।

गिरे हुए पुल के उस पार उसका अपना देस था। एक-बार वो चोटी पर पहुंच जाये। फिर उसे नीचे ढलवान के घने जंगल को तय करने में देर नहीं लगेगी। अगर पुल नहीं है तो क्या हुआ, वो बहुत उम्दा तैराक है। वो गडियाली नदी उबूर करके अपने देस पहुंच जाएगा और चोटी तक पहुंचने में उसे सिर्फ़ एक घंटा लगेगा और वो दोनों उसके दुश्मन अभी उससे चार घंटे की मसाफ़त के फ़ासले पर थे… नहीं वो उसे नहीं पकड़ सकते। वो जवान है, मज़बूत है और चार घंटे उनसे पहले चला है। वो उसे नहीं पकड़ सकते। वो अभी इस चट्टान पर पंद्रह बीस मिनट बैठ कर दम ले सकता है और दूर नीचे खेतों से गुज़रते हुए घाटियों की तरफ़ आने वाले उन दोनों आदमियों को बड़े इत्मिनान से देख सकता है जो उसकी जान लेने के लिए आ रहे हैं। वो मुस्कुरा भी सकता है, क्योंकि वो उनसे बहुत दूर है। यक़ीनन उन्होंने उसे देख लिया है क्योंकि नीचे के खेतों से चोटी तक इस तरफ़ पहाड़ जिसके ऊपर वो चल रहा है, बिल्कुल नंगा है। बस छोटी-छोटी झाड़ियाँ हैं- सिनहते की और लालटीना की, जिनमें आदमी छुप भी नहीं सकता और ज़मीन से लगी हुई पतली छदरी घास है और नीची-नीची स्याह चट्टानें। रात की बारिश से भीगी हुई और पुरानी काली फिसलवां। उस पुरानी काली से बंद पानी की बू आती है और भुर-भुरी मिट्टी पर क़दम फिसलते हैं।

उसे बहुत होशयारी से आगे का फ़ासिला तय करना होगा। जभी तो उसने फ़ासले को तय करने के लिए जो आधे घंटे में बा आसानी तय हो सकता है। एक घंटा रखा है, बस उसे सिर्फ़ इस बात का अफ़सोस है कि वो नीचे के गांव से भागते वक़्त क्यों अपनी राइफ़ल साथ न ला सका… भागते वक़्त उसने राइफ़ल वहीं छोड़ दी। ये एक नाक़ाबिल-ए-माफ़ी हादिसा था मगर अब क्या किया जा सकता था? अगर उसके पास इस वक़्त अपनी राइफ़ल होती तो वो दोनों नीचे से आने वाले इस क़दर बेख़ौफ़ी से उसका पीछा नहीं कर सकते थे। वो आसानी से किसी चट्टान की ओट में दुबक कर किसी मुनासिब जगह पर उनका इंतिज़ार कर सकता था और अपनी राइफ़ल की रेंज में आते देखकर उन लोगों को गोली का निशाना बना सकता था।

मगर वो क्या करे, उस वक़्त वो बिल्कुल निहत्था है और अब हर लहज़ा उसकी ये कोशिश होगी कि वो उनकी बंदूक की मार से आगे चलता रहे..! उसने तआक़ुब करने वालों के पीछे भी दूर तक खेतों को देखा और खेतों से परे से अलूचे और ख़ूबानियों के दरख़्तों से गढ़े, मोगरी के गांव को देखा। एक लम्हा के लिए उसके दिल के अंदर उदासी की एक गहरी सुर्ख़ लकीर खींचती चली गई। उस ख़ंजर की बारीक और तेज़ धार की तरह जिसका फल उस वक़्त मोगरी के दिल में पैवस्त था। मोगरी जो सिया के फूलों की तरह ख़ूबसूरत थी। काशिर के लिए ये ज़रूरी हो गया था कि वो मोगरी की जान ले ले, चमकती हुई गहरी स्याह आँखों वाली मोगरी। अंगारों की तरह दहकते हुए होंठों वाली, उन्नीस बरस की मोगरी वो जब हँसती थी तो ऐसा लगता था गोया सिया की डालियों से फूल झड़ रहे हैं। ऐसी महकती हुई सफ़ेद हंसी, उसने किसी दूसरी लड़की के पास न देखी थी, हंसी जो सिया के फूलों की याद दिलाए या अचानक पर खोल कर हवा में कबूतरी की तरह उड़ जाये और वो ज़रा से खुले, ज़रा से बंद अंगारों की तरह दहकते हुए शरीर होंठ। उन होंठों पर जब वो अपने होंठ रख देता था तो उसे ऐसा महसूस होता था जैसे उसके ख़ून के बहाव में चिनगारियां सी उड़ती चली जा रही हैं। जैसे जज़्बा पिघल कर ख़ून और ख़ून पिघल कर शोला और शोला पिघल कर बोसा बन गया हो। और वो पूरी तरह मोगरी के चेहरे पर झुक जाता था। इतने ज़ोर से कि मोगरी की सांस उसके सीने में रुकने लगती और वो अपने छोटे-छोटे हाथों से उसके मुँह पर तमांचे मारकर ही अपना चेहरा उसके चेहरे से अलग कर सकती थी।

“तुम पागल जानवर हो क्या काशिर!” वो हाँफते हुए कहती।

“और तुम आग हो!” वो ख़ुद अपने जज़्बे की शिद्दत से डर कर ज़रा पीछे हटता हुआ कहता।

“मेरे गांव में कोई नहीं जानता कि मैं एक दुश्मन के बेटे से प्यार करती हूँ।”

“मेरे सिपाहियों में से भी कोई नहीं जानता कि मैं गडियाली के जंगल में रोज़ किसी से मिलने जाता हूँ।”

वो दोनों गडियाली के जंगल में जीप के किसी कच्चे रास्ते पर बैठ जाते। देवदार के एक टूटे हुए तने पर। पीछे जीप खड़ी होती। सामने एक छोटी सी ढलवान की गहरी और दबीज़ घास। कोई चशमा तक़रीबन बेआवाज़ हो कर बहता था। जंगली फलों पर पानी के क़तरे गिर कर सो जाते और चारों तरफ़ बड़े बड़े सतूनों की तरह ऊँचे ऊँचे दीवार और उनके घने छतनारों में से सब्ज़ी माइल रोशनी दूर ऊँचे लटके हुए फानूसों की तरह छन-छन कर आती होती… काशिर को ऐसा महसूस होता गोया वो किसी मुग़ल बादशाह के दीवान-ए-ख़ास में बे इजाज़त आ निकला है। यहाँ आकर वो दोनों कई मिनट तक जंगल के गहरे सन्नाटे में खो जाते और आहिस्ता-आहिस्ता सरगोशियों में बातें करने लगते। कभी ऐसा लगता जैसे सारा जंगल चुप है। कभी ऐसा लगता जैसे सारा जंगल उनके इर्द-गिर्द सरगोशियों में बातें कर रहा है।

मोगरी, इलाक़ा ग़ैर के गांव से एक टोकरी में फल उठाए हुए गडियाली के पुल तक आती थी जो काशिर और उसके सिपाहियों की अमलदारी में था। सिया, नाशपाती, केले, आलू या बही के मब, ऊदे अंगूरों के गुच्छे या सिर्फ़ अखरोट और मकई के भुट्टे और वो छोटी छोटी ख़ुश-रंग ख़ूबानीयाँ जिन्हें देखकर सुनहरी अशर्फ़ियों का धोखा होता है और मोगरी इतनी ख़ूबसूरत थी कि पुल की हिफ़ाज़त करने वाले सिपाही चंद मिनटों में उसकी टोकरी ख़ाली कर देते थे। सबसे आख़िर में काशिर आता और जब काशिर मोगरी के नज़दीक आता तो सब सिपाही हट जाते थे, क्योंकि वो जानते थे…!

लेकिन जिस दिन मोगरी की मुख़्बिरी पर इलाक़ा ग़ैर के गांव वालों ने गडियाली का पुल जो उसकी तहवील में था, डायनामेट से उड़ा दिया, उसी दिन उसे शदीद धचका सा लगा। जैसे उसके दिल के अंदर भी कोई पुल था जो डायनामेट से पुरज़े पुरज़े हो गया था और वो बाहर का पुल तो कभी न कभी फिर बन जाएगा। लेकिन अंदर का पुल कौन बना सकेगा फिर से? इसलिए वो वहशतज़दा सा हो कर पुल के टुकड़ों को इन गहरे पानियों में जाता हुआ देखता रहा। जहाँ लतीफ़ से लतीफ़ जज़्बे भी भारी पत्थर बन कर ऐसे डूब जाते हैं कि फिर कभी नहीं उभर सकते। वो रोना चाहता था मगर उसकी आँखों में आँसू न आ सके और वो मोगरी को गाली देना चाहता था। मगर उसकी ज़बान पर अल्फ़ाज़ न आ सके, वो जानता था कि हर सिपाही की निगाह उस पर है। वो निगाह बज़ाहिर कुछ नहीं कहती, लेकिन ख़ामोश लहजे में शिकायत करती हुई मालूम होती है। जब वो उन निगाहों की ताब न ला सका तो अपनी राइफ़ल लेकर गडियाली नदी में कूद पड़ा। वो उसके सिपाही भौंचक्के हो कर उसकी तरफ़ देखते रह गए। वो नदी पार कर के गडियाली के जंगल में घुस गए।

कई दिन तक वो अकेला भूखा-प्यासा उस जंगल में घूमता रहा और वो उन तमाम जगहों पर गया जहाँ पर वो मोगरी के साथ गया था और उन जगहों पर जा कर उसने उन तमाम जज़्बों को भुलाना चाहा जिन्होंने मोगरी की मौजूदगी में इसके लिए धुँधले-धुँधले शफ़क़ ज़ार तामीर किए थे। कई बार वो मोगरी की अदम मौजूदगी में भी यहाँ आया था तो भी उसे हर जगह मोगरी की अदम मौजूदगी में भी उसकी मौजूदगी का एहसास हुआ था। वो पेड़ का तना जहाँ मोगरी बैठी थी, उसके गिर्द इक हाला सा खिंचा मालूम होता था। मोगरी न थी। फिर भी गोया झरने के पानियों में उसकी आवाज़ की रवानी घुल गई थी। हर फूल में उसके बालों की महक थी और वो ज़मीन जहाँ पर वो बैठते थे, वहाँ से मोगरी के जिस्म की सोंधी-सोंधी महक आती थी… मगर आज वहाँ कुछ न था। जज़्बों के शफ़क़ ज़ार छट गए थे। पेड़ का तना महज़ पेड़ का तना था और पानी का झरना, पानी के झरने की तरह बह रहा था। हर चीज़ अंजानी और अजनबी और उससे अलग-अलग खड़ी थी। वो चीख़ मार कर सारे जंगल को जगा देना चाहता था। मगर उसका हलक़ बार-बार घट रहा था। उसके सारे एहसासात पर इक धुंध सी छाई हुई थी, जंगल में बे-सम्त घूमते-घूमते कई बार उसे ख़्याल आया कि अगर वो इस धुंध को अपने नाख़ूनों से चीर दे तो शायद अंदर से मोगरी का ज़िंदा और असली चेहरा सही-ओ-सलामत निकल आएगा। वो मोगरी जिसे वो अपने दिल से पहचानता था। मगर धुंध किसी तरह न छटी और गहरी होती गई।

