Tuesday, February 6, 2024

गुलकी बन्नो - धर्मवीर भारती


“ऐ मर कलमुँहे!” अकस्मात् घेघा बुआ ने कूड़ा फेंकने के लिए दरवाजा खोला और चौतरे पर बैठे मिरवा को गाते हुए देखकर कहा, “तोरे पेट में फोनोगिराफ उलियान बा का, जौन भिनसार भवा कि तान तोड़ै लाग? राम जानै, रात के कैसन एकरा दीदा लागत है!” मारे डर के कि कहीं घेघा बुआ सारा कूड़ा उसी के सर पर न फेक दें, मिरवा थोड़ा खिसक गया और ज्यों ही घेघा बुआ अन्दर गयीं कि फिर चौतरे की सीढ़ी पर बैठ, पैर झुलाते हुए उसने उल्टा-सुल्टा गाना शुरू कर किया, “तुमें बछ याद कलते अम छनम तेरी कछम!”

मिरवा की आवाज़ सुनकर जाने कहाँ से झबरी कुतिया भी कान-पूँछ झटकारते आ गयी और नीचे सड़क पर बैठकर मिरवा का गाना बिलकुल उसी अन्दाज़ में सुनने लगी जैसे हिज़ मास्टर्स वॉयस के रिकार्ड पर तसवीर बनी होती है।

अभी सारी गली में सन्नाटा था। सबसे पहले मिरवा (असली नाम मिहिरलाल) जागता था और आँख मलते-मलते घेघा बुआ के चौतरे पर आ बैठता था। उसके बाद झबरी कुतिया, फिर मिरवा की छोटी बहन मटकी और उसके बाद एक-एक कर गली के तमाम बच्चे- खोंचेवाली का लड़का मेवा, ड्राइवर साहब की लड़की निरमल, मनीजर साहब के मुन्ना बाबू, सभी आ जुटते थे। जब से गुलकी ने घेघा बुआ के चौतरे पर तरकारियों की दुकान रखी थी, तब से यह जमावड़ा वहाँ होने लगा था। उसके पहले बच्चे हकीमजी के चौतरे पर खेलते थे। धूप निकलते गुलकी सट्टी से तरकारियाँ ख़रीदकर अपनी कुबड़ी पीठ पर लादे, डण्डा टेकती आती और अपनी दुकान फैला देती। मूली, नींबू, कद्दू, लौकी, घिया-बण्डा, कभी-कभी सस्ते फल! मिरवा और मटकी, जानकी उस्ताद के बच्चे थे जो एक भंयकर रोग में गल-गलकर मरे थे और दोनों बच्चे भी विकलांग, विक्षिप्त और रोगग्रस्त पैदा हुए थे। सिवा झबरी कुतिया के और कोई उनके पास नहीं बैठता था और सिवा गुलकी के कोई उन्हें अपनी देहरी या दुकान पर चढ़ने नहीं देता था।

आज भी गुलकी को आते देखकर पहले मिरवा गाना छोड़कर, “छलाम गुलकी!” और मटकी अपने बढ़े हुए तिल्लीवाले पेट पर से खिसकता हुआ जाँघिया सँभालते हुए बोली, “एक ठो मूली दै देव! ए गुलकी!” गुलकी पता नहीं किस बात से खीजी हुई थी कि उसने मटकी को झिड़क दिया और अपनी दुकान लगाने लगी। झबरी भी पास गयी कि गुलकी ने डण्डा उठाया। दुकान लगाकर वह अपनी कुबड़ी पीठ दुहराकर बैठ गयी और जाने किसे बुड़बुड़ाकर गालियाँ देने लगी।

मटकी एक क्षण चुपचाप रही फिर उसने रट लगाना शुरू किया, “एक मूली! एक गुलकी !… एक!” गुलकी ने फिर झिड़का तो चुप हो गयी और अलग हटकर लोलुप नेत्रों से सफेद धुली हुई मूलियों को देखने लगी। इस बार वह बोली नहीं। चुपचाप उन मूलियों की ओर हाथ बढ़ाया ही था कि गुलकी चीख़ी, “हाथ हटाओ। छूना मत। कोढ़िन कहीं की! कहीं खाने-पीने की चीज देखी तो जोंक की तरह चिपक गयी, चल इधर!” मटकी पहले तो पीछे हटी पर फिर उसकी तृष्णा ऐसी अदम्य हो गयी कि उसने हाथ बढ़ाकर एक मूली खींच ली। गुलकी का मुँह तमतमा उठा और उसने बाँस की खपच्ची उठाकर उसके हाथ पर चट से दे मारी! मूली नीचे गिरी और हाय! हाय! हाय!” कर दोनों हाथ झटकती हुई मटकी पाँव पटकपटक कर रोने लगी।

“जावो अपने घर रोवो। हमारी दुकान पर मरने को गली-भर के बच्चे हैं!” गुलकी चीख़ी!

“दुकान दैके हम बिपता मोल लै लिया। छन-भर पूजा-भजन में भी कचरघाँव मची रहती है!” अन्दर से घेघा बुआ ने स्वर मिलाया। ख़ासा हंगामा मच गया कि इतने में झबरी भी खड़ी हो गयी और लगी उदात्त स्वर में भूँकने।

“लेफ्ट राइट! लेफ्ट राइट!” चौराहे पर तीन-चार बच्चों का जूलूस चला आ रहा था। आगे-आगे दर्जा ‘ब’ में पढ़नेवाले मुन्ना बाबू नीम की सण्टी को झण्डे की तरह थामे जलूस का नेतृत्व कर रहे थे, पीछे थे मेवा और निरमल। जलूस आकर दूकान के सामने रुक गया। गुलकी सतर्क हो गयी। दुश्मन की ताक़त बढ़ गयी थी।

मटकी खिसकते-खिसकते बोली, “हमके गुलकी मारिस है। हाय! हाय! हमके नरिया में ढकेल दिहिस। अरे बाप रे!” निरमल, मेवा, मुन्ना, सब पास आकर उसकी चोट देखने लगे। फिर मुन्ना ने ढकेलकर सबको पीछे हटा दिया और सण्टी लेकर तनकर खड़े हो गये। “किसने मारा है इसे!”

“हम मारा है!” कुबड़ी गुलकी ने बड़े कष्ट से खड़े होकर कहा, “का करोगे? हमें मारोगे! मारोगे!”

“मारेंगे क्यों नहीं?” मुन्ना बाबू ने अकड़कर कहा। गुलकी इसका कुछ जवाब देती कि बच्चे पास घिर आये। मटकी ने जीभ निकालकर मुँह बिराया, मेवा ने पीछे जाकर कहा, “ए कुबड़ी, ए कुबड़ी, अपना कूबड़ दिखाओ!” और एक मुट्ठी धूल उसकी पीठ पर छोड़कर भागा। गुलकी का मुँह तमतमा आया और रूँधे गले से कराहते हुए उसने पता नहीं क्या कहा। किन्तु उसके चेहरे पर भय की छाया बहुत गहरी हो रही थी। बच्चे सब एक-एक मुट्ठी धूल लेकर शोर मचाते हुए दौड़े कि अकस्मात् घेघा बुआ का स्वर सुनाई पड़ा, “ए मुन्ना बाबू, जात हौ कि अबहिन बहिनजी का बुलवाय के दुई-चार कनेठी दिलवायी!”

“जाते तो हैं!” मुन्ना ने अकड़ते हुए कहा, “ए मिरवा, बिगुल बजाओ।” मिरवा ने दोनों हाथ मुँह पर रखकर कहा, “धुतु-धुतु-धू।” जलूस आगे चल पड़ा और कप्तान ने नारा लगाया:


अपने देस में अपना राज! गुलकी की दुकान बाईकाट!

नारा लगाते हुए जलूस गली में मुड़ गया। कुबड़ी ने आँसू पोंछे, तरकारी पर से धूल झाड़ी और साग पर पानी के छींटे देने लगी।

गुलकी की उम्र ज़्यादा नहीं थी। यही हद-से-हद पच्चीस-छब्बीस। पर चेहरे पर झुर्रियाँ आने लगी थीं और कमर के पास से वह इस तरह दोहरी हो गयी थी जैसे अस्सी वर्ष की बुढ़िया हो। बच्चों ने जब पहली बार उसे मुहल्ले में देखा तो उन्हें ताजुज्ब भी हुआ और थोड़ा भय भी। कहाँ से आयी? कैसे आ गयी? पहले कहाँ थी? इसका उन्हें कुछ अनुमान नहीं था.. निरमल ने ज़रूर अपनी माँ को उसके पिता ड्राइवर से रात को कहते हुए सुना, “यह मुसीबत और खड़ी हो गयी। मरद ने निकाल दिया तो हम थोड़े ही यह ढोल गले बाँधेंगे। बाप अलग हम लोगों का रुपया खा गया। सुना चल बसा तो डरी कि कहीं मकान हम लोग न दखल कर लें और मरद को छोड़कर चली आयी। खबरदार जो चाभी दी तुमने!”

“क्या छोटेपन की बात करती हो! रूपया उसके बाप ने ले लिया तो क्या हम उसका मकान मार लेंगे? चाभी हमने दे दी है। दस-पाँच दिन का नाज-पानी भेज दो उसके यहाँ।”

“हाँ-हाँ, सारा घर उठा के भेज देव। सुन रही हो घेघा बुआ!”

“तो का भवा बहू, अरे निरमल के बाबू से तो एकरे बाप की दाँत काटी रही।” घेघा बुआ की आवाज़ आयी- “बेचारी बाप की अकेली सन्तान रही। एही के बियाह में मटियामेट हुई गवा। पर ऐसे कसाई के हाथ में दिहिस की पाँचै बरस में कूबड़ निकल आवा।”

“साला यहाँ आवे तो हण्टर से ख़बर लूँ मैं।” ड्राइवर साहब बोले, “पाँच बरस बाद बाल-बच्चा हुआ। अब मरा हुआ बच्चा पैदा हुआ तो उसमें इसका क्या कसूर! साले ने सीढ़ी से ढकेल दिया। जिन्दगी-भर के लिए हड्डी खराब हो गयी न! अब कैसे गुजारा हो उसका?”

