Monday, September 7, 2020

‘परिंदे’ - निर्मल वर्मा (Parinde by Nirmal वर्मा)


अँधेरे गलियारे में चलते हुए लतिका ठिठक गयी। दीवार का सहारा लेकर उसने लैम्प की बत्ती बढ़ा दी। सीढ़ियों पर उसकी छाया एक बैडौल कटी-फटी आकृति खींचने लगी। सात नम्बर कमरे में लड़कियों की बातचीत और हँसी-ठहाकों का स्वर अभी तक आ रहा था। लतिका ने दरवाजा खटखटाया। शोर अचानक बंद हो गया। “कौन है?”

लतिका चुप खड़ी रही। कमरे में कुछ देर तक घुसर-पुसर होती रही, फिर दरवाजे की चिटखनी के खुलने का स्वर आया। लतिका कमरे की देहरी से कुछ आगे बढ़ी, लैम्प की झपकती लौ में लड़कियों के चेहरे सिनेमा के परदे पर ठहरे हुए क्लोजअप की भाँति उभरने लगे। “कमरे में अँधेरा क्यों कर रखा है?” लतिका के स्वर में हल्की-सी झिड़की का आभास था। “लैम्प में तेल ही खत्म हो गया, मैडम!” यह सुधा का कमरा था, इसलिए उसे ही उत्तर देना पड़ा। होस्टल में शायद वह सबसे अधिक लोकप्रिय थी, क्योंकि सदा छुट्टी के समय या रात को डिनर के बाद आस-पास के कमरों में रहनेवाली लड़कियों का जमघट उसी के कमरे में लग जाता था। देर तक गप़-शप, हँसी-मजाक च़लता रहता। “तेल के लिए करीमुद्दीन से क्यों नहीं कहा?” “कितनी बार कहा मैडम, लेकिन उसे याद रहे तब तो।”

कमरे में हँसी की फुहार एक कोने से दूसरे कोने तक फैल गयी। लतिका के कमरे में आने से अनुशासन की जो घुटन घिर आयी थी वह अचानक बह गयी। करीमुद्दीन होस्टल का नौकर था। उसके आलस और काम में टालमटोल करने के किस्से होस्टल की लड़कियों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आते थे। लतिका को हठात कुछ स्मरण हो आया। अँधेरे में लैम्प घुमाते हुए चारों ओर निगाहें, दौड़ाईं। कमरे में चारों ओर घेरा बनाकर वे बैठी थीं- पास-पास एक-दूसरे से सटकर। सबके चेहरे परिचित थे, किन्तु लैम्प के पीले मद्धिम प्रकाश में मानो कुछ बदल गया था, या जैसे वह उन्हें पहली बार देख रही थी। “जूली, अब तक तुम इस ब्लाक में क्या कर रही हो?”

जूली खिड़की के पास पलँग के सिरहाने बैठी थी। उसने चुपचाप आँखें नीची कर ली। लैम्प का प्रकाश चारों ओर से सिमटकर अब केवल उसके चेहरे पर गिर रहा था। “नाइट रजिस्टर पर दस्तखत कर दिये?” “हाँ, मैडम।” “फिर…?” लतिका का स्वर कड़ा हो आया। जूली सकुचाकर खिड़की से बाहर देखने लगी। जब से लतिका इस स्कूल में आयी है, उसने अनुभव किया है कि होस्टल के इस नियम का पालन डाँट-फटकार के बावजूद नहीं होता। “मैडम, कल से छुट्टियाँ शुरू हो जायेंगी, इसलिए आज रात हम सबने मिलकर…” और सुधा पूरी बात न कहकर हेमन्ती की ओर देखते हुए मुस्कराने लगी। “हेमन्ती के गाने का प्रोग्राम है, आप भी कुछ देर बैठिए न।”

लतिका को उलझन मालूम हुई। इस समय यहाँ आकर उसने इनके मजे को किरकिरा कर दिया। इस छोटे-से-हिल-स्टेशन पर रहते उसे खासा अर्सा हो गया, लेकिन कब समय पतझड़ और गर्मियों का घेरा पार कर सर्दी की छुट्टियों की गोद में सिमट जाता है, उसे कभी याद नहीं रहता। चोरों की तरह चुपचाप वह देहरी से बाहर को गयी। उसके चेहरे का तनाव ढ़ीला पड़ गया। वह मुस्कराने लगी। “मेरे संग स्नो-फॉल देखने कोई नहीं ठहरेगा?” “मैडम, छुट्टियों में क्या आप घर नहीं जा रही हैं?” सब लड़कियों की आँखे उस पर जम गयीं। “अभी कुछ पक्का नहीं है-आई लव द स्नो-फॉल!”