जंगल में उसका दम घुटने लगा। पेड़ों का घेरा उसके लिए तंग होने लगा। उसे ऐसा महसूस होने लगा, जैसे चारों तरफ़ से जंगल के पेड़ झुक कर उस पर गिरने वाले हैं। फिर वो घबरा कर जंगल से बाहर भाग निकला और गडियाली का जंगल तय कर के वो सारदो पहाड़ की बर्फ़ीली चोटी के दूसरी तरफ़ उतर गया। जहां मोगरी का गांव था।

कई दिनों तक वो भेस बदले हुए टोह लेता रहा। किसी को इस पर शुबहा न हुआ क्योंकि उसकी शक्ल-ओ-सूरत ऐसी थी जैसे इलाक़े के लोगों की होती है। उसके कपड़े भी फटे हुए थे और वो उनकी ज़बान बख़ूबी बोल सकता था इसलिए किसी को उस पर शुबहा न हुआ और वो एक दिन मौक़ा देखकर आधी रात को मोगरी के घर के उस कमरे में घुस गया जहां मोगरी सो रही थी।

मोगरी कमरे में अकेली सो रही थी। उसने आहट किए बग़ैर कुंडी अंदर से चढ़ा दी। राइफ़ल कंधे से उतार कर एक कोने में रख दी और आहिस्ता-आहिस्ता दुबक कर वो मोगरी के बिस्तर के क़रीब चला गया। क़रीब जा कर उसने अपना ख़ंजर निकाल लिया। वो ख़ंजर हाथ में लिए देर तक खड़ा रहा और मोगरी की साँसों की पुर सुकून आवाज़ सुनता रहा। चारों तरफ़ घुप अंधेरा था। वो मोगरी के चेहरे को नहीं देख सकता था। उसके दिल में शदीद ख़ाहिश पैदा हुई कि वो एक-बार माचिस जला कर मोगरी का चेहरा देख ले। मगर बड़ी जांकाह काविश से उसने एक अज़ियतनाक ख़ाहिश को अपने दिल में रोक दिया। देर तक वो ख़ंजर लिए जूंही खड़ा रहा और मोगरी के साँसों के इस बेआवाज़ झरने को सुनता रहा जो अब उसके दिल की तरफ़ बह रहा था।

वो हौले हौले मोगरी के चेहरे पर झुक गया। बस एक अलविदाई बोसा और फिर ख़ंजर! मगर झुकते-झुकते उसके सांस की रफ़्तार तेज़ होती गई। उसके दिमाग़ में सनसनाती हुई गूँजें सी चारों तरफ़ फैलने लगीं और उसने अपने जलते हुए काँपते हुए होंठ मोगरी के होंठों पर रख दिए… मोगरी के सारे जिस्म में इर्तिआश सा पैदा हुआ। उसे महसूस हुआ, जैसे मोगरी चीख़ मारने को है मगर उसने ऐसी मज़बूती से अपने होंठों को मोगरी के होंठों से मिला रखा था कि चीख़ मारने का सवाल ही न पैदा होता था।

पहले तो मोगरी का सारा जिस्म बर्फ़ की तरह सर्द होने लगा और हमेशा यूंही होता था। उसे इस से पेशतर के बहुत से रंगीन और ख़ूबसूरत लम्हे याद आए। जब मोगरी प्यार करते करते यकलख़्त उसके बाज़ुओं में सर्द पड़ जाती थी और कई लम्हों तक उसकी यही कैफ़ियत रहती थी जैसे वो दिल-ओ-जान से उसकी मुज़ाहमत कर रही हो। फिर हौले-हौले उसके बोसों की आँच से उसका सारा जिस्म गर्म होने लगता, हौले-हौले गोया बर्फ़ पिघलने लगती और बदन में अंगड़ाइयाँ और फिर फुरेरियां जागने लगतीं और गर्म-गर्म सांस आँच की तरह पिघलने लगता और वो बेइख़्तियार हो कर काशिर से लिपट जाती और अपने बाज़ू उसकी गर्दन में हमायल कर देती।

मोगरी के दिल के अंदर ग़ालिबन मुहब्बत और नफ़रत का हर-आन बदलता हुआ मीज़ानिया सा चलता रहता था। अपना दुश्मन समझ कर वो उस से नफ़रत करती थी। अपना महबूब समझ कर उससे मुहब्बत करती थी और कभी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी थी। इस वक़्त भी यही हुआ। मोगरी का सर्द पड़ता हुआ ख़ौफ़ज़दा और अपने आप में अकेला जिस्म धीरे-धीरे लौ देने लगा। जैसे अंग-अंग से रोशनी फूट निकले। ऐसी रोशनी जिसे आँखें नहीं देख सकतीं सिर्फ़ हाथ महसूस कर सकते हैं।

मोगरी ने यक़ीनन उस बोसे को पहचान लिया था। ख़ूबसूरत और पुर ख़तर ज़िंदगी बसर करने वाली औरत की ज़िंदगी में बहुत से बोसे आते हैं। दीमक की तरह चाट जानेवाले बोसे और जोंक की तरह चिमट जानेवाले बोसे। रूखे-सूखे पापड़ नुमा बोसे और ऐसे लिजलिजे और गंदे बोसे गोया होंठों पर कीड़े चल रहे हों। शरमाए हुए सहमे हुए बोसे और ख़ौफ़ज़दा कमज़ोर और बीमार बोसे और सेहत मंद और शरीर बोसे। मोगरी ऐसी ख़ूबसूरत औरतों को हर क़िस्म के बोसों से वास्ता पड़ता था। मगर वो ये भी जानती हैं कि उनमें से कौनसा बोसा ऐसा होता है जो दिल पर दस्तक देता है। सिर्फ़ उसी दस्तक के जवाब में वो बोसे को जवाब में बोसा देती हैं। वर्ना सिर्फ होंठ पेश करती हैं। मगर इस बार मोगरी सिर्फ़ चंद लम्हों के लिए बर्फ़ की तरह ठिठुरी रही। फिर उसने अपने ऊपर झुके हुए होंठों के लम्स को पहचान लिया और पहचान कर भी गो वो चंद लम्हों के लिए वहशतज़दा और ठिठुरी सी रही मगर हौले हौले उसकी मुग़ाइरत दूर होती गई।

आधी रात के नीम गर्म अंधेरे में किसी ग़ैर मुतवक़्क़े ख़ुशी से उसकी सारी रूह काँप उठी और वो ख़ुद से काशिर की बाँहों में आ गई और इस तरह आई जैसे अब तक कभी न आई थी। काशिर ने महसूस किया जैसे आसमान ज़मीन पर उतर आया हो और ज़मीन लंबे-लंबे सांस लेकर हांफने लगी। एक शोला सा था जो बर्फ़ की पहनाई में डूब रहा था। बर्फ़ की टूटती हुई टुकड़ियां गुलाब की बिखरी हुई पत्तियाँ। सिसक-सिसक कर सुलगता हुआ संगीत… जिस्म के हिसार को तोड़ने की काविश में उफ़्तां-ओ-ख़ीज़ां। यकायक हिसार टूट गया… मछलियाँ तूफ़ान में बह गईं। बहुत सारे चिराग़ इक-दम गुल हो गए। फिर सारे एहसास नीम ग़नूदगी की सब्ज़ झील में खो गए… जब वो जागा तो इसी तरह घुप अंधेरा छाया हुआ था और मोगरी उसकी बाँहों में बेख़बर सो रही थी। जाने उस बेख़बरी में कब काशिर ने ख़ुद अपने हाथ का ख़ंजर अपने पहलू में रख लिया था…

उसने पहलू बदल कर आहिस्ते से ख़ंजर निकाला। आहिस्ते से मोगरी नींद में कसमसाई। झुके हुए काशिर को मोगरी का हाथ अपनी पीठ पर महसूस हुआ। थपकता हुआ। नींद की तर्ग़ीब देता हुआ। पेशतर इसके कि वो फिर अपने जज़्बात के धारे में बह जाये, उसने एक ही झटके से पूरा ख़ंजर हत्थी तक मोगरी के दिल में उतार दिया। मोगरी चीख़ भी न सकी। हौले-हौले उसका काँपता हुआ जिस्म ठंडा होता गया। मगर काशिर ने मोगरी को बहुत देर तक अपने जिस्म से अलग नहीं किया। हौले-हौले काशिर के जिस्म ने मोगरी के मरते हुए जिस्म के हर इर्तिआश को अपने अंदर जज़्ब कर लिया और जब मोगरी का जिस्म बिल्कुल ठंडा हो गया तो उसने मोगरी के जिस्म को अपने जिस्म से अलग कर दिया। इस ठंडे होंठों को फिर इस तरह बोसा दिया जैसे वो किसी क़ब्र को बोसा दे रहा हो। फिर कुंडी खोल कर बाहर आँगन में आया और तेज़ तेज़ क़दमों से चलते हुए वो आँगन की दीवार फलाँग कर एक अहमक़ की तरह सरपट भागने लगा क्योंकि अब उसके दिमाग़ की हर रग और नस ताँबे के तारों की तरह झनझना रही थी और जिस्म के रोएँ-रोएँ में ख़तरे की घंटियाँ बज रही थीं।

ये उसकी ख़ुशक़िस्मती थी कि सारा गांव नींद में डूबा हुआ सो रहा था। किसी ने उसके जिस्म में बजती हुई ख़तरे की घंटियों की पुर-शोर सदा को नहीं सुना और वो खेतों से निकल कर सारदो पहाड़ की चढ़ाई चढ़ने लगा। सुबह जब मोगरी के भाईयों ने मोगरी की लाश देखी और दीवार से लगी हुई राइफ़ल को पहचाना तो उसका तआक़ुब किया। मगर अब तक उसे चार घंटे का स्टार्ट मिल चुका था।

हार की जीत – सुदर्शन


माँ को अपने बेटे और किसान को अपने लहलहाते खेत देखकर जो आनंद आता है, वही आनंद बाबा भारती को अपना घोड़ा देखकर आता था। भगवद् – भजन से जो समय बचता, वह घोड़े को अर्पण हो जाता। वह घोड़ा बड़ा सुंदर था, बड़ा बलवान। उसके जोड़ का घोड़ा सारे इलाके में न था। बाबा भारती उसे “सुल्तान” कह कर पुकारते, अपने हाथ से खरहरा करते, खुद दाना खिलाते और देख-देखकर प्रसन्न होते थे। उन्होंने रुपया, माल, असबाब, जमीन आदि अपना सब-कुछ छोड़ दिया था, यहाँ तक कि उन्हें नगर के जीवन से भी घृणा थी। अब गाँव से बाहर एक छोटे – से मन्दिर में रहते और भगवान का भजन करते थे। “मैं सुलतान के बिना नहीं रह सकूँगा,” उन्हें ऐसी भ्रान्ति सी हो गई थी। वे उसकी चाल पर लट्टू थे। कहते, “ऐसे चलता है जैसे मोर घटा को देखकर नाच रहा हो।” जब तक संध्या समय सुलतान पर चढ़कर आठ – दस मील का चक्कर न लगा लेते, उन्हें चैन न आता।

खड़गसिंह उस इलाके का प्रसिद्ध डाकू था। लोग उसका नाम सुनकर काँपते थे। होते – होते सुल्तान की कीर्ति उसके कानों तक भी पहुँची। उसका हृदय उसे देखने के लिए अधीर हो उठा। वह एक दिन दोपहर के समय बाबा भारती के पास पहुँचा और नमस्कार करके बैठ गया। बाबा भारती ने पूछा, “खडगसिंह, क्या हाल है?”

खडगसिंह ने सिर झुकाकर उत्तर दिया, “आपकी दया है।”

“कहो, इधर कैसे आ गए?”

“सुलतान की चाह खींच लाई।”

“विचित्र जानवर है। देखोगे तो प्रसन्न हो जाओगे।”

“मैंने भी बड़ी प्रशंसा सुनी है।”

“उसकी चाल तुम्हारा मन मोह लेगी!”

