Sunday, November 1, 2020

सयानी बुआ - मन्नू भण्डारी। Sayani Bua by Mannu Bhandari


सब पर मानो बुआजी का व्यक्तित्व हावी है। सारा काम वहाँ इतनी व्यवस्था से होता जैसे सब मशीनें हों, जो क़ायदे में बँधीं, बिना रुकावट अपना काम किए चली जा रही हैं। ठीक पाँच बजे सब लोग उठ जाते, फिर एक घंटा बाहर मैदान में टहलना होता, उसके बाद चाय-दूध होता। उसके बाद अन्नू को पढ़ने के लिए बैठना होता। भाई साहब भी तब अख़बार और ऑफ़िस की फ़ाइलें आदि देखा करते। नौ बजते ही नहाना शुरू होता। जो कपड़े बुआजी निकाल दें, वही पहनने होते। फिर क़ायदे से आकर मेज़ पर बैठ जाओ और खाकर काम पर जाओ।

सयानी बुआ का नाम वास्तव में ही सयानी था या उनके सयानेपन को देखकर लोग उन्हें सयानी कहने लगे थे, सो तो मैं आज भी नहीं जानती, पर इतना अवश्य कहूँगी कि जिसने भी उनका यह नाम रखा, वह नामकरण विद्या का अवश्य पारखी रहा होगा।

बचपन में ही वे समय की जितनी पाबंद थीं, अपना सामान सम्भालकर रखने में जितनी पटु थीं, और व्यवस्था की जितना क़ायल थीं, उसे देखकर चकित हो जाना पड़ता था। कहते हैं, जो पेंसिल वे एक बार ख़रीदती थीं, वह जब तक इतनी छोटी न हो जाती कि उनकी पकड़ में भी न आए तब तक उससे काम लेती थीं। क्या मजाल कि वह कभी खो जाए या बार-बार नाेंक टूटकर समय से पहले ही समाप्त हो जाए। जो रबर उन्होंने चौथी कक्षा में ख़रीदी थी, उसे नौवीं कक्षा में आकर समाप्त किया।

उम्र के साथ-साथ उनकी आवश्यकता से अधिक चतुराई भी प्रौढ़ता धारण करती गई और फिर बुआजी के जीवन में इतनी अधिक घुल-मिल गई कि उसे अलग करके बुआजी की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। उनकी एक-एक बात पिताजी हम लोगों के सामने उदाहरण के रूप में रखते थे जिसे सुनकर हम सभी ख़ैर मनाया करते थे कि भगवान करे, वे ससुराल में ही रहा करें, वर्ना हम जैसे अस्त-व्यस्त और अव्यवस्थित-जनों का तो जीना ही हराम हो जाएगा।

ऐसी ही सयानी बुआ के पास जाकर पढ़ने का प्रस्ताव जब मेरे सामने रखा गया तो कल्पना कीजिए, मुझ पर क्या बीती होगी? मैंने साफ़ इंकार कर दिया कि मुझे आगे पढ़ना ही नहीं। पर पिताजी मेरी पढ़ाई के विषय में इतने सतर्क थे कि उन्होंने समझाकर, डाँटकर और प्यार-दुलार से मुझे राज़ी कर लिया। सच में, राज़ी तो क्या कर लिया, समझिए अपनी इच्छा पूरी करने के लिए बाध्य कर दिया। और भगवान का नाम गुहारते-गुहारते मैंने घर से विदा ली और उनके यहाँ पहुँची।

इसमें संदेह नहीं कि बुआजी ने बड़ा स्वागत किया। पर बचपन से उनकी ख्याति सुनते-सुनते उनका जो रौद्र रूप मन पर छाया हुआ था, उसमें उनका वह प्यार कहाँ तिरोहित हो गया, मैं जान ही न पायी। हाँ, बुआजी के पति, जिन्हें हम भाई साहब कहते थे, बहुत ही अच्छे स्वभाव के व्यक्ति थे। और सबसे अच्छा कोई घर में लगा तो उनकी पाँच वर्ष की पुत्री अन्नू।

घर के इस नीरस और यंत्रचालित कार्यक्रम में अपने को फ़िट करने में मुझे कितना कष्ट उठाना पड़ा और कितना अपने को काटना-छाँटना पड़ा, यह मेरा अंतर्यामी ही जानता है। सबसे अधिक तरस आता था अन्नू पर। वह इस नन्ही-सी उमर में ही प्रौढ़ हो गई थी। न बच्चों का-सा उल्लास, न कोई चहचहाहट। एक अज्ञात भय से वह घिरी रहती थी। घर के उस वातावरण में कुछ ही दिनों में मेरी भी सारी हँसी-ख़ुशी मारी गई।