“बेटवा एको दुकान खुलवाय देव। हमरा चौतरा खाली पड़ा है। यही रूपया दुइ रूपया किराया दै देवा करै, दिन-भर अपना सौदा लगाय ले। हम का मना करित है? एत्ता बड़ा चौतरा मुहल्लेवालन के काम न आयी तो का हम छाती पर धै लै जाब! पर हाँ, मुला रुपया दै देव करै।”

दूसरे दिन यह सनसनीख़ेज ख़बर बच्चों में फैल गयी। वैसे तो हकीमजी का चबूतरा पड़ा था, पर वह कच्चा था, उस पर छाजन नहीं थी। बुआ का चौतरा लम्बा था, उस पर पत्थर जुड़े थे। लकड़ी के खम्भे थे। उस पर टीन छायी थी। कई खेलों की सुविधा थी। खम्भों के पीछे किल-किल काँटे की लकीरें खींची जा सकती थीं। एक टाँग से उचक-उचककर बच्चे चिबिड्डी खेल सकते थे। पत्थर पर लकड़ी का पीढ़ा रखकर नीचे से मुड़ा हुआ तार घुमाकर रेलगाड़ी चला सकते थे।

जब गुलकी ने अपनी दुकान के लिए चबूतरों के खम्भों में बाँस-बाँधे तो बच्चों को लगा कि उनके साम्राज्य में किसी अज्ञात शत्रु ने आकर क़िलेबन्दी कर ली है। वे सहमे हुए दूर से कुबड़ी गुलकी को देखा करते थे। निरमल ही उसकी एकमात्र संवाददाता थी और निरमल का एकमात्र विश्वस्त सूत्र था उसकी माँ। उससे जो सुना था उसके आधार पर निरमल ने सबको बताया था कि यह चोर है। इसका बाप सौ रूपया चुराकर भाग गया। यह भी उसके घर का सारा रूपया चुराने आयी है।

“रूपया चुरायेगी तो यह भी मर जाएगी।” मुन्ना ने कहा, “भगवान सबको दण्ड देता है।”

निरमल बोली, “ससुराल में भी रूपया चुराये होगी।”

मेवा बोला, “अरे कूबड़ थोड़े है! ओही रूपया बाँधे है पीठ पर। मनसेधू का रूपया है।”

“सचमुच?”, निरमल ने अविश्वास से कहा।

“और नहीं क्या कूबड़ थोड़ी है। है तो दिखावै।” मुन्ना द्वारा उत्साहित होकर मेवा पूछने ही जा रहा था कि देखा साबुनवाली सत्ती खड़ी बात कर रही है गुलकी से, कह रही थी, “अच्छा किया तुमने! मेहनत से दुकान करो। अब कभी थूकने भी न जाना उसके यहाँ। हरामजादा, दूसरी औरत कर ले, चाहे दस और कर ले। सबका खून उसी के मत्थे चढ़ेगा। यहाँ कभी आवे तो कहलाना मुझसे। इसी चाकू से दोनों आँखें निकाल लूँगी!”

बच्चे डरकर पीछे हट गये। चलते-चलते सत्ती बोली, “कभी रूपये-पैसे की जरूरत हो तो बताना बहिना!”

कुछ दिन बच्चे डरे रहे। पर अकस्मात् उन्हें यह सूझा कि सत्ती को यह कुबड़ी डराने के लिए बुलाती है। इसने उनके गुस्से में आग में घी का काम किया। पर कर क्या सकते थे। अन्त में उन्होंने एक तरीक़ा ईजाद किया। वे एक बुढ़िया का खेल खेलते थे। उसको उन्होंने संशोधित किया। मटकी को लैमन जूस देने का लालच देकर कुबड़ी बनाया गया। वह उसी तरह पीठ दोहरी करके चलने लगी। बच्चों ने सवाल जवाब शुरू कियेः


“कुबड़ी-कुबड़ी का हेराना?”
“सुई हिरानी।”
“सुई लैके का करबे?”
“कन्था सीबै!”
“कन्था सी के का करबे?”
“लकड़ी लाबै!”
“लकड़ी लाय के का करबे?”
“भात पकइबे!”
“भात पकाये के का करबै?”
“भात खाबै!”
“भात के बदले लात खाबै।”

और इसके पहले कि कुबड़ी बनी हुई मटकी कुछ कह सके, वे उसे जोर से लात मारते और मटकी मुँह के बल गिर पड़ती, उसकी कोहनिया और घुटने छिल जाते, आँख में आँसू आ जाते और ओठ दबाकर वह रूलाई रोकती। बच्चे खुशी से चिल्लाते, “मार डाला कुबड़ी को। मार डाला कुबड़ी को।” गुलकी यह सब देखती और मुँह फेर लेती।

एक दिन जब इसी प्रकार मटकी को कुबड़ी बनाकर गुलकी की दुकान के सामने ले गये तो इसके पहले कि मटकी जबाव दे, उन्होंने उसे अनचिते में इतनी ज़ोर से ढकेल दिया कि वह कुहनी भी न टेक सकी और सीधे मुँह के बल गिरी। नाक, होंठ और भौंह ख़ून से लथपथ हो गये। वह “हाय! हाय!” कर इस बुरी तरह चीख़ी कि लड़के ‘कुबड़ी मर गयी’ चिल्लाते हुए सहम गये और हतप्रभ हो गये। अकस्मात् उन्होंने देखा की गुलकी उठी। वे जान छोड़ भागे। पर गुलकी उठकर आयी, मटकी को गोद में लेकर पानी से उसका मुँह धोने लगी और धोती से खून पोंछने लगी। बच्चों ने पता नहीं क्या समझा कि वह मटकी को मार रही है, या क्या कर रही है कि वे अकस्मात् उस पर टूट पड़े। गुलकी की चीख़े सुनकर मुहल्ले के लोग आये तो उन्होंने देखा कि गुलकी के बाल बिखरे हैं और दाँत से ख़ून बह रहा है, अधउघारी चबूतरे से नीचे पड़ी है, और सारी तरकारी सड़क पर बिखरी है। घेघा बुआ ने उसे उठाया, धोती ठीक की और बिगड़कर बोलीं, “औकात रत्ती-भर नै, और तेहा पौवा-भर। आपन बखत देख कर चुप नै रहा जात। कहे लड़कन के मुँह लगत हो?” लोगों ने पूछ तो कुछ नहीं बोली। जैसे उसे पाला मार गया हो। उसने चुपचाप अपनी दुकान ठीक की और दाँत से खू़न पोंछा, कुल्ला किया और बैठ गयी।

उसके बाद अपने उस कृत्य से बच्चे जैसे खु़द सहम गये थे। बहुत दिन तक वे शान्त रहे। आज जब मेवा ने उसकी पीठ पर धूल फेंकी तो जैसे उसे खू़न चढ़ गया पर फिर न जाने वह क्या सोचकर चुप रह गयी और जब नारा लगाते जूलूस गली में मुड़ गया तो उसने आँसू पोंछे, पीठ पर से धूल झाड़ी और साग पर पानी छिड़कने लगी। “लड़के का हैं गल्ली के राक्षस हैं !” घेघा बुआ बोलीं। “अरे उन्हें काहै कहो बुआ! हमारा भाग भी खोटा है!” गुलकी ने गहरी साँस लेकर कहा…।

इस बार जो झड़ी लगी तो पाँच दिन तक लगातार सूरज के दर्शन नहीं हुए। बच्चे सब घर में क़ैद थे और गुलकी कभी दुकान लगाती थी, कभी नहीं। राम-राम करके तीसरे पहर झड़ी बन्द हुई। बच्चे हकीमजी के चौतरे पर जमा हो गये। मेवा बिलबोटी बीन लाया था और निरमल ने टपकी हुई निमकौड़ियाँ बीनकर दुकान लगा ली थी और गुलकी की तरह आवाज़ लगा रही थी, “ले खीरा, आलू, मूली, घिया, बण्डा!” थोड़ी देर में क़ाफी शिशु-ग्राहक दुकान पर जुट गये। अकस्मात् शोरगुल से चीरता हुआ बुआ के चौतरे से गीत का स्वर उठा बच्चों ने घूम कर देखा, मिरवा और मटकी गुलकी की दुकान पर बैठे हैं। मटकी खीरा खा रही है और मिरवा झबरी का सर अपनी गोद में रखे बिलकुल उसकी आँखों में आँखें डालकर गा रहा है।

तुरन्त मेवा गया और पता लगाकर लाया कि गुलकी ने दोनों को एक-एक अधन्ना दिया है। दोनों मिलकर झबरी कुतिया के कीड़े निकाल रहे हैं। चौतरे पर हलचल मच गयी और मुन्ना ने कहा, “निरमल ! मिरवा-मटकी को एक भी निमकौड़ी मत देना। रहें उसी कुबड़ी के पास!”

“हाँ जी!” निरमल ने आँख चमकाकर गोल मुंह करके कहा, “हमार अम्माँ कहत रहीं उन्हें छुयो न! न साथ खायो, न खेलो। उन्हें बड़ी बुरी बीमारी है। आक थू!” मुन्ना ने उनकी ओर देखकर उबकायी जैसा मुँह बनाकर थूक दिया।

गुलकी बैठी-बैठी सब समझ रही थी और जैसे इस निरर्थक घृणा में उसे कुछ रस-सा आने लगा था। उसने मिरवा से कहा, “तुम दोनों मिल के गाओ तो एक अधन्ना दें। खूब जोर से!” भाई-बहन दोनों ने गाना शुरू किया- “माल कताली मल जाना, पल अकियाँ किछी से…” अकस्मात् पटाक से दरवाजा खुला और एक लोटा पानी दोनों के ऊपर फेंकती हुई घेघा बुआ गरजीं, “दूर कलमुँहे। अबहिन बितौ-भर के नाहीं ना और पतुरियन के गाना गाबै लगे। न बहन का ख्याल, न बिटिया का। और ए कुबड़ी, हम तुहूँ से कहे देइत है कि हम चकलाखाना खोलै के बरे अपना चौतरा नहीं दिया रहा। हुँह! चली हुँआ से मुजरा करावै।”

गुलकी ने पानी उधर छिटकाते हुए कहा, “बुआ बच्चे हैं। गा रहे हैं। कौन कसूर हो गया।”

“ऐ हाँ! बच्चे हैं। तुहूँ तो दूध पियत बच्ची हौ। कह दिया कि जबान न लड़ायों हमसे, हाँ ! हम बहुतै बुरी हैं। एक तो पाँच महीने से किराया नाहीं दियो और हियाँ दुनियाँ-भर के अन्धे-कोढ़ी बटुरे रहत हैं। चलौ उठायो अपनी दुकान हियाँ से। कल से न देखी हियाँ तुम्हें! राम! राम! सब अधर्म की सन्तान राच्छस पैदा भये हैं मुहल्ले में! धरतियौ नहीं फाटत कि मर बिलाय जाँय।”

गुलकी सन्न रह गयी। उसने किराया सचमुच पाँच महीने से नहीं दिया था। ब्रिक्री नहीं थी। मुहल्ले में उनसे कोई कुछ लेता ही नहीं था, पर इसके लिए बुआ निकाल देगी यह उसे कभी आशा नहीं थी। वैसे भी महीने में बीस दिन वह भूखी सोती थी। धोती में दस-दस पैबन्द थे। मकान गिर चुका था, एक दालान में वह थोड़ी-सी जगह में सो जाती थी। पर दुकान तो वहाँ रखी नहीं जा सकती। उसने चाहा कि वह बुआ के पैर पकड़ ले, मिन्नत कर ले। पर बुआ ने जितनी जोर से दरवाजा खोला था, उतनी ही जोर से बन्द कर दिया। जब से चौमास आया था, पुरवाई बही थी, उसकी पीठ में भयानक पीड़ा उठती थी। उसके पाँव काँपते थे। सट्टी में उस पर उधार बुरी तरह चढ़ गया था। पर अब होगा क्या ? वह मारे खीज के रोने लगी।

इतने में कुछ खटपट हुई और उसने घुटनों से मुँह उठाकर देखा कि मौका पाकर मटकी ने एक फूट निकाल लिया है और मरभुखी की तरह उसे हबर-हबर खाती जा रही है, एक क्षण वह उसके फूलते-पचकते पेट को देखती रही, फिर ख्याल आते ही कि फूट पूरे दस पैसे का है, वह उबल पड़ी और सड़ासड़ तीन-चार खपच्ची मारते हुए बोली, “चोट्टी! कुतिया! तोरे बदन में कीड़ा पड़ें!” मटकी के हाथ से फूट गिर पड़ा पर वह नाली में से फूट के टुकड़े उठाते हुए भागी। न रोयी, न चीख़ी, क्योंकि मुँह में भी फूट भरा था। मिरवा हक्का-बक्का इस घटना को देख रहा था कि गुलकी उसी पर बरस पड़ी। सड़-सड़ उसने मिरवा को मारना शुरू किया, “भाग, यहाँ से हरामजादे!” मिरवा दर्द से तिलमिला उठा, “हमला पइछा देव तो जाई।” “देत हैं पैसा, ठहर तो।” सड़! सड़।… रोता हुआ मिरवा चौतरे की ओर भागा।

निरमल की दुकान पर सन्नाटा छाया हुआ था। सब चुप उसी ओर देख रहे थे। मिरवा ने आकर कुबड़ी की शिकायत मुन्ना से की। और घूमकर बोला, “मेवा बता तो इसे!’ मेवा पहले हिचकिचाया, फिर बड़ी मुलायमियत से बोला, “मिरवा तुम्हें बीमारी हुई है न! तो हम लोग तुम्हें नहीं छुएँगे। साथ नहीं खिलाएँगें तुम उधर बैठ जाओ।”

“हम बीमाल हैं मुन्ना?”