“कहते हैं देखने में भी बहुत सुंदर है।”

“क्या कहना! जो उसे एक बार देख लेता है, उसके हृदय पर उसकी छवि अंकित हो जाती है।”

“बहुत दिनों से अभिलाषा थी, आज उपस्थित हो सका हूँ।”

बाबा भारती और खड़गसिंह अस्तबल में पहुँचे। बाबा ने घोड़ा दिखाया घमंड से, खड़गसिंह ने देखा आश्चर्य से। उसने सैकड़ों घोड़े देखे थे, परन्तु ऐसा बाँका घोड़ा उसकी आँखों से कभी न गुजरा था। सोचने लगा, भाग्य की बात है। ऐसा घोड़ा खड़गसिंह के पास होना चाहिए था। इस साधु को ऐसी चीजों से क्या लाभ? कुछ देर तक आश्चर्य से चुपचाप खड़ा रहा। इसके पश्चात् उसके हृदय में हलचल होने लगी। बालकों की – सी अधीरता से बोला, “परंतु बाबाजी, इसकी चाल न देखी तो क्या?”

दूसरे के मुख से सुनने के लिए उनका हृदय अधीर हो गया। घोड़े को खोलकर बाहर गए। घोड़ा वायु-वेग से उड़ने लगा। उसकी चाल को देखकर खड़गसिंह के हृदय पर साँप लोट गया। वह डाकू था और जो वस्तु उसे पसंद आ जाए उस पर वह अपना अधिकार समझता था। उसके पास बाहुबल था और आदमी भी। जाते-जाते उसने कहा, “बाबाजी, मैं यह घोड़ा आपके पास न रहने दूँगा।”

बाबा भारती डर गए। अब उन्हें रात को नींद न आती। सारी रात अस्तबल की रखवाली में कटने लगी। प्रति क्षण खड़गसिंह का भय लगा रहता, परंतु कई मास बीत गए और वह न आया। यहाँ तक कि बाबा भारती कुछ असावधान हो गए और इस भय को स्वप्न के भय की नाईं मिथ्या समझने लगे। संध्या का समय था। बाबा भारती सुल्तान की पीठ पर सवार होकर घूमने जा रहे थे। इस समय उनकी आँखों में चमक थी, मुख पर प्रसन्नता। कभी घोड़े के शरीर को देखते, कभी उसके रंग को और मन में फूले न समाते थे। सहसा एक ओर से आवाज आई, “ओ बाबा, इस कंगले की सुनते जाना।”

आवाज में करुणा थी। बाबा ने घोड़े को रोक लिया। देखा, एक अपाहिज वृक्ष की छाया में पड़ा कराह रहा है। बोले, “क्यों तुम्हें क्या कष्ट है?”

अपाहिज ने हाथ जोड़कर कहा, “बाबा, मैं दुखियारा हूँ। मुझ पर दया करो। रामावाला यहाँ से तीन मील है, मुझे वहाँ जाना है। घोड़े पर चढ़ा लो, परमात्मा भला करेगा।”

“वहाँ तुम्हारा कौन है?”

“दुर्गादत्त वैद्य का नाम आपने सुना होगा। मैं उनका सौतेला भाई हूँ।”

बाबा भारती ने घोड़े से उतरकर अपाहिज को घोड़े पर सवार किया और स्वयं उसकी लगाम पकड़कर धीरे – धीरे चलने लगे। सहसा उन्हें एक झटका-सा लगा और लगाम हाथ से छूट गई। उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने देखा कि अपाहिज घोड़े की पीठ पर तनकर बैठा है और घोड़े को दौड़ाए लिए जा रहा है। उनके मुख से भय, विस्मय और निराशा से मिली हुई चीख निकल गई। वह अपाहिज डाकू खड़गसिंह था। बाबा भारती कुछ देर तक चुप रहे और कुछ समय पश्चात् कुछ निश्चय करके पूरे बल से चिल्लाकर बोले, “जरा ठहर जाओ।”

खड़गसिंह ने यह आवाज सुनकर घोड़ा रोक लिया और उसकी गरदन पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, “बाबाजी, यह घोड़ा अब न दूँगा।”

“परंतु एक बात सुनते जाओ।” खड़गसिंह ठहर गया।

बाबा भारती ने निकट जाकर उसकी ओर ऐसी आँखों से देखा जैसे बकरा कसाई की ओर देखता है और कहा, “यह घोड़ा तुम्हारा हो चुका है। मैं तुमसे इसे वापस करने के लिए न कहूँगा। परंतु खड़गसिंह, केवल एक प्रार्थना करता हूँ। इसे अस्वीकार न करना, नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा।”

“बाबाजी, आज्ञा कीजिए। मैं आपका दास हूँ, केवल घोड़ा न दूँगा।”

“अब घोड़े का नाम न लो। मैं तुमसे इस विषय में कुछ न कहूँगा। मेरी प्रार्थना केवल यह है कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना।”

खड़गसिंह का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया। उसका विचार था कि उसे घोड़े को लेकर यहाँ से भागना पड़ेगा, परंतु बाबा भारती ने स्वयं उसे कहा कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना। इससे क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है? खड़गसिंह ने बहुत सोचा, बहुत सिर मारा, परंतु कुछ समझ न सका। हारकर उसने अपनी आँखें बाबा भारती के मुख पर गड़ा दीं और पूछा, “बाबाजी, इसमें आपको क्या डर है?”

सुनकर बाबा भारती ने उत्तर दिया, “लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन – दुखियों पर विश्वास न करेंगे।” यह कहते – कहते उन्होंने सुल्तान की ओर से इस तरह मुँह मोड़ लिया जैसे उनका उससे कभी कोई संबंध ही नहीं रहा हो।

बाबा भारती चले गए। परंतु उनके शब्द खड़गसिंह के कानों में उसी प्रकार गूँज रहे थे। सोचता था, कैसे ऊँचे विचार हैं, कैसा पवित्र भाव है! उन्हें इस घोड़े से प्रेम था, इसे देखकर उनका मुख फूल की नाईं खिल जाता था। कहते थे, “इसके बिना मैं रह न सकूँगा।” इसकी रखवाली में वे कई रात सोए नहीं। भजन-भक्ति न कर रखवाली करते रहे। परंतु आज उनके मुख पर दुख की रेखा तक दिखाई न पड़ती थी। उन्हें केवल यह खयाल था कि कहीं लोग दीन-दुखियों पर विश्वास करना न छोड़ दें। ऐसा मनुष्य, मनुष्य नहीं देवता है।

रात्रि के अंधकार में खड़गसिंह बाबा भारती के मंदिर पहुँचा। चारों ओर सन्नाटा था। आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे। थोड़ी दूर पर गाँवों के कुत्ते भौंक रहे थे। मंदिर के अंदर कोई शब्द सुनाई न देता था। खड़गसिंह सुल्तान की बाग पकड़े हुए था। वह धीरे-धीरे अस्तबल के फाटक पर पहुँचा। फाटक खुला पड़ा था। किसी समय वहाँ बाबा भारती स्वयं लाठी लेकर पहरा देते थे, परंतु आज उन्हें किसी चोरी, किसी डाके का भय न था। खड़गसिंह ने आगे बढ़कर सुलतान को उसके स्थान पर बाँध दिया और बाहर निकलकर सावधानी से फाटक बंद कर दिया। इस समय उसकी आँखों में नेकी के आँसू थे। रात्रि का तीसरा पहर बीत चुका था। चौथा पहर आरंभ होते ही बाबा भारती ने अपनी कुटिया से बाहर निकल ठंडे जल से स्नान किया। उसके पश्चात्, इस प्रकार जैसे कोई स्वप्न में चल रहा हो, उनके पाँव अस्तबल की ओर बढ़े। परंतु फाटक पर पहुँचकर उनको अपनी भूल प्रतीत हुई। साथ ही घोर निराशा ने पाँव को मन-मन भर का भारी बना दिया। वे वहीं रुक गए। घोड़े ने अपने स्वामी के पाँवों की चाप को पहचान लिया और ज़ोर से हिनहिनाया। अब बाबा भारती आश्चर्य और प्रसन्नता से दौड़ते हुए अंदर घुसे और अपने प्यारे घोड़े के गले से लिपटकर इस प्रकार रोने लगे मानो कोई पिता बहुत दिन से बिछड़े हुए पुत्र से मिल रहा हो। बार – बार उसकी पीठ पर हाथ फेरते, बार-बार उसके मुँह पर थपकियाँ देते। फिर वे संतोष से बोले, “अब कोई दीन-दुखियों से मुँह न मोड़ेगा।”

Saturday, January 20, 2024

कहानी : लड़का - लड़की (लेखक : अमरकान्त)


सितम्बर बीतते-बीतते बरसात समाप्त हो चुकी थी और आकाश निर्मल एवं नीला दिखाई देने लगा था। चंदर ने उन्हीं दिनों एक फिल्म देखी। वह एक गोरा, खूबसूरत और पतला-छरहरा नौजवान था, जिसको चलते हुए देखकर किसी वायु-प्रकंपित ताजे बेंत की याद आ जाती। वह लाड़-प्यार में पला एक अच्छे खाते-पीते देहाती परिवार का लड़का था, जो बी.ए. की शिक्षा ग्रहण कर रहा था और विश्वविद्यालय के पास स्थित एक मोहल्ले में एक किराए के कमरे में रहता था। उस फिल्म का मुख्य अभिनेता उन्हीं फिल्मी लोकप्रिय नायकों की तरह था, जो सर्वगुण सम्पन्न होते हैं और उछलकूद, फन, होशियारी और भावुकता का प्रदर्शन करके अन्त में लड़की का हृदय जीत लेते हैं।

फिल्में तो उसने बहुत देखी थीं, लेकिन इसने उस पर गहरा असर डाला और कई दिनों तक वह सड़कों पर बैचैन घूमता रहा और अँधेरी रातों में आकाश एवं तारों की रहस्यमयता को निहारता रहा। उसके बाद वह शहर की उग्र राजनीतिक हलचलों में भाग लेने लगा। वह कभी किसी जुलूस या प्रदर्शन में शामिल होकर नारे लगाता, कभी किसी सार्वजनिक सभा में भाषण करता और दो बार आगे बढ़कर उसने छात्रों की हड़ताल में हिस्सा लिया। इसी रास्ते से वह महानता के शिखर पर पहुँचेगा और अपने देश को महान बनाएगा। लेकिन कुछ ही दिनों बाद वह तेजी से साहित्य की ओर मुड़ा, क्योंकि किसी पत्रिका में एक कहानी पढ़कर उसको सहसा महसूस हुआ था कि साहित्य का क्षेत्र ऊँची प्रतिभाओं से शून्य है।

वह अब लम्बी प्रेम-कहानियाँ और कविताएँ लिखने के साथ रतजगा करने लगा। उसने सम्पादकों के पास अपनी कुछ रचनाओं के साथ कुछ लम्बे आदर्शवादी और व्यक्तिगत पत्र भेजे और जब कुछ रचनाएँ लौट आईं, तो वह शहीदाना ढंग से व्यंग्यपूर्वक मुस्कुराया कि ये लोग एक दिन उसके पैरों पर गिरेंगे। वह अब अपने से बेहद सन्तुष्ट रहने लगा और अब उसको एक सुन्दर लड़की की जरूरत महसूस होने लगी, जो उसकी अद्वितीयता से प्रभावित होकर उस पर अपना जीवन न्योछावर कर दे, किंतु बहुत-सी घटनाओं में तलाश करने के बावजूद जब उसे ऐसी लड़की नहीं मिली, तो वह अत्यधिक परेशान हो उठा क्योंकि वह अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकता था।