यों बुआजी की गृहस्थी जमे पंद्रह वर्ष बीच चुके थे, पर उनके घर का सारा सामान देखकर लगता था, मानाें सब कुछ अभी कल ही ख़रीदा हो। गृहस्थी जमाते समय जो काँच और चीनी के बर्तन उन्होंने ख़रीदे थे, आज भी ज्यों-के-त्यों थे, जबकि रोज़ उनका उपयोग होता था। वे सारे बर्तन स्वयं खड़ी होकर साफ़ करवाती थीं। क्या मजाल, कोई एक चीज़ भी तोड़ दे। एक बार नौकर ने सुराही तोड़ दी थी। उस छोटे-से छोकरे को उन्होंने इस कसूर पर बहुत पीटा था। तोड़-फोड़ से तो उन्हें सख़्त नफ़रत थी, यह बात उनकी बर्दाश्त के बाहर थी। उन्हें बड़ा गर्व था अपनी इस सुव्यवस्था का। वे अक्सर भाई साहब से कहा करती थीं कि यदि वे इस घर में न आतीं तो न जाने बेचारे भाई साहब का क्या हाल होता। मैं मन-ही-मन कहा करती थी कि और चाहे जो भी हाल होता, हम सब मिट्टी के पुतले न होकर कम-से-कम इंसान तो अवश्य हुए होते।

बुआजी की अत्यधिक सतर्कता और खाने-पीने के इतने कंट्रोल के बावजूद अन्नू को बुख़ार आने लगा, सब प्रकार के उपचार करने-कराने में पूरा महीना बीत गया, पर उसका बुख़ार न उतरा। बुआजी की परेशानी का पार नहीं, अन्नू एकदम पीली पड़ गई। उसे देखकर मुझे लगता मानो उसके शरीर में ज्वर के कीटाणु नहीं, बुआजी के भय के कीटाणु दौड़ रहे हैं, जो उसे ग्रसते जा रहे हैं। वह उनसे पीड़ित होकर भी भय के मारे कुछ कह तो सकती नहीं थी, बस सूखती जा रही है।

आख़िर डॉक्टरों ने कई प्रकार की परीक्षाओं के बाद राय दी कि बच्ची को पहाड़ पर ले जाया जाए, और जितना अधिक उसे प्रसन्न रखा जा सके, रखा जाए। सब कुछ उसके मन के अनुसार हो, यही उसका सही इलाज है। पर सच पूछो तो बेचारी का मन बचा ही कहाँ था? भाई साहब के सामने एक विकट समस्या थी। बुआजी के रहते यह सम्भव नहीं था, क्योंकि अनजाने ही उनकी इच्छा के सामने किसी और की इच्छा चल ही नहीं सकती थी। भाई साहब ने शायद सारी बात डॉक्टर के सामने रख दी, तभी डॉक्टर ने कहा कि माँ का साथ रहना ठीक नहीं होगा। बुआजी ने सुना तो बहुत आनाकानी की, पर डॉक्टर की राय के विरुद्ध जाने का साहस वे कर नहीं सकीं सो मन मारकर वहीं रहीं।

ज़ोर-शोर से अन्नू के पहाड़ जाने की तैयारी शुरू हुई। पहले दोनों के कपड़ों की लिस्ट बनी, फिर जूतों की, मोजों की, गरम कपड़ों की, ओढ़ने-बिछाने के सामान की, बर्तनों की। हर चीज़ रखते समय वे भाई साहब को सख़्त हिदायत कर देती थीं कि एक भी चीज़ खोनी नहीं चाहिए— “देखो, यह फ़्रॉक मत खो देना, सात रुपए मैंने इसकी सिलाई दी है। यह प्याले मत तोड़ देना, वरना पचास रुपए का सेट बिगड़ जाएगा। और हाँ, गिलास को तुम तुच्छ समझते हो, उसकी परवाह ही नहीं करोगे, पर देखो, यह पंद्रह बरस से मेरे पास है और कहीं खरोंच तक नहीं है, तोड़ दिया तो ठीक न होगा।”

प्रत्येक वस्तु की हिदायत के बाद वे अन्नू पर आयीं। वह किस दिन, किस समय क्या खाएगी, उसका मीनू बना दिया। कब कितना घूमेगी, क्या पहनेगी, सब कुछ निश्चित कर दिया। मैं सोच रही थी कि यहाँ बैठे-बैठे ही बुआजी ने इन्हें ऐसा बाँध दिया कि बेचारे अपनी इच्छा के अनुसार क्या ख़ाक करेंगे! सब कह चुकीं तो ज़रा आर्द्र स्वर में बोलीं, “कुछ अपना भी ख़याल रखना, दूध-फल बराबर खाते रहना।”