लतिका को लगा कि यही बात उसने पिछले साल भी कही थी और शायद पिछले से पिछले साल भी। उसे लगा मानों लड़कियाँ उसे सन्देह की दृष्टि से देख रही है, मानों उन्होंने उसकी बात पर विश्वास नहीं किया। उसका सिर चकराने लगा, मानों बादलों का स्याह झुरमुट किसी अनजाने कोने से उठकर उसे अपने में डुबा लेगा। वह थोड़ा-सा हँसी, फिर धीरे-से उसने सर को झटक दिया। “जूली, तुमसे कुछ काम है, अपने ब्लॉक में जाने से पहले मुझे मिल लेना- वेल गुड नाइट!” लतिका ने अपने पीछे दरवाज़ा बंद कर दिया।

“गुड नाइट मैडम, गुड नाइट, गुड नाइट…” गलियारे की सीढ़ियाँ न उतरकर लतिका रेलिंग के सहारे खड़ी हो गयी। लैंप की बत्ती को नीचे घुमाकर कोने में रख दिया। बाहर धुन्ध की नीली तहें बहुत घनी हो चली थीं। लॉन पर लगे हुए चीड़ के पत्तों की सरसराहट हवा के झोंकों के संग कभी तेज, कभी धीमी होकर भीतर बह आती थी। हवा में सर्दी का हल्का-सा आभास पाकर लतिका के दिमाग में कल से शुरू होनेवाली छुट्टियों का ध्यान भटक आया। उसने आँखें मूँद लीं। उसे लगा कि जैसे उसकी टाँगें बाँस की लकड़ियों की तरह उसके शरीर से बँधी हैं, जिसकी गाँठें धीरे-धीरे खुलती जा रही हैं। सिर की चकराहट अभी मिटी नहीं थी, मगर अब जैसे वह भीतर न होकर बाहर फैली हुई धुन्ध का हिस्सा बन गयी थी।

सीढ़ियों पर बातचीत का स्वर सुनकर लतिका जैसे सोते से जगी। शॉल को कन्धों पर समेटा और लैम्प उठा लिया। डॉ. मुकर्जी मि. ह्यूबर्ट के संग एक अंग्रेजी धुन गुनगुनाते हुए ऊपर आ रहे थे। सीढ़ियों पर अँधेरा था और ह्यूबर्ट को बार-बार अपनी छड़ी से रास्ता टटोलना पड़ता था। लतिका ने दो-चार सीढ़ियाँ उतरकर लैम्प को नीचे झुका दिया। “गुड ईवनिंग डाक्टर, गुड ईवनिंग मि. ह्यूबर्ट!” “थैंक यू मिस लतिका” – ह्यूबर्ट के स्वर में कृतज्ञता का भाव था। सीढ़ियाँ चढ़ने से उनकी साँस तेज हो रही थी और वह दीवार से लगे हुए हाँफ रहे थे। लैम्प की रोशनी में उनके चेहरे का पीलापन कुछ ताँबे के रंग जैसा हो गया था।

“यहाँ अकेली क्या कर रही हो मिस लतिका?” – डाक्टर ने होंठों के भीतर से सीटी बजायी। “चेकिंग करके लौट रही थी। आज इस वक्त ऊपर कैसे आना हुआ मिस्टर ह्यूबर्ट?” ह्यूबर्ट ने मुस्कराकर अपनी छड़ी डाक्टर के कन्धों से छुला दी – “इनसे पूछो, यही मुझे जबर्दस्ती घसीट लाये हैं।”