एक दिन सवेरे, जब हवा तेज चल रही थी तथा वह अपने कमरे के सामने टहल रहा था, तो उसकी दृष्टि तारा की ओर गई, जो खुली छत पर खड़ी अपने बाल सुखा रही थी। वह उसी मकान में रहने वाले एक क्लर्क की लड़की थी, जिसके एक कमरे का वह किराएदार था। लड़की का रंग साँवला था, शरीर लम्बा तथा दोहरा, जिसके अलावा और कोई खास बात उसमें न थी। वह बार-बार अपने बालों को झटक रही थी और उन पर धूप पूरी तरह पड़ सके, इसके लिए शरीर को कभी बाईं ओर मोड़ लेती थी और कभी दाईं ओर। एक बार हवा इतनी तेज चली कि उसके बाल उड़ने लगे, गोया असंख्य काले सर्प भाग रहे हों। उसका आँचल भी उड़-उड़ जाता, जिसको सम्भालने में उसको खेल का मजा आने लगा और वह शरारत से मुस्कुराई और और तभी उसकी नजर नीचे चंदर की ओर गई और वह बेहद संकुचित हो गई और अपने शरीर को सिकोड़ तथा झुकाकर घर के अन्दर भाग गई।

चंदर को बेहद आश्चर्य हुआ। उसने कभी सोचा भी न था कि उस लड़की में इतनी चंचलता और शोखी हो सकती है। कमल के नाल की तरह झूलती नंगी बाँहें और हथिनी की तरह मांसल शरीर। दरअसल उसने उस लड़की को कभी महत्व नहीं दिया था, यहाँ तक कि उसको ठीक से देखा भी नहीं था यद्यपि वह उसके घर के अन्दर आता-जाता था और उसके यहाँ दावतों और समारोहों में कई बार शामिल भी हो चुका था। उसका खयाल था कि वह एक भोंदू, गंदी और आलसी लड़की है, जैसे कि क्लर्कों की लड़कियों के बारे में उसकी राय थी। वह तीन मील पैदल चलकर कालेज पहुँचती थी, उतनी ही वापस लौटती थी, मामूली कपड़े पहनती थी तथा घर में डाँट-फटकार सुनती रहती थी।

यह सब सोचकर चंदर को उस लड़की पर इतनी दया आई कि वह वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के प्रति प्रबल आक्रोश से भर उठा। वह उस लड़की के भाग्य को सुधारेगा और इस तरह समस्त सामाजिक व्यवस्था पर क्रूर प्रहार करेगा तथा एक साधारण लड़की को प्यार करके देश के सामने अपनी महानता को सिद्ध कर देगा और इस महत्वपूर्ण निश्चय पर पहुँचकर उसको अपने ऊपर एक वीर नायक की तरह गर्व हुआ। वह बहुत ही आसानी से उत्साह एवं उमंग की मूर्ति बन गया और दूसरे दिन से ही उस लड़की को एक ऐसे प्रेमी की नजर से देखना लगा, जो अपने प्यार की खातिर बड़े से बड़ा त्याग करने को तैयार हो। जब वह कॉलेज जाने लगती, तो वह साफ-सुथरे कपड़े पहनकर कमरे से बाहर आकर खड़ा हो जाता और कॉलेज से लौटने के समय भी वह मौजूद मिलता, कभी-कभी वह कुछ दूर तक उसका पीछा करता, कभी रास्ते में ही खड़ा दिखाई देता और कभी-कभी छुट्टी होने के समय कॉलेज के गेट के सामने व्यस्ततापूर्वक इधर-उधर जाते हुए नजर आता। इसके बाद वह उससे बातचीत करने की कोशिश करने लगा।

“क्या समय है?”

“आज देर से क्यूँ जा रही हो?”

“कॉलेज में आज छुट्टी नहीं है?”

उखड़े-उखड़े से प्रश्न। आँखों में दया, दुख और शहादत की भावनाएँ तैरा करतीं। फिर तो उसकी गतिविधियाँ कुछ इस ढंग से बढ़ीं कि लड़की को सचेत हो जाने के लिए मजबूर होना पड़ा। पहले तो उसको अचम्भा हुआ, फिर वह उसको अविश्वास से देखने लगी, यहाँ तक कि कुछ ही दिनों बाद उसकी आँखों से एक अजीब भय झाँकने लगा।

उस दिन चंदर काफी आगे बढ़ गया, जब वह अपने कमरे में बैठा था और तारा कॉलेज से वापस आई थी। चंदर ने पहले कमरे के दोनों दरवाजों के बाहर देखा और जब कोई दिखाई न पड़ा तो गलियारे से जल्दी-जल्दी गुजरती हुई तारा को उसने पास बुलाया। तारा ने उसको चौंककर देखा, फिर उसका चेहरा फक पड़ गया और वह डरती-डरती कमरे के अन्दर आई और सर झुकाकर खड़ी हो गई।

“तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है तारा?” चंदर ने किसी हितैषी के अधिकार से पूछा।

“ठीक चल रही है।”

“कोई कठिनाई है?”

“नहीं।”

“कठिनाई महसूस होने पर पूछ सकती हो। मैं कोई भूत नहीं हूँ। बस, यही समझ लो कि मैं तुम्हारा कोई नुकसान नहीं देख सकता।”

तारा का सर झुका-का-झुका रहा। चंदर ने उठकर कमरे में दो बार चहलकदमी की, फिर वह तारा के एकदम निकट आकर बोला – “तारा, तुमको डरना नहीं चाहिए। अपने को हीन नहीं समझना चाहिए। तुममें बहुत सी अच्छाइयाँ हैं। डरने की क्या जरूरत है?”

उसकी बातों का तारा पर न जाने कैसा असर हुआ कि उसका चेहरा रुदन की हलकी लकीरों में खो गया और वह अचानक छटककर कमरे के बाहर निकल गई।

तारा ने जल्दी से किताबें रखीं और एकांत कमरे में बैठकर चुपचाप आँखें पोछने लगी, वह सचमुच अपने को बहुत छोटा महसूस करने लगी।, गोया किसी ने संकेत करके यह बता दिया हो कि उसका स्थान कहाँ है। वह अपने माँ-बाप की प्रथम भूख-प्यास की लड़की थी और उसको कभी बहुत लाड़-प्यार भी मिला था। उसक दिमाग बहुत अच्छा था और अपने इम्तिहान बहुत अच्छे नम्बरों से पास करती रहती थी। लेकिन धीरे-धीरे उसके परिवार की संख्या बढ़ती गई और बाजार में जरूरी सामान की कीमतें चढ़ती गईं और उसके परिवार पर काली छाया मंडराने लगी। अब घर में रोज ही लड़ाई झगड़ा होने लगा। मामूली बात पर चख-चख और गाली-गलौज। पिता नाराज होकर घर से निकल जाते। कभी माँ खाना-पानी छोड़कर अपने को कमरे में बंद कर लेती। स्वयं उस पर भी रोज डाँट-फटकार ही पड़ती। उसको छाती फाड़कर काम करने पड़ते, बच्चों को सम्भालना पड़ता और छोटे भाई को गोद लादना पड़ता।

कई बार उसकी पढ़ाई छुड़ाने की बात आई, जिसके लिए कई बार उसकी माँ ने जिद ठान ली, लेकिन उसके पिता की वजह से ऐसा नहीं हो पाता था क्यूँकि वह जानते थे कि बिना पढ़ाई-लिखाई के शादी नहीं हो पाएगी और यदि शादी जल्दी न भी हो तो लड़की अपने पैरों पर खड़ी तो हो जाएगी, लेकिन घर के घुटन भरे वातावरण ने उसकी उमंग को समाप्त कर दिया था और वह घर तथा काम से भागने लगी। जब कॉलेज जाने का समय होता तो उसके उत्साह की सीमा न होती। उसकी टाँगों में अजीब सी स्फूर्ति आ जाती और वह सारा काम जल्दी निपटाकर बाहर निकल जाती। फुर्र-फुर्र बाहर निकलकर उसको अजीब सी शांति महसूस होती। काश वह अपने घर कभी न आ पाती और इसी तरह सड़कों पर घूमती रहती। लेकिन शाम को जब वह घर लौटती, तो उसको महसूस होता कि मानो उसके पाँवों में मन-मन के बोझे बाँध दिए गए हो और हृदय पर एक भारी शिला रख दी गयी हो। कैसी मजबूर और हीनता भरी जिंदगी थी।

उसका रुदन सिसकियों में बदल गया, जिसके थमने पर वह चंदर की बातें सोचने लगी और उसको एक अजीब ताजगी और नवीनता का अनुभव होने लगा तथा यह भी कि उसका भी कुछ महत्व है। बादलों की तरह निरुद्देश्य भागते हुए उसके मन को एक ठोस आधार प्राप्त हुआ था। देखते ही देखते सब कुछ उलट-पुलट हो गया और उसके मन में एक प्रबल आँधी चलने लगी। रात में वह चारपाई छोड़कर चुपके से खुली छत पर आ जाती और अंधकार में कुछ तलाश करने लगी। लगातार बरसते हुए पानी को देखकर उसकी आँख भर आती और कुछ ही दिन बाद वह कुछ पूछने के बहाने किताब लेकर चंदर के कमरे में पहुँच जाती और शीघ्र ही इस पूछने और बताने के बीच प्यार का नाटक खेला जाने लगा। अन्त में वे छिप-छिप कर मिलने लगे, कभी रात के अँधेरे में और कभी कॉलेज के फाटक पर।

“मेरा साथ दोगी?” चंदर कभी पूछता था।

“मैं नहीं जानती!” तारा शरमा जाती थी।

“नहीं, मैं साफ-साफ बातें सुनने का आदी हूँ।”

“दूँगी… दूँगी !”

“मैं दुनिया को दिखा दूँगा…” चंदर गर्व से कहता था।

इसके बाद चंदर बहुत ही ऊँचाई से अपना जीवन दर्शन पेश करने लग जाता। उसकी बात ‘मेरे विचार में’ या ‘मैं यह सोचता हूँ’ से शुरू होती थी। उसको पूरा विश्वास था कि वह एक महान क्रांतिकारी परोपकार का कार्य कर रहा है, जिसमें अपनी पूर्ण विजय और सर्वोच्चता की बात सोचकर वह सारे समाज को अपने शत्रु के रूप में कल्पना करने लगता। अपने प्यार को लेकर वह निरन्तर संघर्ष और लड़ाई की बात सोचता था और इसीलिए तारा को तैयार करना चाहता था।

“तारा, तुमको बड़ी से बड़ी कुरबानी के लिए तैयार रहना चाहिए। तुमको किसी से डरना नहीं है, तुमको अधिक से अधिक परिश्रम करके, अधिक से अधिक पढ़ना है। किसी के सामने आने पर सर झुकाने की जरूरत नहीं है। मैं सबको देख लूँगा। तारा मुझे योग्य स्वाभिमान स्त्रियाँ पसंद है। तुम्हें मेरे विचारों के योग्य बनना है।”

जाड़ा और गर्मी बीत गई और फिर बरसात आ गई। तारा इंटरमीडिएट पास करके बी.ए. में पहुँच गई। इन कुछ महीनों में चंदर के प्यार और विचार ने उसके जीवन को संपूर्णतः बदल दिया। उसकी आँखों में सदा एक चमक दिखाई देती, जैसे प्रातःकाल पूर्वी क्षितिज का अँधेरा फट जाता है। उसने अपने और जीवन के दोषों को नई दृष्टि से देखा और वह जल्दी से जल्दी चंदर के अनुकूल बनने के लिए उत्सुक हो उठी।

उसके होठों पर सदा एक मधुर और विश्वासपूर्ण मुस्कराहट छाई रहती और वह उत्साह, स्फूर्ति, स्नेह और सद्भाव की मूर्ति बन गई। वह तड़के ही उठ जाती, घर की सफाई-वफाई करके खुद नहाकर अँगीठी जला देती और समय पर नाश्ता करके सबको आश्चर्यचकित कर देती। उसने दूसरों की अन्य आवश्यकताओं पर ध्यान देना शुरू किया। उसने सबके कपड़े प्रेस करने, पिता जी तथा छोटे भाइयों के जूते पालिश करने तथा माता जी के लिए तमाखू चढ़ाने का नियम बना लिया। अब माँ को सवेरे नियमित रूप से पानी भरे लोटे में रखी नीम की दातुन तथा भोजन के समय सबको प्याज और चटनी अवश्य मिल जाती। वह छोटे भाई-बहनों को समय पर उठाकर तैयार करा देती तथा उनको खिला पिला कर पढ़ने के लिए बिठा देती। जब वह कॉलेज जाती, तो उसका मन सदा चंदर के प्यार से पुलकित रहता और वह अपनी सहलियों के सामने भी बातचीत में सदा चंदर के विचारों को ही दुहराती रहती। उसका जीवन एक महान दिलचस्पी, विश्वास एवं प्रतीक्षा में परिवर्तित हो गया था।

एक दिन जब वह कॉलेज से लौटी तो उसकी माँ उसके छोटे भाई पप्पू को गालियाँ दे रही थी।

“माँ, यह ठीक नहीं है”, तारा ने कहा।

“क्या ठीक नहीं हैं?”