हिदायतों की इतनी लम्बी सूची के बाद भी उन्हें यही कहना पड़ा, “जाने तुम लोग मेरे बिना कैसे रहोगे, मेरा तो मन ही नहीं मानता। हाँ, बिना भूले रोज़ एक चिट्ठी डाल देना।”

आख़िर वह क्षण भी आ पहुँचा, जब भाई साहब एक नौकर और अन्नू को लेकर चले गए। बुआजी ने अन्नू को ख़ूब प्यार किया, रोयीं भी। उनका रोना मेरे लिए नयी बात थी। उसी दिन पहली बार लगा कि उनकी भयंकर कठोरता में कहीं कोमलता भी छिपी है। जब तक ताँगा दिखायी देता रहा, वे उसे देखती रहीं, उसके बाद कुछ क्षण निर्जीव-सी होकर पड़ी रहीं। पर दूसरे ही दिन से घर फिर वैसे ही चलने लगा।

भाई साहब का पत्र रोज़ आता था, जिसमें अन्नू की तबीयत के समाचार रहते थे। बुआजी भी रोज़ एक पत्र लिखती थीं, जिसमें अपनी उन मौखिक हिदायतों को लिखित रूप से दोहरा दिया करती थीं। पत्रों की तारीख़ में अंतर रहता था। बात शायद सबमें वही रहती थी। मेरे तो मन में आता कि कह दूँ, बुआजी रोज़ पत्र लिखने का कष्ट क्यों करती हैं? भाई साहब को लिख दीजिए कि एक पत्र गत्ते पर चिपकाकर पलंग के सामने लटका लें और रोज़ सबेरे उठकर पढ़ लिया करें। पर इतना साहस था नहीं कि यह बात कह सकूँ।

क़रीब एक महीने के बाद एक दिन भाई साहब का पत्र नहीं आया। दूसरे दिन भी नहीं आया। बुआजी बड़ी चिंतित हो उठीं। उस दिन उनका मन किसी भी काम में नहीं लगा। घर की कसी-कसायी व्यवस्था कुछ शिथिल-सी मालूम होने लगी। तीसरा दिन भी निकल गया।

अब तो बुआजी की चिंता का पार नहीं रहा। रात को वे मेरे कमरे में आकर सोयीं, पर सारी रात दुःस्वप्न देखती रहीं और रोती रहीं। मानो उनका वर्षों से जमा हुआ नारीत्व पिघल पड़ा था और अपने पूरे वेग के साथ बह रहा था। वे बार-बार कहतीं कि उन्होंने स्वप्न में देखा है कि भाई साहब अकेले चले आ रहे हैं, अन्नू साथ नहीं है और उनकी आँखें भी लाल हैं और वे फूट-फूटकर रो पड़तीं। मैं तरह-तरह से उन्हें आश्वासन देती, पर बस वे तो कुछ सुन नहीं रही थीं। मेरा मन भी कुछ अन्नू के ख़याल से, कुछ बुआजी की यह दशा देखकर बड़ा दुःखी हो रहा था।

तभी नौकर ने भाई साहब का पत्र लाकर दिया। बड़ी व्यग्रता से काँपते हाथों से उन्होंने उसे खोला और पढ़ने लगीं। मैं भी साँस रोककर बुआजी के मुँह की ओर देख रही थी कि एकाएक पत्र फेंककर सिर पीटतीं बुआजी चीख़कर रो पड़ीं। मैं धक् रह गई। आगे कुछ सोचने का साहस ही नहीं होता था। आँखों के आगे अन्नू की भोली-सी, नन्ही-सी तस्वीर घूम गई। तो क्या अब अन्नू सचमुच ही संसार में नहीं है? यह सब कैसे हो गया? मैंने साहस करके भाई साहब का पत्र उठाया। लिखा था—

प्रिय सयानी,

समझ में नहीं आता, किस प्रकार तुम्हें यह पत्र लिखूँ। किस मुँह से तुम्हें यह दुःखद समाचार सुनाऊँ। फिर भी रानी, तुम इस चोट को धैर्यपूर्वक सह लेना। जीवन में दुःख की घड़ियाँ भी आती हैं, और उन्हें साहसपूर्वक सहने में ही जीवन की महानता है। यह संसार नश्वर है। जो बना है वह एक-न-एक दिन मिटेगा ही, शायद इस तथ्य को सामने रखकर हमारे यहाँ कहा है कि संसार की माया से मोह रखना दुःख का मूल है। तुम्हारी इतनी हिदायतों के और अपनी सारी सतर्कता के बावजूद मैं उसे नहीं बचा सका, इसे अपने दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कहूँ। यह सब कुछ मेरे ही हाथों होना था…

