Saturday, September 26, 2020

दूसरी दुनिया - निर्मल वर्मा (Dusri Duniya by Nirmal Verma )

बहुत पहले मैं एक लड़की को जानता था। वह दिन-भर पार्क में खेलती थी। उस पार्क में बहुत-से पेड़ थे, जिनमें मैं बहुत कम को पहचानता था। मैं सारा दिन लायब्रेरी में रहता था और जब शाम को लौटता था, तो वह उन पेड़ों के बीच बैठी दिखाई देती थी। बहुत दिनों तक हम एक-दूसरे से नहीं बोले। मैं लंदन के उस इलाके में सिर्फ कुछ दिनों के लिए ठहरा था। उन दिनों मैं एक जगह से दूसरी जगह बदलता रहता था, सस्ती जगह की तलाश में।

वे काफी गरीबी के दिन थे।

वह लड़की भी काफी गरीब रही होगी, यह मैं आज सोचता हूँ। वह एक आधा-उधड़ा स्वेटर पहने रहती, सिर पर कत्थई रंग का टोप, जिसके दोनों तरफ उसके बाल निकले रहते। कान हमेशा लाल रहते और नाक का ऊपरी सिरा भी - क्योंकि वे अक्तूबर के अंतिम दिन थे - सर्दियाँ शुरू होने से पहले के दिन और ये शुरू के दिन कभी-कभी असली सर्दियों से भी ज्यादा क्रूर होते थे।

सच कहूँ तो ठंड से बचने के लिए ही मैं लायब्रेरी आता था। उन दिनों मेरा कमरा बर्फ हो जाता था। रात को सोने से पहले मैं अपने सब स्वेटर और जुराबें पहन लेता था, रजाई पर अपने कोट और ओवरकोट जमा कर लेता था - लेकिन ठंड फिर भी नहीं जाती थी। यह नहीं कि कमरे में हीटर नहीं था, किंतु उसे जलाने के लिए उसके भीतर एक शिलिंग डालना पड़ता था। पहली रात जब मैं उस कमरे में सोया था, तो रात-भर उस हीटर को पैसे खिलाता रहा - हर आधा घंटे बाद उसकी जठराग्नि शांत करनी पड़ती थी। दूसरे दिन, मेरे पास नाश्ते के पैसे भी नहीं बचे थे। उसके बाद मैंने हीटर को अलग छोड़ दिया। मैं रात-भर ठंड से काँपता रहता, लेकिन यह तसल्ली रहती कि वह भी भूखा पड़ा है। वह मेज पर ठंडा पड़ा रहता - मैं बिस्तर पर - और इस तरह हम दोनों के बीच शीत-युद्ध जारी रहता।

सुबह होते ही मैं जल्दी-से-जल्दी लायब्रेरी चला आता। पता नहीं, कितने लोग मेरी तरह वहाँ आते थे - लायब्रेरी खुलने से पहले ही दरवाजे पर लाइन बना कर खड़े हो जाते थे। उनमें से ज्यादातर बूढ़े लोग होते थे जिन्हें पेंशन बहुत कम मिलती थी, किंतु सर्दी सबसे ज्यादा लगती थी। मेजों पर एक-दो किताबें खोल कर वे बैठ जाते। कुछ ही देर बाद मैं देखता, मेरे दाएँ-बाएँ सब लोग सो रहे हैं। कोई उन्हें टोकता नहीं था। एक-आध घंटे बाद लायब्रेरी का कोई कर्मचारी वहाँ चक्कर लगाने आ जाता, खुली किताबों को बंद कर देता और उन लोगों को धीरे से हिला देता, जिनके खर्राटे दूसरों की नींद या पढ़ाई में खलल डालने लगे हों।

ऐसी ही एक ऊँघती दोपहर में मैंने उस लड़की को देखा था - लायब्रेरी की लंबी खिड़की से। उसने अपना बस्ता एक बेंच पर रख दिया था और खुद पेड़ों के पीछे छिप गई थी। वह कोई धूप का दिन न था, इसलिए मुझे कुछ हैरानी हुई थी कि इतनी ठंड में वह लड़की बाहर खेल रही है। वह बिल्कुल अकेली थी। बाकी बेंचें खाली पड़ी थीं। और उस दिन पहली बार मुझे यह जानने की तीव्र उत्सुकता हुई थी कि वे कौन-से खेल हैं, जिन्हें कुछ बच्चे अकेले में खेलते हैं।

दोपहर होते ही वह पार्क में आती, बेंच पर अपना बैग रख देती और फिर पेड़ों के पीछे भाग जाती। मैं कभी-कभी किताब से सिर उठा कर उसकी ओर देख लेता। पाँच बजने पर सरकारी अस्पताल का गजर सुनाई देता। घंटे बजते ही, वह लड़की जहाँ भी होती, दौड़ते हुए अपनी बेंच पर आ बैठती। वह बस्ते को गोद में रख कर चुपचाप बैठी रहती, जब तक दूसरी तरफ से एक महिला न दिखाई दे जाती। मैं कभी उन महिला का चेहरा ठीक से न देख सका। वह हमेशा नर्स की सफेद पोशाक में आती थीं। और इससे पहले कि बेंच तक पहुँच पातीं - वह लड़की अपना धीरज खो कर भागने लगती और उन्हें बीच में ही रोक लेती। वे दोनों गेट की तरफ मुड़ जातीं और मैं उन्हें उस समय तक देखता रहता जब तक वे आँखों से ओझल न हो जातीं।

मैं यह सब देखता था, हिचकॉक के हीरो की तरह, खिड़की से बाहर, जहाँ यह पैंटोमिम रोज दुहराया जाता था। यह सिलसिला शायद सर्दियों तक चलता रहता, यदि एक दिन अचानक मौसम ने करवट न ली होती।

एक रात सोते हुए मुझे सहसा अपनी रजाई और उस पर रखे हुए कोट बोझ जान पड़े। मेरी देह पसीने से लथपथ थी, जैसे बहुत दिनों बाद बुखार से उठ रहा हूँ। खिड़की खोल कर बाहर झाँका, तो न धुंध, न कोहरा, लंदन का आकाश नीली मखमली डिबिया-सा खुला था, जिसमें किसी ने ढेर-से तारे भर दिए थे। मुझे लगा, जैसे यह गर्मियों की रात है और मैं विदेश में न हो कर अपने घर की छत पर लेटा हूँ।

अगले दिन खुल कर धूप निकली थी, मैं अधिक देर तक लायब्रेरी में नहीं बैठ सका। दोपहर होते ही मैं बाहर निकल पड़ा और घूमता हुआ उस रेस्तराँ में चला आया, जहाँ मैं रोज खाना खाने जाया करता था। वह एक सस्ता यहूदी रेस्तराँ था। वहाँ सिर्फ डेढ़ शिलिंग में कोशर गोश्त, दो रोटियाँ और बियर का एक छोटा गिलास मिल जाता था। रेस्तराँ की यहूदी मालकिन, जो युद्ध से पहले लिथूनिया से आई थीं, एक ऊँचे स्टूल पर बैठी रहतीं। काउंटर पर एक कैश-बॉक्स रखा रहता और उसके नीचे एक सफेद सियामी बिल्ली ग्राहकों को घूरती रहती। मुझे शायद वह थोड़ा-बहुत पहचानने लगी थी, क्योंकि जितनी देर मैं खाता रहता, उतनी देर वह अपनी हरी आँखों से मेरी तरफ टुकुर-टुकुर ताकती रहती। गरीबी और ठंड और अकेलेपन के दिनों में बिल्ली का सहारा भी बहुत होता है, यह मैं उन दिनों सोचा करता था। मैं यह भी सोचता था कि किसी दिन मैं भी ऐसा ही हिंदुस्तानी रेस्तराँ खोलूँगा और एक-साथ तीन बिल्लियाँ पालूँगा।

रेस्तराँ से बाहर आया, तो दोबारा लायब्रेरी जाने की इच्छा मर गई। लंबी मुद्दत बाद उस दिन घर से चिट्ठियाँ और अखबार आए थे। मैं उन्हें पार्क की खुली धूप में पढ़ना चाहता था। मुझे हल्का-सा आश्चर्य हुआ, जब मेरी नजर पार्क के फूलों पर गई। वे बहुत छोटे फूल थे, जो घास के बीच अपना सिर उठा कर खड़े थे। इन्हीं फूलों के बारे में शायद जीसस ने कहा था, लिलीज ऑफ द फील्ड, ऐसे फूल, जो आनेवाले दिनों के बारे में नहीं सोचते।

वे गुजरी हुई गर्मियों की याद दिलाते थे।

मैं घास के बीच उन फूलों पर चलने लगा।

बहुत अच्छा लगा। आनेवाले दिनों की दुश्चिंताएँ झरने लगीं। मैं हल्का-सा हो गया। मैंने अपने जूते उतार दिए और घास पर नंगे पाँव चलने लगा। मैं बेंच के पास पहुँचा ही था कि मुझे अपने पीछे एक चीख सुनाई दी। कोई तेजी से भागता हुआ मेरी तरफ आ रहा था। पीछे मुड़ कर देखा, तो वही लड़की दिखाई दी। वह पेड़ों से निकल कर बाहर आई और मेरा रास्ता रोक कर खड़ी हो गई।

'यू आर कॉट,' उसने हँसते हुए कहा, 'अब आप जा नहीं सकते।'

मैं समझा नहीं। जहाँ खड़ा था, वहीं खड़ा रहा।

'आप पकड़े गए...' उसने दोबारा कहा, 'आप मेरी जमीन पर खड़े हैं।'

मैंने चारों तरफ देखा, घास पर फूल थे, किनारे पर खाली बेंचें थीं, बीच में तीन एवरग्रीन पेड़ और एक मोटे तनेवाला ओक खड़ा था। उसकी जमीन कहीं दिखाई न दी।

'मुझे मालूम नहीं था,' मैंने कहा और मुड़ कर वापस जाने लगा।

'नहीं, नहीं... आप जा नहीं सकते,' बच्ची एकदम मेरे सामने आ कर खड़ी हो गई। उसकी आँखें चमक रही थीं, 'वे आपको जाने नहीं देंगे।'

'कौन नहीं जाने देगा?' मैंने पूछा।

उसने पेड़ों की तरफ इशारा किया, जो अब सचमुच सिपाही-से दिखाई दे रहे थे, लंबे हट्टे-कट्टे पहरेदार। मैं बिना जाने उनके अदृश्य फंदे में चला आया था।

कुछ देर तक हम चुपचाप आमने-सामने खड़े रहे। उसकी आँखें बराबर मुझ पर टिकी थीं - उत्तेजित और सतर्क। जब उसने देखा, मेरा भागने का कोई इरादा नहीं है, तो वह कुछ ढीली पड़ी।

'आप छूटना चाहते हैं?' उसने कहा।

'कैसे?' मैंने उसकी ओर देखा।

'आपको इन्हें खाना देना होगा। ये बहुत दिन से भूखे हैं।' उसने पेड़ों की ओर संकेत किया। वे हवा में सिर हिला रहे थे।

'खाना मेरे पास नहीं है।' मैंने कहा।

'आप चाहें, तो ला सकते हैं।' उसने आशा बँधाई, 'ये सिर्फ फूल-पत्ते खाते हैं।'

मेरे लिए यह मुश्किल नहीं था। वे अक्तूबर के दिन थे और पार्क में फूलों के अलावा ढेरों पत्ते बिखरे रहा करते थे। मैं नीचे झुका ही था कि उसने लपक कर मेरा हाथ रोक लिया।

'नहीं, नहीं - यहाँ से नहीं। यह मेरी जमीन है। आपको वहाँ जाना होगा।' उसने पार्क के फेंस की ओर देखा। वहाँ मुरझाए फूलों और पत्तों का ढेर लगा था। मैं वहाँ जाने लगा कि उसकी आवाज सुनाई दी।

'ठहरिए - मैं आपके साथ आती हूँ, लेकिन अगर आप बच कर भागेंगे तो... यहीं मर जाएँगे।' वह रुकी, मेरी तरफ देखा, 'आप मरना चाहते हैं?'

मैंने जल्दी से सिर हिलाया। वह इतना गर्म और उजला दिन था कि मरने की मेरी कोई इच्छा नहीं थी।

हम फेंस तक गए। मैंने रूमाल निकाला और फूल-पत्तियों को बटोरने लगा। मुक्ति पाने के लिए आदमी क्या कुछ नहीं करता।

वापस लौटते हुए वह चुप रही। मैं कनखियों से उसकी ओर देख लेता था। वह काफी बीमार-सी बच्ची जान पड़ती थी। उन बच्चों की तरह गंभीर, जो हमेशा अकेले में अपने साथ खेलते हैं। जब वह चुप रहती थी, तो होंठ बिचक जाते थे - नीचे का होंठ थोड़ा-सा बाहर निकल आता, जिसके ऊपर दबी हुई नाक बेसहारा-सी दिखाई देती थी। बाल बहुत छोटे थे - और बहुत काले-गोल छल्लों में धुली हुई रुई की तरह बँटे हुए, जिन्हें छूने को अनायास हाथ आगे बढ़ जाता था। लेकिन वह अपनी दूरी में हर तरह की छुअन से परे जान पड़ती थी।

'अब आप इन्हें खाना दे सकते हैं।' उसने कहा। वह पेड़ों के पास आ कर रुक गई थी।

'क्या वे मुझे छोड़ देंगे?' मैं कोई गारंटी, कोई आश्वासन पाना चाहता था।

इस बार वह मुस्कराई - और मैंने पहली बार उसके दाँत देखे - एकदम सफेद और चमकीले - जैसे अक्सर नीग्रो लड़कियों के होते हैं।

मैंने वे पत्तियाँ रूमाल से बाहर निकालीं, चार हिस्सों में बाँटी और बराबर-बराबर से पेड़ों के नीचे डाल दी।

मैं स्वतंत्र हो गया था - कुछ खाली-सा भी।

मैंने जेब से चिट्ठियाँ और अखबार निकाले और उस बेंच पर बैठ गया, जहाँ उसका बैग रखा था। वह काले चमड़े का बैग था, भीतर किताबें ठुँसी थीं, ऊपर की जेब से आधा कुतरा हुआ सेब बाहर झाँक रहा था।

वह ओझल हो गई। मैंने चारों तरफ ध्यान से देखा, तो उसकी फ्रॉक का एक कोना झाड़ियों से बाहर दिखाई दिया। वह एक खरगोश की तरह दुबक कर बैठी थी - मेरे ही जैसे, किसी भूले-भटके यात्री पर झपटने के लिए। किंतु बहुत देर तक पार्क से कोई आदमी नहीं गुजरा। हवा चलती तो पेड़ों के नीचे जमा की हुई पत्तियाँ घूमने लगतीं - एक भँवर की तरह - और वह अपने शिकार को भूल कर उनके पीछे भागने लगती।

कुछ देर बाद वह बेंच के पास आई, एक क्षण मुझे देखा, फिर बस्ते की जेब से सेब निकाला। मैं अखबार पढ़ता रहा और उसके दाँतों के बीच सेब की कुतरन सुनता रहा।

अचानक उसकी नजर मेरी चिट्ठियों पर पड़ी, जो बेंच पर रखी थीं। उसके हिलते हुए जबड़े रुक गए।

'यह आपकी हैं?'

'हाँ।' मैंने उसकी ओर देखा।

'और यह?'

उसने लिफाफे पर लगे टिकट की ओर उँगली उठाई। टिकट पर हाथी की तस्वीर थी, जिसकी सूँड़ ऊपर हवा में उठी थी। वह अपने दाँतों के बीच हँसता-सा दिखाई दे रहा था।

'तुम कभी जू गई हो?' मैंने पूछा।

'एक बार पापा के साथ गई थी। उन्होंने मुझे एक पेनी दी थी और हाथी ने अपनी सूँड़ से उस पेनी को मेरे हाथ से उठाया था।'

'तुम डरी नहीं?'

'नहीं, क्यों?' उसने सेब कुतरते हुए मेरी ओर देखा।

'पापा तुम्हारे साथ यहाँ नहीं आते?'