“गालियाँ देना।”

“अरे मेरी भौजी! तू मुझे सिखाने चली है? आओ तो झाड़ू से बात करूँ।”

तारा का मुँह क्रोध से तमतमाने लगा और आँखें चमकने लगी। उसने झनझनाती आवाज में कहा, “आप मेरे प्रति ऐसी जबान में नहीं बोल सकती।”

“क्या? तेरी यह हिम्मत?”

“मैं अब बड़ी और जिम्मेदार हो गई हूँ। मैं यह सब बर्दाश्त नहीं करूँगी।”

“अरे पप्पू, बुला अपने बाप को!” उसकी माँ चीख पड़ी, “आने दे उनको, मैं तेरा दीदा नवाती हूँ। बाप रे, यह लड़की हाथ से निकलती जा रही है! ठहर जा, मैं तेरा पढ़ना-लिखना छुड़ाती हूँ और इसी साल तुझे घर से भगाती हूँ…”

“मैं कहीं नहीं जाऊँगी।” तारा ने दृढ़ स्वर में कहा।

“क्या कहा? तू शादी नहीं करेगी?”

“नहीं… नहीं।”

“तो क्या करेगी, छाती पर मूँग दलेगी ?”

“मूँग क्यूँ दलूँगी? मैं अधिक से अधिक पढ़ूँगी और अपने पैरों पर खड़ी होऊँगी। मैं अपनी समस्या खुद हल करूँगी, तुमको चिंता करने की जरूरत नहीं है।”

“पढ़ूँगी!” माँ होठ विकृत करके बोली – “तू पढ़ेगी क्या, सारे खानदान की नाक कटाएगी! रह, जबान लड़ाने का मजा चखाती हूँ!”

उसके बाद उसकी माँ ने पास में रखे एक डंडे को उठा लिया और आगे लपककर उस पर प्रहार करने लगी। तारा पहले चीखी। इसके बाद काठ की तरह खड़ी होकर मार खाती रही। उसका मुँह लाल हो गया था और आँखों से झरझर आँसू गिर रहे थे। आँसुओं से भीगे हुए होठों में वह बुदबुदाई – “मारकर तुम मेरी जान ले सकती हो, लेकिन मेरे विचारों को बदल नहीं सकती…”

तारा ने भोजन त्याग दिया। वह पहले की तरह ही सब काम करती रही, लेकिन अन्न को हाथ न लगाती। पहले तो माँ जिद में कुछ न बोली लेकिन जब दो दिन बीत गए तो माथा ठनका। इसको पता नहीं इधर क्या हो गया है, कहीं सचमुच जान न दे दे! इसके लक्षण इधर समझ में नहीं आते! देर तक बनाव-शृंगार करती रहती है। बातें भी बुजुर्ग की तरह करती है। लड़की को यह सब शोभा नहीं देता है। इज्जत आबरू के साथ दिन कट जाए, यही बहुत है। उसने अब पति से सारी बात कह देना उचित समझा और कहकर स्वयं रोने लगी।

पति ने पहले पत्नी को बहुत फटकारा, फिर वह तारा के पास जाकर बैठ गए। उन्होंने साफ-साफ बात करना उचित समझा। प्रश्न-पर-प्रश्न! तारा पहले हिचाकिचाई। लेकिन पिता ने कहा कि वह पढ़ी-लिखी लड़की है वह उससे साफ-साफ बातें सुनना चाहते हैं। पिता के स्वर में अपार सहानुभूति थी। तारा अपने को रोक न सकी। उसने सब कुछ बता दिया और उसकी हिचकियाँ बँध गईं।

पिता का चेहरा गम्भीर हो गया और वह वहाँ से उठ आए। वह टहलने लगे। चुपचाप। कभी यह लड़की कितनी छोटी थी और आज बड़ी होकर ऐसी बातें कर रही है। जमाना कितना बदल गया है। क्या ऐसा हो सकता है? काश, ऐसा हो सकता। विभिन्न जातियों के बीच आज शादियाँ होने लगी हैं, इसमें क्या खास बात है? फिर वह तिलक, दहेज से बच जाएँगे, जिसके लिए कर्ज के अलावा कोई और चारा नहीं है। लड़का बुरा नहीं है। वह देर तक सोचते रहे, फिर भी किसी निश्चय पर नहीं पहुँच पाए, क्योंकि तर्क एवं सच्चाई के सहारे जब वह दो कदम आगे बढ़ते थे, पुराने संस्कार उनके कदम को पीछे खींच लेते थे।

रात में देर तक पति-पत्नी खुसुर-फुसुर करते रहे। बीच में पत्नी रोयी-चिल्लायी। फिर पति देर तक समझाते रहे। स्पष्ट, दृढ़ आवाज। तर्कसंगत बातें। नए जमाने के विचारों को स्वीकार करने की दलीलें। पत्नी का विरोध मंद पड़ने लगा। फिर पता नहीं कब से सब-कुछ खामोशी में खो गया। तारा सारी बातें छिपकर सुन रही थी। जब वे सो गए, तो वह चुपके से पैर दबा कर निकली। खुशी के मारे उसकी देह थरथरा रही थी। चंदर को वह कब यह-सब सुनाएगी? चारों और घना अँधेरा कुंडली मारकर बैठा था। हवा गुमसुम थी, जैसे किसी षड्यंत्र में लीन हो। चंदर अभी सोया नहीं था। खटखटाहट सुनते ही दरवाजा खोल दिया और हाथ बढ़ाकर तारा को अपने पास खींच लिया।

“मैं आज बहुत खुश हूँ।” तारा ने मुस्कराकर कहा। उसकी आँखें प्यार से चमक रही थीं।

“क्या बात है? चंदर ने लापरवाही से पूछा।

“मिठाई खिलानी पड़ेगी।”

“जरूर! अब बताओ।”

“पिताजी राजी हो गए हैं।”

“राजी हो गए हैं? क्या मतलब?” चंदर कुछ समझ नहीं पाया था।

तारा ने विस्तार से सब बात सुनाई। उसके स्वर में उमंग की तेजी और चमक थी। चंदर का चेहरा सहसा फक पड़ गया। उसने अपने को आलिंगन से मुक्त कर लिया और खिड़की के बाहर अँधेरे में देखने लगा। शादी! वह अपने को महान समझता था और उसकी कल्पना थी कि उसका प्यार महान संघर्ष, महान तूफान और महान कुर्बानी के दौर से गुजरेगा। उसके प्यार की ऐसी साधारण परिणति होगी, ऐसा उसने सोचा भी न था। उसका मुँह देखते ही देखते कठोर हो गया।

“क्या बात है?” तारा डर गई।

“यह धोखा है!” उसने घृणा से मुँह बिचकाते हुए कहा।

“क्या धोखा है?”

“तुम धोखेबाज हो। तुमने शुरू से आखिर तक मेरे साथ धोखा किया है।”

“क्या धोखा किया है, आप बताते क्यूँ नहीं?” तारा ने रुआँसे स्वर में कहा…

“हाँ, किया है। इसी के लिए तुम मेरे पीछे पड़ी हुई थी, पर आज मैं समझ गया कि तुम जीवन में कुछ नहीं कर सकती। तुमसे कोई बड़ा काम नहीं हो सकता।”

“बड़ा काम और कैसे हो सकता है?” तारा का चेहरा अपमान से तमतमाने लगा।

“बड़े काम करने के बड़े तरीके होते हैं। उसके लिए बड़े संघर्ष से गुजरना पड़ता है। तुम उनके काबिल नहीं हो।”

“मैं अब समझ गई।” तारा के स्वर में तीखापन था।

“क्या समझ गई?”

“आप मुझे प्यार नहीं करते। आप प्यार कर ही नहीं सकते।”

“क्या मतलब?” चंदर चौंक पड़ा।

“मतलब स्पष्ट है। प्यार की चरम परिणति है शादी, इसी मंजिल तक पहुँचने के लिए संघर्ष और कुरबानियाँ दी जाती हैं। लेकिन अब यह मंजिल प्राप्त हो जाती है, तो आपको खुशी नहीं होती। इसका अर्थ है कि आपके संघर्ष की बातें जिम्मेदारियों से बचने और स्वार्थ को छिपाने का बहाना है। मैंने तो जीवन के आरंभ से ही संघर्ष किया है, आपने क्या किया? आप भूख जानते हैं? आपको गरीबी, जलालत, घुटन, ऊब, निराशा का पता है? साफ तो यह है कि आपको एक नारी-देह की जरूरत है और जरूरत है अपने अहंकार की तृप्ति की।”

“तुम वाहियात बक रही हो।” चंदर ने घूरकर कठोर स्वर में कहा।

“हाँ, वाहियात बक रही हूँ।” तारा और भी तीखी आवाज में बोली – “लेकिन आज आपको सब कुछ सुनना पड़ेगा। मैं आपको कितना प्यार करती हूँ यह नहीं बता सकती, लेकिन आज आपकी भी गलत बातों को मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती। आपका भी ऐसा ही कहना है। आपके लिए तो मैं बड़ा से बड़ा त्याग करने को तैयार थी, लेकिन इधर मैंने यह महसूस करना शुरू कर दिया है कि आप केवल अपनी बातों को महत्व देते हैं, दूसरों की भावनाओं की आपकी कतई परवाह नहीं। कितनी बार मेरी इच्छा हुई कि आपसे अपने मन की बातें कहूँ…। अपने दुख-सुख की, अपनी कल्पनाओं की, भविष्य की। कई बार मैं कोई अच्छी किताब पढ़कर आती थी और उसके बारे में आपसे बातें करना चाहती थी, लेकिन आप मेरी हर बात को काटकर अपनी बातें शुरू कर देते थे, वही उपदेश। वही छात्र आंदोलन के अनुभव। आपको दो ही बातों से मतलब है, एक मेरी देह से और दूसरे मुझे उपदेश देने से। मैं मेहनत करूँ, मैं कुरबानी देने को तैयार हो जाऊँ। आप क्या करोगे? आप क्या मेहनत करते हैं? बात तो यह है कि आप सदा हवा में उड़ते रहना चाहते हैं और आज जब जमीं पर उतरने का मौका आया है त्याग करने का समय आया है, तो आप जान बचाना चाहते हैं, इसलिए आप नाराज हैं, अपने लिए मौजपूर्ण गैरजिम्मेदार और दूसरों के लिए परिश्रम, कर्तव्य और जिम्मेदारी, यही आपका जीवन दर्शन है। पर मैं आपसे यह पूछती हूँ कि आपने मेरा जीवन क्यों बरबाद किया? खैर आप यह बात गाँठ बाँधकर रख लीजिए कि मैं किसी की दया पर निर्भर नहीं रहा चाहती।”