मुन्ना कुछ पिघला, “हाँ, हमें छूओ मत। निमकौड़ी खरीदना हो तो उधर बैठ जाओ, हम दूर से फेंक देंगे। समझे!”

मिरवा समझ गया, सर हिलाया और अलग जाकर बैठ गया। मेवा ने निमकौड़ी उसके पास रख दी और चोट भूलकर पकी निमकौड़ी का बीजा निकाल कर छीलने लगा। इतने में उधर से घेघा बुआ की आवाज आयी, “ऐ मुन्ना!” तई तू लोग परे हो जाओ! अबहिन पानी गिरी ऊपर से!”

बच्चों ने ऊपर देखा। तिछत्ते पर घेघा बुआ मारे पानी के छप-छप करती घूम रही थीं। कूड़े से तिछत्ते की नाली बन्द थी और पानी भरा था। जिधर बुआ खड़ी थीं, उसके ठीक नीचे गुलकी का सौदा था। बच्चे वहाँ से दूर थे पर गुलकी को सुनाने के लिए बात बच्चों से कही गयी थी। गुलकी कराहती हुई उठी। कूबड़ की वजह से वह तनकर चिछत्ते की ओर देख भी नहीं सकती थी। उसने धरती की ओर देखा, ऊपर बुआ से कहा, “इधर की नाली काहे खोल रही हो? उधर की खोलो न!”

“काहे उधर की खोली! उधर हमारा चौका है कि नै!”

“इधर हमारा सौदा लगा है।”

“ऐ है!” बुआ हाथ चमका कर बोलीं, सौदा लगा है रानी साहब का! किराया देय की दायीं हियाव फाटत है और टर्राय के दायीं नटई में गामा पहिलवान का जोर तो देखो! सौदा लगा है तो हम का करी। नारी तो इहै खुली है!”

“खोलो तो देखैं!” अकस्मात् गुलकी ने तड़प कर कहा। आज तक किसी ने उसका वह स्वर नहीं सुना था- “पाँच महीने का दस रूपया नहीं दिया बेशक, पर हमारे घर की धन्नी निकाल के बसन्तू के हाथ किसने बेचा? तुमने। पच्छिम ओर का दरवाजा चिरवा के किसने जलवाया? तुमने। हम गरीब हैं। हमारा बाप नहीं है, सारा मुहल्ला हमें मिल के मार डालो।”

“हमें चोरी लगाती है। अरे कल की पैदा हुई।” बुआ मारे गुस्से के खड़ी बोली बोलने लगी थीं।

बच्चे चुप खड़े थे। वे कुछ-कुछ सहमे हुए थे। कुबड़ी का यह रूप उन्होंने कभी न देखा, न सोचा था।

“हाँ! हाँ! हाँ। तुमने, ड्राइवर चाचा ने, चाची ने सबने मिलके हमारा मकान उजाड़ा है। अब हमारी दुकान बहाय देव। देखेंगे हम भी। निरबल के भी भगवान हैं!”

“ले! ले! ले! भगवान हैं तो ले!” और बुआ ने पागलों की तरह दौड़कर नाली में जमा कूड़ा लकड़ी से ठेल दिया। छह इंच मोटी गन्दे पानी की धार धड़-धड़ करती हुई उसकी दुकान पर गिरने लगी। तरोइयाँ पहले नाली में गिरीं, फिर मूली, खीरे, साग, अदरक उछल-उछलकर दूर जा गिरे। गुलकी आँख फाड़े पागल-सी देखती रही और फिर दीवार पर सर पटककर हृदय-विदारक स्वर में डकराकर रो पड़ी, “अरे मोर बाबू, हमें कहाँ छोड़ गये! अरे मोरी माई, पैदा होते ही हमें क्यों नहीं मार डाला! अरे धरती मैया, हमें काहे नहीं लील लेती!”

सर खोले, बाल बिखेरे, छाती कूट-कूटकर वह रो रही थी और तिछत्ते का पिछले पहले नौ दिन का जमा पानी धड़-धड़ गिर रहा था। बच्चे चुप खड़े थे। अब तक जो हो रहा था, उनकी समझ में आ रहा था। पर आज यह क्या हो गया, यह उनकी समझ में नहीं आ सका। पर वे कुछ बोले नहीं। सिर्फ मटकी उधर गयी और नाली में बहता हुआ हरा खीरा निकालने लगी कि मुन्ना ने डाँटा, “खबरदार! जो कुछ चुराया।” मटकी पीछे हट गयी। वे सब किसी अप्रत्याशित भय, संवेदना या आशंका से जुड़-बटुरकर खड़े हो गये। सिर्फ़ मिरवा अलग सर झुकाये खड़ा था। झींसी फिर पड़ने लगी थी और वे एक-एक कर अपने घर चले गये।

दूसरे दिन चौतरा ख़ाली थी। दुकान का बाँस उखड़वाकर बुआ ने नाँद में गाड़कर उस पर तुरई की लतर चढ़ा दी थी। उस दिन बच्चे आये पर उनकी हिम्मत चौतरे पर जाने की नहीं हुई। जैसे वहाँ कोई मर गया हो। बिलकुल सुनसान चौतरा था और फिर तो ऐसी झड़ी लगी कि बच्चों का निकलना बन्द। चौथे या पाँचवें दिन रात को भयानक वर्षा तो हो ही रही थी, पर बादल भी ऐसे गरज रहे थे कि मुन्ना अपनी खाट से उठकर अपनी माँ के पास घुस गया। बिजली चमकते ही जैसे कमरा रोशनी से नाच-नाच उठता था। छत पर बूदों की पटर-पटर कुछ धीमी हुई, थोड़ी हवा भी चली और पेड़ों का हरहर सुनाई पड़ा कि इतने में धड़-धड़-धड़-धड़ाम! भयानक आवाज़ हुई। माँ भी चौंक पड़ी। पर उठी नहीं। मुन्ना आँखें खोले अँधेरें में ताकने लगा। सहसा लगा मुहल्ले में कुछ लोग बातचीत कर रहे हैं, घेघा बुआ की आवाज़ सुनाई पड़ी- “किसका मकान गिर गया है रे”

“गुलकी का!”-किसी का दूरागत उत्तर आया।

“अरे बाप रे! दब गयी क्या?”

“नहीं, आज तो मेवा की माँ के यहाँ सोई है!”

मुन्ना लेटा था और उसके ऊपर अँधेरे में यह सवाल-जवाब इधर-से-उधर और उधर-से-इधर आ रहे थे। वह फिर काँप उठा, माँ के पास घुस गया और सोते-सोते उसने साफ़ सुना- कुबड़ी फिर उसी तरह रो रही है, गला फाड़कर रो रही है! कौन जाने मुन्ना के ही आँगन में बैठकर रो रही हो! नींद में वह स्वर कभी दूर, कभी पास आता हुआ लग रहा है, जैसे कुबड़ी मुहल्ले के हर आँगन में जाकर रो रही है पर कोई सुन नहीं रहा है, सिवा मुन्ना के।

बच्चों के मन में कोई बात इतनी गहरी लकीर बनाती कि उधर से उनका ध्यान हटे ही नहीं। सामने गुलकी थी तो वह एक समस्या थी, पर उसकी दुकान हट गयी। फिर वह जाकर साबुन वाली सत्ती के गलियारे में सोने लगी और दो-चार घरों से माँग-मूँगकर खाने लगी। उस गली में दिखती ही नहीं थी। बच्चे भी दूसरे कामों में व्यस्त हो गये। अब जाड़े आ रहे थे। उनका जमावड़ा सुबह न होकर तीसरे पहर होता था। जमा होने के बाद जूलूस निकलता था। और जिस जोशीले नारे से गली गूँज उठती थी वह था- “घेघा बुआ को वोट दो।” पिछले दिनों म्युनिसिपैलिटी का चुनाव हुआ था और उसी में बच्चों ने यह नारा सीखा था। वैसे कभी-कभी बच्चों में दो पार्टियाँ भी होती थीं, पर दोनों को घेघा बुआ से अच्छा उम्मीदवार कोई नहीं मिलता था, अतः दोनों गला फाड़-फाड़कर उनके ही लिए वोट माँगती थीं।

उस दिन जब घेघा बुआ के धैर्य का बाँध टूट गया और नयी-नयी गालियों से विभूषित अपनी पहली इलेक्शन स्पीच देने ज्यों ही चौतरे पर अवतरित हुईं कि उन्हें डाकिया आता हुआ दिखाई पड़ा। वह अचकचाकर रुक गयीं। डाकिये के हाथ में एक पोस्टकार्ड था और वह गुलकी को ढूँढ रहा था। बुआ ने लपक कर पोस्टकार्ड लिया, एक साँस में पढ़ गयीं। उनकी आँखें मारे अचरज के फैल गयीं, और डाकिये को यह बताकर कि गुलकी सत्ती साबुनवाली के ओसारे में रहती है, वे झट से दौड़ी-दौड़ी निरमल की माँ, ड्राइवर की पत्नी के यहाँ गयीं। बड़ी देर तक दोनों में सलाह-मशविरा होता रहा और अन्त में बुआ आयीं और उन्होंने मेवा को भेजा, “जा गुलकी को बुलाय ला!”

पर जब मेवा लौटा तो उसके साथ गुलकी नहीं वरन् सत्ती साबुनवाली थी और सदा की भाँति इस समय भी उसकी कमर से वह काले बेंट का चाकू लटक रहा था, जिससे वह साबुन की टिक्की काटकर दुकानदारों को देती थी। उसने आते ही भौं सिकोड़कर बुआ को देखा और कड़े स्वर में बोली, “क्यों बुलाया है गुलकी को? तुम्हारा दस रूपये किराया बाकी था, तुमने पन्द्रह रूपये का सौदा उजाड़ दिया! अब क्या काम है?”

“अरे राम! राम! कैसा किराया बेटी! अन्दर जाओ-अन्दर जाओ!” बुआ के स्वर में असाधारण मुलायमियत थी। सत्ती के अन्दर जाते ही बुआ ने फटाक् से किवाड़ा बन्द कर लिये। बच्चों का कौतूहल बहुत बढ़ गया था। बुआ के चौके में एक झँझरी थी। सब बच्चे वहाँ पहुँचे और आँख लगाकर कनपटियों पर दोनों हथेलियाँ रखकर घण्टीवाला बाइसकोप देखने की मुद्रा में खड़े हो गये।

अन्दर सत्ती गरज रही थी, “बुलाया है तो बुलाने दो। क्यों जाए गुलकी? अब बड़ा खयाल आया है। इसलिए कि उसकी रखैल को बच्चा हुआ है जो जाके गुलकी झाड़ू-बुहारू करे, खाना बनावे, बच्चा खिलावे, और वह मरद का बच्चा गुलकी की आँख के आगे रखैल के साथ गुलछर्रे उड़ावे!”