“मिस लतिका, हम आपको निमन्त्रण देने आ रहे थे। आज रात मेरे कमरे में एक छोटा-सा-कन्सर्ट होगा जिसमें मि. ह्यूबर्ट शोपाँ और चाइकोव्स्की के कम्पोजीशन बजायेंगे और फिर क्रीम कॉफी पी जायेगी। और उसके बाद अगर समय रहा, तो पिछले साल हमने जो गुनाह किये हैं उन्हें हम सब मिलकर कन्फ्रेंस करेंगे।” डाक्टर मुकर्जी के चेहरे पर भारी मुस्कान खेल गयी। “डाक्टर, मुझे माफ करें, मेरी तबीयत कुछ ठीक नहीं है।”

“चलिए, यह ठीक रहा। फिर तो आप वैसे भी मेरे पास आतीं।” डाक्टर ने धीरे-से लतिका के कंधों को पकड़कर अपने कमरे की तरफ मोड़ दिया। डाक्टर मुकर्जी का कमरा ब्लॉक के दूसरे सिरे पर छत से जुड़ा हुआ था। वह आधे बर्मी थे, जिसके चिह्न उनकी थोड़ी दबी हुई नाक और छोटी-छोटी चंचल आँखों से स्पष्ट थे। बर्मा पर जापानियों का आक्रमण होने के बाद वह इस छोटे से पहाड़ी शहर में आ बसे थे। प्राइवेट प्रैक्टिस के अलावा वह कान्वेन्ट स्कूल में हाईजीन-फिजियालोजी भी पढ़ाया करते थे और इसलिए उनको स्कूल के होस्टल में ही एक कमरा रहने के लिए दे दिया गया था। कुछ लोगों का कहना था कि बर्मा से आते हुए रास्ते में उनकी पत्नी की मृत्यु हो गयी, लेकिन इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि डाक्टर स्वयं कभी अपनी पत्नी की चर्चा नहीं करते।

बातों के दौरान डाक्टर अक्सर कहा करते हैं – “मरने से पहले मैं एक दफा बर्मा जरूर जाऊँगा” – और तब एक क्षण के लिए उनकी आँखों में एक नमी-सी छा जाती। लतिका चाहने पर भी उनसे कुछ पूछ नहीं पाती। उसे लगता कि डाक्टर नहीं चाहते कि कोई अतीत के सम्बन्ध में उनसे कुछ भी पूछे या सहानुभूति दिखलाये। दूसरे ही क्षण अपनी गम्भीरता को दूर ठेलते हुए वह हँस पड़ते – एक सूखी, बूझी हुई हँसी।

होम-सिक्नेस ही एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज किसी डाक्टर के पास नहीं है। छत पर मेज-कुर्सियाँ डाल दी गईं और भीतर कमरे में परकोलेटर में कॉफी का पानी चढ़ा दिया गया। “सुना है अगले दो-तीन वर्षों में यहाँ पर बिजली का इन्तजाम हो जायेगा” -डाक्टर ने स्प्रिट लैम्प जलाते हुए कहा। “यह बात तो पिछले दस सालों से सुनने में आ रही है। अंग्रेजों ने भी कोई लम्बी-चौड़ी स्कीम बनायी थी, पता नहीं उसका क्या हुआ” – ह्यूबर्ट ने कहा। वह आराम कुर्सी पर लेटा हुआ बाहर लॉन की ओर देख रहा था।

लतिका कमरे से दो मोमबत्तियाँ ले आयी। मेज के दोनों सिरों पर टिकाकर उन्हें जला दिया गया। छत का अँधेरा मोमबत्ती की फीकी रोशनी के इर्द-गिर्द सिमटने लगा। एक घनी नीरवता चारों ओर घिरने लगी। हवा में चीड़ के वृक्षों की साँय-साँय दूर-दूर तक फैली पहाड़ियों और घाटियों में सीटियों की गूँज-सी छोड़ती जा रही थी। “इस बार शायद बर्फ जल्दी गिरेगी, अभी से हवा में एक सर्द खुश्की-सी महसूस होने लगी है” – डाक्टर का सिगार अँधेरे में लाल बिन्दी-सा चमक रहा था। “पता नहीं, मिस वुड को स्पेशल सर्विस का गोरखधन्धा क्यों पसन्द आता है। छुट्टियों में घर जाने से पहले क्या यह जरूरी है कि लड़कियाँ फादर एल्मण्ड का सर्मन सुनें?” – ह्यूबर्ट ने कहा।