आँसू-भरी आँखों के कारण शब्दों का रूप अस्पष्ट से अस्पष्टतर होता जा रहा था और मेरे हाथ काँप रहे थे। अपने जीवन में यह पहला अवसर था, जब मैं इस प्रकार किसी की मृत्यु का समाचार पढ़ रही थी। मेरी आँखें शब्दों को पार करतीं हुई जल्दी-जल्दी पत्र के अंतिम हिस्से पर जा पड़ीं—

धैर्य रखना मेरी रानी, जो कुछ हुआ, उसे सहने की और भूलने की कोशिश करना। कल चार बजे तुम्हारे पचास रुपए वाले सेट के दोनों प्याले मेरे हाथ से गिरकर टूट गए। अन्नू अच्छी है। शीघ्र ही हम लोग रवाना होने वाले हैं।

एक मिनट तक मैं हतबुद्धि-सी खड़ी रही, समझ ही नहीं पायी कि यह क्या-से-क्या हो गया। यह दूसरा सदमा था। ज्यों ही कुछ समझी, मैं ज़ोर से हँस पड़ी। किस प्रकार मैंने बुआजी को सत्य से अवगत कराया, वह सब मैं कोशिश करके भी नहीं लिख सकूँगी। पर वास्तविकता जानकर बुआजी भी रोते-रोते हँस पड़ीं। पाँच आने की सुराही तोड़ देने पर नौकर को बुरी तरह पीटने वाली बुआजी पचास रुपए वाले सेट के प्याले टूट जाने पर भी हँस रही थीं, दिल खोलकर हँस रही थीं, मानो उन्हें स्वर्ग की निधि मिल गई हो।

एक प्लेट सैलाब - मन्नू भंडारी। Ek Plate Sailab by Mannu Bhandari


मई की साँझ!

साढ़े छह बजे हैं। कुछ देर पहले जो धूप चारों ओर फैली पड़ी थी, अब फीकी पड़कर इमारतों की छतों पर सिमट आयी है, मानो निरन्तर समाप्त होते अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए उसने कसकर कगारों को पकड़ लिया हो।

आग बरसाती हुई हवा धूप और पसीने की बदबू से बहुत बोझिल हो आयी है। पाँच बजे तक जितने भी लोग ऑफ़िस की बड़ी-बड़ी इमारतों में बन्द थे, इस समय बरसाती नदी की तरह सड़कों पर फैल गए हैं। रीगल के सामनेवाले फ़ुट पाथ पर चलनेवालों और हॉकर्स का मिला-जुला शोर चारों और गूँज रहा हैं। गजरे बेचनेवालों के पास से गुज़रने पर सुगन्ध भरी तरावट का अहसास होता है, इसीलिए न ख़रीदने पर भी लोगों को उनके पास खड़ा होना या उनके पास से गुज़रना अच्छा लगता है।

टी-हाउस भरा हुआ है। उसका अपना ही शोर काफ़ी है, फिर बाहर का सारा शोर-शराबा बिना किसी रुकावट के खुले दरवाज़ों से भीतर आ रहा है। छतों पर फ़ुल स्पीड में घूमते पंखे भी जैसे आग बरसा रहे हैं। एक क्षण को आँख मूँद लो तो आपको पता ही नहीं लगेगा कि आप टी-हाउस में हैं या फुटपाथ पर। वही गरमी, वही शोर।

गे-लॉर्ड भी भरा हुआ है। पुरुष अपने एयर-कण्डिशण्ड चेम्बरों से थककर और औरतें अपने-अपने घरों से ऊबकर मन बहलाने के लिए यहाँ आ बैठे हैं। यहाँ न गरमी है, न भन्नाता हुआ शोर। चारों ओर हल्का, शीतल, दूधिया आलोक फैल रहा है और विभिन्न सेण्टों की मादक कॉकटेल हवा में तैर रही है। टेबिलों पर से उठते हुए फुसफुसाते-से स्वर संगीत में ही डूब जाते हैं।

गहरा मेक-अप किए डायस पर जो लड़की गा रही है, उसने अपनी स्कर्ट की बेल्ट ख़ूब कसकर बाँध रखी है, जिससे उसकी पतली कमर और भी पतली दिखायी दे रही है और उसकी तुलना में छातियों का उभार कुछ और मुखर हो उठा है। एक हाथ से उसने माइक का डण्डा पकड़ रखा है और जूते की टो से वह ताल दे रही है। उसके होठों से लिपस्टिक भी लिपटी है और मुस्कान भी। गाने के साथ-साथ उसका सारा शरीर एक विशेष अदा के साथ झूम रहा है।