'एक बार आए थे। तीन बार पकड़े गए।'

वह धीमे से हँसी - जैसे मैं वहाँ न हूँ, जैसे कोई अकेले में हँसता है, जहाँ एक स्मृति पचास तहें खोलती है।

अस्पताल की घड़ी का गजर सुनाई दिया, तो हम दोनों चौंक गए। लड़की ने बेंच से बस्ता उठाया और उन पेड़ों के पास-पास गई, जो चुप खड़े थे। बच्ची हर पेड़ के पास जाती थी, छूती थी, कुछ कहती थी, जिसे सिर्फ पेड़ सुन पाते थे। आखिर में वह मेरे पास आई और मुझसे हाथ मिलाया, जैसे मैं भी उन पेड़ों में से एक हूँ।

उसकी निगाहें पीछे मुड़ गईं। मैंने देखा, कौन है? वह महिला दिखाई दीं। वह नर्सोंवाली सफेद पोशाक हरी घास पर चमक रही थी। बच्ची उन्हें देखते ही भागने लगी। मैंने ध्यान से देखा - यह वही महिला थीं, जिन्हें मैं लायब्रेरी की खिड़की से देखता था। छोटा कद, कंधे पर थैला और बच्ची-जैसे ही काले घुँघराले बाल। वे मुझसे काफी दूर थीं, लेकिन उनकी आवाज सुनाई दे जाती थी - अलग-अलग शब्द नहीं, सिर्फ दो स्वरों की एक आहट। वे घास पर बैठ गई थीं। बच्ची मुझे भूल गई थी।

मैंने जूते पहने। अखबार और चिट्ठियाँ जेब में रख दीं। अभी समय काफी है, मैंने सोचा। एक-दो घंटे लायब्रेरी में बिता सकता हूँ। पार्क के जादू से अलग, अपने अकेले कोने में।

मैं बीच पार्क में चला आया। पेड़ों की फुनगियों पर आग सुलगने लगी थी। समूचा पार्क सोने में गल रहा था। बीच में पत्तों का दरिया था, हवा में हिलता हुआ।

कौन... कौन है? कोई मुझे बुला रहा था और मैं चलता गया, रुका नहीं। कभी-कभी आदमी खुद अपने को बुलाने लगता है, बाहर से भीतर - और भीतर से कुछ भी नहीं होता। लेकिन यह बुलावा और दिनों की तरह नहीं था। यह रुका नहीं, इसलिए अंत में मुझे ही रुकना पड़ा। इस बार कोई शक नहीं हुआ। सचमुच कोई चीख रहा था, 'स्टॉप, स्टॉप...!' मैंने पीछे मुड़ कर देखा, लड़की खड़ी हो कर दोनों हाथ हवा में हिला रही थी।

सच! मैं फिर पकड़ा गया था - दोबारा से। बेवकूफों की तरह मैं उसकी जमीन पर चला आया था, चार पेड़ों से घिरा हुआ। इस बार माँ और बेटी दोनों हँस रही थीं।

वे झूठी गर्मियों के दिन थे। ये दिन ज्यादा देर नहीं टिकेंगे, इसे सब जानते थे। लायब्रेरी उजाड़ रहने लगी। मेरे पड़ोसी, बूढ़े पेंशनयाफ्ता लोग, अब बाहर धूप में बैठने लगे। आकाश इतना नीला दिखाई देता कि लंदन की धुंध भी उसे मैला न कर पाती। उसके नीचे पार्क एक हरे टापू-सा लेटा रहता।

ग्रेता (यह उसका नाम था) हमेशा वहाँ दिखाई देती थी। कभी दिखाई न देती, तो भी बेंच पर उसका बस्ता देख कर पता चल जाता कि वह यहीं कहीं है, किसी कोने में दुबकी है। मैं बचता हुआ आता, पेड़ों से, झाड़ियों से, घास के फूलों से। हर रोज वह कहीं-न-कहीं, एक अदृश्य भयानक फंदा छोड़ जाती और जब पूरी सतर्कता के बावजूद मेरा पाँव उसमें फँस जाता, तो वह बदहवास चीखती हुई मेरे सामने आ खड़ी होती। मैं पकड़ लिया जाता। छोड़ दिया जाता। फिर पकड़ लिया जाता...।

यह खेल नहीं था। वह एक पूरी दुनिया थी। उस दुनिया से मेरा कोई वास्ता नहीं था - हालाँकि मैं कभी-कभी उसमें बुला लिया जाता था। ड्रामे में एक ऐक्स्ट्रा की तरह। मुझे हमेशा तैयार रहना पड़ता था, क्योंकि वह मुझे किसी भी समय बुला सकती थी। एक दोपहर हम दोनों बेंच पर बैठे थे, अचानक वह उठ खड़ी हुई।

'हलो मिसेज टामस...!' उसने मुस्कराते हुए कहा, 'आज आप बहुत दिन बाद दिखाई दीं - यह मेरे इंडियन दोस्त हैं, इनसे मिलिए।'

मैं अवाक उसे देखता रहा। वहाँ कोई न था।

'आप बैठे हैं? इनसे हाथ मिलाइए।' उसने मुझे कुछ झिड़कते हुए कहा।

मैं खड़ा हो गया, खाली हवा से हाथ मिलाया। ग्रेता खिसक कर मेरे पास बैठ गई, ताकि कोने में मिसेज टामस बैठ सकें।

'आप बाजार जा रही थीं?' उसने खाली जगह को देखते हुए कहा, 'मैं आपका थैला देख कर समझ गई। नहीं, माफ कीजिए, मैं आपके साथ नहीं आ सकती। मुझे बहुत काम करना है। इन्हें देखिए (उसने पेड़ों की तरफ इशारा किया), ये सुबह से भूखे हैं, मैंने अभी तक इनके लिए खाना भी नहीं बनाया - आप चाय पिएँगी या कॉफी? ओह - आप घर से पी कर आई हैं। क्या कहा - मैं आपके घर क्यों नहीं आती? आजकल वक्त कहाँ मिलता है! सुबह अस्पताल जाना पड़ता है, दोपहर को बच्चों के साथ - आप तो जानती हैं। मैं इतवार को आऊँगी। आप जा रही हैं...'

उसने खड़े हो कर दोबारा हाथ मिलाया। मिसेज टामस शायद जल्दी में थीं। विदा लेते समय उन्होंने मुझे देखा नहीं। बदले में मैं बेंच पर ही बैठा रहा।

कुछ देर तक हम चुपचाप बैठे रहे। फिर सहसा वह चौंक पड़ी।

'आप कुछ सुन रहे हैं?' उसने मेरी कुहनी को झिंझोड़ा।

'कुछ भी नहीं।' मैंने कहा।

'फोन की घंटी - कितनी देर से बज रही है। जरा देखिए, कौन है?'

मैं उठ कर बेंच के पीछे गया, नीचे घास से एक टूटी टहनी उठाई और जोर से कहा, 'हलो!'

'कौन है?' उसने कुछ अधीरता से पूछा।

'मिसेज टामस।' मैंने कहा।

'ओह - फिर मिसेज टामस!' उसने एक थकी-सी जम्हाई ली, धीमे कदमों से पास आई, मेरे हाथ से टहनी खींच कर कहा, 'हलो, मिसेज टामस - आप बाजार से लौट आईं? क्या-क्या लाईं? मीट-बॉल्स, फिश-फिंगर्स, आलू के चिप्स?' उसकी आँखें आश्चर्य से फैलती जा रही थीं। वह शायद चुन-चुन कर उन सब चीजों का नाम ले रही थी, जो उसे सबसे अधिक अच्छी लगती थीं।

फिर वह चुप हो गई - जैसे मिसेज टामस ने कोई अप्रत्याशित प्रस्ताव उसके सामने रखा हो। 'ठीक है मिसेज टामस, मैं अभी आती हूँ - नहीं, मुझे देर नहीं लगेगी। मैं अभी बस-स्टेशन की तरफ जा रही हूँ - गुड बाई, मिसेज टामस!'

उसने चमकती आँखों से मेरी ओर देखा।

'मिसेज टामस ने मुझे डिनर पर बुलाया है - आप क्या करेंगे?'

'मैं सोऊँगा।'

'पहले इन्हें कुछ खिला देना... नहीं तो ये रोएँगे।' उसने पेड़ों की ओर इशारा किया, जो ठहरी हवा में निस्पंद खड़े थे।

वह तैयार होने लगी। अपने बिखरे बालों को सँवारा, पाउडर लगाने का बहाना किया - हथेली का शीशा बना कर उसमें झाँका - धूप और पेड़ों की छाया के बीच वह सचमुच सुंदर जान पड़ रही थी।

जाते समय उसने मेरी तरफ हाथ हिलाया। मैं उसे देखता रहा, जब तक वह पेड़ों और झाड़ियों के घने झुरमुट में गायब नहीं हो गई।

ऐसा हर रोज होने लगा। वह मिसेज टामस से मिलने चली जाती और मैं बेंच पर लेटा रहता। मुझे अकेला नहीं लगता था। पार्क की अजीब, अदृश्य आवाजें मुझे हरदम घेरे रहतीं। मैं एक दुनिया से निकल कर दूसरी दुनिया में चला आता। वह पार्क के सुदूर कोनों में भटकती फिरती। मैं लायब्रेरी की किताबों का सिरहाना बना कर बेंच पर लेट जाता। लंदन के बादलों को देखता - वे घूमते रहते और जब कभी कोई सफेद टुकड़ा सूरज पर अटक जाता, तब पार्क में अँधेरा-सा घिर जाता।

ऐसे ही एक दिन जब मैं बेंच पर लेटा था, मुझे अपने नजदीक एक अजीब-सी खड़खड़ाहट सुनाई दी। मुझे लगा, मैं सपने में मिसेज टामस को देख रहा हूँ। वे मेरे पास-बिल्कुल पास - आ कर खड़ी हो गई हैं, मुझे बुला रही हैं।

मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा।

सामने बच्ची की माँ खड़ी थीं। उन्होंने ग्रेता का हाथ पकड़ रखा था और कुछ असमंजस में वे मुझे निहार रही थीं।

'माफ कीजिए,' उन्होंने सकुचाते हुए कहा, 'आप सो तो नहीं रहे थे?'

मैं कपड़े झाड़ता हुआ उठ खड़ा हुआ।

'आज आप जल्दी आ गईं?' मैंने कहा। उनकी सफेद पोशाक, काली बेल्ट और बालों पर बँधे स्कार्फ को देख कर मेरी आँखें चुँधिया-सी गईं। लगता था, वे अस्पताल से सीधी यहाँ चली आ रही थीं।

'हाँ, मैं जल्दी आ गई,' वे मुस्कराने लगीं, 'शनिवार को काम ज्यादा नहीं रहता - मैं दोपहर को ही आ जाती हूँ।'

वे वेस्टइंडीज के चौड़े उच्चारण के साथ बोल रही थीं जिसमें हर शब्द का अंतिम हिस्सा गुब्बारे-सा उड़ता दिखाई देता था।

'मैं आपसे कहने आई थी, आज आप हमारे साथ चाय पीने चलिएगा? ...हम लोग पास में ही रहते हैं।'

उनके स्वर में कोई संकोच या दिखावा नहीं था, जैसे वे मुझे मुद्दत से जानती हों!

मैं तैयार हो गया। मैं अरसे से किसी के घर नहीं गया था। अपने बेड-सिटर से लायब्रेरी और पार्क तक परिक्रमा लगाता था। मैं लगभग भूल गया था कि उसके परे एक और दुनिया है - जहाँ ग्रेता रहती होगी, खाती होगी, सोती होगी।

वह आगे-आगे चल रही थी। कभी-कभी पीछे मुड़ कर देख लेती थीं कि कहीं हम बहुत दूर तो नहीं छूट गए। उसे शायद कुछ अनोखा-सा लग रहा था कि मैं उसके घर आ रहा हूँ। अजीब मुझे भी लग रहा था - उसके घर आना नहीं, बल्कि उसकी माँ के साथ चलना। वे उम्र में काफी छोटी जान पड़ती थीं, शायद अपने कद के कारण। मेरे साथ चलते हुए वे कुछ इतनी छोटी दिखाई दे रही थीं कि भ्रम होता था कि मैं किसी दूसरी ग्रेता के साथ चल रहा हूँ।

रास्ते-भर वे चुप रहीं। सिर्फ जब उनका घर सामने आया, तो वे ठिठक गईं।

'आप भी तो कहीं पास रहते हैं?' उन्होंने पूछा।

'ब्राइड स्ट्रीट में,' मैंने कहा, 'ट्यूब स्टेशन के बिल्कुल सामने।'

'आप शायद हाल में ही आए हैं?' उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, 'इस इलाके में बहुत कम इंडियन रहते हैं।'

वे नीचे उतरने लगीं। उनका घर बेसमेंट में था और हमें सीढ़ियाँ उतर कर नीचे जाना पड़ा था। बच्ची दरवाजा खोल कर खड़ी थी। कमरे में दिन के समय भी अँधेरा था। बत्ती जलाई, तो तीन-चार कुर्सियाँ दिखाई दीं। बीच में एक मेज थी। जरूरत से ज्यादा लंबी और नंगी - जैसे उस पर पिंग-पाँग खेली जाती है। दीवार से सटा सोफा था, जिसके सिरहाने एक रजाई लिपटी रखी थी। लगता था, वह कमरा बहुत-से कामों के काम आता था, जिसमें खाना, सोना-और मौका पड़ने पर - अतिथि-सत्कार भी शामिल था।

'आप बैठिए, मैं अभी चाय बना कर लाती हूँ।'

वे पर्दा उठा कर भीतर चली गईं। मैं और ग्रेता कमरे में अकेले बैठे रहे। हम दोनों पार्क के पतझड़ी उजाले में एक-दूसरे को पहचानने लगे थे। पर कमरे के भीतर न कोई मौसम था, न कोई माया। वह अचानक एक बहुत कम उम्रवाली बच्ची बन गई थी, जिसका जादू और आतंक दोनों झर गए थे।

'तुम यहाँ सोती हो?' मैंने सोफे की ओर देखा।

'नहीं, यहाँ नहीं,' उसने सिर हिलाया, 'मेरा कमरा भीतर है - आप देखेंगे?'

किचेन से आगे एक कोठरी थी, जो शायद बहुत पहले गोदाम रहा होगा। वहाँ एक नीली चिक लटक रही थी। उसने चिक उठाई और दबे कदमों से भीतर चली आई।

'धीरे से आइए - वह सो रहा है!'

'कौन?'

'हिश!' उसने अपना हाथ मुँह पर रख दिया।

मैंने सोचा, कोई भीतर है। पर भीतर बिल्कुल सूना था। कमरे की हरी दीवारें थीं, जिन पर जानवरों की तस्वीरें चिपकी थीं। कोने में उसकी खाट थी, जो खटोला-सी दिखाई देती थी। तकिए पर थिगलियों में लिपटा एक भालू लेटा था, गुदड़ी के लाल-जैसा।

'वह सो रहा है।' उसने फुसफुसाते हुए कहा।

'और तुम?' मैंने कहा, 'तुम यहाँ नहीं सोती?'

'यहाँ सोती हूँ। जब पापा यहाँ थे, तो वे दूसरे पलंग पर सोते थे। माँ ने अब उस पलंग को बाहर रखवा दिया है।'

'कहाँ रहते हैं वे?' इस बार मेरा स्वर भी धीमा हो गया, भालू के डर से नहीं, अपने उस डर से जो कई दिनों से मेरे भीतर पल रहा था।

'अपने घर रहते हैं - और कहाँ?'

उसने तनिक विस्मय से मुझे देखा। उसे लगा, मैं पूरी तरह आश्वस्त नहीं हुआ हूँ। वह अपनी मेज के पास गई, जहाँ उसकी स्कूल की किताबें रखी थीं। दराज खोला और उसके भीतर से चिट्ठियों का पुलिंदा बाहर निकाला। पुलिंदे पर रेशम का लाल फीता बँधा था, मानो वह क्रिसमस का कोई उपहार हो। वह उन्हें उठा कर मेरे पास ले आई - सबसे ऊपरवाले लिफाफे पर लगा टिकट दिखाया।

'वे यहाँ रहते हैं।' उसने कहा।

मुझे याद आया, वह मेरी नकल कर रही है - बहुत पहले पार्क में मैंने उसे अपने देश की चिट्ठी दिखाई थी।

बैठक से उसकी माँ हमें बुला रही थीं। आवाज सुनते ही वह कमरे से बाहर चली गई।

मैं एक क्षण वहीं ठिठका रहा। खटोले पर भालू सो रहा था। दीवारों पर जानवरों की आँखें मुझे घूर रही थीं। बिस्तर के पास ही एक छोटी-सी बेसिनी थी, जिस पर उसका टूथ-ब्रश, साबुन और कंघा रखे थे।

बिल्कुल मेरे बेड-सिट की तरह - मैंने सोचा। किंतु मुझसे बहुत अलग। मैं अपना कमरा छोड़ कर कहीं भी जा सकता था, उसका कमरा अपनी चीजों में शाश्वत-सा जान पड़ता था।

मेज पर चिट्ठियों का पुलिंदा पड़ा था, रेशमी डोर में बँधा हुआ, जिसे जल्दी में वह अकेला छोड़ गई थी।

'कमरा देख लिया आपने?' उन्होंने मुस्कराते हुए कहा।

'यहाँ जो भी आता है, सबसे पहले उसे अपना कमरा दिखाती है।' वे कपड़े बदल कर आई थीं। लाल छींट की स्कर्ट और खुला-खुला भूरे रंग का कार्डीगन। कमरे में सस्ती सेंट की गंधें फैली थीं।

'आप चाय नहीं - दावत दे रही हैं।' मैंने मेज पर रखे सामान को देख कर कहा। टोस्ट, जैम, मक्खन, चीज - पता नहीं, इतनी सारी चीजें मैंने पहले कब देखी थीं।

'अस्पताल की कैंटीन से ले आती हूँ - वहाँ सस्ते में मिल जाता है।'

वे परेशान लगती थीं। हँसती थीं, लेकिन परेशानी अपनी जगह कायम रहती थी। पता नहीं, बच्ची कहाँ थी? वे उसे चीखते हुए बुला रही थीं और चाय ठंडी हो रही थी।

वे सिर पकड़ कर बैठी रहीं। फिर याद आया, मैं भी हूँ। 'आप शुरू कीजिए - वह बाग में बैठी होगी।'

'आपका अपना बाग है?' मैंने पूछा।

'बहुत छोटा-सा किचन के पीछे। जब हम यहाँ आए थे, उजाड़ पड़ा था। मेरे पति ने उसे साफ किया। अब तो थोड़ी-बहुत सब्जी भी निकल आती है।'

'आपके पति यहाँ नहीं रहते?'