अन्त में उसकी बातें रुदन में बिखर गईं और वह तेजी से बाहर निकल गई।

चंदर कुछ देर तक कमरे में सुन्न खड़ा रहा। ऐसी उम्मीद उसको न थी। कुछ क्षणों के लिए उसको लगा कि तारा की बातें सही हैं। तब वह अपने को बहुत ही छोटा महसूस करने लगा। लेकिन शीघ्र ही उसने अपने को इस भावना से मुक्त कर लिया। अब उसका मुँह क्रोध और घृणा से विकृत हो गया। एहसान करने का यह फल मिलता है! जिसको उसने कीचड़ से निकाला था, वह अब उसी पर प्रहार कर रही है! यह है दुनिया! उसने अँधेरे में थूका और जोर से दरवाजा बंद कर लिया।

Thursday, January 18, 2024

पंच परमेश्वर - प्रेमचंद


जुम्मन शेख और अलगू चौधरी में गाढ़ी मित्रता थी। साझे में खेती होती थी। कुछ लेन-देन में भी साझा था। एक को दूसरे पर अटल विश्वास था। जुम्मन जब हज करने गये थे, तब अपना घर अलगू को सौंप गये थे, और अलगू जब कभी बाहर जाते, तो जुम्मन पर अपना घर छोड़ देते थे। उनमें न खान-पान का व्यवहार था, न धर्म का नाता; केवल विचार मिलते थे। मित्रता का मूलमंत्र भी यही है।

इस मित्रता का जन्म उसी समय हुआ, जब दोनों मित्र बालक ही थे; और जुम्मन के पूज्य पिता, जुमराती, उन्हें शिक्षा प्रदान करते थे। अलगू ने गुरु जी की बहुत सेवा की थी, खूब रकाबियाँ माँजी, खूब प्याले धोये। उनका हुक्का एक क्षण के लिए भी विश्राम न लेने पाता था; क्योंकि प्रत्येक चिलम अलगू को आध घंटे तक किताबों से अलग कर देती थी। अलगू के पिता पुराने विचारों के मनुष्य थे। उन्हें शिक्षा की अपेक्षा गुरु की सेवा-शुश्रूषा पर अधिक विश्वास था। वह कहते थे कि विद्या पढ़ने से नहीं आती; जो कुछ होता है, गुरु के आशीर्वाद से। बस, गुरु जी की कृपा-दृष्टि चाहिए। अतएव यदि अलगू पर जुमराती शेख के आशीर्वाद अथवा सत्संग का कुछ फल न हुआ, तो यह मानकर संतोष कर लेगा कि विद्योपार्जन में उसने यथाशक्ति कोई बात उठा नहीं रखी, विद्या उसके भाग्य ही में न थी, तो कैसे आती ?

मगर जुमराती शेख स्वयं आशीर्वाद के कायल न थे। उन्हें अपने सोटे पर अधिक भरोसा था, और उसी सोटे के प्रताप से आज आस-पास के गाँवों में जुम्मन की पूजा होती थी। उनके लिखे हुए रेहननामे या बैनामे पर कचहरी का मुहर्रिर भी कलम न उठा सकता था। हलके का डाकिया, कांस्टेबिल और तहसील का चपरासी-सब उनकी कृपा की आकांक्षा रखते थे। अतएव अलगू का मान उनके धन के कारण था, तो जुम्मन शेख अपनी अनमोल विद्या से ही सबके आदरपात्र बने थे।

जुम्मन शेख की एक बूढ़ी खाला (मौसी) थी। उसके पास कुछ थोड़ी-सी मिलकियत थी; परन्तु उसके निकट संबंधियों में कोई न था। जुम्मन ने लम्बे-चौड़े वादे करके वह मिलकियत अपने नाम लिखवा ली थी। जब तक दानपत्र की रजिस्ट्री न हुई थी, तब तक खालाजान का खूब आदर-सत्कार किया गया। उन्हें खूब स्वादिष्ट पदार्थ खिलाये गये। हलवे-पुलाव की वर्षा-सी की गयी; पर रजिस्ट्री की मोहर ने इन खातिरदारियों पर भी मानो मुहर लगा दी। जुम्मन की पत्नी करीमन रोटियों के साथ कड़वी बातों के कुछ तेज, तीखे सालन भी देने लगी। जुम्मन शेख भी निठुर हो गये। अब बेचारी खालाजान को प्रायः नित्य ही ऐसी बातें सुननी पड़ती थीं।

बुढ़िया न जाने कब तक जियेगी। दो-तीन बीघे ऊसर क्या दे दिया, मानो मोल ले लिया है ! बघारी दाल के बिना रोटियाँ नहीं उतरतीं ! जितना रुपया इसके पेट में झोंक चुके, उतने से तो अब तक गाँव मोल ले लेते।

कुछ दिन खालाजान ने सुना और सहा; पर जब न सहा गया तब जुम्मन से शिकायत की। जुम्मन ने स्थानीय कर्मचारी-गृहस्वामी-के प्रबंध में दखल देना उचित न समझा। कुछ दिन तक और यों ही रो-धोकर काम चलता रहा। अंत में एक दिन खाला ने जुम्मन से कहा-बेटा ! तुम्हारे साथ मेरा निर्वाह न होगा। तुम मुझे रुपये दे दिया करो, मैं अपना पका-खा लूँगी।

जुम्मन ने धृष्टता के साथ उत्तर दिया-रुपये क्या यहाँ फलते हैं ?

खाला ने नम्रता से कहा-मुझे कुछ रूखा-सूखा चाहिए भी कि नहीं ?

जुम्मन ने गम्भीर स्वर से जवाब दिया-तो कोई यह थोड़े ही समझा था कि तुम मौत से लड़कर आयी हो ?

खाला बिगड़ गयीं, उन्होंने पंचायत करने की धमकी दी। जुम्मन हँसे, जिस तरह कोई शिकारी हिरन को जाल की तरफ जाते देख कर मन ही मन हँसता है। वह बोले-हाँ, जरूर पंचायत करो। फैसला हो जाय। मुझे भी यह रात-दिन की खटखट पसंद नहीं।

पंचायत में किसकी जीत होगी, इस विषय में जुम्मन को कुछ भी संदेह न था। आस-पास के गाँवों में ऐसा कौन था, जो उसके अनुग्रहों का ऋणी न हो; ऐसा कौन था, जो उसको शत्रु बनाने का साहस कर सके ? किसमें इतना बल था, जो उसका सामना कर सके ? आसमान के फरिश्ते तो पंचायत करने आवेंगे नहीं।

2

इसके बाद कई दिन तक बूढ़ी खाला हाथ में एक लकड़ी लिये आस-पास के गाँवों में दौड़ती रहीं। कमर झुक कर कमान हो गयी थी। एक-एक पग चलना दूभर था; मगर बात आ पड़ी थी। उसका निर्णय करना जरूरी था।

बिरला ही कोई भला आदमी होगा, जिसके सामने बुढ़िया ने दुःख के आँसू न बहाये हां। किसी ने तो यों ही ऊपरी मन से हूँ-हाँ करके टाल दिया, और किसी ने इस अन्याय पर जमाने को गालियाँ दीं ! कहा-कब्र में पाँव लटके हुए हैं, आज मरे कल दूसरा दिन; पर हवस नहीं मानती। अब तुम्हें क्या चाहिए ? रोटी खाओ और अल्लाह का नाम लो। तुम्हें अब खेती-बारी से क्या काम है ? कुछ ऐसे सज्जन भी थे, जिन्हें हास्य-रस के रसास्वादन का अच्छा अवसर मिला। झुकी हुई कमर, पोपला मुँह, सन के-से बाल-इतनी सामग्री एकत्र हों, तब हँसी क्यों न आवे ? ऐसे न्यायप्रिय, दयालु, दीन-वत्सल पुरुष बहुत कम थे, जिन्होंने उस अबला के दुखड़े को गौर से सुना हो और उसको सांत्वना दी हो। चारों ओर से घूम-घाम कर बेचारी अलगू चौधरी के पास आयी। लाठी पटक दी और दम ले कर बोली-बेटा, तुम भी दम भर के लिए मेरी पंचायत में चले आना।

अलगू-मुझे बुला कर क्या करोगी ? कई गाँव के आदमी तो आवेंगे ही।

खाला-अपनी विपद तो सबके आगे रो आयी। अब आने-न-आने का अख्तियार उनको है।

अलगू-यों आने को आ जाऊँगा; मगर पंचायत में मुँह न खोलूँगा।

खाला-क्यों बेटा ?

अलगू-अब इसका क्या जवाब दूँ ? अपनी खुशी। जुम्मन मेरा पुराना मित्र है। उससे बिगाड़ नहीं कर सकता।

खाला-बेटा, क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे ?

हमारे सोये हुए धर्म-ज्ञान की सारी सम्पत्ति लुट जाय, तो उसे खबर नहीं होती, परन्तु ललकार सुन कर वह सचेत हो जाता है। फिर उसे कोई जीत नहीं सकता। अलगू इस सवाल का कोई उत्तर न दे सका, पर उसके हृदय में ये शब्द गूँज रहे थे-क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे ?

3

संध्या समय एक पेड़ के नीचे पंचायत बैठी। शेख जुम्मन ने पहले से ही फर्श बिछा रखा था। उन्होंने पान, इलायची, हुक्के-तम्बाकू आदि का प्रबन्ध भी किया था। हाँ, वह स्वयं अलबत्ता अलगू चौधरी के साथ जरा दूर पर बैठे हुए थे। जब पंचायत में कोई आ जाता था, तब दबे हुए सलाम से उसका स्वागत करते थे। जब सूर्य अस्त हो गया और चिड़ियों की कलरवयुक्त पंचायत पेड़ों पर बैठी, तब यहाँ भी पंचायत शुरू हुई। फर्श की एक-एक अंगुल जमीन भर गयी; पर अधिकांश दर्शक ही थे। निमंत्रित महाशयों में से केवल वे ही लोग पधारे थे, जिन्हें जुम्मन से अपनी कुछ कसर निकालनी थी। एक कोने में आग सुलग रही थी। नाई ताबड़तोड़ चिलम भर रहा था। यह निर्णय करना असम्भव था कि सुलगते हुए उपलों से अधिक धुआँ निकलता था या चिलम के दमों से। लड़के इधर-उधर दौड़ रहे थे। कोई आपस में गाली-गलौज करते और कोई रोते थे। चारों तरफ कोलाहल मच रहा था। गाँव के कुत्ते इस जमाव को भोज समझ कर झुंड के झुंड जमा हो गये थे।