निरमल की माँ बोलीं, “अरी बिटिया, पर गुजर तो अपने आदमी के साथ करैगी न! जब उसकी पत्नी आयी है तो गुलकी को जाना चाहिए। और मरद तो मरद। एक रखैल छोड़ दुई-दुई रखैल रख ले तो औरत उसे छोड़ देगी? राम! राम!”

“नहीं, छोड़ नहीं देगी तो जाय कै लात खाएगी?” सत्ती बोली।

“अरे बेटा!” बुआ बोलीं, “भगवान रहें न? तौन मथुरापुरी में कुब्जा दासी के लात मारिन तो ओकर कूबर सीधा हुइ गवा। पती तो भगवान हैं बिटिया। ओका जाय देव!”

“हाँ-हाँ, बड़ी हितू न बनिये! उसके आदमी से आप लोग मुफ्त में गुलकी का मकान झटकना चाहती हैं। मैं सब समझती हूँ।”

निरमल की माँ का चेहरा ज़र्द पड़ गया। पर बुआ ने ऐसी कच्ची गोली नहीं खेली थी। वे डपटकर बोलीं, “खबरदार जो कच्ची जबान निकाल्यो! तुम्हारा चरित्तर कौन नै जानता! ओही छोकरा मानिक…”

“जबान खींच लूँगी”, सत्ती गला फाड़कर चीख़ी “जो आगे एक हरूफ़ कहा।” और उसका हाथ अपने चाकू पर गया-

“अरे! अरे! अरे!”, बुआ सहमकर दस क़दम पीछे हट गयीं- “तो का खून करबो का, कतल करबो का?”

सत्ती जैसे आयी थी, वैसे ही चली गयी।

तीसरे दिन बच्चों ने तय किया कि होरी बाबू के कुएँ पर चलकर बर्रें पकड़ी जायें। उन दिनों उनका जहर शान्त रहता है, बच्चे उन्हें पकड़कर उनका छोटा-सा काला डंक निकाल लेते और फिर डोरी में बाँधकर उन्हें उड़ाते हुए घूमते। मेवा, निरमल और मुन्ना एक-एक बर्रे उड़ाते हुए जब गली में पहुँचे तो देखा बुआ के चौतरे पर टीन की कुरसी डाले कोई आदमी बैठा है। उसकी अजब शक्ल थी। कान पर बड़े-बड़े बाल, मिचमिची आँखें, मोछा और तेल से चुचुआते हुए बाल। कमीज और धोती पर पुराना बदरंग बूट। मटकी हाथ फैलाये कह रही है, “एक डबल दै देव! एक दै देव ना?” मुन्ना को देखकर मटकी ताली बजा-बजाकर कहने लगी, “गुलकी का मनसेधू आवा है। ए मुन्ना बाबू! ई कुबड़ी का मनसेधू है।” फिर उधर मुड़कर- “एक डबल दै देव।” तीनों बच्चे कौतूहल में रुक गये। इतने में निरमल की माँ एक गिलास में चाय भरकर लायी और उसे देते-देते निरमल के हाथ में बर्रे देखकर उसे डाँटने लगी। फिर बर्रे छुड़ाकर निरमल को पास बुलाया और बोली, “बेटा, ई हमारी निरमला है। ए निरमल, जीजाजी हैं, हाथ जोड़ो! बेटा, गुलकी हमारी जात-बिरादरी की नहीं है तो का हुआ, हमारे लिए जैसे निरमल वैसे गुलकी। अरे, निरमल के बाबू और गुलकी के बाप की दाँत काटी रही। एक मकान बचा है उनकी चिहारी, और का?” एक गहरी साँस लेकर निरमल की माँ ने कहा।

“अरे तो का उन्हें कोई इनकार है?” बुआ आ गयी थीं, “अरे सौ रुपये तुम दैवे किये रहय्यू, चलो तीन सौ और दै देव। अपने नाम कराय लेव?”

“पाँच सौ से कम नहीं होगा?” उस आदमी का मुँह खुला, एक वाक्य निकला और मुँह फिर बन्द हो गया।

“भवा! भवा! ऐ बेटा दामाद हौ, पाँच सौ कहबो तो का निरमल की माँ को इनकार है?”

अकस्मात् वह आदमी उठकर खड़ा हो गया। आगे-आगे सत्ती चली आ रही थी | पीछे-पीछे गुलकी। सत्ती चौतरे के नीचे खड़ी हो गयी। बच्चे दूर हट गये। गुलकी ने सिर उठाकर देखा और अचकचाकर सर पर पल्ला डालकर माथे तक खींच लिया। सत्ती दो-एक क्षण उसकी ओर एकटक देखती रही और फिर गरजकर बोली, “यही कसाई है! गुलकी, आगे बढ़कर मार दो चपोटा इसके मुँह पर! खबरदार जो कोई बोला?” बुआ चट से देहरी के अन्दर हो गयीं, निरमल की माँ की जैसे घिग्घी बँध गयी और वह आदमी हड़बड़ाकर पीछे हटने लगा।

“बढ़ती क्यों नहीं गुलकी! बड़ा आया वहाँ से बिदा कराने?”

गुलकी आगे बढ़ी – सब सन्न थे – सीढ़ी चढ़ी, उस आदमी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। गुलकी चढ़ते-चढ़ते रुकी, सत्ती की ओर देखा, ठिठकी, अकस्मात् लपकी और फिर उस आदमी के पाँव पर गिर के फफक-फफककर रोने लगी, “हाय! हमें काहे को छोड़ दियौ! तुम्हारे सिवा हमारा लोक-परलोक और कौन है! अरे, हमरे मरै पर कौन चुल्लू भर पानी चढ़ायी।”

सत्ती का चेहरा स्याह पड़ गया। उसने बड़ी हिकारत से गुलकी की ओर देखा और गुस्से में थूक निगलते हुए कहा, “कुतिया!” और तेजी से चली गयी। निरमल की मां और बुआ गुलकी के सर पर हाथ फेर-फेरकर कह रही थीं, “मत रो बिटिया! मत रो! सीता मैया भी तो बनवास भोगिन रहा। उठो गुलकी बेटा! धोती बदल लेव कंघी चोटी करो। पति के सामने ऐसे आना असगुन होता है। चलो!”

गुलकी आँसू पोंछती-पोंछती निरमल की माँ के घर चली। बच्चे पीछे-पीछे चले तो बुआ ने डाँटा, “ऐ चलो एहर, हुँआ लड्डू बँट रहा है का?”

दूसरे दिन निरमल के बाबू (ड्राइवर साहब), गुलकी और जीजाजी दिन-भर कचहरी में रहे। शाम को लौटे तो निरमल की माँ ने पूछा, “पक्का कागज लिख गया?” “हाँ-हाँ रे, हाकिम, के सामने लिख गया।” फिर जरा निकट आकर फुसफुसाकर बोले, “मट्टी के मोल मकान मिला है। अब कल दोनों को बिदा करो।” “अरे, पहले सौ रुपये लाओ! बुआ का हिस्सा भी तो देना है?” निरमल की माँ उदास स्वर में बोली, “बड़ी चंट है बुढ़िया। गाड़-गाड़ के रख रही है, मर के साँप होयगी।”

सुबह निरमल की माँ के यहाँ मकान खरीदने की कथा थी। शंख, घण्टा-घड़ियाली, केले का पत्ता, पंजीरी, पंचामृत का आयोजन देखकर मुन्ना के अलावा सब बच्चे इकट्ठा थे। निरमल की माँ और निरमल के बाबू पीढ़े पर बैठे थे; गुलकी एक पीली धोती पहने माथे तक घूँघट काढ़े सुपारी काट रही थी और बच्चे झाँक-झाँककर देख रहे थे। मेवा ने पहुँचकर कहा, “ए गुलकी, ए गुलकी, जीजाजी के साथ जाओगी क्या?” कुबड़ी ने झेंपकर कहा, “धत्त रे! ठिठोली करता है” और लज्जा-भरी जो मुसकान किसी भी तरुणी के चेहरे पर मनमोहक लाली बनकर फैल जाती, उसके झुर्रियोंदार, बेडौल, नीरस चेहरे पर विचित्र रूप से बीभत्स लगने लगी। उसके काले पपड़ीदार होठ सिकुड़ गये, आँखों के कोने मिचमिचा उठे और अत्यन्त कुरुचिपूर्ण ढंग से उसने अपने पल्ले से सर ढाँक लिया और पीठ सीधी कर जैसे कूबड़ छिपाने का प्रयास करने लगी। मेवा पास ही बैठ गया। कुबड़ी ने पहले इधर-उधर देखा, फिर फुसफुसाकर मेवा से कहा, “क्यों रे! जीजाजी कैसे लगे तुझे?” मेवा ने असमंजस में या संकोच में पड़कर कोई जवाब नहीं दिया तो जैसे अपने को समझाते हुए गुलकी बोली, “कुछ भी होय। है तो अपना आदमी! हारे-गाढ़े कोई और काम आयेगा? औरत को दबाय के रखना ही चाहिए।” फिर थोड़ी देर चुप रहकर बोली, “मेवा भैया, सत्ती हमसे नाराज है। अपनी सगी बहन क्या करेगी जो सत्ती ने किया हमारे लिए। ये चाची और बुआ तो सब मतलब के साथी हैं हम क्या जानते नहीं? पर भैया अब जो कहो कि हम सत्ती के कहने से अपने मरद को छोड़ दें, सो नहीं हो सकता।” इतने में किसी का छोटा-सा बच्चा घुटनों के बल चलते-चलते मेवा के पास आकर बैठ गया। गुलकी क्षण-भर उसे देखती रही फिर बोली, “पति से हमने अपराध किया तो भगवान् ने बच्चा छीन लिया, अब भगवान् हमें छमा कर देंगे।” फिर कुछ क्षण के लिए चुप हो गयी। “क्षमा करेंगे तो दूसरी सन्तान देंगे?” “क्यों नहीं देंगे? तुम्हारे जीजाजी को भगवान् बनाये रखे। खोट तो हमी में है। फिर सन्तान होगी तब तो सौत का राज नहीं चलेगा।”

इतने में गुलकी ने देखा कि दरवाजे पर उसका आदमी खड़ा बुआ से कुछ बातें कर रहा है। गुलकी ने तुरत पल्ले से सर ढंका और लजाकर उधर पीठ कर ली। बोली, “राम! राम! कितने दुबरा गये हैं। हमारे बिना खाने-पीने का कौन ध्यान रखता! अरे, सौत तो अपने मतलब की होगी। ले भैया मेवा, जा दो बीड़ा पान दे आ जीजा को?” फिर उसके मुँह पर वही लाज की बीभत्स मुद्रा आयी- “तुझे कसम है, बताना मत किसने दिया है।”

मेवा पान लेकर गया पर वहाँ किसी ने उसपर ध्यान ही नहीं दिया। वह आदमी बुआ से कह रहा था, “इसे ले तो जा रहे हैं, पर इतना कहे देते हैं, आप भी समझा दें उसे- कि रहना हो तो दासी बनकर रहे। न दूध की न पूत की, हमारे कौन काम की; पर हाँ औरतिया की सेवा करे, उसका बच्चा खिलावे, झाड़ू-बुहारू करे तो दो रोटी खाय पड़ी रहे। पर कभी उससे जबान लड़ाई तो खैर नहीं । हमारा हाथ बड़ा जालिम है। एक बार कूबड़ निकला, अगली बार परान निकलेगा।”