'उन्हें यहाँ काम नहीं मिला - दिन-भर पार्क में घूमते रहते थे। वही आदत ग्रेता को पड़ी है...।'

उनके स्वर में हल्की-सी थकान थी। खीज से खाली - लेकिन ऐसी थकान, जो पोली धूल-सी हर चीज पर बैठ जाती है।

'पार्क में तो मैं भी घूमता हूँ।' मैंने उन्हें हल्का करना चाहा। वे हो भी गईं। हँसने लगीं।

'आपकी बात अलग है।' उन्होंने डूबे स्वर में कहा, 'आप अकेले हैं। लेकिन लंदन में अगर परिवार साथ हो, तो बिना नौकरी के नहीं रहा जा सकता।'

वे मेज की चीजें साफ करने लगीं। बर्तनों को जमा करके मैं किचन में ले गया। सिंक के आगे खिड़की थी, जहाँ से उनका बाग दिखाई देता था। बीच में एक वीपिंग-विलो खड़ा था, जिसकी शाखाएँ एक उल्टी छतरी की सलाखों की तरह झूल रही थीं।

पीछे मुड़ा तो वे दिखाई दीं। दरवाजे पर तौलिया ले कर खड़ी थीं।

'क्या देख रहे हैं?'

'आपके बाग को... यह तो कोई बहुत छोटा नहीं है।'

'है नहीं - पर इस पेड़ ने सारी जगह घेर रखी है। मैं इसे कटवाना चाहती थी, लेकिन वह अपनी जिद पर अड़ गई - जिस दिन पेड़ कटना था, वह रात-भर रोती रही।'

वे चुप हो गईं - जैसे उस रात को याद करना अपने में एक रोना हो।

'क्या कहती थी?'

'कहती क्या थी - अपनी जिद पर अड़ी थी। बहुत पहले कभी इसके पापा ने कहा होगा कि पेड़ के नीचे समर-हाउस बनाएँगे - अब आप बताइए, यहाँ खुद रहने को जगह है नहीं, बाग में गुड़ियों का समर-हाउस बनेगा?'

'समर-हाउस?'

'हाँ, समर-हाउस - जहाँ ग्रेता अपने भालू के साथ रहेगी।'

वे हँसने लगीं - एक उदास-सी हँसी जो एक खाली जगह से उठ कर दूसरी खाली जगह पर खत्म हो जाती है - और बीच की जगह को भी खाली छोड़ जाती है।

मेरे जाने का समय हो गया था - लेकिन ग्रेता कहीं दिखाई नहीं दी। हम सीढ़ियाँ चढ़ कर ऊपर चले आए। लंदन की मैली धूप पड़ोस की चिमनियों पर रेंग रही थी।

जब विदा लेने के लिए मैंने हाथ आगे बढ़ाया, तो उन्होंने कुछ सकुचाते हुए कहा, 'आप कल खाली हैं?'

'कहिए - मैं तकरीबन हर रोज खाली रहता हूँ।'

'कल इतवार है...' उन्होंने कहा, 'ग्रेता की छुट्टी है, पर मेरी अस्पताल में ड्यूटी है। क्या मैं उसे आपके पास छोड़ सकती हूँ?'

'कितने बजे आना होगा?'

'नहीं, आप आने की तकलीफ न करें। अस्पताल जाते हुए मैं इसे लायब्रेरी के सामने छोड़ दूँगी... शाम को लौटते हुए ले लूँगी।'

मैंने हामी भरी और सड़क पर चला आया। कुछ दूर चल कर जेब से पैसे निकाले और उन्हें गिनने लगा। आज खाने के पैसे बच जाएँगे, यह सोच कर खुशी हुई। मैंने बची हुई रेजगारी को मुट्ठी में दबाया और घर की तरफ चलने लगा।

मैं लायब्रेरी के दरवाजे पर खड़ा था।

उन्हें देर हो गई थी - शायद सर्दी के कारण। धूप कहीं न थी। लंदन की इमारतों पर अवसन्न-सा आलोक फैला था - पीली और जर्द, जिसमें वे और भी दरिद्र और दुखी दिखाई देती थीं।

मुझे उनकी सफेद पोशाक दिखाई दी। दोनों पार्क से गुजरते हुए आ रही थीं। आगे-आगे वे और पीछे भागती हुई ग्रेता। जब उन्होंने मुझे देख लिया तो हवा में हाथ हिलाया, बच्ची को जल्दी से चूमा और तेज कदमों से अस्पताल की तरफ मुड़ गईं।

किंतु बच्ची में कोई जल्दी न थी। वह धीमे कदमों से मेरे पास आई। सर्दी में नाक लाल-सुर्ख हो गई थी। उसने पूरी बाँहोंवाला ब्राउन स्वेटर पहन रखा था - सिर पर वही पुरानी कैप थी, जिसे मैं पार्क में देखा करता था।

वह निढाल-सी खड़ी थी।

'चलोगी?' मैंने उसका हाथ पकड़ा।

उसने चुपचाप सिर हिला दिया। मुझे हल्की-सी निराशा हुई। मैंने सोचा था, वह पूछेगी, कहाँ - और तब मैं उसे आश्चर्य में डाल दूँगा। पर उसने पूछा कुछ भी नहीं और हम सड़क पार करने लगे।

जब हम पार्क को छोड़ कर आगे बढ़े तो एक बार उसने प्रश्न-भरी निगाहों से मेरी ओर देखा - जैसे वह अपने किसी सुरक्षित घेरे से बाहर जा रही हो। पर मैं चुप रहा - और उसने कुछ पूछा नहीं। तब मुझे पहली बार लगा कि जब बच्चे माँ-बाप के साथ नहीं होते तो सब प्रश्नों को पुड़िया बना कर किसी अँधेरे गड्ढे में फेंक देते हैं।

ट्यूब में बैठ कर वह कुछ निश्चिंत नजर आई। उसने मेरा हाथ छोड़ दिया और खिड़की के बाहर देखने लगी।

'क्या अभी से रात हो गई?' उसने पूछा।

'रात कैसी?'

'देखो - बाहर कितना अँधेरा है।'

'हम जमीन के नीचे हैं।' मैंने कहा।

वह कुछ सोचने लगी, फिर धीरे से कहा, 'नीचे रात है, ऊपर दिन।'

हम दोनों हँसने लगे। मैंने पहले कभी ऐसा नहीं सोचा था।

धीरे-धीरे रोशनी नजर आने लगी। ऊपर आकाश का एक टुकड़ा दिखाई दिया - और फिर अथाह सफेदी में डूबा दिन सुरंग के बाहर निकल आया।

ट्यूब-स्टेशन की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए वह रुक गई। मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा।

'रुक क्यों गईं!'

'मुझे बाथरूम जाना है।'

मुझे दहशत हुई। टॉयलेट नीचे था और वह इस तरह अपने को रोके बहुत दूर तक नहीं जा सकती थी। मैंने उसे गोद में उठा लिया और उल्टे पाँव सीढ़ियों पर भागने लगा। गलियारे के दूसरे सिरे पर टॉयलेट दिखाई दिया - पुरुषों के लिए - मैं जल्दी से उसे भीतर ले गया। दरवाजा बंद करके बाहर आया, तो लगा जैसे वह नहीं, मैं मुक्त हो रहा हूँ।

वह बाहर आई तो परेशान-सी नजर आई। 'अब क्या बात है?'

'चेन बहुत ऊँची है।' उसने कहा।

'तुम ठहरो, मैं खींच आता हूँ।'

उसने मेरा कोट पकड़ लिया। वह खुद खींचना चाहती थी। उसके साथ मैं भीतर गया, उसे दोबारा गोद में उठाया और तब तक उठाता गया, जब तक उसका हाथ चेन तक नहीं पहुँच गया। हम दोनों विस्मय से टॉयलेट में पानी को बहता देखते रहे, जैसे यह चमत्कार जिंदगी में पहली बार देख रहे हों।

हम सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। ऊपर आए तो उसने कस कर मेरा हाथ भींच लिया। ट्रिफाल्गर स्कैयर आगे था, चारों तरफ भीड़, उजाला, शोर। मैं उसे आश्चर्य में डालना चाहता था। किंतु वह डर गई थी। वह इतना डर गई थी कि मेरी इच्छा हुई कि मैं उसे दोबारा नीचे ले जाऊँ - ट्यूब-स्टेशन में, जहाँ जमीन का अपना सुरक्षित अँधेरा था।

लेकिन जल्दी ही डर बह गया - और कुछ देर बाद उसने मेरा हाथ भी छोड़ दिया। वह स्कैयर के अनोखे उजाले में खो गई थी। वह उन शेरों के नीचे चली आई थी, जो काले पत्थरों पर अपने पंजे खोल कर भीड़ को निहार रहे थे। बहुत-से बच्चे कबूतरों को दाना डाल रहे थे।

पंखों की छाया एक बादल-सा दिखाई देती थी, जो हवा में कभी इधर जाती थी, कभी उधर-सिर के ऊपर से निकल जाती थी और कानों में सिर्फ एक गर्म, सनसनाती फड़फड़ाहट बाकी रह जाती थी।

वह सुन रही थी। वह मुझे भूल गई थी।

मैं उसकी आँख बचा कर स्कैयर के बीच चला आया। वहाँ एक लाल लकड़ी का केबिन था, जहाँ दाने बिकते थे। एक कप दाने के दाम - चार पेंस। मैंने एक कप खरीदा और भीड़ में उसे ढूँढ़ने लगा।

बच्चे बहुत थे - कबूतरों से घिरे हुए। किंतु वह जहाँ थी, वहाँ खड़ी थी। अपनी जगह से एक इंच भी न हिली थी। मैं उसके पीछे गया और दानों का कप उसके आगे कर दिया।

वह मुड़ी और हकबका कर मेरी ओर देखा। बच्चे कृतज्ञ नहीं होते, सिर्फ अपना लेते हैं। एक तीसरी आँख खुल जाती है, जो सब चुप्पियों को पाट देती है। उसने कप को लगभग मेरे हाथों से खींचते हुए कहा, 'क्या वे आएँगे?'

'जरूर आएँगे... पहले तुम्हें एक-एक दाना डालना होगा - उन्हें पास बुलाने के लिए, फिर...'

उसने मेरी बात नहीं सुनी। वह उस तरफ भागती गई, जहाँ इक्के-दुक्के कबूतर भटक रहे थे। शुरू-शुरू में उसने डरते हुए हथेली आगे बढ़ाई। कबूतर उसके पास आते हुए झिझक रहे थे, जैसे उसके डर ने उन्हें भी छू लिया हो। किंतु ज्यादा देर वे अपना लालच नहीं रोक सके। नखरे छोड़ कर पास आए - इधर-उधर देखने का बहाना किया - और फिर खटाखट उसकी हथेली से दाने चुगने लगे। वह अब अपनी फ्रॉक फैला कर बैठ गई थी। एक हाथ में दोना, दूसरे हाथ में दाने। मैं अब उसे देख भी नहीं सकता था। पंखों की सलेटी, फड़फड़ाती छत ने उसे अपने में ढक लिया था।

मैं बेंच पर बैठ गया। फव्वारों को देखने लगा, जिनके छींटे उड़ते हुए घुटनों तक आ जाते थे। बादल इतने नीचे झुक आए थे कि नेल्सन का सिर सिर्फ एक काले धब्बे-सा दिखाई देता था।

दिन बीत रहा था।

कुछ ही देर में मैंने देखा, वह सामने खड़ी है।

'मैं एक कप और लूँगी।' उसने कहा।

'अब नहीं...' मैंने कुछ हिचकिचाते हुए कहा, 'काफी देर हो गई है। अब चाय पिएँगे - और तुम आइसक्रीम लोगी।'

उसने सिर हिलाया।

'मैं एक कप और लूँगी।'

उस स्वर में जिद नहीं थी। कुछ क्षण पहले जो पहचान आई थी, वह मानो मुझसे नहीं, उससे आग्रह कर रही हो।

मैंने उसके हाथ से खाली कप लिया और दुकान की तरफ बढ़ गया। पीछे मुड़ कर देखा। वह मुझे देख रही थी। मैं दुकान के पीछे मुड़ गया। वहाँ भीड़ थी और उसकी आँखें मुझ तक नहीं पहुँच सकती थीं। कोने में सिमट कर मैंने जेब से पैसे निकाले। चाय और आइसक्रीम के पैसे एक तरफ किए, ट्यूब के किराए के पैसे दूसरी तरफ - बाकी सिर्फ दो पेंस बचे थे। मैंने चाय के कुछ पेंस उसमें मिलाए और दुकानदार के आगे लगी क्यू में शामिल हो गया।

इस बार जब मैंने उसे कप दिया, तो उसने मुझे देखा भी नहीं। वह तुरंत भागती हुई उस जगह चली गई, जहाँ सबसे ज्यादा कबूतर इकट्ठा थे। अब उसका हौसला बढ़ गया था। और कबूतर भी उसे पहचानने लगे थे। वे आसपास उड़ते हुए कभी उसके हाथों, उसके कंधों, उसके सिर पर बैठ जाते थे। वह हँसती जा रही थी, पीला चेहरा एक ज्वरग्रस्त खिंचाव में विकृत-सा हो गया था - और हाथ - वे हाथ, जो मुझे हमेशा इतने निरीह जान पड़ते थे - अब एक अजीब बेचैनी में कभी खुलते थे, कभी बंद होते थे, जैसे वे किसी भी क्षण कबूतरों की फड़फड़ाती मांसल धड़कनों को दबोच लेंगे। उसे पता भी न चला, कब दानों की कटोरी खाली हो गई - वह कुछ देर तक हवा में हथेली खोले बैठी रही। सहसा उसे आभास हुआ, कबूतर उसे छोड़ कर दूसरे बच्चों के आसपास मँडराने लगे हैं। वह खड़ी हो गई और बिना कहीं देखे चुपचाप मेरे पास चली आई।

वह एकटक मुझे देख रही थी। मुझे शक हुआ, वह मुझपर शक कर रही है। मैं बेंच से उठ खड़ा हुआ।

'अब चलेंगे।' मैंने कहा।

'मैं एक कप और लूँगी।'

'अब और नहीं - तुम दो ले चुकी हो।' मैंने गुस्से में कहा, 'तुम्हें मालूम है, हमारे पास कितने पैसे बचे हैं?'

'सिर्फ एक और - उसके बाद हम लौट जाएँगे।'

लोग हमें देखने लगे थे। मैं बहस कर रहा था - दानों की एक कटोरी के लिए। मैंने उसे उठा कर बेंच पर बिठा दिया, 'ग्रेता, तुम बहुत जिद्दी हो। अब तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा।'

उसने ठंडी आँखों से मुझे देखा।

'आप बुरे आदमी हैं। मैं आपके साथ कभी नहीं खेलूँगी।' मुझे लगा, जैसे उसने मेरी तुलना किसी अदृश्य व्यक्ति से की हो। मैं खाली-सा बैठा रहा। कभी-कभी ऐसा होता है कि अपने लिए कोई उम्मीद नहीं रहती। सिर्फ घोर हैरानी होने लगती है, अपने होने पर, अपने होने पर ही हैरानी होने लगती है। फिर मुझे वह आवाज सुनाई दी, जो आज भी मुझे अकेले में सुनाई दे जाती है... और मुँह मोड़ लेता हूँ।

वह रो रही थी। हाथ में दानों का खाली कप था, और उसकी कैप खिसक कर माथे पर चली आई थी। वह चुप्पी का रोना था। अलग-अलग साँसों के बीच बिंधा हुआ। मुझसे वह नहीं सहा गया। मैंने उसके हाथ से कप लिया और लाइन में जा कर खड़ा हो गया। इस बार पैसों को गिनना भी याद नहीं आया। मैं सिर्फ उसका रोना सुन रहा था, हालाँकि वह मुझसे बहुत दूर थी, और बीच में कबूतरों की फड़फड़ाहट और बच्चों की चीखों के कारण कुछ भी सुनाई नहीं देता था। पर इन सबके परे मेरे भीतर का सन्नाटा था, जिसके बीच उसकी रुँधी साँसें थीं - और वे मैं अंतहीन दूरी से सुन सकता था।

किंतु इस बार पहले जैसा नहीं हुआ। बहुत देर तक कोई कबूतर उसके पास नहीं आया। उसकी अपनी घबराहट के कारण या घिरते अँधेरे के कारण - वे पास तक आते थे, लेकिन उसकी खुली हथेली की अवहेलना करके दूसरे बच्चों के पास चले जाते थे। हताश हो कर उसने दानों की कटोरी जमीन पर रख दी और स्वयं मेरे पास बेंच पर आ कर बैठ गई।

उसके जाते ही कबूतरों का जमघट कटोरी के इर्द-गिर्द जमा होने लगा। कुछ देर बाद हमने देखा, दानों की कटोरी औंधी पड़ी है - और उसमें एक भी दाना नहीं है।

'अब चलोगी?' मैंने कहा।

वह तुरंत बेंच से उठ खड़ी हुई, जैसे वह इतनी देर से सिर्फ इसकी ही प्रतीक्षा कर रही हो। उसकी आँखें चमक रही थीं - एक भीगी हुई चमक - जो आँसुओं के बाद चली जाती है।

उन दिनों ट्रिफाल्गर स्कैयर के सामने लायंस का रेस्तराँ होता था। गंदा और सस्ता दोनों ही। सड़क पार करके हम वहीं चले आए।

इस बीच मैंने जेब में हाथ डाल कर पैसों को गिन लिया था - मैंने उसके लिए दो टोस्ट मँगवाए, अपने लिए चाय। आइसक्रीम को भुला देना ही बेहतर था।

वह पहली बार किसी रेस्तराँ में आई थी। गहरी उत्सुकता से चारों तरफ देख रही थी। मुझे लगा, कुछ देर पहले का संताप घुलने लगा है। हम करीब-करीब दोबारा एक-दूसरे के करीब आ गए थे। लेकिन पहले जैसे नहीं - कबूतरों की छाया अब भी हम दोनों के बीच फड़फड़ा रही थी।

'मैं क्या बहुत बुरा आदमी हूँ?' मैंने पूछा।

उसने आँखें उठाईं, एक क्षण मुझे देखती रही, फिर बहुत अधीर स्वर में कहा, 'मैंने आपको नहीं कहा था।'

'मुझे नहीं कहा था?' मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा, 'फिर किसको कहा था?'