पंच लोग बैठ गये, तो बूढ़ी खाला ने उनसे विनती की-

‘पंचो, आज तीन साल हुए, मैंने अपनी सारी जायदाद अपने भानजे जुम्मन के नाम लिख दी थी। इसे आप लोग जानते ही होंगे। जुम्मन ने मुझे ता-हयात रोटी-कपड़ा देना कबूल किया। साल भर तो मैंने इसके साथ रो-धोकर काटा। पर अब रात-दिन का रोना नहीं सहा जाता। मुझे न पेट की रोटी मिलती है न तन का कपड़ा। बेकस बेवा हूँ। कचहरी-दरबार नहीं कर सकती। तुम्हारे सिवा और किसको अपना दुःख सुनाऊँ ? तुम लोग जो राह निकाल दो, उसी राह पर चलूँ। अगर मुझमें कोई ऐब देखो, तो मेरे मुँह पर थप्पड़ मारो। जुम्मन में बुराई देखो, तो उसे समझाओ, क्यों एक बेकस की आह लेता है ! मैं पंचों का हुक्म सिर-माथे पर चढ़ाऊँगी।’

रामधन मिश्र, जिनके कई असामियों को जुम्मन ने अपने गाँव में बसा लिया था, बोले-जुम्मन मियाँ, किसे पंच बदते हो ? अभी से इसका निपटारा कर लो। फिर जो कुछ पंच कहेंगे, वही मानना पडे़गा।

जुम्मन को इस समय सदस्यों में विशेषकर वे ही लोग दीख पड़े, जिनसे किसी न किसी कारण उनका वैमनस्य था। जुम्मन बोले-पंचों का हुक्म अल्लाह का हुक्म है। खालाजान जिसे चाहें, उसे बदें। मुझे कोई उज्र नहीं।

खाला ने चिल्ला कर कहा-अरे अल्लाह के बन्दे ! पंचों का नाम क्यों नहीं बता देता ? कुछ मुझे भी तो मालूम हो।

जुम्मन ने क्रोध से कहा-अब इस वक्त मेरा मुँह न खुलवाओ। तुम्हारी बन पड़ी है, जिसे चाहो, पंच बदो।

खालाजान जुम्मन के आक्षेप को समझ गयीं, वह बोलीं-बेटा, खुदा से डरो, पंच न किसी के दोस्त होते हैं, न किसी के दुश्मन। कैसी बात कहते हो ! और तुम्हारा किसी पर विश्वास न हो, तो जाने दो; अलगू चौधरी को तो मानते हो ? लो, मैं उन्हीं को सरपंच बदती हूँ।

जुम्मन शेख आनंद से फूल उठे, परंतु भावों को छिपा कर बोले-अलगू ही सही, मेरे लिए जैसे रामधन वैसे अलगू।

अलगू इस झमेले में फँसना नहीं चाहते थे। वे कन्नी काटने लगे। बोले-खाला, तुम जानती हो कि मेरी जुम्मन से गाढ़ी दोस्ती है।

खाला ने गम्भीर स्वर में कहा-बेटा, दोस्ती के लिए कोई अपना ईमान नहीं बेचता। पंच के दिल में खुदा बसता है। पंचों के मुँह से जो बात निकलती है, वह खुदा की तरफ से निकलती है।

अलगू चौधरी सरपंच हुए। रामधन मिश्र और जुम्मन के दूसरे विरोधियों ने बुढ़िया को मन में बहुत कोसा।

अलगू चौधरी बोले-शेख जुम्मन ! हम और तुम पुराने दोस्त हैं ! जब काम पड़ा, तुमने हमारी मदद की है और हम भी जो कुछ बन पड़ा, तुम्हारी सेवा करते रहे हैं; मगर इस समय तुम और बूढ़ी खाला, दोनों हमारी निगाह में बराबर हो। तुमको पंचों से जो कुछ अर्ज करनी हो, करो।

जुम्मन को पूरा विश्वास था कि अब बाजी मेरी है। अलगू यह सब दिखावे की बातें कर रहा है। अतएव शांत-चित्त हो कर बोले-पंचो, तीन साल हुए खालाजान ने अपनी जायदाद मेरे नाम हिब्बा कर दी थी। मैंने उन्हें ता-हयात खाना-कपड़ा देना कबूल किया था। खुदा गवाह है, आज तक मैंने खालाजान को कोई तकलीफ नहीं दी। मैं उन्हें अपनी माँ के समान समझता हूँ। उनकी खिदमत करना मेरा फर्ज है; मगर औरतों में जरा अनबन रहती है, उसमें मेरा क्या बस है ? खालाजान मुझसे माहवार खर्च अलग माँगती हैं। जायदाद जितनी है, वह पंचों से छिपी नहीं। उससे इतना मुनाफा नहीं होता है कि माहवार खर्च दे सकूँ। इसके अलावा हिब्बानामे में माहवार खर्च का कोई जिक्र नहीं। नहीं तो मैं भूल कर भी इस झमेले में न पड़ता। बस, मुझे यही कहना है। आइंदा पंचों का अख्तियार है, जो फैसला चाहें, करें।

अलगू चौधरी को हमेशा कचहरी से काम पड़ता था। अतएव वह पूरा कानूनी आदमी था। उसने जुम्मन से जिरह शुरू की। एक-एक प्रश्न जुम्मन के हृदय पर हथौड़े की चोट की तरह पड़ता था। रामधन मिश्र इन प्रश्नों पर मुग्ध हुए जाते थे। जुम्मन चकित थे कि अलगू को क्या हो गया। अभी यह अलगू मेरे साथ बैठा हुआ कैसी-कैसी बातें कर रहा था ! इतनी ही देर में ऐसी कायापलट हो गयी कि मेरी जड़ खोदने पर तुला हुआ है। न मालूम कब की कसर यह निकाल रहा है ? क्या इतने दिनों की दोस्ती कुछ भी काम न आवेगी ?

जुम्मन शेख तो इसी संकल्प-विकल्प में पड़े हुए थे कि इतने में अलगू ने फैसला सुनाया-

जुम्मन शेख ! पंचो ने इस मामले पर विचार किया। उन्हें यह नीति- संगत मालूम होता है कि खालाजान को माहवार खर्च दिया जाय। हमारा विचार है कि खाला की जायदाद से इतना मुनाफा अवश्य होता है कि माहवार खर्च दिया जा सके। बस, यही हमारा फैसला है, अगर जुम्मन को खर्च देना मंजूर न हो, तो हिब्बानामा रद्द समझा जाय।

यह फैसला सुनते ही जुम्मन सन्नाटे में आ गये। जो अपना मित्र हो, वह शत्रु का व्यवहार करे और गले पर छुरी फेरे, इसे समय के हेर-फेर के सिवा और क्या कहें ? जिस पर पूरा भरोसा था, उसने समय पड़ने पर धोखा दिया। ऐसे ही अवसरों पर झूठे-सच्चे मित्रों की परीक्षा की जाती है। यही कलियुग की दोस्ती है। अगर लोग ऐसे कपटी-धोखेबाज न होते, तो देश में आपत्तियों का प्रकोप क्यों होता ? यह हैजा-प्लेग आदि व्याधियाँ दुष्कर्मों के ही दंड हैं।

मगर रामधन मिश्र और अन्य पंच अलगू चौधरी की इस नीति-परायणता की प्रशंसा जी खोलकर कर रहे थे। वे कहते थे-इसका नाम पंचायत है ! दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया। दोस्ती, दोस्ती की जगह है, किंतु धर्म का पालन करना मुख्य है। ऐसे ही सत्यवादियों के बल पर पृथ्वी ठहरी है, नहीं तो वह कब की रसातल को चली जाती ।

इस फैसले ने अलगू और जुम्मन की दोस्ती की जड़ हिला दी। अब वे साथ-साथ बातें करते नहीं दिखायी देते। इतना पुराना मित्रता-रूपी वृक्ष सत्य का एक झोंका भी न सह सका। सचमुच वह बालू की ही जमीन पर खड़ा था।

उनमें अब शिष्टाचार का अधिक व्यवहार होने लगा। एक दूसरे की आवभगत ज्यादा करने लगा। वे मिलते-जुलते थे, मगर उसी तरह, जैसे तलवार से ढाल मिलती है।

जुम्मन के चित्त में मित्र की कुटिलता आठों पहर खटका करती थी। उसे हर घड़ी यही चिंता रहती थी कि किसी तरह बदला लेने का अवसर मिले।

4

अच्छे कामों की सिद्धि में बड़ी देर लगती है; पर बुरे कामों की सिद्धि में यह बात नहीं होती। जुम्मन को भी बदला लेने का अवसर जल्द ही मिल गया। पिछले साल अलगू चौधरी बटेसर से बैलों की एक बहुत अच्छी गोई मोल लाये थे। बैल पछाहीं जाति के सुंदर, बड़े-बड़े सींगोंवाले थे। महीनों तक आस-पास के गाँव के लोग दर्शन करते रहे। दैवयोग से जुम्मन की पंचायत के एक महीने के बाद इस जोड़ी का एक बैल मर गया। जुम्मन ने दोस्तों से कहा-यह दगाबाजी की सजा है। इन्सान सब्र भले ही कर जाय, पर खुदा नेक-बद सब देखता है। अलगू को संदेह हुआ कि जुम्मन ने बैल को विष दिला दिया है। चौधराइन ने भी जुम्मन पर ही इस दुर्घटना का दोषारोपण किया। उसने कहा-जुम्मन ने कुछ कर-करा दिया है। चौधराइन और करीमन में इस विषय पर एक दिन खूब ही वाद-विवाद हुआ। दोनों देवियों ने शब्द-बाहुल्य की नदी बहा दी। व्यंग्य, वक्रोक्ति, अन्योक्ति और उपमा आदि अलंकारों में बातें हुईं। जुम्मन ने किसी तरह शांति स्थापित की। उन्होंने अपनी पत्नी को डाँट-डपट कर समझा दिया। वह उसे उस रणभूमि से हटा भी ले गये। उधर अलगू चौधरी ने समझाने-बुझाने का काम अपने तर्क-पूर्ण सोंटे से लिया।

अब अकेला बैल किस काम का ? उसका जोड़ बहुत ढूँढ़ा गया, पर न मिला। निदान यह सलाह ठहरी कि इसे बेच डालना चाहिए। गाँव में एक समझू साहु थे, वह इक्का-गाड़ी हाँकते थे। गाँव के गुड़-घी लाद कर मंडी ले जाते, मंडी से तेल, नमक भर लाते, और गाँव में बेचते। इस बैल पर उनका मन लहराया। उन्होंने सोचा, यह बैल हाथ लगे तो दिन-भर में बेखटके तीन खेप हों। आजकल तो एक ही खेप में लाले पड़े रहते हैं। बैल देखा, गाड़ी में दौड़ाया, बाल-भौंरी की पहचान करायी, मोल-तोल किया और उसे ला कर द्वार पर बाँध ही दिया। एक महीने में दाम चुकाने का वादा ठहरा। चौधरी को भी गरज थी ही, घाटे की परवा न की।

समझू साहु ने नया बैल पाया, तो लगे उसे रगेदने। वह दिन में तीन-तीन, चार-चार खेपें करने लगे। न चारे की फिक्र थी, न पानी की, बस खेपों से काम था। मंडी ले गये, वहाँ कुछ सूखा भूसा सामने डाल दिया। बेचारा जानवर अभी दम भी न लेने पाया था कि फिर जोत दिया। अलगू चौधरी के घर था तो चैन की बंशी बजती थी। बैलराम छठे-छमाहे कभी बहली में जोते जाते थे। खूब उछलते-कूदते और कोसों तक दौड़ते चले जाते थे। वहाँ बैलराम का रातिब था-साफ पानी, दली हुई अरहर की दाल और भूसे के साथ खली, और यही नहीं, कभी-कभी घी का स्वाद भी चखने को मिल जाता था। शाम-सबेरे एक आदमी खरहरे करता, पोंछता और सहलाता था। कहाँ वह सुख-चैन, कहाँ यह आठों पहर की खपत ! महीने भर ही में वह पिस-सा गया। इक्के का जुआ देखते ही उसका लहू सूख जाता था। एक-एक पग चलना दूभर था। हड्डियाँ निकल आयी थीं; पर था वह पानीदार, मार की बरदाश्त न थी।