“क्यों नहीं बेटा! क्यों नहीं?” बुआ बोलीं और उन्होंने मेवा के हाथ से पान लेकर अपने मुँह में दबा लिये।

करीब तीन बजे इक्का लाने के लिए निरमल की माँ ने मेवा को भेजा। कथा की भीड़-भाड़ से उनका ‘मूड़ पिराने’ लगा था, अतः अकेली गुलकी सारी तैयारी कर रही थी। मटकी कोने में खड़ी थी। मिरवा और झबरी बाहर गुमसुम बैठे थे। निरमल की माँ ने बुआ को बुलवाकर पूछा कि बिदा-बिदाई में क्या करना होगा, तो बुआ मुँह बिगाड़कर बोलीं, “अरे कोई जात-बिरादरी की है का? एक लोटा में पानी भर के इकन्नी-दुअन्नी उतार के परजा-पजारू को दे दियो बस?” और फिर बुआ शाम को बियारी में लग गयीं।

इक्का आते ही जैसे झबरी पागल-सी इधर-उधर दौड़ने लगी। उसे जाने कैसे आभास हो गया कि गुलकी जा रही है, सदा के लिए। मेवा ने अपने छोटे-छोटे हाथों से बड़ी-बड़ी गठरियाँ रखीं, मटकी और मिरवा चुपचाप आकर इक्के के पास खड़े हो गये। सर झुकाये पत्थर-सी चुप गुलकी निकली। आगे-आगे हाथ में पानी का भरा लोटा लिये निरमल थी। वह आदमी जाकर इक्के पर बैठ गया। “अब जल्दी करो!” उसने भारी गले से कहा। गुलकी आगे बढ़ी, फिर रुकी और टेंट से दो अधन्नी निकाले- “ले मिरवा, ले मटकी?” मटकी जो हमेशा हाथ फैलाये रहती थी, इस समय जाने कैसा संकोच उसे आ गया कि वह हाथ नीचे कर दीवार से सट कर खड़ी हो गयी और सर हिलाकर बोली, “नहीं ?”–“नहीं बेटा! ले लो!” गुलकी ने पुचकारकर कहा। मिरवा-मटकी ने पैसे ले लिये और मिरवा बोला, “छलाम गुलकी! ए आदमी छलाम?”

“अब क्या गाड़ी छोड़नी है?” वह फिर भारी गले से बोला।

“ठहरो बेटा, कहीं ऐसे दामाद की बिदाई होती है?” सहसा एक बिलकुल अजनबी किन्तु अत्यन्त मोटा स्वर सुनायी पड़ा। बच्चों ने अचरज से देखा, मुन्ना की माँ चली आ रही हैं। “हम तो मुन्ना का आसरा देख रहे थे कि स्कूल से आ जाये, उसे नाश्ता करा लें तो आयें, पर इक्का आ गया तो हमने समझा अब तू चली। अरे! निरमल की माँ, कहीं ऐसे बेटी की बिदाई होती है! लाओ जरा रोली घोलो जल्दी से, चावल लाओ, और सेन्दुर भी ले आना निरमल बेटा! तुम बेटा उतर आओ इक्के से!”

निरमल की माँ का चेहरा स्याह पड़ गया था। बोलीं, “जितना हमसे बन पड़ा किया। किसी को दौलत का घमण्ड थोड़े ही दिखाना था?” “नहीं बहन! तुमने तो किया पर मुहल्ले की बिटिया तो सारे मुहल्ले की बिटिया होती है। हमारा भी तो फर्ज था। अरे माँ-बाप नहीं हैं तो मुहल्ला तो है। आओ बेटा?” और उन्होंने टीका करके आँचल के नीचे छिपाये हुए कुछ कपड़े और एक नारियल उसकी गोद में डालकर उसे चिपका लिया। गुलकी जो अभी तक पत्थर-सी चुप थी सहसा फूट पड़ी। उसे पहली बार लगा जैसे वह मायके से जा रही है। मायके से अपनी माँ को छोड़कर छोटे-छोटे भाई-बहनों को छोड़कर और वह अपने कर्कश फटे हुए गले से विचित्र स्वर से रो पड़ी।

“ले अब चुप हो जा! तेरा भाई भी आ गया?” वे बोलीं। मुन्ना बस्ता लटकाये स्कूल से चला आ रहा था। कुबड़ी को अपनी माँ के कन्धे पर सर रखकर रोते देखकर वह बिल्कुल हतप्रभ-सा खड़ा हो गया- “आ बेटा, गुलकी जा रही है न आज! दीदी है न! बड़ी बहन है। चल पाँव छू ले! आ इधर?” माँ ने फिर कहा। मुन्ना और कुबड़ी के पाँव छुए? क्यों? क्यों? पर माँ की बात! एक क्षण में उसके मन में जैसे एक पूरा पहिया घूम गया और वह गुलकी की ओर बढ़ा। गुलकी ने दौड़कर उसे चिपका लिया और फूट पड़ी- “हाय मेरे भैया! अब हम जा रहे हैं! अब किससे लड़ोगे मुन्ना भैया? अरे मेरे वीरन, अब किससे लड़ोगे?” मुन्ना को लगा जैसे उसकी छोटी-छोटी पसलियों में एक बहुत बड़ा-सा आँसू जमा हो गया जो अब छलकने ही वाला है। इतने में उस आदमी ने फिर आवाज दी और गुलकी कराहकर मुन्ना की माँ का सहारा लेकर इक्के पर बैठ गयी। इक्का खड़-खड़ कर चल पड़ा। मुन्ना की माँ मुड़ी कि बुआ ने व्यंग्य किया, “एक आध गाना भी बिदाई का गाये जाओ बहन! गुलकी बन्नो ससुराल जा रही है!” मुन्ना की माँ ने कुछ जवाब नहीं दिया, मुन्ना से बोली, “जल्दी घर आना बेटा, नाश्ता रखा है?”

पर पागल मिरवा ने, जो बम्बे पर पाँव लटकाये बैठा था, जाने क्या सोचा कि वह सचमुच गला फाड़कर गाने लगा, “बन्नो डाले दुपट्टे का पल्ला, मुहल्ले से चली गयी राम?” यह उस मुहल्ले में हर लड़की की बिदा पर गाया जाता था। बुआ ने घुड़का तब भी वह चुप नहीं हुआ, उलटे मटकी बोली, “काहे न गावें, गुलकी नै पैसा दिया है?” और उसने भी सुर मिलाया, “बन्नो तली गयी लाम! बन्नो तली गयी लाम! बन्नो तली गयी लाम!”

मुन्ना चुपचाप खड़ा रहा। मटकी डरते-डरते आयी- “मुन्ना बाबू! कुबड़ी ने अधन्ना दिया है, ले लें?”

“ले ले” बड़ी मुश्किल से मुन्ना ने कहा और उसकी आँख में दो बड़े-बड़े आँसू डबडबा आये। उन्हीं आँसुओं की झिलमिल में कोशिश करके मुन्ना ने जाते हुए इक्के की ओर देखा। गुलकी आँसू पोंछते हुए परदा उठाकर मुड़-मुड़कर देख रही थी। मोड़ पर एक धचके से इक्का मुड़ा और फिर अदृश्य हो गया।

सिर्फ झबरी सड़क तक इक्के के साथ गयी और फिर लौट गयी।

Saturday, February 3, 2024

लाटी - शिवानी


लम्बे देवदारों का झुरमुट झक-झुककर गेठिया सैनेटोरियम की बलैया-सी ले रहा था। काँच की खिड़कियों पर सूरज की आड़ी-तिरछी किरणें मरीज़ों के क्लांत चेहरों पर पड़कर उन्हें उठा देती थीं। मौत की नगरी के मुसाफिरों के रोग-जीर्ण पीले चेहरे सुबह की मीठी धूप में क्षण-भर को खिल उठते। आज टी.बी., सिरदर्द और जुकाम-खाँसी की तरह आसानी से जीती जानेवाली बीमारी है, पर आज से कोई बीस साल पहले टी.बी. मृत्यु का जीवंत आह्वान थी। भुवाली से भी अधिक माँग तब गेठिया सैनेटोरियम की थी। काठगोदाम से कुछ ही मील दूर एक ऊँचे पहाड़ पर गेठिया सैनेटोरियम के लाल-लाल-छतों के बँगले छोटे-छोटे गुलदस्ते से सजे थे।

तीन नम्बर के बँगले का दुगुना किराया देकर कप्तान जोशी स्वयं अपनी रोगिणी पत्नी के साथ रहता था। बँगले के बरामदे में पत्नी के पलँग के पास वह दिन-भर आराम-कुर्सी डाले बैठा रहता, कभी अपने हाथों से टेम्परेचर चार्ट भरता और कभी समय देख-देखकर दवाईयाँ देता। पास के बँगले के मरीज़ बड़ी तृष्णा और चाव से उनकी कबूतर-सी जोड़ी को देखते। ऐसी घातक बीमारी में कितने यत्न और स्नेह से सेवा करता था कप्तान जोशी! कभी उसके आनन्दित चेहरे पर झुँझलाहट या खीझ की अस्पष्ट रेखा भी नहीं उभरती। कभी वह घुँघराले बालों को ब्रुश से सँवारता, बड़े ही मीठे स्वर में पहाड़ी झोड़े गाता, जिनकी मिठास में तिब्बती बकरियों के गले में बँधी, बजती-रुनकती घंटियों की-सी छुनक रहती। पहाड़ी मरीज़ बिस्तरों से पुकार कर कहते, “वाह कप्तान साहब, एक और!”

कप्तान अपने पलंग से घुली-मिली सुन्दरी ‘बानो’ की ओर देख बड़े लाड़ से मुस्कुरा देता। बानो का गोरा चेहरा बीमारी से एकदम पीला पड़ गया था और उसकी बड़ी-बड़ी आँखें और बड़ी-बड़ी हो गयी थीं। शान्त तरल दृष्टि से वह कप्तान को दिन-रात टुकुर-टुकुर देखती रहती। विवाह के दो वर्ष पश्चात यही उनका वास्तविक हनीमून था, जहाँ न अम्मा, चाची और ताई की शासन की लगाम थी, न नई बहू के घूँघट की बन्दिश। पिंजड़े की चिड़िया आज़ाद कर दी गई थी किन्तु अब उसके कमज़ोर डैनों में उड़ने की ताकत नहीं थी। कप्तान उसकी दुर्बल तप्त हथेली को अपनी कसरती मुट्ठी में बड़े प्यार से दबाकर सहलाने लगता तो उसकी सींक-सी कलाई की सोने की चूड़ी सर-सर कर कोहनी तक सरक जाती।

उन दिनों गेठिया का डॉक्टर एक अधेड़ स्विस था। एक दिन उसने कप्तान को अकेले में बुलाकर कहा, “कप्तान, तुम अभी जवान हो, यह बीमारी जवानी की भूखी है। मैं देख रहा हूँ, तुम ज़रा भी परहेज़ नहीं बरतते। मरीज़ की भूख को दवा से जीतना होगा, मुहब्बत से नहीं।”

क्षण-भर को सब समझकर कप्तान लाल पड़ गया। उसके बूढ़े पिता के भी कई पत्र आ चुके थे और माँ ने रो-रोकर चिट्ठियाँ डाल दी थीं, “मेरे दस-बीस पूत नहीं हैं बेटा, यह बीमारी सत्यानाशी है” – पर कप्तान पहले की तरह अलमस्त डोलता, कभी बानो के चिकने केशों को चूमता, कभी उसकी रेशमी पलकों को, कभी पास के प्राइवेट वार्ड की, गुमानसिंह मालदार की गोल-मटोल पत्नी से मज़ाक करता।