'मि. टामस को - वे बुरे आदमी हैं। एक दिन जब मैं उनके घर गई, वे डाँट रहे थे और मिसेज टामस बेचारी रो रही थीं।'

'ओह!' मैंने कहा।

'आप समझे - मैंने आपको कहा था?'

वह हँसने लगी, जैसे मैंने सचमुच बड़ी मूर्खता की भूल की है - और उसकी हँसी देख कर, न जाने क्यों, मेरा दिल बैठने लगा।

'हम यहाँ फिर कभी आएँगे?' उसने कहा।

'गर्मियों में,' मैंने कहा, 'गर्मियों में टेम्स पर चलेंगे, वह यहाँ से बहुत पास है।'

'क्या वहाँ कबूतर होंगे?' उसने पूछा।

मुझे बुरा लगा, जैसे कोई लड़की अपने प्रेमी की चर्चा बार-बार छेड़ दे। किंतु मैं उसे दोबारा निराश नहीं करना चाहता था। गर्मियाँ काफी दूर थीं, बीच में पतझड़ और बर्फ के दिन आएँगे - तब तक मेरा झूठ भी पिघल जाएगा, मैंने सोचा।

हम बाहर आए, तो पीला-सा अँधेरा घिर आया था। हालाँकि दोपहर अभी बाकी थी। उसने खोई हुई आँखों से स्कैयर की तरफ देखा, जहाँ कबूतर अब भी उड़ रहे थे। मेरी जेब में अब उतने ही पैसे थे, जिनसे ट्यूब का किराया दिया जा सके। इस बार उसने कोई आग्रह नहीं किया। बच्चे एक सीमा के बाद, बड़ों की गरीबी न सही, मजबूरी सूँघ लेते हैं।

मैंने सोचा था, ट्रेन में बैठेंगे, तो मैं उससे समर-हाउस के बारे में पूछूँगा - उस विलो के बारे में भी, जो अकेला उसके बाग में खड़ा था। मैं उसे दोबारा उसकी अपनी दुनिया में लाना चाहता था - जहाँ पहली बार हम दोनों एक-दूसरे से मिले थे। पर ऐसा हुआ नहीं। सीट पर बैठते ही उसकी आँखें मुँदने लगीं। ट्रिफाल्गर स्कैयर से इसलिंग्टन तक का काफी लंबा फासला था। कुछ देर बाद उसने मेरे कंधों पर अपना सिर टिका लिया और सोने लगी।

इस बीच मैंने एक-आध बार उसके चेहरे को देखा था - मुझे हैरानी हुई कि सोते हुए वह हू-ब-हू वैसी ही लग रही है, जैसी पहली बार मैंने उसे देखा था पार्क में पेड़ों के बीच-तल्लीन और साबुत। कबूतरों के लिए जो भटकाव आया था, वह अब कहीं न था। आँसू कब के सूख चले थे। नींद में वह उतनी ही मुकम्मिल जान पड़ती थी, जितनी झाड़ियों के बीच और तब मुझे अजीब-सा विचार आया। पार्क में उसने कई बार मुझे पकड़ा था, किंतु उसके सोते हुए तल्लीन चेहरे को देख कर मुझे लगा कि वह हमेशा से पकड़ी हुई लड़की है, जबकि मेरे जैसे लोग सिर्फ कभी-कभी पकड़ में आते हैं और उसे इसका कोई पता नहीं है और यह एक तरह का वरदान है, क्योंकि दूसरों को हमेशा छूटने का, मुक्त होने का भ्रम रहता है, जबकि बच्ची को इस तरह की कोई आशा नहीं थी। तब पहली बार मैंने उसे छूने का साहस किया। मैं धीरे-धीरे उसके गालों को छूने लगा, जो आँसुओं के बाद गर्म हो आए थे, कुछ वैसे ही, जैसे बारिश के बाद घास की पत्तियाँ हो जाती हैं।

वह जगी नहीं। ट्यूब-स्टेशन आने तक आराम से सोती रही।

उस रात बारिश शुरू हुई, सो हफ्ते-भर चलती रही। झूठी गर्मियों के दिन खत्म हो गए। सारे शहर पर पीली धुंध की परतें जमी रहतीं। सड़क पर चलते हुए कुछ भी दिखाई न देता-न पेड़, न लैंप पोस्ट, न दूसरे आदमी।

मुझे वे दिन याद हैं, क्योंकि उन्हीं दिनों मुझे काम मिला था। लंदन में वह मेरी पहली नौकरी थी। काम ज्यादा था लेकिन मुश्किल नहीं। एक पब में काउंटर के पीछे सात घंटे खड़ा रहना पड़ता था। बियर और लिकर के गिलास धोने पड़ते थे। ग्यारह बजे घंटी बजानी पड़ती थी और पियक्कड़ लोगों को बाहर खदेड़ना पड़ता था। कुछ दिन तक मैं कहीं बाहर न जा सका। घर लौटता और बिस्तर पकड़ लेता, मानो पिछले महीनों की नींद कोई पुराना बदला निकाल रही हो। नींद खुलती, तो बारिश दिखाई देती, जो घड़ी की टिक-टिक की तरह बराबर चलती रहती। कभी-कभी भ्रम होता कि मैं मर गया हूँ - और अपनी कब्र की दूसरी तरफ से - बारिश की टप-टप सुन रहा हूँ।

लेकिन एक दिन आकाश दिखाई दिया - पूरा नहीं - सिर्फ एक नीली डूबी-सी फाँक - और उसे देख कर मुझे अकस्मात पार्क के दिन याद हो आए, यहूदी रेस्तराँ की बिल्ली और बाजार जाती हुई मिसेज टामस। वह मेरी छुट्टी का दिन था। उस दिन मैंने अपने सबसे बढ़िया कपड़े पहने और कमरे से बाहर निकल आया।

लायब्रेरी खुली थी। सब पुराने चेहरे वहाँ दिखाई दिए। पार्क खाली पड़ा था। पेड़ों पर पिछले दिनों की बारिश चमक रही थी। वे सिकुड़े-से दिखाई देते थे, जैसे आनेवाली सर्दियों की अफवाह उन्हें छू गई हो।

मैं दोपहर तक प्रतीक्षा करता रहा। ग्रेता कहीं दिखाई न दी - न बेंच पर, न पेड़ों के पीछे। धीरे-धीरे पार्क का पीला, पतझड़ी आलोक मंद पड़ने लगा। पाँच बजे अस्पताल का गजर सुनाई दिया और मेरी आँखें अनायास फाटक की ओर उठ गईं।

कुछ देर तक कोई दिखाई नहीं दिया। फाटक के ऊपर लोहे का हैंडिल शाम की आखिरी धूप में चमक रहा था। उसके पीछे अस्पताल की लाल ईंटोंवाली इमारत दिखाई दे रही थी। मुझे मालूम था, उन्हें घर जाने के लिए पार्क के बीच से निकलना होगा, किंतु फिर भी मैं अनिश्चित निगाहों से कभी फाटक को देखता था, कभी सड़क को। यह खयाल भी आता था कि शायद आज उनकी ड्यूटी अस्पताल में न हो और वे दोनों घर में ही बैठी हों।

सड़क की बत्तियाँ जलने लगीं। मुझे अजीब-सी घबराहट हुई, जैसे प्रतीक्षा का अंत आ पहुँचा है और मैं उसे टालता जा रहा हूँ। मैं बेंच से उठ खड़ा हुआ-खड़े हो कर प्रतीक्षा करना ज्यादा आसान जान पड़ा। किंतु तभी मुझे फाटक के निकट सरसराहट सुनाई दी। उनके चेहरे को बाद में देखा, उनकी सफेद पोशाक पहले दिखाई दी। वे तेज कदमों से पार्क के बीच पगडंडी पर चल रही थीं। उन्होंने मुझे नहीं देखा था। यदि वे मेरी दिशा में आ रही होतीं, तो भी शायद धुँधलके में मुझे नहीं पहचान पातीं।

मैं भागता हुआ उनके पीछे चला आया।

'मिसेज पार्कर!' पहली बार मैंने उन्हें उनके नाम से बुलाया था।

वे ठहर गईं और भौंचक-सी मेरी ओर देखने लगीं। 'आप यहाँ कैसे?' अब भी वे अपने को नहीं सँभाल पाई थीं।

'मैं यहाँ दोपहर से बैठा हूँ।' मैंने मुस्कराते हुए कहा।

वे हकबकाई-सी मुझे देख रही थीं। उन्होंने मुझे पहचान लिया था, लेकिन जैसे उस पहचान का मतलब नहीं टोह पा रही थीं। मैं कुछ असमंजस में पड़ गया और सहज स्वर में पूछा, 'आज आप इतनी देर से लौट रही हैं? पाँच का गजर तो कब का बज चुका है?'

'पाँच का गजर?' उन्होंने विस्मय से पूछा।

'आप हमेशा पाँच बजे लौटती थीं।' मैंने कहा।

'ओह!' उन्हें याद आया, जैसे मैं किसी प्रागैतिहासिक घटना का उल्लेख कर रहा हूँ।

'आप लंदन में ही थे?' उन्होंने पूछा।

'मुझे काम मिल गया, इतने दिनों से इसलिए नहीं आ सका। ग्रेता कैसी है?'

वे हिचकिचाईं - एक छोटे क्षण की हिचकिचाहट, जो कुछ भी मानी नहीं रखती - लेकिन शाम के धुँधलके में मुझे वह अपशकुन-सा जान पड़ी।

'मैं आपको बताना चाहती थी, लेकिन मुझे आपका घर नहीं मालूम था...'

'वह ठीक है?'

'हाँ, ठीक है,' उन्होंने जल्दी में कहा, 'लेकिन वह अब यहाँ नहीं है। कुछ दिन पहले उसके पिता आए थे, वे उसे अपने साथ ले गए...'

मैं उन्हें देखता रहा। मेरे भीतर जो कुछ था, वह ठहर गया - मैं उसके भीतर था, ठहराव के, और वहाँ से दुनिया बिल्कुल बाहर दिखाई देती थी। मैंने कभी इतनी सफाई से बाहर को नहीं देखा था।

'कब की बात है?'

'जिस दिन आप उसके साथ ट्रिफाल्गर स्कैयर गए थे - उसके दूसरे दिन ही वे आए थे... आप जानते हैं, उन्हें वहाँ काम मिल गया है।'

'और आप?' मैंने कहा, 'आप यहाँ अकेली रहेंगी?'

'मैंने अभी कुछ सोचा नहीं है।' उन्होंने धीरे से सिर उठाया, आवाज हल्के से काँपती थी, और एक क्षण के लिए मुझे उनके चेहरे पर बच्ची दिखाई दी, ऊपर उठा हुआ होंठ और भीगी आँखें, हवा में उड़ते हुए कबूतरों को निहारती हुई।

'आप कभी घर जरूर आइएगा...' उन्होंने विदा माँगी और मैंने हाथ आगे बढ़ा दिया। मैं बहुत दूर तक उन्हें देखता रहा। फिर काफी देर तक बेंच पर बैठा रहा। मुझे कहीं नहीं जाना था, न ही प्रतीक्षा करनी थी। धीरे-धीरे पेड़ों के ऊपर तारे निकलने लगे। मैंने पहली बार लंदन के आकाश में इतने तारे देखे थे, साफ और चमकीले, जैसे बारिश ने उन्हें भी धो डाला हो।

'इट इज टाइम डियर!'

पार्क के चौकीदार ने दूर से ही आवाज लगाई। वह गेट की चाभियाँ खनखनाता हुआ पार्क का चक्कर लगा रहा था। टॉर्च की रोशनी में वह हर बेंच, झाड़ी और पेड़ के नीचे देख लेता था कि कहीं कोई छूट तो नहीं गया - कोई खोया हुआ बच्चा, कोई शराबी, कोई घरेलू बिल्ली।

वहाँ कोई नहीं था। कोई भी चीज नहीं छूटी थी। मैं उठ खड़ा हुआ और गेट की तरफ चलने लगा। सहसा हवा उठी थी। हल्का-सा झोंका अँधेरे में चला आया और पेड़ सरसराने लगे। और तब मुझे धीमी-सी आवाज सुनाई दी, एक असीम उत्साह में लिपटी हुई - 'स्टॉप... स्टॉप...' मेरे पाँव बीच पार्क में ठिठक गए। चारों ओर देखा। कोई न था। न कोई आवाज, न खटका - सिर्फ पेड़ों की शाखाएँ हवा में डोल रही थीं। उस समय एक पगली उत्कट, नंगी-सी, आकांक्षा मेरे भीतर जागने लगी कि यहीं बैठ जाऊँ। इन पेड़ों के बीच जहाँ मैं पहली बार पकड़ा गया था। मेरी अब और आगे जाने की इच्छा नहीं थी। मैं इस बार अंतिम और अनिवार्य रूप में पकड़ लिया जाना चाहता था...

'इट इज क्लोजिंग टाइम!' चौकीदार ने इस बार बहुत पास आ कर कहा, मेरी तरफ जिज्ञासा से देखा कि क्या मैं वही आदमी हूँ, जो अभी कुछ देर पहले बेंच पर बैठा था।

इस बार मैं नहीं मुड़ा। पार्क से बाहर आ कर ही साँस ली। मेरा गला सूख गया था और देह खोखली-सी जान पड़ती थी। पार्क में सामने पब की लालटेन झूलती दिखाई दी। मैंने जेब से पर्स निकाला, पैसे गिनने के लिए। पुरानी गरीबी की यह आदत अब भी बची थी। मैंने हैरानी से देखा कि मेरे पास पूरे दो पौंड हैं - और तब मुझे याद आया कि मैं उन्हें कबूतरों के दानों के लिए लाया था।

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Monday, September 21, 2020

देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना


यदि तुम्हारे घर के

एक कमरे में आग लगी हो

तो क्या तुम

दूसरे कमरे में सो सकते हो?

यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में

लाशें सड़ रहीं हों

तो क्या तुम

दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?

यदि हाँ

तो मुझे तुम से

कुछ नहीं कहना है।


देश कागज पर बना

नक्शा नहीं होता

कि एक हिस्से के फट जाने पर

बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें

और नदियां, पर्वत, शहर, गांव

वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें

अनमने रहें।

यदि तुम यह नहीं मानते

तो मुझे तुम्हारे साथ

नहीं रहना है।


इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा

कुछ भी नहीं है

न ईश्वर

न ज्ञान

न चुनाव

कागज पर लिखी कोई भी इबारत

फाड़ी जा सकती है

और जमीन की सात परतों के भीतर

गाड़ी जा सकती है।


जो विवेक

खड़ा हो लाशों को टेक

वह अंधा है

जो शासन

चल रहा हो बंदूक की नली से

हत्यारों का धंधा है

यदि तुम यह नहीं मानते

तो मुझे

अब एक क्षण भी

तुम्हें नहीं सहना है।


याद रखो

एक बच्चे की हत्या

एक औरत की मौत

एक आदमी का

गोलियों से चिथड़ा तन

किसी शासन का ही नहीं

सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन।


ऐसा खून बहकर

धरती में जज्ब नहीं होता

आकाश में फहराते झंडों को

काला करता है।

जिस धरती पर

फौजी बूटों के निशान हों

और उन पर

लाशें गिर रही हों

वह धरती

यदि तुम्हारे खून में

आग बन कर नहीं दौड़ती

तो समझ लो

तुम बंजर हो गये हो-

तुम्हें यहां सांस लेने तक का नहीं है अधिकार

तुम्हारे लिए नहीं रहा अब यह संसार।


आखिरी बात

बिल्कुल साफ

किसी हत्यारे को

कभी मत करो माफ

चाहे हो वह तुम्हारा यार

धर्म का ठेकेदार,

चाहे लोकतंत्र का

स्वनामधन्य पहरेदार।

व्यंग्य मत बोलो - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना (Vyangya Mat Bolo by Sarveshwar Dayal Saxena)


व्यंग्य मत बोलो।

काटता है जूता तो क्या हुआ

पैर में न सही

सिर पर रख डोलो।

व्यंग्य मत बोलो।


अंधों का साथ हो जाये तो

खुद भी आँखें बंद कर लो

जैसे सब टटोलते हैं

राह तुम भी टटोलो।

व्यंग्य मत बोलो।


क्या रखा है कुरेदने में

हर एक का चक्रव्यूह कुरेदने में

सत्य के लिए

निरस्त्र टूटा पहिया ले

लड़ने से बेहतर है

जैसी है दुनिया

उसके साथ होलो

व्यंग्य मत बोलो।


भीतर कौन देखता है

बाहर रहो चिकने

यह मत भूलो

यह बाज़ार है

सभी आए हैं बिकने

राम राम कहो

और माखन मिश्री घोलो।

व्यंग्य मत बोलो।

सदाचार का ताबीज़ - हरिशंकर परसाई (Sadachaar Ka Tabeez by Harishankar Parsai)


एक राज्य में हल्ला मचा कि भ्रष्टाचार बहुत फ़ैल गया है ।

राजा ने एक दिन दरबारियों से कहा, "प्रजा बहुत हल्ला मचा रही है कि सब जगह भ्रष्टाचार फैला हुआ है । हमें तो आज तक कहीं नहीं दिखा । तुम लोगों को नहीं दिखा हो तो बताओ।"

दरबारियों ने कहा- "जब हुजूर को नहीं दिखा तो हमें कैसे दिख सकता है ?"