एक दिन चौथी खेप में साहु जी ने दूना बोझ लादा। दिन-भर का थका जानवर, पैर न उठते थे। पर साहु जी कोड़े फटकारने लगे। बस, फिर क्या था, बैल कलेजा तोड़ कर चला। कुछ दूर दौड़ा और चाहा कि जरा दम ले लूँ; पर साहु जी को जल्द पहुँचने की फिक्र थी; अतएव उन्होंने कई कोडे़ बड़ी निर्दयता से फटकारे। बैल ने एक बार फिर जोर लगाया; पर अबकी बार शक्ति ने जवाब दे दिया। वह धरती पर गिर पड़ा, और ऐसा गिरा कि फिर न उठा। साहु जी ने बहुत पीटा, टाँग पकड़ कर खींचा, नथनों में लकड़ी ठूँस दी; पर कहीं मृतक भी उठ सकता है ? तब साहु जी को कुछ शक हुआ। उन्होंने बैल को गौर से देखा, खोल कर अलग किया; और सोचने लगे कि गाड़ी कैसे घर पहुँचे। बहुत चीखे-चिल्लाये; पर देहात का रास्ता बच्चों की आँख की तरह साँझ होते ही बंद हो जाता है। कोई नजर न आया। आस-पास कोई गाँव भी न था। मारे क्रोध के उन्होंने मरे हुए बैल पर और दुर्रे लगाये और कोसने लगे-अभागे। तुझे मरना ही था, तो घर पहुँच कर मरता ! ससुरा बीच रास्ते ही में मर रहा ! अब गाड़ी कौन खींचे ? इस तरह साहु जी खूब जले-भुने। कई बोरे गुड़ और कई पीपे घी उन्होंने बेचे थे, दो-ढाई सौ रुपये कमर में बँधे थे। इसके सिवा गाड़ी पर कई बोरे नमक के थे; अतएव छोड़ कर जा भी न सकते थे। लाचार बेचारे गाड़ी पर ही लेट गये। वहीं रतजगा करने की ठान ली। चिलम पी, गाया। फिर हुक्का पिया। इस तरह साहु जी आधी रात तक नींद को बहलाते रहे। अपनी जान में तो वह जागते ही रहे; पर पौ फटते ही जो नींद टूटी और कमर पर हाथ रखा, तो थैली गायब ! घबरा कर इधर-उधर देखा, तो कई कनस्तर तेल भी नदारत ! अफसोस में बेचारे ने सिर पीट लिया और पछाड़ खाने लगा। प्रातःकाल रोते-बिलखते घर पहुँचे। सहुआइन ने जब यह बुरी सुनावनी सुनी, तब पहले तो रोयी, फिर अलगू चौधरी को गालियाँ देने लगी-निगोडे़ ने ऐसा कुलच्छनी बैल दिया कि जन्म भर की कमाई लुट गयी।

इस घटना को हुए कई महीने बीत गये। अलगू जब अपने बैल के दाम माँगते तब साहु और सहुआइन, दोनों ही झल्लाये हुए कुत्ते की तरह चढ़ बैठते और अंड-बंड बकने लगते-वाह ! यहाँ तो सारे जन्म की कमाई लुट गयी, सत्यानाश हो गया, इन्हें दामों की पड़ी है। मुर्दा बैल दिया था, उस पर दाम माँगने चले हैं ! आँखों में धूल झोंक दी, सत्यानाशी बैल गले बाँध दिया, हमें निरा पोंगा ही समझ लिया है ! हम भी बनिये के बच्चे हैं, ऐसे बुद्धू कहीं और होंगे। पहले जा कर किसी गड़हे में मुँह धो आओ, तब दाम लेना। न जी मानता हो, तो हमारा बैल खोल ले जाओ। महीना भर के बदले दो महीना जोत लो। और क्या लोगे ?

चौधरी के अशुभचिंतकों की कमी न थी। ऐसे अवसरों पर वे भी एकत्र हो जाते और साहु जी के बर्राने की पुष्टि करते। परन्तु डेढ़ सौ रुपये से इस तरह हाथ धो लेना आसान न था। एक बार वह भी गरम पड़े । साहु जी बिगड़ कर लाठी ढूँढ़ने घर में चले गये। अब सहुआइन ने मैदान लिया। प्रश्नोत्तर होते-होते हाथापाई की नौबत आ पहुँची। सहुआइन ने घर में घुस कर किवाड़ बंद कर लिये। शोरगुल सुन कर गाँव के भलेमानस जमा हो गये। उन्होंने दोनों को समझाया। साहु जी को दिलासा दे कर घर से निकाला। वह परामर्श देने लगे कि इस तरह से काम न चलेगा। पंचायत कर लो। जो कुछ तय हो जाय, उसे स्वीकार कर लो। साहु जी राजी हो गये। अलगू ने भी हामी भर ली।

5

पंचायत की तैयारियाँ होने लगीं। दोनों पक्षों ने अपने-अपने दल बनाने शुरू किये। इसके बाद तीसरे दिन उसी वृक्ष के नीचे पंचायत बैठी। वही संध्या का समय था। खेतों में कौए पंचायत कर रहे थे। विवादग्रस्त विषय था यह कि मटर की फलियों पर उनका कोई स्वत्व है या नहीं; और जब तक यह प्रश्न हल न हो जाय, तब तक वे रखवाले की पुकार पर अपनी अप्रसन्नता प्रकट करना आवश्यक समझते थे। पेड़ की डालियों पर बैठी शुक-मंडली में यह प्रश्न छिड़ा हुआ था कि मनुष्यों को उन्हें बेमुरौवत कहने का क्या अधिकार है, जब उन्हें स्वयं अपने मित्रों से दगा करने में भी संकोच नहीं होता।

पंचायत बैठ गयी, तो रामधन मिश्र ने कहा-अब देरी क्या है ? पंचों का चुनाव हो जाना चाहिए। बोलो चौधरी; किस-किस को पंच बदते हो।

अलगू ने दीन भाव से कहा-समझू साहु ही चुन लें।

समझू खड़े हुए और कड़क कर बोले-मेरी ओर से जुम्मन शेख।

जुम्मन का नाम सुनते ही अलगू चौधरी का कलेजा धक्-धक् करने लगा, मानो किसी ने अचानक थप्पड़ मार दिया हो। रामधन अलगू के मित्र थे। वह बात को ताड़ गये। पूछा-क्यों चौधरी तुम्हें कोई उज्र तो नहीं।

चौधरी ने निराश हो कर कहा-नहीं, मुझे क्या उज्र होगा ?

6

अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित व्यवहारों का सुधारक होता है। जब हम राह भूल कर भटकने लगते हैं तब यही ज्ञान हमारा विश्वसनीय पथ-प्रदर्शक बन जाता है।

पत्र-संपादक अपनी शांति कुटी में बैठा हुआ कितनी धृष्टता और स्वतंत्रता के साथ अपनी प्रबल लेखनी से मंत्रिमंडल पर आक्रमण करता है; परंतु ऐसे अवसर आते हैं, जब वह स्वयं मंत्रिमंडल में सम्मिलित होता है। मंडल के भवन में पग धरते ही उसकी लेखनी कितनी मर्मज्ञ, कितनी विचारशील, कितनी न्यायपरायण हो जाती है। इसका कारण उत्तरदायित्व का ज्ञान है। नवयुवक युवावस्था में कितना उद्दंड रहता है। माता-पिता उसकी ओर से कितने चिंतित रहते हैं ! वे उसे कुल-कलंक समझते हैं; परन्तु थोडे़ ही समय में परिवार का बोझ सिर पर पड़ते ही वह अव्यवस्थित-चित्त उन्मत्त युवक कितना धैर्यशील, कैसा शांतचित्त हो जाता है, यह भी उत्तरदायित्व के ज्ञान का फल है।

जुम्मन शेख के मन में भी सरपंच का उच्च स्थान ग्रहण करते ही अपनी जिम्मेदारी का भाव पैदा हुआ । उसने सोचा, मैं इस वक्त न्याय और धर्म के सर्वोच्च आसन पर बैठा हूँ। मेरे मुँह से इस समय जो कुछ निकलेगा, वह देववाणी के सदृश है-और देववाणी में मेरे मनोविकारों का कदापि समावेश न होना चाहिए। मुझे सत्य से जौ भर भी टलना उचित नहीं !

पंचों ने दोनों पक्षों से सवाल-जवाब करने शुरू किये। बहुत देर तक दोनों दल अपने-अपने पक्ष का समर्थन करते रहे। इस विषय में तो सब सहमत थे कि समझू को बैल का मूल्य देना चाहिए। परंतु दो महाशय इस कारण रियायत करना चाहते थे कि बैल के मर जाने से समझू को हानि हुई। इसके प्रतिकूल दो सभ्य मूल के अतिरिक्त समझू को दंड भी देना चाहते थे, जिससे फिर किसी को पशुओं के साथ ऐसी निर्दयता करने का साहस न हो। अंत में जुम्मन ने फैसला सुनाया-

अलगू चौधरी और समझू साहु ! पंचों ने तुम्हारे मामले पर अच्छी तरह विचार किया। समझू को उचित है कि बैल का पूरा दाम दें। जिस वक्त उन्होंने बैल लिया, उसे कोई बीमारी न थी। अगर उसी समय दाम दे दिये जाते, तो आज समझू उसे फेर लेने का आग्रह न करते । बैल की मृत्यु केवल इस कारण हुई कि उससे बड़ा कठिन परिश्रम लिया गया और उसके दाने-चारे का कोई अच्छा प्रबंध न किया गया।

रामधन मिश्र बोले-समझू ने बैल को जान-बूझ कर मारा है, अतएव उससे दंड लेना चाहिए।

जुम्मन बोले-यह दूसरा सवाल है ! हमको इससे कोई मतलब नहीं !

झगड़ू साहु ने कहा-समझू के साथ कुछ रियायत होनी चाहिए।

जुम्मन बोले-यह अलगू चौधरी की इच्छा पर निर्भर है। यह रियायत करें, तो उनकी भलमनसी।

अलगू चौधरी फूले न समाये। उठ खड़े हुए और जोर से बोले-पंच-परमेश्वर की जय !

इसके साथ ही चारों ओर से प्रतिध्वनि हुई-पंच-परमेश्वर की जय !

प्रत्येक मनुष्य जुम्मन की नीति को सराहता था-इसे कहते हैं न्याय ! यह मनुष्य का काम नहीं, पंच में परमेश्वर वास करते हैं, यह उन्हीं की महिमा है। पंच के सामने खोटे को कौन खरा कह सकता है ?

थोड़ी देर बाद जुम्मन अलगू के पास आये और उनके गले लिपट कर बोले-भैया, जब से तुमने मेरी पंचायत की तब से मैं तुम्हारा प्राण-घातक शत्रु बन गया था; पर आज मुझे ज्ञात हुआ कि पंच के पद पर बैठ कर न कोई किसी का दोस्त होता है, न दुश्मन। न्याय के सिवा उसे और कुछ नहीं सूझता। आज मुझे विश्वास हो गया कि पंच की जबान से खुदा बोलता है। अलगू रोने लगे। इस पानी से दोनों के दिलों का मैल धुल गया। मित्रता की मुरझायी हुई लता फिर हरी हो गयी।