सैनेटोरियम की मनहूस ज़िन्दगी के काले आकाश में रोबदार ठकुरानी ही एक मात्र द्युतिमान तारिका थी। भरे-भरे हाथ-पैर की, चिकने चेहरे पर सदा मुस्कान बिखेरती वह पूरे सैनेटोरियम की भाभी थी। उसके स्वास्थ्य के दुर्गम दुर्ग में भी न जाने बीमारी का घुन किस अरक्षित छिद्र से प्रवेश पा गया था। टी.बी. लगने की पीड़ा से कराहती वह अपनी कदर्य गालियों का अक्षय भण्डार खोल देती। कभी लक्षपति श्वसुर को लक्ष्य बनाती, “हैं हमारे ‘बुडज्यू’ आधी कुमाऊँ के छत्रपति, पर बहू तीथांण (श्मशान) को जा रही है तो उनकी बला से! दुम उठाकर जिसे देखा, वही बदज़ात नर से मादा निकला।”

“ए शाब्बाश, क्या पंच के स्टैण्डर्ड का सेंस ऑफ़ ह्यूमर है! भाभी तबियत बाग-बाग कर दी।” कप्तान कहता।

“एक मेरा खसम है साला। पी के धुत होगा किसी गोरी मेम को लेकर। दो महीने से हरामी झाँकने भी नहीं आया। दाढ़ीजारे की ठठरी उठेगी तो मज़ाल मैं भी सुहाग उतारूँ।” वह फिर कहती।

“क्यों भाभी, क्यों कोस रही हो?” कप्तान हँसकर कहता।

प्रौढ़ा नेपाली भाभी की सदाबहार हँसी से खिलखिलाती आँखें छलक उठतीं, “शाबास है, कप्तान बेटा, तुझे देखकर मेरी छातियों में दूध उतर आता है। कैसी सेवा कर रहा है तू, और एक हमारे हैं कुतिया के जने! मिले तो मूँछें उखाड़कर हरामी के मुँह में ठूँस दूँ।”

कप्तान हँसते-हँसते दुहरा हो जाता, मूँछें उखाड़कर मुँह में ठूँसने की बात कुछ ऐसी जम जाती कि वह भागकर बानो को सुना आता।

नेपाली भाभी के पति की असंख्य मोटरें अल्मोड़ा-नैनीताल को घेरे रहतीं, चाय के बगीचों का अंत नहीं था; किन्तु उनके वैभव ने पत्नी के प्रति प्रेम और मोह की बेड़ियाँ काट दी थीं। एक वर्ष से वे एक बार भी उसे देखने नहीं आए।

एक दिन कप्तान ने देखा, नेपाली भाभी की खाँसी बहुत ही बढ़ गयी है, खाँसी का दौरा-सा पड़ा और कप्तान भागकर देखने गया तो देखा, रक्त के कुंड के बीच नेपाली भाभी की विराट गेहुँआ देह निष्प्राण पड़ी थी। पति की मूँछों को उसके मुँह में ठूँसने का स्वप्न अधूरा ही छोड़कर भाभी चली गई थी।


कुछ दिन तक कप्तान उदास हो गया। बानो की बड़ी-बड़ी आँखों में भी उदासी के डोरे पड़ गए। जब ऐसी हँसती-खेलती लाल-लाल भाभी को मौत खींच ले गई तो हड्डियों का ढाँचा मात्र बानो तो हवा में उड़ती रुई का फाहा थी। भाभी की मौत आकर जैसे उन दोनों के कान में कह गई थी कि ज़िन्दगी कुछ ही पलों की है। उन अमूल्य पलों के अमृतस्वरूपी रस की अन्तिम बूँद भी उन दोनों को छोड़ना मंजूर न था। नित्य निकट आती मौत ने बानो को चिड़चिड़ा बना दिया, पर जैसे इकलौते ज़िद्दी दुर्बल बालक की हर ज़िद को स्नेहमयी माता हँस-खेलकर झेल लेती है, वैसे ही कप्तान हठीली बानो की हर ज़िद पूरी करता। कभी वह खिली चाँदनी में बाहर जाने को मचलती तो वह अपने खाकी ओवरकोट में उसे लपेटकर अपनी देह से सटाए लम्बे चीड़ की छाया में बैठा रहता।

बानो को विवाह के ठीक तीसरे ही दिन छोड़कर उसे बसरा जाना पड़ा था। उन तीन दिनों में, खाकी वर्दी में कसे छह-फूटे शरीर और भूरी-भूरी मूँछों को देखकर, बानो उससे जितना ही कटी-कटी छिपी फिरती, वह उसे पाने को उतना ही उन्मत्त हो उठता। उसे देखते ही वह अपनी मेहँदी लगी नाजुक हथेलियों से लाज से गुलाबी चेहरा ढाँक लेती। दूसरे दिन बड़ी कठिनता से कप्तान उसके मुँह से धीमी फुसफुसाहट में उसका नाम कहलवा पाया था, बहुत धीमे स्वर में ही प्रणय-निवेदन की भूमिका बाँधनी पड़ी थी; क्योंकि पास के कमरे में ही ताऊजी लेटते थे।

“क्या नाम है तुम्हारा?” उसकी तीखी ठुड्डी उठाकर कप्तान ने पूछा था।

“बानो।” उसके पतले होंठ हिलकर रह गए।

“राम-राम, मुसलमानी नाम।” कप्तान ने हँसकर छेड़ दिया।

“सब यही कहते हैं, मैं क्या करूँ?” बानो की आँखें छलक उठीं।

“मैं तो तुम्हें छेड़ रहा था, कितना प्यारा नाम है! पहाड़ी नाम भी कोई नाम होते हैं भला, सरुली, परुली, रमा, खष्टी।” वह बोला, “कितने साल की हो तुम, बानो?”

“इस आषाढ़ में मुझे सोलहवाँ लगेगा।” बानो ऐसे उत्साह से बोली जैसे उसने आधी ज़िन्दगी पार कर ली हो। कप्तान का दिल भर आया, अपनी खिलौने-सी बहू को उसने खींचकर हृदय से लगा लिया। पहले वह अपने ताऊ और पिता से सख़्त नाराज़ हो गया था, कहाँ वह ठसकेदार बाँका कप्तान और कहाँ हाईस्कूल पास छोकरी को पल्ले बाँधकर रख दिया! पर बालिका बानो की सरल आँखों का जादू उस पर चल गया। तीसरे दिन ही उसे बसरा जाना था। कप्तान बानो से विदा लेने गया तो वह कोने में बैठी छालियाँ कतर रही थी, उसकी पलकें भीगी थीं और पति की आहट पाकर उसने घुटनों में सिर डाल दिया। झट से झुककर कप्तान ने उसका माथा चूम लिया। उसका गला भर आया।

तीन-दिन की ताजा सुन्दरी नववधू को इस तरह छोड़कर जाना कप्तान को दुश्मन की गोलाबारी से भयंकर लगा। इसके बाद दो वर्षों तक कप्तान युद्ध की विभीषिका में भटक गया। बर्मा और बसरा के जंगलों में भटक-भटककर उसके साथी वहशी बन गए थे। गंदे अश्लील मज़ाक करते। फौजी अफसरों में कप्तान ही सबसे छोटी उम्र का था। बर्मा के युद्ध से स्तब्ध सड़कों पर चपल बर्मी रमणियों के कुटिल कटाक्षों का अभाव नहीं था, फिर भी कप्तान अपनी जवानी को दाँतों के बीच जीभ-सी बचाता सेंत गया।

दो साल बाद घर पहुँचा तो दुनिया बदल चुकी थी। उन दो वर्षों में बानो ने सात-सात ननदों के ताने सुने, भतीजों के कपड़े धोए, ससुर के होज बिने, पहाड़ की नुकीली छतों पर पाँच-पाँच सेर उड़द पीस कर बड़ियाँ तोड़ीं। कभी सुनती उसके पति को जापानियों ने कैद कर लिया है, अब वह कभी नहीं लौटेगा। सास और चचिया सास के व्यंग्य-बाण उसे छेद देते, वह घुलती गयी और एक दिन क्षय का तक्षक कुंडली मारकर उसकी नन्ही-सी छाती पर बैठ गया। उसे सैनेटोरियम भेज दिया गया था। दूसरे ही दिन कप्तान बानो को देखने चल दिया तो घरवालों के चेहरे लटक गए।

गेठिया पहुँचा और एक प्राइवेट वार्ड के बरामदे में लेटी बानो को देखकर उसका कलेजा उछलकर मुँह को आ गया। दो वर्षों में बानो घिसकर और भी बच्ची बन गई थी। कप्तान को देखकर उसकी तरल आँखें खुली ही रह गईं, फिर आँसू टपकने लगे। कहने और कैफियत देने की कोई गुंजाइश नहीं रही। बानो के बहते आँसुओं की धारा ने दो साल के सारे उलाहने सुना दिए। दोनों ने समझ लिया कि मिलन के वे क्षण मुट्ठी-भर ही रह गए थे।

उन दिनों सैनेटोरियम में एक अत्यंत क्रूर नियम था। रोगियों को उनकी अन्तिम अवस्था जानकार उन्हें घर भेज दिया जाता। सैनेटोरियम में मृत्यु का प्रवेश सर्वथा निषिद्ध था। नेपाली भाभी की मृत्यु के बाद कप्तान और बानो मातम में डूब गए, पर चौथे दिन वे फिर हनीमून मनाने लगे। अपनी साड़ियों का बक्स निकलवाकर बानो ने कई साड़ियों पर इस्त्री करवाई। बड़ी देर तक दोनों ने पेशेन्स खेला, पर शाम होते ही बानो मुरझाने लगी। दिन-भर उसे दस्त आ रहे थे और टी.बी. के मरीज़ को दस्त आना खतरे से खली नहीं होता। डॉक्टर दलाल आया, उसने कप्तान को बाहर ले जाकर कमरा खाली करवाने का नोटिस दे दिया, “कल ही ले जाना होगा, आई गिव हर टू टु-थ्री डेज़। इससे ज़्यादा नहीं बचेगी।”


कप्तान का चेहरा सफ़ेद पड़ गया। घर जाने का प्रश्न नहीं उठता था, तीन रस-भरे महीनों की मीठी धरोहर को वह घर की कड़वाहट से अछूता ही रखना चाहता था। भुवाली के पास ही एक चाय की दूकान के नीचे साफ़-सुथरा कमरा, मृत्यु का पासपोर्ट पाए बानो-जैसे अभागे मरीज़ों के लिए सदा बाँह फैलाए खुला रहता था।

“सैनेटोरियम छोड़कर हम कल दूसरी जगह चलेंगे, बानो। यहाँ साली तबियत बोर हो गई है।” बड़े उत्साह और आनन्द से कप्तान ने भूमिका बाँधी, पर बानो का चेहरा फक पड़ गया। वह समझ गई कि आज उसे भी नोटिस दे दिया गया है।

बड़ी रात तक कप्तान उसके गालों के पास अपना चेहरा ले जाकर गुनगुनाता रहा, “बानो, मेरी बन्नी, बन्नू!” और फिर जब बानो को नींद आ गई तो वह भी अपने पलंग पर जाकर सो गया।