राजा ने कहा- "नहीं, ऐसा नहीं है। कभी-कभी जो मुझे नहीं दीखता, वह तुम्हे दीखता होगा । जैसे मुझे बुरे सपने कभी नहीं दीखते, पर तुम्हें दिखते होंगे!"

दरबारियों ने कहा- "जी, दिखते हैं । पर वह सपनों की बात है ।"

राजा ने कहा- "फिर भी तुम लोग सारे राज्य में ढूंढ़ कर देखो कि कहीं भ्रष्टाचार तो नहीं है । अगर कहीं मिल जाए तो हमारे देखने के लिए नमूना लेते आना । हम भी तो देखें कि कैसा होता है ।"

एक दरबारी ने कहा- "हुज़ूर, वह हमें नहीं दिखेगा । सूना है, वह बहुत बारीक होता है । हमारी आँखें आपकी विराटता देखने की इतनी आदत हो गई है कि हमें बारीक चीज़ नहीं दिखती। (what a चापलूस) हमें भ्रष्टाचार दिखा भी तो उसमें हमें आपकी ही छवि दिखेगी, क्योंकि हमारी आँखों में तो आपकी ही सूरत बसी है । पर अपने राज्य में एक जाति रहती है जिसे "विशेषज्ञ" कहते हैं । इस जाति के पास कुछ ऐसा अंजन (काजल) होता है कि उसे आँखों में आँजकर (लगाकर) वे बारीक से बारीक चीज़ भी देख लेते हैं । मेरा निवेदन है कि इन विशेषज्ञों को ही हुज़ूर भ्रष्टाचार ढूंढ़ने का काम सौंपे ।"

राजा ने "विशेषज्ञ" जाति के पाँच आदमी बुलाए और कहा- "सुना है, हमारे राज्य में भ्रष्टाचार है । पर वह कहाँ है, यह पता नहीं चलता । तुम लोग उसका पता लगाओ । अगर मिल जाए तो पकड़कर हमारे पास ले आना । अगर बहुत हो तो नमूने के लिए थोड़ा-सा ले आना ।"

विशेषज्ञों ने उसी दिन से छान-बीन शुरू क्र दी ।

दो महीने बाद वे फिर से दरबार में हाजिर हुए ।

राजा ने पूछा- "विशेषज्ञों,तुम्हारी जाँच पूरी हो गई ?"

"जी, सरकार ।"

"क्या, तुम्हेँ भ्रष्टाचार मिला ।"

"जी, बहुत सा मिला ।"

राजा ने हाथ बढ़ाया- "लाओ मुझे बताओ । देखूँ कैसा होता है ।"

विशेषज्ञों ने कहा- "हुजूर, वह हाथ की पकड़ में नहीँ आता । वह स्थूल नहीं, सूक्ष्म है, अगोचर है । पर वह सर्वत्र व्याप्त है । उसे देखा नहीं जा सकता, अनुभव किया जा सकता है ।

राजा सोच में पड़ गए । बोले_ "विशेषज्ञों, तुम कहते हो कि वह सूक्ष्म है, अगोचर है और सर्वव्यापी है । ये गुण तो ईश्वर के हैं । तो क्या भ्रष्टाचार ईश्वर है ?"

विशेषज्ञों ने कहा- "हाँ, महाराज, अब भ्रष्टाचार ईश्वर हो गया है ।"

एक दरबारी ने पूछा- "पर वह है कहाँ ? कैसे अनुभव होता है ?"

विशेषज्ञों ने जवाब दिया- "वह सर्वत्र है । वह इस भवन में है । वह महाराज के सिंहासन में है ।"

"सिंहासन में है !" कहकर राजा साहब उछलकर दूर खड़े हो गए ।

विशेषज्ञों ने कहा- "हाँ, सरकार सिंहासन में है । पिछले माह इस सिंहासन पर रंग करने के जिस बिल का भुगतान किया गया है, वह बिल झूठा है । वह वास्तव में दुगुने दाम का है । आधा पैसा बीच वाले खा गए । आपके पुरे शासन में भ्रष्टाचार है और वह मुख्यत: घूस के रूप में है ।"

विशेषज्ञों की बात सुनकर राजा चिन्तित हुए और दरबारियों के कान खड़े हुए ।

राजा ने कहा- "यह तो बड़ी चिन्ता की बात है । हम भ्रष्टाचार बिल्कुल मिटाना चाहते हैं । विशेषज्ञो, तुम बता सकते हो कि वह कैसे मिट सकता है ?"

विशेषज्ञों ने कहा- "हाँ महाराज, हमने उसकी भी योजना तैयार की है । भ्रष्टाचार मिटाने के लिए महाराज को व्यवस्था में बहुत परिवर्तन करने होंगे । एक तो भ्रष्टाचार के मौके मिटाने होंगे । जैसे ठेका है तो ठेकेदार हैं और ठेकेदार है तो अधिकारियों को घूस है । ठेका मिट जाए तो उसकी घूस मिट जाए । इसी तरह और बहुत सी चीज है । किन कारणों से आदमी घूस लेता है, यह भी विचरणीय है ।"

राजा ने कहा- "अच्छा, तुम अपनी पूरी योजना रख जाओ । हम और हमारा दरबार उस पर विचार करेंगे ।"

विशेषज्ञ चले गए ।

राजा ने और दरबारियों ने भ्रष्टाचार मिटाने की योजना को पढ़ा । उस पर विचार किया ।

विचार करते दिन बीतने लगे और राजा का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा ।

एक दिन एक दरबारी ने कहा- "महाराज, चिन्ता के कारण आपका स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा है । उन विशेषज्ञों ने आपको झंझट में डाल दिया ।"

राजा ने कहा- "हाँ, मुझे रात को नींद नहीं आती ।"

दुसरा दरबारी बोला- "ऐसी रिपोर्ट को आग के हवाले कर देना चाहिए जिससे महाराज की नींद में खलल पड़े ।"

राजा ने कहा- "पर करें क्या? तुम लोगों ने भी भ्रष्टाचार मिटाने की योजना का अध्ययन किया है । तुम्हारा क्या मत है? क्या उसे काम में लाना चाहिए?"

दरबारियों ने कहा- "महाराज, वह योजना क्या है, एक मुसीबत है । उसके अनुसार कितने उलट-फेर करने पड़ेंगे ! कितनी परेशानी होगी ! सारी व्यवस्था उलट-पलट हो जाएगी । जो चला आ रहा है, उसे बदलने से नई-नई कठिनाइयाँ पैदा हो सकती हैं । हमें तो कोई ऐसी तरकीब चाहिए जिससे बिना कुछ उलट-फेर किए भ्रष्टाचार मिट जाए ।"

राजा साहब बोले- "मैं भी यही चाहता हूँ । पर यह हो कैसे ? हमारे प्रपितामह को तो जादू आता था; हमें वह भी नहीं आता । तुम लोग ही कोई उपाय खोजो ।"

एक दिन दरबारियों ने राजा के सामने एक साधु को पेश किया और कहा- "महाराज, एक कन्दरा में तपस्या करते हुए इस महान साधक को हम ले आये हैं । इन्होंने सदाचार का तावीज़ बनाया है । वह मन्त्रों से सिद्ध है और उसके बाँधने से आदमी एकदम सदाचारी हो जाता है ।"

साधु ने अपने झोले में से एक तावीज़ निकालकर राजा को दिया । राजा ने उसे देखा । बोले- "हे साधु, इस तावीज़ के विषय में मुझे विस्तार से बताओ । इससे आदमी सदाचारी कैसे हो जाता है ?"

साधु ने समझाया- "महाराज, भ्रष्टाचार और सदाचार मनुष्य की आत्मा में होता है; बाहर से नहीं होता । विधाता जब मनुष्य क0 बनाता है तब किसी की आत्मा में ईमान की कल फिट कर देता है और किसी की आत्मा में बेईमानी की । इस कल में से ईमान या बेईमानी के स्वर निकलते हैं, जिन्हें 'आत्मा की पुकार' कहते हैं । आत्मा की पुकार के अनुसार आदमी काम करता है । प्रश्न यह है कि जिनकी आत्मा से बेईमानी के स्वर निकलते हैं, उन्हें दबाकर ईमान के स्वर कैसे निकाले जाएँ ? मैं कई वर्षों से इसी के चिंतन में लगा हूँ । अभी मैंने यह सदाचार का तावीज़ बनाया है । जिस आदमी की भुजा पर यह बंधा होगा, वह सदाचारी हो जाएगा । मैंने <b>कुत्ते</b> पर भी इसका प्रयोग किया है । यह तावीज़ गले में बाँध देने से कुत्ता भी रोटी नहीं चुरातात । बात यह है कि इस तावीज़ में से भी सदाचार के स्वर निकलते हैं । जब किसी की आत्मा बेईमानी के स्वर निकालने लगती है तब इस तावीज़ की शक्ति आत्मा का गला घोंट देती है और आदमी को तावीज़ से ईमान के स्वर सुनाई पड़ते हैं । वह इन स्वरों को आत्मा की पुकार समझकर सदाचार की ओर प्रेरित होता है । यही इस तावीज़ का गुण है, महाराज!"

दरबार में हलचल मच गई । दरबारी उठ-उठकर तावीज़ को देखने लगे ।

राजा ने खुश होकर कहा- "मुझे नहीं मालूम था कि मेरे राज्य में ऐसे चमत्कारी साधु भी हैं । महात्मन्, हम आपके बहुत आभारी हैं । आपने हमारा संकट हर लिया । हम सर्वव्यापी भ्रष्टाचार से बहुत परेशान थे । मगर हमें लाखों नहीं, करोड़ों तावीज़ चाहिए । हम राज्य की ओर से तावीज़ों का कारखाना खोल देते हैं ।आप उसके जनरल मैनेजर बन जाएँ और अपनी देख रेख में बढ़िया तावीज़ बनवाएँ ।"

एक मन्त्री ने कहा- "महाराज, राज्य क्यों झंझट में पड़े ? मेरा तो निवेदन है कि साधु बाबा को ठेका दे दिया जाए । वे अपनी मण्डली से तावीज़ बनवा कर राज्य को सप्लाई कर देंगे ।"

राजा को यह सुझाव पसन्द आया । साधु को तावीज़ बनाने का ठेका दे दिया गया । उसी समय उन्हें पाँच करोड़ रूपये कारखाना खोलने के लिए पेशगी मिल गए ।

राज्यों के अखबारों में खबरें छपीं-सदाचार के तावीज़ की खोज ! तावीज़ बनाने का कारखाना खुला!'

लाखों तावीज़ बन गए । सरकार के हर सरकारी कर्मचारी की भुजा पर एक-एक तावीज़ बाँध दिया गया ।

भ्रष्टाचार की समस्या का ऐसा सरल हल निकल आने से राजा और दरबारी सब खुश थे ।

एक दिन राजा की उत्सुकता जागी । सोचा- "देखें तो क्या यह तावीज़ कैसे काम करता है !"

वह वेश बदलकर एक कार्यालय गए । उस दिन 2 तारीख थी । एक दिन पहले तनख्वाह मिली थी ।

वह एक कर्मचारी के पास गए और कई काम बताकर उसे पाँच रूपये का नोट देने लगे ।

कर्मचारी ने उन्हें डाँटा- "भाग जाओ यहाँ से! घूस लेना पाप है !"

राजा बहुत खुश हुए । तावीज़ ने कर्मचारी को ईमानदार बना दिया था ।

कुछ दिन बाद वह फिर वेश बदलकर उसी कर्मचारी के पास गए । उस दिन इकत्तीस तारीख थी-महीने का आखरी दिन ।

राजा ने फिर से पाँच का नोट दिखाया और उसने लेकर जेब में रख लिया ।

राजा ने उसका हाथ पकड़ लिया । बोले- "मैं तुम्हारा राजा हूँ । क्या तुम आज सदाचार का तावीज़ बाँधकर नहीं आए ?"

"बाँधा है, सरकार, यह देखिए !"

उसने आस्तीन चढ़ाकर तावीज़ दिखा दिया ।

राजा असमन्जस में पड़ गए । फिर ऐसा कैसे हो गया ?

उन्होंने तावीज़ पर कान लगाकर सुना । तावीज़ में से स्वर निकल रहे थे- "अरे, आज इकत्तीस है । आज तो ले ले!" 

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विकलांग श्रद्धा का दौर – हरिशंकर परसाई (Viklang Shradhha Ka Daur by Harishankar Parsai)


अभी-अभी एक आदमी मेरे चरण छूकर गया है। मैं बड़ी तेजी से श्रद्धेय हो रहा हूं, जैसे कोई चलतू औरत शादी के बाद बड़ी फुर्ती से पतिव्रता होने लगती है। यह हरकत मेरे साथ पिछले कुछ महीनों से हो रही है कि जब-तब कोई मेरे चरण छू लेता है। पहले ऐसा नहीं होता था। हॉं, एक बार हुआ था, पर वह मामला वहीं रफा-दफा हो गया। कई साल पहले एक साहित्यिक समारोह में मेरी ही उम्र के एक सज्जन ने सबके सामने मेरे चरण छू लिए। वैसे चरण छूना अश्लील कृत्य की तरह अकेले में ही किया जाता है। पर वह सज्जन सार्वजनिक रूप से कर बैठे, तो मैंने आसपास खड़े लोगों की तरफ गर्व से देखा- तिलचट्टों देखो मैं श्रद्धेय हो गया। तुम घिसते रहो कलम। पर तभी उस श्रद्धालु ने मेरा पानी उतार दिया। उसने कहा-, “अपना तो यह नियम है कि गौ, ब्राह्मण, कन्या के चरण जरूर छूते हैं।” यानी उसने मुझे बड़ा लेखक नहीं माना था। बम्हन माना था।

श्रद्धेय बनने की मेरी इच्छा तभी मर गई थी। फिर मैंने श्रद्धेयों की दुर्गति भी देखी। मेरा एक साथी पी-एच.डी. के लिए रिसर्च कर रहा था। डॉक्टरेट अध्ययन और ज्ञान से नहीं, आचार्य-कृपा से मिलती है। आचार्यों की कृपा से इतने डॉक्टर हो गए हैं कि बच्चे खेल-खेल में पत्थर फेंकते हैं तो किसी डॉक्टर को लगता है। एक बार चौराहे पर यहॉं पथराव हो गया। पॉंच घायल अस्पताल में भर्ती हुए और वे पॉंचों हिंदी के डॉक्टर थे। नर्स अपने अस्पताल के डॉक्टर को पुकारती: ‘डॉक्टर साहब’ तो बोल पड़ते थे ये हिंदी के डॉक्टर।

मैंने खुद कुछ लोगों के चरण छूने के बहाने उनकी टांग खींची है। लँगोटी धोने के बहाने लँगोटी चुराई है। श्रद्धेय बनने की भयावहता मैं समझ गया था। वरना मैं समर्थ हूं। अपने आपको कभी का श्रद्धेय बना लेता। मेरे ही शहर में कॉलेज में एक अध्यापक थे। उन्होने अपने नेम-प्लेट पर खुद ही ‘आचार्य’ लिखवा लिया था। मैं तभी समझ गया था कि इस फूहड़पन में महानता के लक्षण हैं। आचार्य बंबईवासी हुए और वहॉं उन्होने अपने को ‘भगवान रजनीश’ बना डाला। आजकल वह फूहड़ से शुरू करके मान्यता प्राप्त भगवान हैं। मैं भी अगर नेम-प्लेट में नाम के आगे ‘पंडित’ लिखवा लेता तो कभी का ‘पंडितजी’ कहलाने लगता।