पास में दोनों हाथों से झुनझुने-से बजाता जो व्यक्ति सारे शरीर को लचका-लचकाकर ताल दे रहा है, वह नीग्रो है। बीच-बीच में जब वह उसकी ओर देखती है तो आँखें मिलते ही दोनों ऐसे हँस पड़ते हैं मानो दोनों के बीच कहीं ‘कुछ’ है। पर कुछ दिन पहले जब एक एंग्लो-इण्डियन उसके साथ बजाता था, तब भी यह ऐसे ही हँसती थी, तब भी इसकी आँखें ऐसे की चमकती थीं। इसकी हँसी और इसकी आँखों की चमक का इसके मन के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। वे अलग ही चलती हैं।

डायस की बग़लवाली टेबिल पर एक युवक और युवती बैठे हैं। दोनों के सामने पाइनएप्पल जूस के ग्लास रखे हैं। युवती का ग्लास आधे से अधिक ख़ाली हो गया है, पर युवक ने शायद एक-दो सिप ही लिए हैं। वह केवल स्ट्रॉ हिला रहा है।

युवती दुबली और गौरी है। उसके बाल कटे हुए हैं। सामने आ जाने पर सिर को झटक देकर वह उन्हें पीछे कर देती है। उसकी कलफ़ लगी साड़ी का पल्ला इतना छोटा है कि कन्धे से मुश्किल से छह इंच नीचे तक आ पाया है। चोलीनुमा ब्लाउज़ से ढकी उसकी पूरी की पूरी पीठ दिखायी दे रही है।

“तुम कल बाहर गयी थीं?” युवक बहुत ही मुलायम स्वर में पूछता है।

“क्यों?” बाँयें हाथ की लम्बी-लम्बी पतली उँगलियों से ताल देते-देते ही वह पूछती है।

“मैंने फ़ोन किया था।”

“अच्छा? पर किसलिए? आज मिलने की बात तो तय हो ही गयी थी।”

“यों ही तुमसे बात करने का मन हो आया था।”

युवक को शायद उम्मीद थी कि उसकी बात की युवती के चेहरे पर कोई सुखद प्रतिक्रिया होगी। पर वह हल्के से हँस दी। युवक उत्तर की प्रतीक्षा में उसके चेहरे की ओर देखता रहा, पर युवती का ध्यान शायद इधर-उधर के लोगों में उलझ गया था। इस पर युवक खिन्न हो गया। वह युवती के मुँह से सुनना चाह रहा था कि वह कल विपिन के साथ स्कूटर पर घूम रही थी। इस बात के जवाब में वह क्या-क्या करेगा—यह सब भी उसने सोच लिया था और कल शाम से लेकर अभी युवती के आने से पहले तक उसको कई बार दोहरा भी लिया था। पर युवती की चुप्पी से सब गड़बड़ा गया। वह अब शायद समझ ही नहीं पा रहा था कि बात कैसे शुरू करे।

“ओ गोरा!” बाल्कनी की ओर देखते हुए युवती के मुँह से निकला—

“यह सारी की सारी बाल्कनी किसने रिजर्व करवा ली?” बाल्कनी की रेलिंग पर एक छोटी-सी प्लास्टिक की सफ़ेद तख़्ती लगी थी, जिस पर लाल अक्षरों में लिखा था— ‘रिज़र्व्ड’।

युवक ने सिर झुकाकर एक सिप लिया— “मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूँ।”

उसकी आवाज़ कुछ भारी हो आयी थी, जैसे गला बैठ गया हो। युवती ने सिप लेकर अपनी आँखें युवक के चेहरे पर टिका दीं। वह हल्के-हल्के मुस्करा रही थी और युवक को उसकी मुस्कराहट से थोड़ा कष्ट हो रहा था।

“देखो, मैं इस सारी बात में बहुत गम्भीर हूँ।” झिझकते-से स्वर में वह बोला।

“गम्भीर?” युवती खिलखिला पड़ी तो उसके बाल आगे को झूल आए। सिर झटककर उसने उन्हें पीछे किया।

“मैं तो किसी भी चीज़ को गम्भीरता से लेने में विश्वास ही नहीं करती। ये दिन तो हँसने-खेलने के हैं, हर चीज़ को हल्के-फुल्के ढंग से लेने के। गम्भीरता तो बुढ़ापे की निशानी है। बूढ़े लोग मच्छरों और मौसम को भी बहुत गम्भीरता से लेते हैं… और मैं अभी बूढ़ा होना नहीं चाहती।”