डॉक्टर को फादर एल्मण्ड एक आँख नहीं सुहाते थे। लतिका कुर्सी पर आगे झुककर प्यालों में कॉफी उँडेलने लगी। हर साल स्कूल बन्द होने के दिन यही दो प्रोग्राम होते हैं – चैपल में स्पेशल सर्विस और उसके बाद दिन में पिकनिक। लतिका को पहला साल याद आया जब डाक्टर के संग पिकनिक के बाद वह क्लब गयी थी। डाक्टर बार में बैठै थे। बार रूम कुमाऊँ रेजीमेण्ट के अफसरों से भरा हुआ था। कुछ देर तक बिलियर्ड का खेल देखने के बाद जब वह वापिस बार की ओर आ रहे थे, तब उसने दायीं ओर क्लब की लाइब्रेरी में देखा- मगर उसी समय डाक्टर मुकर्जी पीछे से आ गये थे। मिस लतिका, यह मेजर गिरीश नेगी है।” बिलियर्ड रूम से आते हुए हँसी-ठहाकों के बीच वह नाम दब-सा गया था। वह किसी किताब के बीच में उँगली रखकर लायब्रेरी की खिड़की से बाहर देख रहा था। “हलो डाक्टर” – वह पीछे मुड़ा। तब उस क्षण…

उस क्षण न जाने क्यों लतिका का हाथ काँप गया और कॉफी की कुछ गर्म बूँदें उसकी साड़ी पर छलक आयी। अँधेरे में किसी ने नहीं देखा कि लतिका के चेहरे पर एक उनींदा रीतापन घिर आया है। हवा के झोंके से मोमबत्तियों की लौ फड़कने लगी। छत से भी ऊँची काठगोदाम जानेवाली सड़क पर यू.पी. रोडवेज की आखिरी बस डाक लेकर जा रही थी। बस की हैड लाइट्स में आस-पास फैली हुई झाड़ियों की छायाएँ घर की दीवार पर सरकती हुई गायब होने लगीं।

“मिस लतिका, आप इस साल भी छुट्टियों में यहीं रहेंगी?“डाक्टर ने पूछा। डाक्टर का सवाल हवा में टँगा रहा। उसी क्षण पियानो पर शोपाँ का नोक्टर्न ह्यूबर्ट की उँगलियों के नीचे से फिसलता हुआ धीरे-धीरे छत के अँधेरे में घुलने लगा-मानों जल पर कोमल स्वप्निल उर्मियाँ भँवरों का झिलमिलाता जाल बुनती हुईं दूर-दूर किनारों तक फैलती जा रही हों। लतिका को लगा कि जैसे कहीं बहुत दूर बर्फ की चोटियों से परिन्दों के झुण्ड नीचे अनजान देशों की ओर उड़े जा रहे हैं। इन दिनों अक्सर उसने अपने कमरे की खिड़की से उन्हें देखा है-धागे में बँधे चमकीले लट्टुओं की तरह वे एक लम्बी, टेढ़ी-मेढ़ी कतार में उड़े जाते हैं, पहाड़ों की सुनसान नीरवता से परे, उन विचित्र शहरों की ओर जहाँ शायद वह कभी नहीं जायेगी।