सुबह उठा तो बानो पलंग पर नहीं थी। सोचा, घिसटती बाथरूम तक चली गई होगी। जोश आने पर वह काफी दूर तक चल लेती थी। बड़ी देर तक नहीं लौटी तो वह घबराकर उठा। बानो कहीं नहीं थी। भागकर वह मरीज़ों के पास गया, डॉक्टर आया, नर्सें आईं, चौकीदार आया, पर बानो कहीं नहीं थी। सैनेटोरियम में आज पहली बार ऐसी अनहोनी घटना घटी थी।

दूसरे दिन बड़ी दूर रथी घाट पर बानो की साड़ी मिली थी। मृत्यु के आने से पूर्व वह अभागी स्वयं ही भागकर मृत्यु से मिलने चली गई थी।

इसमें कोई सन्देह नहीं रहा कि बानो ने डूबकर आत्महत्या कर ली थी। शोक से पागल होकर कप्तान उसकी साड़ी को छाती से चिपटाए फिरता रहा; किन्तु मर्द की जवानी जाड़े की भयंकर लम्बी रात के समान है, जो काटे नहीं कटती। एक ही साल में उसका फिर विवाह हुआ, अब के ताऊ और पिता ने खूब ठोंक-पीट कर बहू छाँटी। ऊँची-अगली, गोरी और एम.ए. पास। कप्तान की नई पत्नी के पिता थे मेज़र जनरल। चालीस तमगे लगाकर उन्होंने कन्यादान किया तो कप्तान बेचारा सहम कर रह गया। प्रभा इकलौती लड़की थी, फिर दुजू की बीवी थी, जो बादशाह की घोड़ी से कम नहीं होती। उसके सौ-सौ नखरे उठाता कप्तान हँसना, खिलखिलाना और मौज़-मस्तियाँ सब भूलकर रह गया।

चार साल में कप्तान को दो बेटे और एक बेटी देकर प्रभा ने धन-संचय की ओर ध्यान लगाया। सोलह सालों में कप्तान के बैंक बैलेंस में रुपयों और नोटों की मोटी तह जमाकर दोनों नैनीताल घूमने आए। कप्तान की थोड़ी सी तोंद निकल आई थी, चेहरा अभी भी मस्ताना था, पर मूँछों में अब वह ऐंठ नहीं रह गई थी, कनपटी के आस-पास बाल सफेद हो चले थे। दो जवान लड़कों को कमीशन मिल गया था, बेटी मिरांडा हाउस में पढ़ रही थी।

नैनीताल आकर कप्तान के दिल में एक टीस-सी उठी। काठगोदाम से चलकर गेठिया दिखा और वह गुमसुम-सा हो गया।

नैनीताल के ग्रांड होटल में दोनों टिके। प्रभा बोली, “चलो डार्लिंग, पहाड़ का इंटीरियर घूमा जाए। भुवाली चलें।” चिकन, सैंडविच, रोस्ट मुर्ग पैक करवाकर उसने अपनी फियट गाड़ी भुवाली की ओर छोड़ी। बगल में दामी चंदेरी साड़ी और बिना बाँहों के ब्लाउज़ से अपने मांसल शरीर की गोरी दमक बिखेरती प्रभा बैठी। भुवाली की एक छोटी-सी दुकान देखकर प्रभा ने गाड़ी रुकवा दी, “इसी दुकान में आज एकदम पहाड़ी स्टाइल से कलई के गिलास में चाय पिएँगे हनी।” वह बोली।

कप्तान अब मेज़र था, “मेज़र की डिग्निटी कहाँ जाएगी?” वह बोला।

“भाड़ में!” कहकर प्रभा अपनी पेंसिल हील की जूतियाँ चटकाती दुकान में घुस गई।

काठ की एक बेंच धुएँ और कालिख से काली पड़ गई थी, उसी को झाड़कर दोनों बैठ गए। पहले कुछ देर को पहाड़ी दुकानदार भौंचक-सा रह गया। लकड़ी के धुएँ से एकदम काली केटली में चाय उबल रही थी।


“खूब गर्म दो गिलास चाय लाओ, प्रधान।” मेज़र ने पहाड़ी में कहा और दुकानदार का मुँह खुला ही रह गया। ऐसे अंग्रेज़ी में बोलनेवाला अनोखा जोड़ा पहाड़ी कैसे हो गया, वह सोचने लगा।

वह चाय बना ही रहा था कि अलख-अलख करते वैष्णवियों के दल ने भीतर घुसकर दुकान घेर ली, “ओ हो गुरु, भल द्दा भल द्दा।” कहकर हेड वैष्णवी ने बड़े प्रभुत्वपूर्ण स्वर में सोलह गिलास चाय का आर्डर दे दिया। हेड वैष्णवी बड़ी ही मुखर और मर्दानी थी, इसी से शायद मर्दाने स्वर में बोल भी रही थी, “सोचा, बामण ज्यू की ही दुकान की चाय छोरियों को पिलाऊँगी, आज एकादशी है।”

“क्यों नहीं! क्यों नहीं!” दुकानदार बोला, “अरे लाटी भी आई है?”

“अरे कहाँ जाएगी अभागी!” वैष्णवी ने कहा। प्रभा और मेज़र की दृष्टि एक साथ ही लाटी पर पड़ी।

कुत्सित बूढ़ी अधेड़ वैष्णवियों के बीच देवांगना-सी सुन्दरी लाटी अपनी दाड़िम-सी दन्तपंक्ति दिखाकर हँस दी। मेज़र का शरीर सुन्न पड़ गया, स्वस्थ होकर जैसे साक्षात् बानो ही बैठी थी। गालों पर स्वास्थ्य की लालिमा थी, कान तक फैली आँखों में वही तरल स्निग्धता थी और गूँगी जिह्वा का गूँगापन चेहरे पर फैलकर उसे और भी भोला बना रहा था।

“हाय, क्या यह गूँगी है? माई गॉड, ह्वाट ब्यूटी।” प्रभा बोली।

“हाँ सरकार, यह लाटी है।”, दुकानदार ने कहा और मेज़र के दिल पर आ गिरी भारी पत्थर की चट्टान उठ गई।

“क्या नाम है जी इसका?” प्रभा मुग्ध होकर लाटी को ही देख रही थी।

“नाम जो होगा, वह तो बह गया मीमशाब, अब तो लाटी ही इसका नाम है।” हेड वैष्णवी ने कहा, “हमारे गुरु महाराज को इसकी देह नदी में तैरती मिली। जीभड़ी इसकी कटकर कहीं गिर गई थी। राम जाने कौन था वह! गले में चरयो (मंगल-सूत्र) था, ब्याह हो गया होगा। फिर हमारा गुरु महाराज इसको गुरुमंतर दिया। भयंकर ‘छे रोग’ था। एक-एक सेर खून उगलता था, पर गुरु का शरण में आया तो सब रोग-सोग ठीक हो गया इसका। लाटी, जीभ दिखा।

धुँ-धुँ कर लाटी ने भुवनमोहिनी हँसी हँस दी, जीभ नहीं दिखाई।

“कुछ नहीं समझती साली। बस खाती है ढाई सेर, सब भूल गया, हमारा आर्डर भी नहीं मानती।” असंतुष्ट स्वर में मर्दानी वैष्णवी बोली।

“ओह, माई गॉड! अपने आदमी को भी भूल गई क्या?” प्रभा बोली।

“जो था सो था, इसको कुछ याद नहीं। खाली ‘फिक-फिक’ कर हँसती है हरामी। अब परभू इसका मालिक और परभू इसका सहारा है। हाँ, गुरु कितना पैसा हुआ?”

हेड वैष्णवी ने पैसे चुकाए और उसका दल अलख बजता उठ खड़ा हुआ। लाटी बैठी ही रही, मेज़र एकटक उसे देख रहा था। यह वही बानो थी, जिसे डॉक्टर दलाल और कक्कड़ जैसे प्रसिद्ध विशेषज्ञों की मृत्युंजय औषधियाँ भी स्वस्थ नहीं कर सकी थीं।

“उठ साली लाटी!” हेड वैष्णवी ने हलकी-सी ठोकर से लाटी को उठाया। एक बार फिर अपनी मधुर हँसी से मेज़र का हृदय बींधकर लाटी उठी और दल के पीछे-पीछे चल दी। काश, उसके भोले चेहरे से गाल सटाकर मेज़र कह सकता, ‘मेरी बानो, बन्नी, बन्नू!’ शायद उसकी गूँगी ज़बान के नीचे दबी उसकी गूँगी पिछली ज़िन्दगी बोल उठती।

पर मेज़र, ज़िन्दगी की दौड़ में बहुत आगे निकल आया था, पीछे लौटकर बिछुड़े को लाना सबसे बड़ी मूर्खता होती। दो जवान बेटे और बेटी, राष्ट्रपति के सहभोजों में चमकती उसकी शानदार दूसरी बीवी, गरीब, गूँगी लाटी का आना कैसे सह सकते?

“उठो डार्लिंग, लंच गर्म पानी में करेंगे।” प्रभा ने कहा और मेज़र उठ खड़ा हुआ। कुछ ही पलों में वह बूढ़ा और खोखला हो गया था।

बानो मर गई थी। अब तो वह लाटी थी। परभू अब उसका मालिक और परभू ही उसका सहारा था।

Thursday, February 1, 2024

हरी बिंदी - मृदुला गर्ग


आँख खुलते ही आदतन नज़र सबसे पहले कलाई पर बंधी घड़ी पर गयी… सिर्फ साढ़े छह बजे थे। उसने फौरन दुबारा कस कर आंखे बंद कर लीं और इंतज़ार करने लगी कि अब पलंग चरमरायेगा और आवाज़ आयेगी- उठना नहीं है क्या? पर जब कुछ देर चुप्पी बनी रही तो आंखें खोल कर देखा, बिस्तर पर वह अकेली है। अरे हाँ, रात ही तो राजन दिल्ली गया है। याद ही नहीं रहा। तो अब उठने की कोई जल्दी नहीं है।

उसने ढेर सारी हवा गालों में भर कर लंबी सांस छोड़ी और पूरे बिस्तर पर लोट लगा गयी। दूसरे सिरे पर जा कर मुंह पर बांह रख कर लेटी तो कानों में घड़ी की टिक-टिक बज उठी। वह मुस्करा दी। उसे कलाई पर घड़ी बांध कर सोने की आदत है। रोज राजन चिढ़ कर कहता है। यह क्या, सारी रात कान के पास टिक-टिक होती रहती है। इसे उतारो न। उसने मुंह पर से बांह हटा ली, तकिया खींच कर पेट के नीचे दबा लिया और लंबे-चौड़े पंलग पर बांहे फैला कर औंधी लेट गयी। ओह, सुबह देर तक सोने में कितना आनंद आता है। राजन होता है तो सुबह छह-साढ़े छह से ही खटर-पटर शुरू हो जाती है। चाय-नाश्ते की तैयारी, दोपहर का खाना साथ में और आठ बजे राजन दफ्तर के लिए रुखसत। न जाने राजन को जल्दी उठने का क्या मर्ज है। खैर आज वह स्वतंत्र है। जो चाहे करे। उसने शरीर को ढीला छोड़ दिया और दोबारा सोने की तैयारी करने लगी।

फिर आंख खुली तो साढ़े आठ बजे चुके थे। उसने एक प्याला चाय बनायी और खिड़की का परदा हटा कर बाहर झांकने लगी। दूर तक धुंध छायी थी। आज जरूर बरसात होगी, उसने सोचा। उसे धुंध बहुत भली लगती है। जब मालूम नहीं पड़ता, वहाँ कुछ दूर पर क्या है तो अनायास आशा होने लगती है कि कोई अनुपम और मोहक वस्तु होगी। मैं भी खूब हूँ, उसने मुस्करा कर सोचा, मुझे धुंध में खुलापन लगता है और सूर्य के प्रकाश में घुटन!