ओर उसने अपने दोनों कन्धे जोर से उचका दिए। वह फिर गाना सुनने में लग गयी। युवक का मन हुआ कि वह उसकी मुलाक़ातों और पुराने पत्रों का हवाला देकर उससे अनेक बातें पूछे, पर बात उसके गले में ही अटककर रह गयी और वह खाली-खाली नज़रों से इधर-उधर देखने लगा। उसकी नज़र ‘रिज़र्व्ड’ की उस तख़्ती पर जा लगी। एकाएक उसे लगने लगा जैसे वह तख़्ती वहाँ से उठकर उन दोनों के बीच आ गयी है और प्लास्टिक के लाल अक्षर नियॉन लाइट के अक्षरों की तरह दिप्-दिप् करने लगे।

तभी गाना बन्द हो गया और सारे हॉल में तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी। गाना बन्द होने के साथ ही लोगों की आवाज़ें धीमी हो गयीं, पर हॉल के बीचों-बीच एक छोटी टेबिल के सामने बैठे एक स्थूलकाय खद्दरधारी व्यक्ति का धाराप्रवाह भाषण स्वर के उसी स्तर पर जारी रहा। सामने पतलून और बुश-शर्ट पहने एक दुबला-पतला-सा व्यक्ति उनकी बातों को बड़े ध्यान से सुन रहा है। उनके बोलने से थोड़ा-थोड़ा थूक उछल रहा है जिसे सामनेवाला व्यक्ति ऐसे पोंछता है कि उन्हें मालूम न हो। पर उनके पास शायद इन छोटी-मोटी बातों पर ध्यान देने लायक़ समय ही नहीं है। वे मूड में आए हुए हैं—

“गाँधीजी की पुकार पर कौन व्यक्ति अपने को रोक सकता था भला? क्या दिन थे वे भी! मैंने बिज़नेस की तो की ऐसी की तैसी और देश-सेवा के काम में जुट गया। फिर तो सारी ज़िन्दगी पॉलिटिकल-सफ़रर की तरह ही गुज़ार दी!”

सामनेवाला व्यक्ति चेहरे पर श्रद्धा के भाव लाने का भरसक प्रयत्न करने लगा।

“देश आज़ाद हुआ तो लगा कि असली काम तो अब करना है। सब लोग पीछे पड़े कि मैं खड़ा होऊँ, मिनिस्ट्री पक्की है, पर नहीं साहब, यह काम अब अपने बस का नहीं रहा। जेल के जीवन ने काया को जर्जर कर दिया, फिर यह भी लगा कि नव-निर्माण में नया ख़ून ही आना चाहिए, सो बहुत पीछे पड़े तो बेटों को झोंका इस चक्कर में। उन्हें समझाया, ज़िन्दगी-भर के हमारे त्याग और परिश्रम का फल है यह आज़ादी, तुम लोग अब इसकी ल़ाज रखो, बिज़नेस हम सम्भालते हैं।”

युवक शब्दों को ठेलता-सा बोला— “आपकी देश-भक्ति को कौन नहीं जानता?”

वे संतोष की एक डकार लेते हैं और जेब से रूमाल निकालकर अपना मुँह और मूँछों को साफ़ करते हैं। रूमाल वापस जेब में रखते हैं और पहलू बदलकर दूसरी जेब से चाँदी की डिबिया निकालकर पहले ख़ुद पान खाते हैं, फिर सामनेवाले व्यक्ति की ओर बढ़ा देते हैं।

“जी नहीं, मैं पान नहीं खाता।” कृतज्ञता के साथ ही उसके चेहरे पर बेचैनी का भाव उभर जाता है।

“एक यही लत है जो छूटती नहीं।” पान की डिबिया को वापस जेब में रखते हुए वे कहते हैं, “इंग्लैण्ड गया तो हर सप्ताह हवाई जहाज़ से पानों की गड्डी आती थी।”

जब मन की बेचैनी केवल चेहरे से नहीं सम्भलती तो वह धीरे-धीरे हाथ रगड़ने लगता है।

पान को मुँह में एक ओर ठेलकर वे थोड़ा-सा हकलाते हुए कहते हैं, “अब आज की ही मिसाल लो। हमारे वर्ग का एक भी आदमी गिना दो जो अपने यहाँ के कर्मचारी की शिकायत इस प्रकार सुनता हो? पर जैसे ही तुम्हारा केस मेरे सामने आया, मैंने तुम्हें बुलाया, यहाँ बुलाया।”