लतिका आर्म चेयर पर ऊँघने लगी। डाक्टर मुकर्जी का सिगार अँधेरे में चुपचाप जल रहा था। डाक्टर को आश्चर्य हुआ कि लतिका न जाने क्या सोच रही है और लतिका सोच रही थी-क्या वह बूढ़ी होती जा रही है? उसके सामने स्कूल की प्रिंसिपल मिस वुड का चेहरा घूम गया-पोपला मुँह, आँखों के नीचे झूलती हुई माँस की थैलियाँ, ज़रा-ज़रा सी बात पर चिढ़ जाना, कर्कश आवाज में चीखना-सब उसे ‘ओल्डमेड’ कहकर पुकारते हैं। कुछ वर्षों बाद वह भी हू-ब-हू वैसी ही बन जायेगी…लतिका के समूचे शरीर में झूरझूरी-सी दौड़ गयी, मानों अनजाने में उसने किसी गलीज वस्तु को छू लिया हो। उसे याद आया कुछ महीने पहले अचानक उसे ह्यूबर्ट का प्रेमपत्र मिला था – भावुक याचना से भरा हुआ पत्र, जिसमें उसने न जाने क्या कुछ लिखा था, जो कभी उसकी समझ में नहीं आया। उसे ह्यूबर्ट की इस बचकाना हरकत पर हँसी आयी थी, किन्तु भीतर-ही-भीतर प्रसन्नता भी हुई थी। उसकी उम्र अभी बीती नहीं है, अब भी वह दूसरों को अपनी ओर आकर्षित कर सकती है। ह्यूबर्ट का पत्र पढ़कर उसे क्रोध नहीं आया, आयी थी केवल ममता। वह चाहती तो उसकी गलतफहमी को दूर करने में देर न लगती, किन्तु कोई शक्ति उसे रोके रहती है, उसके कारण अपने पर विश्वास रहता है, अपने सुख का भ्रम मानो ह्यूबर्ट की गलतफहमी से जुड़ा है…।

ह्यूबर्ट ही क्यों, वह क्या किसी को चाह सकेगी, उस अनुभूति के संग, जो अब नहीं रही, जो छाया-सी उस पर मँडराती रहती है, न स्वयं मिटती है, न उसे मुक्ति दे पाती है। उसे लगा, जैसे बादलों का झुरमुट फिर उसके मस्तिष्क पर धीरे-धीरे छाने लगा है, उसकी टाँगे फिर निर्जीव, शिथिल-सी हो गयी हैं। वह झटके से उठ खड़ी हुई- “डाक्टर माफ करना, मुझे बहुत थकान-सी लग रही है…बिना वाक्य पूरा किये ही वह चली गयी। कुछ देर तक टैरेस पर निस्तब्धता छायी रही। मोमबत्तियाँ बूझने लगी थीं। डाक्टर मुकर्जी ने सिगार का नया कश लिया – “सब लड़कियाँ एक-जैसी होती है-बेवकूफ और सेंटीमेंटल।” ह्यूबर्ट की उँगलियों का दबाव पियानो पर ढीला पड़ता गया, अन्तिम सुरों की झिझकी-सी गूँज कुछ क्षणों तक हवा में तिरती रही।

“डाक्टर, आपको मालूम है, मिस लतिका का व्यवहार पिछले कुछ अर्से से अजीब-सा लगता है।” ह्यूबर्ट के स्वर में लापरवाही का भाव था। वह नहीं चाहता था कि डाक्टर को लतिका के प्रति उसकी भावनाओं का आभास-मात्र भी मिल सके। जिस कोमल अनुभूति को वह इतने समय से सँजोता आया है, डाक्टर उसे हँसी के एक ठहाके में उपहासास्पद बना देगा। “क्या तुम नियति में विश्वास करते हो, ह्यूबर्ट?” डाक्टर ने कहा। ह्यूबर्ट दम रोके प्रतीक्षा करता रहा। वह जानता था कि कोई भी बात कहने से पहले डाक्टर को फिलासोफाइज करने की आदत थी। डाक्टर टैरेस के जंगले से सटकर खड़ा हो गया। फीकी-सी चाँदनी में चीड़ के पेड़ो की छायाएँ लॉन पर गिर रही थी। कभी-कभी कोई जुगनू अँधेरे में हरा प्रकाश छिड़कता हवा में गायब हो जाता था।

“मैं कभी-कभी सोचता हूँ, इन्सान जिन्दा किसलिए रहता है-क्या उसे कोई और बेहतर काम करने को नहीं मिला? हजारों मील अपने मुल्क से दूर मैं यहाँ पड़ा हूँ – यहाँ कौन मुझे जानता है, यहीं शायद मर भी जाऊँगा। ह्यूबर्ट, क्या तुमने कभी महसूस किया है कि एक अजनबी की हैसियत से परायी जमीन पर मर जाना काफ़ी खौफनाक बात है…!”