सोचता हूं, लोग मेरे चरण अब क्यों छूने लगे हैं? यह श्रद्धा एकाएक कैसे पैदा हो गई? पिछले महीनों में मैंने ऐसा क्या कर डाला? कोई खास लिखा नहीं है। कोई साधना नहीं की। समाज का कोई कल्याण भी नहीं किया। दाड़ी नहीं बढ़ाई। भगवा भी नहीं पहना। बुजुर्गी भी कोई नहीं आई। लोग कहते हैं, ये वयोवृद्ध हैं। और चरण छू लेते हैं। वे अगर कमीने हुए तो उनके कमीनेपन की उम्र भी 60-70 साल हुई। लोग वयोवृद्ध कमीनेपन के भी चरण छू लेते हैं। मेरा कमीनापन अभी श्रद्धा के लायक नहीं हुआ है। इस एक साल में मेरी एक ही तपस्या है- टांग तोड़कर अस्पताल में पड़ा रहा हूं। हड्डी जुड़ने के बाद भी दर्द के कारण टांग फुर्ती से समेट नहीं सकता। लोग मेरी इस मजबूरी का नाजायज फायदा उठाकर झट मेरे चरण छू लेते हैं। फिर आराम के लिए मैं तख्त पर लेटा ही ज्यादा मिलता हूं। तख्त ऐसा पवित्र आसन है कि उस पर लेटे दुरात्मा के भी चरण छूने की प्रेरणा होती है।

क्या मेरी टांग में से दर्द की तरह श्रद्धा पैदा हो गई है? तो यह विकलांग श्रद्धा है। जानता हूं, देश में जो मौसम चल रहा है, उसमें श्रद्धा की टांग टूट चुकी है। तभी मुझे भी यह विकलांग श्रद्धा दी जा रही है। लोग सोचते होंगे- इसकी टांग टूट गई है। यह असमर्थ हो गया। दयनीय है। आओ, इसे हम श्रद्धा दे दें।

हां, बीमारी में से श्रद्धा कभी-कभी निकलती है। साहित्य और समाज के एक सेवक से मिलने मैं एक मित्र के साथ गया था। जब वह उठे तब उस मित्र ने उनके चरण छू लिए। बाहर आकर मैंने मित्र से कहा- “यार तुम उनके चरण क्यों छूने लगे?” मित्र ने कहा- “तुम्हें पता नहीं है, उन्हे डायबटीज हो गया है?” अब डायबटीज श्रद्धा पैदा करे तो टूटी टांग भी कर सकती है। इसमें कुछ अटपटा नहीं है। लोग बीमारी से कौन फायदे नहीं उठाते। मेरे एक मित्र बीमार पड़े थे। जैसे ही कोई स्त्री उन्हें देखने आती, वह सिर पकड़कर कराहने लगते। स्त्री पूछती- “क्या सिर में दर्द है?” वे कहते- “हां, सिर फटा पड़ता है।” स्त्री सहज ही उनका सिर दबा देती। उनकी पत्नी ने ताड़ लिया। कहने लगी- “क्यों जी, जब कोई स्त्री तुम्हें देखने आती है तभी तुम्हारा सिर क्यों दुखने लगता है?” उसने जवाब भी माकूल दिया। कहा- “तुम्हारे प्रति मेरी इतनी निष्ठा है कि परस्त्री को देखकर मेरा सिर दुखने लगता है। जान प्रीत-रस इतनेहु माहीं।”

श्रद्धा ग्रहण करने की भी एक विधि होती है। मुझसे सहज ढंग से अभी श्रद्धा ग्रहण नहीं होती। अटपटा जाता हूं। अभी ‘पार्ट टाइम’ श्रद्धेय ही हूं। कल दो आदमी आए। वे बात करके जब उठे तब एक ने मेरे चरण छूने को हाथ बढ़ाया। हम दोनों ही नौसिखुए। उसे चरण छूने का अभ्यास नहीं था, मुझे छुआने का। जैसा भी बना उसने चरण छू लिए। पर दूसरा आदमी दुविधा में था। वह तय नहीं कर पा रहा था कि मेरे चरण छुए या नहीं। मैं भिखारी की तरह से देख रहा था। वह थोड़ा सा झुका। मेरी आशा उठी। पर वह फिर सीधा हो गया। मैं बुझ गया। उसने फिर जी कड़ा करके कोशिश की। थोड़ा झुका। मेरे पांवों में फड़कन उठी। फिर वह असफल रहा। वह नमस्ते करके ही चला गया। उसने अपने साथी से कहा होगा- तुम भी यार कैसे टुच्चों के चरण छूते हो। मेरे श्रद्धालु ने जवाब दिया होगा- काम निकालने को उल्लुओं से ऐसा ही किया जाता है। इधर मुझे दिन-भर ग्लानि रही। मैं हीनता से पीडि़त रहा। उसने मुझे श्रद्धा के लायक नहीं समझा। ग्लानि शाम को मिटी जब एक कवि ने मेरे चरण छुए। उस समय मेरे एक मित्र बैठे थे। चरण छूने के बाद उसने मित्र से कहा, “मैंने साहित्य में जो कुछ सीखा है, परसाईजी से।” मुझे मालूम है, वह कवि सम्मेलनों में हूट होता है। मेरी सीख का क्या यही नतीजा है? मुझे शर्म से अपने-आपको जूता मार लेना था। पर मैं खुश था। उसने मेरे चरण छू लिए थे।

अभी कच्चा हूं। पीछे पड़ने वाले तो पतिव्रता को भी छिनाल बना देते हैं। मेरे ये श्रद्धालु मुझे पक्का श्रद्धेय बनाने पर तुले हैं। पक्के सिद्ध-श्रद्धेय मैंने देखे हैं। सिद्ध मकरध्वज होते हैं। उनकी बनावट ही अलग होती है। चेहरा, आंखे खींचने वाली। पांव ऐसे कि बरबस आदमी झुक जाए। पूरे व्यक्तित्व पर ‘श्रद्धेय’ लिखा होता है। मुझे ये बड़े बौड़म लगते हैं। पर ये पक्के श्रद्धेय होते हैं। ऐसे एक के पास मैं अपने मित्र के साथ गया था। मित्र ने उनके चरण छुए जो उन्होंने विकट ठंड में भी श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए चादर से बाहर निकाल रखे थे। मैंने उनके चरण नहीं छुए। नमस्ते करके बैठ गया। अब एक चमत्कार हुआ। होना यह था कि उन्हें हीनता का बोध होता कि मैंने उन्हें श्रद्धा के योग्य नहीं समझा। हुआ उल्टा। उन्होंने मुझे देखा। और हीनता का बोध मुझे होने लगा- हाय मैं इतना अधम कि अपने को इनके पवित्र चरणों को छूने के लायक नहीं समझता। सोचता हूं, ऐसा बाध्य करने वाला रोब मुझ ओछे श्रद्धेय में कब आयेगा।

श्रद्धेय बन जाने की इस हल्की सी इच्छा के साथ ही मेरा डर बरकरार है। श्रद्धेय बनने का मतलब है ‘नान परसन’-‘अव्यक्ति’ हो जाना। श्रद्धेय वह होता है जो चीजों को हो जाने दे। किसी चीज का विरोध न करे- जबकि व्यक्ति की, चरित्र की, पहचान ही यह है कि वह किन चीजों का विरोध करता है। मुझे लगता है, लोग मुझसे कह रहे हैं- तुम अब कोने में बैठो। तुम दयनीय हो। तुम्हारे लिए सब कुछ हो जाया करेगा। तुम कारण नहीं बनोगे। मक्खी भी हम उड़ाएंगे।

और फिर श्रद्धा का यह कोई दौर है देश में? जैसा वातावरण है, उसमें किसी को भी श्रद्धा रखने में संकोच होगा। श्रद्धा पुराने अखबार की तरह रद्दी में बिक रही है। विश्वास की फसल को तुषार मार गया। इतिहास में शायद कभी किसी जाति को इस तरह श्रद्धा और विश्वास से हीन नहीं किया गया होगा। जिस नेतृत्व पर श्रद्धा थी, उसे नंगा किया जा रहा है। जो नया नेतृत्व आया है, वह उतावली में अपने कपड़े खुद उतार रहा है। कुछ नेता तो अंडरवियर में ही हैं। कानून से विश्वास गया। अदालत से विश्वास छीन लिया गया। बुद्धिजीवियों की नस्ल पर ही शंका की जा रही है। डॉक्टरों को बीमारी पैदा करने वाला सिद्ध किया जा रहा है। कहीं कोई श्रद्धा नहीं विश्वास नहीं।

अपने श्रद्धालुओं से कहना चाहता हूं- “यह चरण छूने का मौसम नहीं, लात मारने का मौसम है। मारो एक लात और क्रांतिकारी बन जाओ।”

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Sunday, September 20, 2020

आवारा भीड़ के खतरे - हरिशंकर परसाई (Awara Bheed Ke Khatre by Harishankar Parsai)


एक अंतरंग गोष्ठी सी हो रही थी युवा असंतोष पर। इलाहाबाद के लक्ष्मीकांत वर्मा ने बताया - पिछली दीपावली पर एक साड़ी की दुकान पर काँच के केस में सुंदर साड़ी से सजी एक सुंदर मॉडल खड़ी थी। एक युवक ने एकाएक पत्थर उठाकर उस पर दे मारा। काँच टूट गया। आसपास के लोगों ने पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया? उसने तमतमाए चेहरे से जवाब दिया - हरामजादी बहुत खूबसूरत है।

हम 4-5 लेखक चर्चा करते रहे कि लड़के के इस कृत्य का क्या कारण है? क्या अर्थ है? यह कैसी मानसिकता है? यह मानसिकता क्यों बनी? बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ये सवाल दुनिया भर में युवाओं के बारे में उठ रहे हैं - पश्चिम से संपन्न देशों में भी और तीसरी दुनिया के गरीब देशों में भी। अमेरिका से आवारा हिप्पी और ‘हरे राम और हरे कृष्ण’ गाते अपनी व्यवस्था से असंतुष्ट युवा भारत आते हैं और भारत का युवा लालायित रहता है कि चाहे चपरासी का नाम मिले, अमेरिका में रहूँ। ‘स्टेट्स’ जाना यानि चौबीस घंटे गंगा नहाना है। ये अपवाद हैं। भीड़-की-भीड़ उन युवकों की है जो हताश, बेकार और क्रुद्ध हैं। संपन्न पश्चिम के युवकों के व्यवहार के कारण भिन्न हैं। सवाल है -उस युवक ने सुंदर मॉडल पर पत्थर क्यों फेंका? हरामजादी बहुत खूबसूरत है - यह उस गुस्से का कारण क्यों? वाह, कितनी सुंदर है - ऐसा इस तरह के युवक क्यों नहीं कहते?

युवक साधारण कुरता पाजामा पहिने था। चेहरा बुझा था जिसकी राख में चिंगारी निकली थी पत्थर फेंकते वक्त। शिक्षित था। बेकार था। नौकरी के लिए भटकता रहा था। धंधा कोई नहीं। घर की हालत खराब। घर में अपमान, बाहर अवहेलना। वह आत्म ग्लानि से क्षुब्ध। घुटन और गुस्सा एक नकारात्क भावना। सबसे शिकायत। ऐसी मानसिकता में सुंदरता देखकर चिढ़ होती है। खिले फूल बुरे लगते हैं। किसी के अच्छे घर से घृणा होती है। सुंदर कार पर थूकने का मन होता है। मीठा गाना सुनकर तकलीफ होती है। अच्छे कपड़े पहिने खुशहाल साथियों से विरक्ति होती है। जिस भी चीज से, खुशी, सुंदरता, संपन्नता, सफलता, प्रतिष्ठा का बोध होता है, उस पर गुस्सा आता है।

बूढ़े-सयाने स्कूल का लड़का अब मिडिल स्कूल में होता है तभी से शिकायत होने लगती है। वे कहते हैं - ये लड़के कैसे हो गए? हमारे जमाने में ऐसा नहीं था। हम पिता, गुरु, समाज के आदरणीयों की बात सिर झुकाकर मानते थे। अब ये लड़के बहस करते हैं। किसी को नहीं मानते। मैं याद करता हूँ कि जब मैं छात्र था, तब मुझे पिता की बात गलत तो लगती थी, पर मैं प्रतिवाद नहीं करता था। गुरु का भी प्रतिवाद नहीं करता था। समाज के नेताओं का भी नहीं। मगर तब हम छात्रों को जो किशोरावस्था में थे, जानकारी ही क्या थी? हमारे कस्बे में कुल दस-बारह अखबार आते थे। रेडियो नहीं। स्वतंत्रता संग्राम का जमाना था। सब नेता हमारे हीरो थे - स्थानीय भी और जवाहर लाल नेहरू भी। हम पिता, गुरु, समाज के नेता आदि की कमजोरियाँ नहीं जानते थे। मुझे बाद में समझ में आया कि मेरे पिता कोयले के भट्टों पर काम करने वाले गोंडों का शोषण करते थे। पर अब मेरा ग्यारह साल का नाती पाँचवी कक्षा का छात्र है। वह सवेरे अखबार पढ़ता है, टेलीवीजन देखता है, रेडियो सुनता है। वह तमाम नेताओं की पोलें जानता है। देवीलाल और ओमप्रकाश चौटाला की आलोचना करता है। घर में उससे कुछ ऐसा करने को कहो तो वह प्रतिरोध करता है। मेरी बात भी तो सुनो। दिन भर पढ़कर आया हूँ। अब फिर कहते ही कि पढ़ने बैठ जाऊँ।

थोड़ी देर खेलूँगा तो पढ़ाई भी नहीं होगी। हमारी पुस्तक में लिखा है। वह जानता है घर में बड़े कब-कब झूठ बोलते हैं।

ऊँची पढ़ाईवाले विश्वविद्यालय के छात्र सवेरे अखबार पढ़ते हैं, तो तमाम राजनीति और समाज के नेताओं के भ्रष्टाचार, पतनशीलता के किस्से पढ़ते हैं। अखबार देश को चलानेवालों और समाज के नियामकों के छल, कपट, प्रपंच, दुराचार की खबरों से भरे रहते हैं। धर्माचार्यों की चरित्रहीनता उजागर होती है। यही नेता अपने हर भाषण हर उपदेश में छात्रों से कहते हैं - युवकों, तुम्हें देश का निर्माण करना है (क्योंकि हमने नाश कर दिया है) तुम्हें चरित्रवान बनना है (क्योंकि हम तो चरित्रहीन हैं) शिक्षा का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं है, नैतिक चरित्र को ग्रहण करना है - (हमने शिक्षा और अशिक्षा से पैसा कमाना और अनैतिक होना सीखा) इन नेताओं पर छात्रों-युवकों की आस्था कैसे जमे? छात्र अपने प्रोफेसरों के बारे सब जानते हैं। उनका ऊँचा वेतन लेना और पढ़ाना नहीं। उनकी गुटबंदी, एक-दूसरे की टाँग खींचना, नीच कृत्य, द्वेषवश छात्रों को फेल करना, पक्षपात, छात्रों का गुटबंदी में उपयोग। छात्रों से कुछ नहीं छिपा रहता अब। वे घरेलू मामले जानते हैं। ऐसे गुरुओं पर छात्र कैसे आस्था जमाएँ। ये गुरु कहते हैं छात्रों को क्रांति करना है। वे क्रांति करने लगे, तो पहले अपने गुरुओं को साफ करेंगे। अधिकतर छात्र अपने गुरु से नफरत करते हैं।

बड़े लड़के अपने पिता को भी जानते हैं। वे देखते हैं कि पिता का वेतन तो सात हजार है, पर घर का ठाठ आठ हजार रुपयों का है। मेरा बाप घूस खाता है। मुझे ईमानदारी के उपदेश देता है। हमारे समय के लड़के-लड़कियों के लिए सूचना और जानकारी के इतने माध्यम खुले हैं, कि वे सब क्षेत्रों में अपने बड़ों के बारे में सबकुछ जानते हैं। इसलिए युवाओं से ही नहीं बच्चों तक से पहले की तरह की अंध भक्ति और अंध आज्ञाकारिता की आशा नहीं की जा सकती। हमारे यहाँ ज्ञानी ने बहुत पहले कहा था - प्राप्तेषु षोडसे वर्षे पुत्र मित्र समाचरेत। उनसे बात की जा सकती है, उन्हें समझाया जा सकता है। कल परसों मेरा बारह साल का नाती बाहर खेल रहा था। उसकी परीक्षा हो चुकी है और एक लंबी छुट्टी है। उससे घर आने के लिए उसके चाचा ने दो-तीन बार कहा। डाँटा। वह आ गया और रोते हुए चिल्लाया हम क्या करें? ऐसी तैसी सरकार की जिसने छुट्टी कर दी। छुट्टी काटना उसकी समस्या है। वह कुछ तो करेगा ही। दबाओगे तो विद्रोह कर देगा। जब बच्चे का यह हाल है तो किशोरों और तरुणों की प्रतिक्रियाएँ क्या होंगी।

युवक-युवतियों के सामने आस्था का संकट है। सब बड़े उनके सामने नंगे हैं। आदर्शों, सिद्धांतों, नैतिकताओं की धज्जियाँ उड़ते वे देखते हैं। वे धूर्तता, अनैतिकता, बेईमानी, नीचता को अपने सामने सफल एवं सार्थक होते देखते हैं। मूल्यों का संकट भी उनके सामने है। सब तरफ मूल्यहीनता उन्हें दिखती है। बाजार से लेकर धर्मस्थल तक। वे किस पर आस्था जमाएँ और किस के पदचिह्नों पर चलें? किन मूल्यों को मानें?