“जी हाँ।” उसके चेहरे पर कृतज्ञता का भाव और अधिक मुखर हो जाता है। वह अपनी बात शुरू करने के लिए शब्द ढूँढने लगता है। उसने बहुत विस्तार से बात करने की योजना बनायी थी, पर अब सारी बात को संक्षेप में कह देना चाहता है।

“सुना है, तुम कुछ लिखते-लिखाते भी हो?” एकाएक हॉल में फिर संगीत गूँज उठता है। वे अपनी आवाज़ को थोड़ा और ऊँचा करते हैं। युवक का उत्सुक चेहरा थोड़ा और आगे को झुक आता है।

“तुम चाहो तो हमारी इस मुलाक़ात पर एक लेख लिख सकते हो। मेरा मतलब… लोगों को ऐसी बातों से नसीहत और प्रेरणा लेनी चाहिए… यानी…”

पान शायद उन्हें वाक्य पूरा नहीं करने देता। तभी बीच की टेबिल पर  ‘आई.. उई…’ का शोर होता है और सबका ध्यान अनायास ही उधर चला जाता है। बहुत देर से ही वह टेबिल लोगों का ध्यान अनायास ही खींच रही थी। किसी के हाथ से कॉफ़ी का प्याला गिर पड़ा है। बैरा झाड़न लेकर दौड़ पड़ा और असिस्टेण्ट मैनेजर भी आ गया। दो लड़कियाँ खड़ी होकर अपने कुर्तों को रूमाल से पोंछ रही हैं। बाक़ी लड़कियाँ हँस रही हैं। सभी लड़कियों ने चूड़ीदार पाजामे और ढीले-ढीले कुर्ते पहन रखे हैं। केवल एक लड़की साड़ी में है और उसने ऊँचा-सा जूड़ा बना रखा है। बातचीत और हाव-भाव से सब ‘मिरेण्डियन्स’ लग रही हैं। मेज़ साफ़ होते ही खड़ी लड़कियाँ बैठ जाती हैं और उनकी बातों का टूटा क्रम (?) चल पड़ता है।

“पापा को इस बार हार्ट-अटैक हुआ है सो छुट्टियों में कहीं बाहर तो जा नहीं सकेंगे। हमने तो सारी छुट्टियाँ यहीं बोर होना है। मैं और ममी सप्ताह में एक पिक्चर तो देखते ही हैं, इट्स ए मस्ट फ़ॉर अस। छुट्टियों में तो हमने दो देखनी हैं।”

“हमारी किटी ने बड़े स्वीट पप्स दिए हैं। डैडी इस बार उसे ‘मीट’ करवाने बम्बई ले गए थे। किसी प्रिन्स का अल्सेशियन था। ममी बहुत बिगड़ी थीं। उन्हें तो दुनिया में सब कुछ वेस्ट करना ही लगता है। पर डैडी ने मेरी बात रख ली एण्ड इट पेड अस ऑल्सो। रीयली पप्स बहुत स्वीट हैं।”

“इस बार ममी ने, पता है, क्या कहा है? छुट्टियों में किचन का काम सीखो। मुझे तो बाबा, किचन के नाम से ही एलर्जी है! मैं तो इस बार मोराविया पढूँगी! हिन्दीवाली मिस ने हिन्दी-नॉवेल्स की एक लिस्ट पकड़ायी है। पता नहीं, हिन्दी के नावेल्स तो पढ़े ही नहीं जाते!”

वह ज़ोर से कन्धे उचका देती है। तभी बाहर का दरवाज़ा खुलता है और चुस्त-दुरुस्त शरीर और रोबदार चेहरा लिए एक व्यक्ति भीतर आता है। भीतर का दरवाज़ा खुलता है तब वह बाहर का दरवाज़ा बन्द हो चुका होता है, इसलिए बाहर के शोर और गरम हवा का लवलेश भी भीतर नहीं आ पाता।

सीढ़ियों के पासवाले कोने की छोटी-सी टेबिल पर दीवाल से पीठ सटाये एक महिला बड़ी देर से बैठी है। ढलती उम्र के प्रभाव को भरसक मेकअप से दबा रखा है। उसके सामने कॉफ़ी का प्याला रखा है और वह बेमतलब थोड़ी-थोड़ी देर के लिए सब टेबिलों की ओर देख लेती है। आनेवाले व्यक्ति को देखकर उसके ऊब भरे चेहरे पर हल्की-सी चमक आ जाती है और वह उस व्यक्ति को अपनी ओर मुख़ातिब होने की प्रतीक्षा करती है। ख़ाली जगह देखने के लिए वह व्यक्ति चारों ओर नज़र दौड़ा रहा है। महिला को देखते ही उसकी आँखों में परिचय का भाव उभरता है और महिला के हाथ हिलाते ही वह उधर ही बढ़ जाता है।

“हल्लोऽऽ! आज बहुत दिनों बाद दिखायी दीं मिसेज़ रावत!” फिर कुरसी पर बैठने से पहले पूछता है, “आप यहाँ किसी के लिए वेट तो नहीं कर रही हैं?”