चाय पी कर गरम पानी से देर तक नहाया जाये, उसने सोचा और बाल्टी भरने लगी। फिर ठंडे पानी की फुहार ही ऊपर छोड़ ली और एक ग़ज़ल गुनगुना उठी। बड़े तौलिये से खूब रगड़ कर बदन पोंछा। आज एक अद्भुत स्फूर्ति और उत्साह का अनुभव हो रहा है। नीले रंग का कुर्ता और चूड़ीदार पाजामा पहना तो नीले रंग की बिंदी माथे पर लगाने को हाथ बढ़ गया। फिर न जाने क्या सोच कर उसे छोड़ दिया और बड़ी सी हरी बिंदी लगा ली। राजन होता तो कहता, नीले पर हरा? क्या तुक है? उसने दर्पण में दिख रही अपनी प्रतिच्छाया को ज़बान निकाल कर चिढ़ा दिया, कहा ‘तुक की क्या तुक है?’ और खिलखिला कर हंस पड़ी।


दराज खोली तो नज़र चांदी की बाली पर पड़ गयी। उठा कर कानों में लटका लीं। विवाह के बाद से पहननी छोड़ दी थी। नकली हैं न। और जरूरत से ज्यादा बड़ी, राजन कहता है। एक पुराना बैग हाथ में ले, झपट कर बाहर निकल आयी। बरामदे में मुंडू बैठा आराम से सिगरेट फूक रहा था, राजन की। उसे देखते ही हथेली में छिपा, बड़ी संजीदगी से बोला, “खाना क्या बनाऊं?”

“कुछ नहीं”, उसने कहा, “नहीं खायेंगे। तुम्हारी छुट्टी।”

मुंडू की घबरायी सूरत देख कर हंस पड़ी और बोली, “मेरा मतलब, जो तुम्हे अच्छा लगे बना लो। तुम्हें ही खाना है, चाहे खाओ चाहे छुट्टी मनाओ।”

बिना यह चिंता किये कि ठीक कहाँ जायेगी या क्या करेगी, वह सड़क पर कुछ दूर चलती चली गयी। बस इतना जानती है कि आज का दिन यों ही नहीं जाने देगी। कुछ तय करने से पहले बारिश शुरू हो गयी। उसने कुछ दूर भाग कर टैक्सी को आवाज लगायी और भीतर घुस कर सोचने लगी, जब टैक्सी ली है तो कहीं न कहीं जाने को कहना पड़ेगा। जहाँगीर आर्ट गैलरी, उसने जो सबसे पहले मुंह में आया, कह दिया।

गैलरी में किसी आधुनिक चित्रकार की प्रदर्शनी हो रही थी। विशेष कुछ समझ में नही आया पर आनंद अवश्य आया। आज कुछ भी करने में आनंद आ रहा है। एक चित्र के आगे वह काफी देर खड़ी रही। देखा पूरे केनवास पर रंग-बिरंगी रेखाएं इधर-उधर दौड़ी चली जा रही हैं। अरे, उसने सोचा, यह तो बिलकुल मेरे कुर्ते की तरह है। वह ज़ोर से हंस पड़ी, इतनी जोर से कि पास खड़ा एक दढ़ियल उसे घूरने लगा। कहीं यही तो चित्रकार नहीं है? बेचारा! जरूर चित्र अत्यंत त्रासद रहा होगा। उसने चेहरा गंभीर बनाया और दढ़ियल के पास जा कर विनम्रता से कहा, “सॉरी”, और बाहर निकल आयी।

बाहर आ कर ख़याल आया, हो सकता है, वह कलाकार न हो, उद्योगपति हो। दो किस्म के इंसान ही दाढ़ी रखने का साहस कर सकते हैं, कलाकार और सामंत। सामंत अब रहे नहीं, उनका स्थान उद्योगपतियों ने ले लिया है। तब तो दिन भर यही सोचता रहेगा, उसने सॉरी क्यों कहा। उसमें भी नफे की गुंजाइश ढूंढता रहेगा। वह दूने वेग से हंस दी।

फिर देखा, बारिश थमी हुई है पर आकाश अब भी काफी गुस्सैल नजर आ रहा है। पूरा बरसा नहीं, उसने सोचा, और फिर सड़क थाम ली।

सड़क के किनारे रेस्तरां देख याद आया कि काफी जोर से भूख लगी है। भीतर जा कर चटपट आदेश दे दिया, “एक गरमागरम आलू की टिकिया और एक आइसक्रीम, एक साथ।”

“एक साथ?” बैरे ने आश्चर्य दिखाया।

“हाँ, कोई एतराज है?”

“जीं नहीं। लाया।”

उसे ठंडा और गरम एक साथ खाना भला लगता है। कहते हैं, दांत खराब हो जाते हैं। कितना चटपट काम हो गया आज। राजन रहता है तो बढ़िया जगह बैठ कर आराम से खाने की सूची देखने के बाद, सोच-विचार कर आदेश दिये जाते हैं।


खा कर बाहर निकली तो सोचा, पास किसी सिनेमाघर में पिक्चर देख ली जाये। किस्मत से अंग्रेजी की पुरानी मज़ाकिया पिक्चर मिल गयी। डैनी के की। राजन कहता है, न जाने तुम्हें डैनी के कैसे पसंद है। मुझे तो उसके बचपने पर हंसी नहीं आती। पर उसे आती है, खूब आती है, फिर हंसी पर हंसी आती है…..। कभी कभी बे-बात आती है, जैसे आज।

पिक्चर के दौरान वह आज और दिनों से ज्यादा ठहाके लगा रही थी। पास बैठे आदमी की सूरत अंधेरे में दिख नहीं रही थी, पर हंसी की आवाज ज़रूर सुनायी पड़ रही थी। पता लग रहा था, हंसने में वह उससे दो कदम आगे है। अदाकार की एक खास बेचारगी की मुद्रा पर वे इतनी जोर से हंसे कि उनके हाथ आपस में टकरा गये। सॉरी कहने के इरादे से एक-दूसरे की तरफ मुड़े, पर माफ़ी मांगने के बजाय एक ठहाका और लगा गये। उसके बाद हर बार यही हुआ। हंसी आने पर वे अनायास एक-दूसरे को देखते और मिल कर हंसते। खेल खत्म होने पर एक साथ बाहर निकले तो देखा, साढ़े चार बजे ही काफी अंधेरा हो चला है। आकाश यों तना खड़ा है कि अब बरसा, अब बरसा।

“कितना सुहावना दिन है,” उसने अपने पड़ोसी से कहा।

“सुहावना?” उसने कुछ अचरज से कहा, “या बेरंग?”

“हाँ, कितना सुहावना बेरंग दिन है।”

वह हंस पड़ा, “समझता हूँ। सूरज यहाँ रोज़ निकलता है।”

“पर धुंध कभी-कभी होती है। आठ महीनों में आज पहली बार।”

“अब मानसून शुरू हो जायेगी?”

“हाँ आज खूब बरसेगा,” उसने कहा। फिर अनायास जोड़ा, “कॉफी पियेंगे?”

“ज़रूर।”

हलकी हलकी फुहार पड़नी शुरू हो गयी तो दोनों भाग कर सामने वाले रेस्तरां में जा घुसे। उसने बाल झटक दिये और बोली, “आपका छाता कहाँ है?”

“छाता?”

“हाँ, आप लोग हमेशा छाता साथ रखते हैं न?”

वह ठहाका मार कर हंस पड़ा, “इंगलैंड में”, उसने कहा।

कॉफी मंगा कर दोनों सामने, काले पड़ आये, समुद्र को देखते अपने-अपने ख़यालों में खो गये।

सहसा उसकी आवाज सुन कर वह चौंकी, “आप क्या सोच रही हैं, यह जानने के लिए पेनी का खर्चा करने को तैयार हूँ”, वह कह रहा था।

“दीजिए”, उसने हंस कर कहा।

उसने निहायत संजीदगी से जेब में हाथ डाला और एक पेनी आगे कर दी। उसने उसे हथेली में बंद कर लिया।

“बतलाना सच सच होगा।”

“मैं सोच रही थी, समुद्र में कूद पड़े तो कितनी दूर तक अकेली तैर सकूँगी। और आप? आप क्या सोच रहे थे? पर पेनी नहीं दूँगी”, उसने मुट्ठी कस कर बंद कर ली, जैसे उसमें किसी आत्मीय का दिया उपहार हो।

“बुरा तो नहीं मानेंगी?” उसने पूछा।

“नहीं”, उसने कह दिया पर दिल बैठ गया। अब वही घिसी पिटी आशिकाना बातें शुरू हो जायेंगी।

“मैं सोच रहा था, बारिश बढ़ जाने पर यहाँ से वोरली तक का टैक्सी भाड़ा कितना लगेगा?”

वह जोर से हँस पड़ी, दुर्भावना से नहीं, हर्ष के अतिरेक से।

“मुझे रास्ते में छोड़ते जायेंगे तो आधा”, उसने कहा।

“बहुत खूब”, उसने यह नहीं पूछा कि वह रहती कहाँ है।

उसे लगा, जीवन में पहली बार ऐसे इंसान के साथ बैठी है, जो यह नहीं जानना चाहता, उसके पति हैं या नहीं, और हैं तो क्या काम करते हैं।

“समुद्र के जल पर गिरती वर्षा की बूंदे कितनी अच्छी लगती हैं”, उसने कहा।

कुछ देर दोनों चुप रहे।

“प्रशांत महासागर पर जब जहाज जाता है, तो उसके अग्रभाग से चिरता जल चांदी की तरह चमकने लगता है”, अतिथि ने कहा।

“क्यों?”

“शायद फोसफोरेसंस के कारण। आपने कभी नहीं देखा?”

“नहीं।”

“मौका मिले तो देखिएगा।”

“आप बहुत घूमे है?” उसने हलकी ईर्ष्या के साथ पूछा।

“बहुत”, वह याद करके मुस्करा रहा था।

“सबसे अच्छी जगह कौन सी लगी?”

“जब जहाँ हुआ”, वह हिचकिचाहट के साथ मुस्कराया, पता नहीं वह समझे या न समझे।

वह हामी में सिर हिला कर मुस्करा दी। उसने देखा, कॉफी खत्म हो चली है और बैरा बिल लिये आ रहा है। बाहर वर्षा थमने लगी है, धुंध भी छंट रही है। नहीं, धुआंधार नहीं बरसेगा। वह संकेत झूठा निकला। अब धुंध हट जायेगी और वही तेज़ प्रकाश वाला सूर्य निकल आयेगा।

बिल आने पर उसने उठा लिया और कहा, “न्योता मेरा था।”

अतिथि ने बहस नहीं की। शुक्र है, उसने सोचा, पैसे देने की जिद करने लगता तो सब कुछ बिखर जाता।

टैक्सी ले कर चले थे कि घर आ गया। उतरते-उतरते पैसे निकालने लगी तो उसने रोक दिया, “रहने दीजिए।”

“क्यों”, उसके माथे पर शिकन पड़ गयी।

“आज का दिन मेरे लिए काफी कीमती रहा है।”

“कैसे?”

“मैंने आज से पहले किसी को हरी बिंदी लगाये नहीं देखा”, उसने स्निग्ध स्वर में कहा।

वह ज़रा ठिठकी कि टैक्सी चल दी। कुछ दूर जा कर आँखों से ओझल हो गयी।