यूरोप में दूसरे महायुद्ध के दौरान जो पीढ़ी पैदा हुई उसे ‘लास्ट जनरेशन’ (खोई हुई पीढ़ी) का कहा जाता है। युद्ध के दौरान अभाव, भुखमरी, शिक्षा चिकित्सा की ठीक व्यवस्था नहीं। युद्ध में सब बड़े लगे हैं, तो बच्चों की परवाह करनेवाले नहीं। बच्चों के बाप और बड़े भाई युद्ध में मारे गए। घर का, संपत्ति का, रोजगार का नाश हुआ। जीवन मूल्यों का नाश हुआ। ऐसे में बिना उचित शिक्षा, संस्कार, भोजन कपड़े के विनाश और मूल्यहीनता के बीज जो पीढ़ी बनकर जवान हुई, तो खोई हुई पीढ़ी इसके पास निराशा, अंधकार, असुरक्षा, अभाव, मूल्यहीनता के सिवाय कुछ नहीं था। विश्वास टूट गए थे। यह पीढ़ी निराश, विध्वंसवादी, अराजक, उपद्रवी, नकारवादी हुई। अंग्रेज लेखक जार्ज ओसबर्न ने इस क्रुद्ध पीढ़ी पर नाटक लिखा था जो बहुत पढ़ा गया और उस पर फिल्म भी बनी। नाटक का नाम ‘लुक बैक इन एंगर’। मगर यह सिलसिला यूरोप के फिर से व्यवस्थित और संपन्न होने पर भी चलता रहा। कुछ युवक समाज के ‘ड्राप आउट’ हुए। ‘वीट जनरेशन’ हुई। औद्योगीकरण के बाद यूरोप में काफी प्रतिशत बेकारी है। ब्रिटेन में अठारह प्रतिशत बेकारी है। अमेरिका ने युद्ध नहीं भोगा। मगर व्यवस्था से असंतोष वहाँ पैदा हो हुआ। अमेरिका में भी लगभग बीस प्रतिशत बेकारी है। वहाँ एक ओर बेकारी से पीड़ित युवक है, तो दूसरी ओर अतिशय संपन्नता से पीड़ित युवक भी। जैसे यूरोप में वैसे ही अमेरिकी युवकों, युवतियों का असंतोष, विद्रोह, नशेबाजी, यौन स्वच्छंदता और विध्वंसवादिता में प्रगट हुआ। जहाँ तक नशीली वस्तुओं के सेवन के सवाल है, यह पश्चिम में तो है ही, भारत में भी खूब है। दिल्ली विश्वविद्यालय के पर्यवेक्षण के अनुसार दो साल पहले सत्तावन फीसदी छात्र नशे के आदी बन गए थे। दिल्ली तो महानगर है। छोटे शहरों में, कस्बों में नशे आ गए हैं। किसी-किसी पान की दुकान में नशा हर जगह मिल जाता है। ‘स्मैक’ और ‘पॉट’ टॉफी की तरह उपलब्ध हैं।

छात्रों-युवकों को क्रांति की, सामाजिक परिवर्तन की शक्ति मानते हैं। सही मानते हैं। अगर छात्रों युवकों में विचार हो, दिशा हो संगठन हो और सकारात्मक उत्साह हो। वे अपने से ऊपर की पीढ़ी की बुराइयों को समझें तो उन्हीं बुराइयों के उत्तराधिकारी न बने, उनमें अपनी ओर से दूसरी बुराइयाँ मिलाकर पतन की परंपरा को आगे न बढ़ाएँ। सिर्फ आक्रोश तो आत्मक्षय करता है। एक हर्बर्ट मार्क्यूस चिंतक हो गए हैं, जो सदी के छठवें दशक में बहुत लोकप्रिय हो गए थे। वे ‘स्टूडेंट पावर’ में विश्वास करते थे। मानते हैं कि छात्र क्रांति कर सकते हैं। वैसे सही बात यह है कि अकेले छात्र क्रांति नहीं कर सकते। उन्हें समाज के दूसरे वर्गों को शिक्षित करके चेतनाशील बनाकर संघर्ष में साथ लाना होगा। लक्ष्य निर्धारित करना होगा। आखिर क्या बदलना है यह तो तय हो। अमेरिका में हर्बर्ट मार्क्यूस से प्रेरणा पाकर छात्रों ने नाटक ही किए। हो ची मिन्ह और चे गुएवारा के बड़े-बड़े चित्र लेकर जुलूस निकालना और भद्दी ,भौंड़ी, अश्लील हरकतें करना। अमेरिकी विश्विद्यालय की पत्रिकाओं में बेहद फूहड़ अश्लील चित्र और लेख कहानी। फ्रांस के छात्र अधिक गंभीर शिक्षित थे। राष्ट्रपति द गाल के समय छात्रों ने सोरोबोन विश्वविद्यायल में आंदोलन किया। लेखक ज्याँ पाल सार्त्र ने उनका समर्थन किया। उनका नेता कोहने बेंडी प्रबुद्ध और गंभीर युवक था। उनके लिए राजनैतिक क्रांति करना संभव नहीं था। फ्रांस के श्रमिक संगठनों ने उनका साथ नहीं दिया। पर उनकी माँगें ठोस थी जैसे शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्तन। अपने यहाँ जैसी नकल करने की छूट की क्रांतिकारी माँग उनकी नहीं थी। पाकिस्तान में भी एक छात्र नेता तारिक अली ने क्रांति की धूम मचाई। फिर वह लंदन चला गया।

युवकों का यह तर्क सही नहीं है कि जब सभी पतित हैं, तो हम क्यों नहीं हों। सब दलदल में फँसे हैं, तो जो नए लोग हैं, उन्हें उन लोगों को वहाँ से निकालना चाहिए। यह नहीं कि वे भी उसी दलदल में फँस जाएँ। दुनिया में जो क्रांतियाँ हुई हैं, सामाजिक परिवर्तन हुए हैं, उनमें युवकों की बड़ी भूमिका रही है। मगर जो पीढ़ी ऊपर की पीढ़ी की पतनशीलता अपना ले क्योंकि वह सुविधा की है और उसमें सुख है तो वह पीढ़ी कोई परिवर्तन नहीं कर सकती। ऐसे युवक हैं, जो क्रांतिकारिता का नाटक बहुत करते हैं, पर दहेज भरपूर ले लेते हैं। कारण बताते हैं - मैं तो दहेज को ठोकर मारता हूँ। पर पिताजी के सामने झुकना पड़ा। यदि युवकों के पास दिशा हो, संकल्पशीलता हो, संगठित संघर्ष हो तो वह परिवर्तन ला सकते हैं। पर मैं देख रहा हूँ एक नई पीढ़ी अपने से ऊपर की पीढ़ी से अधिक जड़ और दकियानूसी हो गई है। यह शायद हताशा से उत्पन्न भाग्यवाद के कारण हुआ है। अपने पिता से तत्ववादी, बुनियादपरस्त (फंडामेंटलिस्ट) लड़का है।

दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है। इसका प्रयोग महत्वाकांक्षी खतरनाक विचारधारावाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं। इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया था। यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है। यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उनमें उन्माद और तनाव पैदा कर दे। फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं। यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है। हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है। इसका उपयोग भी हो रहा है। आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है।

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Saturday, September 19, 2020

इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर - हरिशंकर परसाई (Inspector Matadin Chand Par by Harishankar Parsai)


वैज्ञानिक कहते हैं, चाँद पर जीवन नहीं है।

सीनियर पुलिस इंस्पेक्टर मातादीन (डिपार्टमेंट में एम. डी. साब) कहते हैं- वैज्ञानिक झूठ बोलते हैं, वहाँ हमारे जैसे ही मनुष्य की आबादी है।

विज्ञान ने हमेशा इन्स्पेक्टर मातादीन से मात खाई है। फिंगर प्रिंट विशेषज्ञ कहता रहता है- छुरे पर पाए गए निशान मुलज़िम की अँगुलियों के नहीं हैं। पर मातादीन उसे सज़ा दिला ही देते हैं।

मातादीन कहते हैं, ये वैज्ञानिक केस का पूरा इन्वेस्टीगेशन नहीं करते। उन्होंने चाँद का उजला हिस्सा देखा और कह दिया, वहाँ जीवन नहीं है। मैं चाँद का अँधेरा हिस्सा देख कर आया हूँ। वहाँ मनुष्य जाति है।

यह बात सही है क्योंकि अँधेरे पक्ष के मातादीन माहिर माने जाते हैं।

पूछा जाएगा, इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर क्यों गए थे? टूरिस्ट की हैसियत से या किसी फरार अपराधी को पकड़ने? नहीं, वे भारत की तरफ से सांस्कृतिक आदान-प्रदान के अंतर्गत गए थे। चाँद सरकार ने भारत सरकार को लिखा था- यों हमारी सभ्यता बहुत आगे बढ़ी है। पर हमारी पुलिस में पर्याप्त सक्षमता नहीं है। वह अपराधी का पता लगाने और उसे सज़ा दिलाने में अक्सर सफल नहीं होती। सुना है, आपके यहाँ रामराज है। मेहरबानी करके किसी पुलिस अफसर को भेजें जो हमारी पुलिस को शिक्षित कर दे।

गृहमंत्री ने सचिव से कहा- किसी आई. जी. को भेज दो।

सचिव ने कहा- नहीं सर, आई. जी. नहीं भेजा जा सकता। प्रोटोकॉल का सवाल है। चाँद हमारा एक क्षुद्र उपग्रह है। आई. जी. के रैंक के आदमी को नहीं भेजेंगे। किसी सीनियर इंस्पेक्टर को भेज देता हूँ।

तय किया गया कि हजारों मामलों के इन्वेस्टिगेटिंग ऑफिसर सीनियर इंस्पेक्टर मातादीन को भेज दिया जाय।

चाँद की सरकार को लिख दिया गया कि आप मातादीन को लेने के लिए पृथ्वी-यान भेज दीजिये।

पुलिस मंत्री ने मातादीन को बुलाकर कहा- तुम भारतीय पुलिस की उज्ज्वल परंपरा के दूत की हैसियत से जा रहे हो। ऐसा काम करना कि सारे अंतरिक्ष में डिपार्टमेंट की ऐसी जय-जयकार हो कि पी. एम. (प्रधानमन्त्री) को भी सुनाई पड़ जाए।

मातादीन की यात्रा का दिन आ गया। एक यान अंतरिक्ष अड्डे पर उतरा। मातादीन सबसे विदा लेकर यान की तरफ बढ़े। वे धीरे-धीरे कहते जा रहे थे, ‘प्रबिसि नगर कीजै सब काजा, हृदय राखि कौसलपुर राजा।’

यान के पास पहुँचकर मातादीन ने मुंशी अब्दुल गफूर को पुकारा- ‘मुंशी!’

गफूर ने एड़ी मिलाकर सेल्यूट फटकारा। बोला- जी, पेक्टसा!

एफ. आई. आर. रख दी है?

जी , पेक्टसा।

और रोजनामचे का नमूना?

जी, पेक्टसा!

वे यान में बैठने लगे। हवलदार बलभद्दर को बुलाकर कहा- हमारे घर में जचकी के बखत अपने खटला (पत्नी) को मदद के लिए भेज देना।

बलभद्दर ने कहा- जी, पेक्टसा।

गफूर ने कहा – आप बेफिक्र रहे पेक्टसा! मैं अपने मकान (पत्नी) को भी भेज दूँगा खिदमत के लिए।

मातादीन ने यान के चालक से पूछा – ड्राइविंग लाइसेंस है?

जी, है साहब!

और गाड़ी में बत्ती ठीक है?

जी, ठीक है।

मातादीन ने कहा, सब ठीक-ठाक होना चाहिए, वरना हरामजादे का बीच अंतरिक्ष में चालान कर दूँगा।

चन्द्रमा से आये चालक ने कहा- हमारे यहाँ आदमी से इस तरह नहीं बोलते।

मातादीन ने कहा- जानता हूँ बे! तुम्हारी पुलिस कमज़ोर है। अभी मैं उसे ठीक करता हूँ।

मातादीन यान में कदम रख ही रहे थे कि हवलदार रामसजीवन भागता हुआ आया। बोला- पेक्टसा, एस.पी. साहब के घर में से कहे हैं कि चाँद से एड़ी चमकाने का पत्थर लेते आना।

मातादीन खुश हुए। बोले- कह देना बाई साब से, ज़रूर लेता आऊंगा।

वे यान में बैठे और यान उड़ चला। पृथ्वी के वायुमंडल से यान बाहर निकला ही था कि मातादीन ने चालक से कहा- अबे, हॉर्न क्यों नहीं बजाता?

चालक ने जवाब दिया- आसपास लाखों मील में कुछ नहीं है।

मातादीन ने डाँटा- मगर रूल इज रूल। हॉर्न बजाता चल।

चालक अंतरिक्ष में हॉर्न बजाता हुआ यान को चाँद पर उतार लाया। अंतरिक्ष अड्डे पर पुलिस अधिकारी मातादीन के स्वागत के लिए खड़े थे। मातादीन रोब से उतरे और उन अफसरों के कन्धों पर नजर डाली। वहाँ किसी के स्टार नहीं थे। फीते भी किसी के नहीं लगे थे। लिहाज़ा मातादीन ने एड़ी मिलाना और हाथ उठाना ज़रूरी नहीं समझा। फिर उन्होंने सोचा, मैं यहाँ इंस्पेक्टर की हैसियत से नहीं, सलाहकार की हैसियत से आया हूँ।

मातादीन को वे लोग लाइन में ले गए और एक अच्छे बंगले में उन्हें टिका दिया।

एक दिन आराम करने के बाद मातादीन ने काम शुरू कर दिया। पहले उन्होंने पुलिस लाइन का मुलाहज़ा किया।

शाम को उन्होंने आई.जी. से कहा- आपके यहाँ पुलिस लाइन में हनुमानजी का मंदिर नहीं है। हमारे रामराज में पुलिस लाइन में हनुमानजी हैं।

आई.जी. ने कहा- हनुमान कौन थे- हम नहीं जानते।

मातादीन ने कहा- हनुमान का दर्शन हर कर्तव्यपरायण पुलिसवाले के लिए ज़रूरी है। हनुमान सुग्रीव के यहाँ स्पेशल ब्रांच में थे। उन्होंने सीता माता का पता लगाया था। ’एबडक्शन’ का मामला था- दफा 362। हनुमानजी ने रावण को सजा वहीं दे दी। उसकी प्रॉपर्टी में आग लगा दी। पुलिस को यह अधिकार होना चाहिए कि अपराधी को पकड़ा और वहीं सज़ा दे दी। अदालत में जाने का झंझट नहीं। मगर यह सिस्टम अभी हमारे रामराज में भी चालू नहीं हुआ है। हनुमानजी के काम से भगवान राम बहुत खुश हुए। वे उन्हें अयोध्या ले आए और ‘टौन ड्यूटी’ में तैनात कर दिया। वही हनुमान हमारे अराध्य देव हैं। मैं उनकी फोटो लेता आया हूँ। उस पर से मूर्तियाँ बनवाइए और हर पुलिस लाइन में स्थापित करवाइए।

थोड़े ही दिनों में चाँद की हर पुलिस लाइन में हनुमानजी स्थापित हो गए।

मातादीन उन कारणों का अध्ययन कर रहे थे, जिनसे पुलिस लापरवाह और अलाल हो गयी है। वह अपराधों पर ध्यान नहीं देती। कोई कारण नहीं मिल रहा था। एकाएक उनकी बुद्धि में एक चमक आई। उन्होंने मुंशी से कहा- ज़रा तनखा का रजिस्टर बताओ।

तनखा का रजिस्टर देखा, तो सब समझ गए। कारण पकड़ में आ गया।

शाम को उन्होंने पुलिस मंत्री से कहा, मैं समझ गया कि आपकी पुलिस मुस्तैद क्यों नहीं है। आप इतनी बड़ी तनख्वाहें देते हैं, इसीलिए। सिपाही को पांच सौ, थानेदार को हज़ार- ये क्या मज़ाक है। आखिर पुलिस अपराधी को क्यों पकड़े? हमारे यहाँ सिपाही को सौ और इंस्पेक्टर को दो सौ देते हैं तो वे चौबीस घंटे जुर्म की तलाश करते हैं। आप तनख्वाहें फ़ौरन घटाइए।

पुलिस मंत्री ने कहा- मगर यह तो अन्याय होगा। अच्छा वेतन नहीं मिलेगा तो वे काम ही क्यों करेंगे?

मातादीन ने कहा- इसमें कोई अन्याय नहीं है। आप देखेंगे कि पहली घटी हुई तनखा मिलते ही आपकी पुलिस की मनोवृति में क्रांतिकारी परिवर्तन हो जाएगा।

पुलिस मंत्री ने तनख्वाहें घटा दीं और 2-3 महीनों में सचमुच बहुत फर्क आ गया। पुलिस एकदम मुस्तैद हो गई। सोते से एकदम जाग गई। चारों तरफ नज़र रखने लगी। अपराधियों की दुनिया में घबड़ाहट छा गई। पुलिस मंत्री ने तमाम थानों के रिकॉर्ड बुला कर देखे। पहले से कई गुने अधिक केस रजिस्टर हुए थे। उन्होंने मातादीन से कहा- मैं आपकी सूझ की तारीफ़ करता हूँ। आपने क्रांति कर दी। पर यह हुआ किस तरह?