“नहीं जी, घर में बैठे-बैठे या पढ़ते-पढ़ते जब तबीयत ऊब जाती है तो यहाँ आ बैठती हूँ। दो कप कॉफ़ी के बहाने घण्टा-डेढ़ घण्टा मज़े से कट जाता है। कोई जान-पहचान का फ़ुरसत में मिल जाए तो लम्बी ड्राइव पर ले जाती हूँ। आपने तो किसी को टाइम नहीं दे रखा है न?”

“नो… नो… बाहर ऐसी भयंकर गरमी है कि बस। एकदम आग बरस रही है। सोचा, यहाँ बैठकर एक कोल्ड कॉफ़ी ही पी ली जाए।” बैठते हुए उसने कहा।

जवाब से कुछ आश्वस्त हो मिसेज़ रावत ने बैरे को कोल्ड कॉफ़ी का ऑर्डर दिया— “और बताइए, मिसेज़ आहूजा कब लौटनेवाली हैं? सालभर तो हो गया न उन्हें?”

“गॉड नोज़।” वह कन्धे उचका देता है और फिर पाइप सुलगाने लगता है। एक कश खींचकर टुकड़ों-टुकड़ों में धुआँ उड़ाकर पूछता है, “छुट्टियों में इस बार आपने कहाँ जाने का प्रोग्राम बनाया है?”

“जहाँ का भी मूड आ जाए, चल देंगे। बस इतना तय है कि दिल्ली में नहीं रहेंगे। गरमियों में तो यहाँ रहना असम्भव है। अभी यहाँ से निकलकर गाड़ी में बैठेंगे तब तक शरीर झुलस जाएगा! सड़कें तो जैसे भट्टी हो रही हैं।”

गाने का स्वर डायस से उठकर फिर सारे हॉल में तैर गया… ‘ऑन सण्डे आइ एम हैप्पी…’

“नॉनसेन्स! मेरा तो सण्डे ही सबसे बोर दिन होता है!”

तभी संगीत की स्वर-लहरियों के साये में फैले हुए भिनभिनाते-से शोर को चीरता हुए एक असंयत-सा कोलाहल सारे हॉल में फैल जाता है। सबकी नज़रें दरवाज़े की ओर उठ जाती हैं। विचित्र दृश्य है। बाहर और भीतर के दरवाज़े एक साथ खुल गए हैं और नन्हें-मुन्ने बच्चों के दो-दो, चार-चार के झुण्ड हल्ला-गुल्ला करते भीतर घुस रहे हैं। सड़क का एक टुकड़ा दिखायी दे रहा है, जिस पर एक स्टेशन-बैगन खड़ी है, आस-पास कुछ दर्शक खड़े हैं और उसमें-से बच्चे उछल-उछलकर भीतर दाख़िल हो रहे हैं— ‘बॉबी, इधर आ जा!’—’निद्धू, मेरा डिब्बा लेते आना…!’

बच्चों के इस शोर के साथ-साथ बाहर की गरम हवा, बाहर का शोर भी भीतर आ रहा है। बच्चे टेबिलों से टकराते, एक-दूसरे को धकेलते हुए सीढ़ियों पर जाते हैं। लकड़ी की सीढ़ियाँ कार्पेट बिछा होने के बावजूद धम्-धम् करके बज उठी हैं।

हॉल की संयत शिष्टता एक झटके के साथ बिखर जाती है। लड़की गाना बन्द करके मुग्ध भाव से बच्चों को देखने लगती है। सबकी बातों पर विराम-चिह्न लग जाता है और चेहरों पर एक विस्मयपूर्ण कौतुक फैल जाता है।

कुछ बच्चे बाल्कनी की रेलिंग पर झूलते हुए-से हॉल में गुब्बारे उछाल रहे हैं, कुछ गुब्बारे कार्पेट पर आ गिरे हैं, कुछ कन्धों पर सिरों से टकराते हुए टेबिलों पर लुढ़क रहे हैं तो कुछ बच्चों की किलकारियों के साथ-साथ हवा में तैर रहे हैं… नीले, पीले, हरे, गुलाबी…

कुछ बच्चे ऊपर उछल-उछलकर कोई नर्सरी राइम गाने लगते हैं तो लकड़ी का फ़र्श धम्-धम् बज उठता है।

हॉल में चलती फ़िल्म जैसे अचानक टूट गयी है।