मातादीन ने समझाया- बात बहुत मामूली है। कम तनखा दोगे, तो मुलाज़िम की गुज़र नहीं होगी। सौ रुपयों में सिपाही बच्चों को नहीं पाल सकता। दो सौ में इंस्पेक्टर ठाठ-बाट नहीं मेनटेन कर सकता। उसे ऊपरी आमदनी करनी ही पड़ेगी। और ऊपरी आमदनी तभी होगी जब वह अपराधी को पकड़ेगा। गरज़ कि वह अपराधों पर नज़र रखेगा। सचेत, कर्तव्यपरायण और मुस्तैद हो जाएगा। हमारे रामराज के स्वच्छ और सक्षम प्रशासन का यही रहस्य है।

चंद्रलोक में इस चमत्कार की खबर फैल गयी। लोग मातादीन को देखने आने लगे कि वह आदमी कैसा है जो तनखा कम करके सक्षमता ला देता है। पुलिस के लोग भी खुश थे। वे कहते- गुरु, आप इधर न पधारते तो हम सभी कोरी तनखा से ही गुज़र करते रहते। सरकार भी खुश थी कि मुनाफे का बजट बनने वाला था।

आधी समस्या हल हो गई। पुलिस अपराधी पकड़ने लगी थी। अब मामले की जाँच-विधि में सुधार करना रह गया था। अपराधी को पकड़ने के बाद उसे सज़ा दिलाना। मातादीन इंतज़ार कर रहे थे कि कोई बड़ा केस हो जाए तो नमूने के तौर पर उसका इन्वेस्टिगेशन कर बताएँ।

एक दिन आपसी मारपीट में एक आदमी मारा गया। मातादीन कोतवाली में आकर बैठ गए और बोले- नमूने के लिए इस केस का ‘इन्वेस्टिगेशन’ मैं करता हूँ। आप लोग सीखिए। यह कत्ल का केस है। कत्ल के केस में ‘एविडेंस’ बहुत पक्का होना चाहिए।

कोतवाल ने कहा- पहले कातिल का पता लगाया जाएगा, तभी तो एविडेंस इकठ्ठा किया जायगा।

मातादीन ने कहा- नहीं, उलटे मत चलो। पहले एविडेंस देखो। क्या कहीं खून मिला? किसी के कपड़ों पर या और कहीं?

एक इंस्पेक्टर ने कहा- हाँ, मारनेवाले तो भाग गए थे। मृतक सड़क पर बेहोश पड़ा था। एक भला आदमी वहाँ रहता है। उसने उठाकर अस्पताल भेजा। उस भले आदमी के कपड़ों पर खून के दाग लग गए हैं।

मातादीन ने कहा- उसे फौरन गिरफ्तार करो।

कोतवाल ने कहा- मगर उसने तो मरते हुए आदमी की मदद की थी।

मातादीन ने कहा- वह सब ठीक है। पर तुम खून के दाग ढूँढने और कहाँ जाओगे? जो एविडेंस मिल रहा है, उसे तो कब्ज़े में करो।

वह भला आदमी पकड़कर बुलवा लिया गया। उसने कहा- मैंने तो मरते आदमी को अस्पताल भिजवाया था। मेरा क्या कसूर है?

चाँद की पुलिस उसकी बात से एकदम प्रभावित हुई। मातादीन प्रभावित नहीं हुए। सारा पुलिस महकमा उत्सुक था कि अब मातादीन क्या तर्क निकालते हैं।

मातादीन ने उससे कहा- पर तुम झगड़े की जगह गए क्यों?

उसने जवाब दिया- मैं झगड़े की जगह नहीं गया। मेरा वहाँ मकान है। झगड़ा मेरे मकान के सामने हुआ।

अब फिर मातादीन की प्रतिभा की परीक्षा थी। सारा महकमा उत्सुक देख रहा था।

मातादीन ने कहा- मकान तो ठीक है। पर मैं पूछता हूँ, झगड़े की जगह जाना ही क्यों?

इस तर्क का कोई जवाब नहीं था। वह बार-बार कहता- मैं झगड़े की जगह नहीं गया। मेरा वहीं मकान है।

मातादीन उसे जवाब देते- सो ठीक है, पर झगड़े की जगह जाना ही क्यों? इस तर्क-प्रणाली से पुलिस के लोग बहुत प्रभावित हुए।

अब मातादीनजी ने इन्वेस्टिगेशन का सिद्धांत समझाया- देखो, आदमी मारा गया है, तो यह पक्का है किसी ने उसे ज़रूर मारा। कोई कातिल है। किसी को सज़ा होनी है। सवाल है- किसको सज़ा होनी है? पुलिस के लिए यह सवाल इतना महत्त्व नहीं रखता जितना यह सवाल कि जुर्म किस पर साबित हो सकता है या किस पर साबित होना चाहिए। कत्ल हुआ है, तो किसी मनुष्य को सज़ा होगी ही। मारनेवाले को होती है, या बेकसूर को – यह अपने सोचने की बात नहीं है। मनुष्य-मनुष्य सब बराबर हैं। सबमें उसी परमात्मा का अंश है। हम भेदभाव नहीं करते। यह पुलिस का मानवतावाद है।

दूसरा सवाल है, किस पर जुर्म साबित होना चाहिए। इसका निर्णय इन बातों से होगा- (1) क्या वह आदमी पुलिस के रास्ते में आता है? (2) क्या उसे सज़ा दिलाने से ऊपर के लोग खुश होंगे?

मातादीन को बताया गया कि वह आदमी भला है, पर पुलिस अन्याय करे तो विरोध करता है। जहाँ तक ऊपर के लोगों का सवाल है- वह वर्तमान सरकार की विरोधी राजनीति वाला है।

मातादीन ने टेबिल ठोंककर कहा- फर्स्ट क्लास केस। पक्का एविडेंस। और ऊपर का सपोर्ट।

एक इंस्पेक्टर ने कहा- पर हमारे गले यह बात नहीं उतरती है कि एक निरपराध-भले आदमी को सज़ा दिलाई जाए।

मातादीन ने समझाया- देखो, मैं समझा चुका हूँ कि सबमें उसी ईश्वर का अंश है। सज़ा इसे हो या कातिल को, फांसी पर तो ईश्वर ही चढ़ेगा न! फिर तुम्हे कपड़ों पर खून मिल रहा है। इसे छोड़कर तुम कहाँ खून ढूंढते फिरोगे? तुम तो भरो एफ. आई. आर.।

मातादीन जी ने एफ.आई.आर. भरवा दी। ‘बखत ज़रूरत के लिए’ जगह खाली छुड़वा दी।

दूसरे दिन पुलिस कोतवाल ने कहा- गुरुदेव, हमारी तो बड़ी आफत है। तमाम भले आदमी आते हैं और कहते हैं, उस बेचारे बेकसूर को क्यों फंसा रहे हो? ऐसा तो चंद्रलोक में कभी नहीं हुआ! बताइये हम क्या जवाब दें? हम तो बहुत शर्मिंदा हैं।

मातादीन ने कोतवाल से कहा- घबड़ाओ मत। शुरू-शुरू में इस काम में आदमी को शर्म आती है। आगे तुम्हें बेकसूर को छोड़ने में शर्म आएगी। हर चीज़ का जवाब है। अब आपके पास जो आए उससे कह दो, हम जानते हैं वह निर्दोष है, पर हम क्या करें? यह सब ऊपर से हो रहा है।

कोतवाल ने कहा- तब वे एस.पी. के पास जाएँगे।

मातादीन बोले- एस.पी. भी कह दें कि ऊपर से हो रहा है।

तब वे आई.जी. के पास शिकायत करेंगे।

आई.जी. भी कहें कि सब ऊपर से हो रहा है।

तब वे लोग पुलिस मंत्री के पास पहुंचेंगे।

पुलिस मंत्री भी कहेंगे- भैया, मैं क्या करूं? यह ऊपर से हो रहा है।

तो वे प्रधानमंत्री के पास जाएंगे।

प्रधानमंत्री भी कहें कि मैं जानता हूँ, वह निर्दोष है, पर यह ऊपर से हो रहा है।

कोतवाल ने कहा- तब वे..

मातादीन ने कहा- तब क्या? तब वे किसके पास जाएँगे? भगवान के पास न? मगर भगवान से पूछकर कौन लौट सका है?

कोतवाल चुप रह गया। वह इस महान प्रतिभा से चमत्कृत था।

मातादीन ने कहा- एक मुहावरा ‘ऊपर से हो रहा है’ हमारे देश में पच्चीस सालों से सरकारों को बचा रहा है। तुम इसे सीख लो।

केस की तैयारी होने लगी। मातादीन ने कहा- अब 4-6 चश्मदीद गवाह लाओ।

कोतवाल- चश्मदीद गवाह कैसे मिलेंगे? जब किसी ने उसे मारते देखा ही नहीं, तो चश्मदीद गवाह कोई कैसे होगा?

मातादीन ने सिर ठोंक लिया, किन बेवकूफों के बीच फंसा दिया गवर्नमेंट ने। इन्हें तो ए-बी-सी-डी भी नहीं आती। झल्लाकर कहा- चश्मदीद गवाह किसे कहते हैं, जानते हो? चश्मदीद गवाह वह नहीं है जो देखे, बल्कि वह है जो कहे कि मैंने देखा।

कोतवाल ने कहा- ऐसा कोई क्यों कहेगा?

मातादीन ने कहा- कहेगा। समझ में नहीं आता, कैसे डिपार्टमेंट चलाते हो! अरे चश्मदीद गवाहों की लिस्ट पुलिस के पास पहले से रहती है। जहाँ ज़रूरत हुई, उन्हें चश्मदीद बना दिया। हमारे यहाँ ऐसे आदमी हैं, जो साल में 3-4 सौ वारदातों के चश्मदीद गवाह होते हैं। हमारी अदालतें भी मान लेती हैं कि इस आदमी में कोई दैवी शक्ति है जिससे जान लेता है कि अमुक जगह वारदात होने वाली है और वहाँ पहले से पहुँच जाता है। मैं तुम्हें चश्मदीद गवाह बनाकर देता हूँ। 8-10 उठाईगीरों को बुलाओ, जो चोरी, मारपीट, गुंडागर्दी करते हों। जुआ खिलाते हों या शराब उतारते हों।

दूसरे दिन शहर के 8-10 नवरत्न कोतवाली में हाजिर थे। उन्हें देखकर मातादीन गद्गद हो गए। बहुत दिन हो गए थे ऐसे लोगों को देखे। बड़ा सूना-सूना लग रहा था।

मातादीन का प्रेम उमड़ पड़ा। उनसे कहा- तुम लोगों ने उस आदमी को लाठी से मारते देखा था न?

वे बोले- नहीं देखा साब! हम वहाँ थे ही नहीं।

मातादीन जानते थे, यह पहला मौका है। फिर उन्होंने कहा- वहाँ नहीं थे, यह मैंने माना। पर लाठी मारते देखा तो था?

उन लोगों को लगा कि यह पागल आदमी है। तभी ऐसी उटपटांग बात कहता है। वे हँसने लगे।

मातादीन ने कहा- हँसो मत, जवाब दो।

वे बोले- जब थे ही नहीं, तो कैसे देखा?

मातादीन ने गुर्राकर देखा। कहा- कैसे देखा, सो बताता हूँ। तुम लोग जो काम करते हो- सब इधर दर्ज़ है। हर एक को कम से कम दस साल जेल में डाला जा सकता है। तुम ये काम आगे भी करना चाहते हो या जेल जाना चाहते हो?

वे घबड़ाकर बोले – साब, हम जेल नहीं जाना चाहते।

मातादीन ने कहा- ठीक। तो तुमने उस आदमी को लाठी मारते देखा। देखा न?

वे बोले- देखा साब। वह आदमी घर से निकला और जो लाठी मारना शुरू किया, तो वह बेचारा बेहोश होकर सड़क पर गिर पड़ा।

मातादीन ने कहा- ठीक है। आगे भी ऐसी वारदातें देखोगे?

वे बोले- साब, जो आप कहेंगे, सो देखेंगे।

कोतवाल इस चमत्कार से थोड़ी देर को बेहोश हो गया। होश आया तो मातादीन के चरणों पर गिर पड़ा।

मातादीन ने कहा- हटो। काम करने दो।

कोतवाल पाँवों से लिपट गया। कहने लगा- मैं जीवन भर इन श्रीचरणों में पड़ा रहना चाहता हूँ।

मातादीन ने आगे की सारी कार्यप्रणाली तय कर दी। एफ.आई.आर. बदलना, बीच में पन्ने डालना, रोजनामचा बदलना, गवाहों को तोड़ना – सब सिखा दिया।

उस आदमी को बीस साल की सज़ा हो गई।

चाँद की पुलिस शिक्षित हो चुकी थी। धड़ाधड़ केस बनने लगे और सज़ा होने लगी। चाँद की सरकार बहुत खुश थी। पुलिस की ऐसी मुस्तैदी भारत सरकार के सहयोग का नतीजा था। चाँद की संसद ने एक धन्यवाद का प्रस्ताव पास किया।

एक दिन मातादीनजी का सार्वजनिक अभिनंदन किया गया। वे फूलों से लदे खुली जीप पर बैठे थे। आसपास जय-जयकार करते हजारों लोग। वे हाथ जोड़कर अपने गृहमंत्री की स्टाइल में जवाब दे रहे थे।

ज़िंदगी में पहली बार ऐसा कर रहे थे, इसलिए थोड़ा अटपटा लग रहा था। छब्बीस साल पहले पुलिस में भरती होते वक्त किसने सोचा था कि एक दिन दूसरे लोक में उनका ऐसा अभिनंदन होगा। वे पछताए- अच्छा होता कि इस मौके के लिए कुरता, टोपी और धोती ले आते।

भारत के पुलिस मंत्री टेलीविजन पर बैठे यह दृश्य देख रहे थे और सोच रहे थे, मेरी सद्भावना यात्रा के लिए वातावरण बन गया।

कुछ महीने निकल गए।

एक दिन चाँद की संसद का विशेष अधिवेशन बुलाया गया। बहुत तूफान खड़ा हुआ। गुप्त अधिवेशन था, इसलिए रिपोर्ट प्रकाशित नहीं हुई पर संसद की दीवारों से टकराकर कुछ शब्द बाहर आए।

सदस्य गुस्से से चिल्ला रहे थे-

कोई बीमार बाप का इलाज नहीं कराता।

डूबते बच्चों को कोई नहीं बचाता।

जलते मकान की आग कोई नहीं बुझाता।

आदमी जानवर से बदतर हो गया। सरकार फौरन इस्तीफा दे।

दूसरे दिन चाँद के प्रधानमंत्री ने मातादीन को बुलाया। मातादीन ने देखा – वे एकदम बूढ़े हो गए थे। लगा, ये कई रात सोए नहीं हैं।

रुँआसे होकर प्रधानमंत्री ने कहा- मातादीन, हम आपके और भारत सरकार के बहुत आभारी हैं। अब आप कल देश वापस लौट जाइये।

मातादीन ने कहा- मैं तो ‘टर्म’ ख़त्म करके ही जाऊँगा।

प्रधानमंत्री ने कहा- आप बाकी ‘टर्म’ का वेतन ले जाइये- डबल ले जाइए, तिबल ले जाइये।

मातादीन ने कहा- हमारा सिद्धांत है: हमें पैसा नहीं काम प्यारा है।

आखिर चाँद के प्रधानमंत्री ने भारत के प्रधानमंत्री को एक गुप्त पत्र लिखा।

चौथे दिन मातादीन को वापस लौटने के लिए अपने आई.जी. का आर्डर मिल गया।

उन्होंने एस.पी. साहब के घर के लिए एड़ी चमकाने का पत्थर यान में रखा और चाँद से विदा हो गए।

उन्हें जाते देख पुलिसवाले रो पड़े।

बहुत अरसे तक यह रहस्य बना रहा कि आखिर चाँद में ऐसा क्या हो गया कि मातादीन को इस तरह एकदम लौटना पड़ा! चाँद के प्रधान मंत्री ने भारत के प्रधान मंत्री को क्या लिखा था?

एक दिन वह पत्र खुल ही गया। उसमें लिखा था-

इंस्पेक्टर मातादीन की सेवाएँ हमें प्रदान करने के लिए अनेक धन्यवाद। पर अब आप उन्हें फौरन बुला लें। हम भारत को मित्रदेश समझते थे, पर आपने हमारे साथ शत्रुवत व्यवहार किया है। हम भोले लोगों से आपने विश्वासघात किया है।

आपके मातादीन ने हमारी पुलिस को जैसा कर दिया है, उसके नतीजे ये हुए हैं:

कोई आदमी किसी मरते हुए आदमी के पास नहीं जाता, इस डर से कि वह कत्ल के मामले में फंसा दिया जाएगा। बेटा बीमार बाप की सेवा नहीं करता। वह डरता है, बाप मर गया तो उस पर कहीं हत्या का आरोप नहीं लगा दिया जाए। घर जलते रहते हैं और कोई बुझाने नहीं जाता- डरता है कि कहीं उसपर आग लगाने का जुर्म कायम न कर दिया जाए। बच्चे नदी में डूबते रहते हैं और कोई उन्हें नहीं बचाता, इस डर से कि उस पर बच्चों को डुबाने का आरोप न लग जाए। सारे मानवीय संबंध समाप्त हो रहे हैं। मातादीनजी ने हमारी आधी संस्कृति नष्ट कर दी है। अगर वे यहाँ रहे तो पूरी संस्कृति नष्ट कर देंगे। उन्हें फौरन रामराज में बुला लिया जाए।

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