ह्यूबर्ट विस्मित-सा डाक्टर को देखने लगा। उसने पहली बार डॉक्टर मुकर्जी के इस पहलू को देखा था। अपने सम्बन्ध में वह अक्सर चुप रहते थे। “कोई पीछे नहीं है, यह बात मुझमें एक अजीब किस्म की बेफिक्री पैदा कर देती है। लेकिन कुछ लोगों की मौत अन्त तक पहेली बनी रहती है, शायद वे ज़िन्दगी से बहुत उम्मीद लगाते थे। उसे ट्रैजिक भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आखिरी दम तक उन्हें मरने का एहसास नहीं होता।” “डाक्टर, आप किसका जिक्र कर रहे हैं?” ह्यूबर्ट ने परेशान होकर पूछा। डाक्टर कुछ देर तक चुपचाप सिगार पीता रहा। फिर मुड़कर वह मोमबत्तियों की बुझती हुई लौ को देखने लगा।

“तुम्हें मालूम है, किसी समय लतिका बिला नागा क्लब जाया करती थी। गिरीश नेगी से उसका परिचय वहीं हुआ था। कश्मीर जाने से एक रात पहले उसने मुझे सबकुछ बता दिया था। मैं अब तक लतिका से उस मुलाकात के बारे में कुछ नहीं कह सका हूँ। किन्तु उस रात कौन जानता था कि वह वापस नहीं लौटेगा। और अब…अब क्या फर्क पड़ता है। लेट द डेड। डाई…” डाक्टर की सूखी सर्द हँसी में खोखली-सी शून्यता भरी थी।

“कौन गिरीश नेगी?” “कुमाऊँ रेजीमेंट में कैप्टन था।” “डाक्टर, क्या लतिका…” ह्यूबर्ट से आगे कुछ नहीं कहा गया। उसे याद आया वह पत्र, जो उसने लतिका को भेजा था, कितना अर्थहीन और उपहासास्पद, जैसे उसका एक-एक शब्द उसके दिल को कचोट रहा हो। उसने धीरे-से पियानो पर सिर टिका लिया। लतिका ने उसे क्यों नहीं बताया, क्या वह इसके योग्य भी नहीं था? “लतिका… वह तो बच्ची है, पागल! मरनेवाले के संग खुद थोड़े ही मरा जाता है।“

कुछ देर चुप रहकर डाक्टर ने अपने प्रश्न को फिर दुहराया। “लेकिन ह्यूबर्ट, क्या तुम नियति पर विश्वास करते हो?” हवा के हल्के झोंके से मोमबत्तियाँ एक बार प्रज्जवलित होकर बुझ गयीं। टैरेस पर ह्यूबर्ट और डाक्टर अँधेरे में एक-दूसरे का चेहरा नहीं देख पा रहे थे, फिर भी वे एक-दूसरे की ओर देख रहे थे। कान्वेंट स्कूल से कुछ दूर मैदानों में बहते पहाड़ी नाले का स्वर आ रहा था। अब बहुत देर बाद कुमाऊँ रेजीमेंट सेण्टर का बिगुल सुनायी दिया, तो ह्यूबर्ट हड़बड़ाकर खड़ा हो गया। “अच्छा, चलता हूँ, डाक्टर, गुड नाइट।”

“गुड नाइट ह्यूबर्ट…मुझे माफ करना, मैं सिगार खत्म करके उठूँगा…” सुबह बदली छायी थी। लतिका के खिड़की खोलते ही धुन्ध का गुब्बारा-सा भीतर घुस आया, जैसे रात-भर दीवार के सहारे सरदी में ठिठुरता हुआ वह भीतर आने की प्रतीक्षा कर रहा हो। स्कूल से ऊपर चैपल जानेवाली सड़क बादलों में छिप गयी थी, केवल चैपल का ‘क्रास’ धुन्ध के परदे पर एक-दूसरे को काटती हुई पेंसिल की रेखाओं-सा दिखायी दे जाता था।

लतिका ने खिड़की से आँखें हटाईं, तो देखा कि करीमुद्दीन चाय की ट्रे लिये खड़ा है। करीमुद्दीन मिलिट्री में अर्दली रह चुका था, इसलिए ट्रे मेज पर रखकर ‘अटेन्शन’ की मुद्रा में खड़ा हो गया। लतिका झटके से उठ बैठी। सुबह से आलस करके कितनी बार जागकर वह सो चुकी है। अपनी खिसियाहट मिटाने के लिए लतिका ने कहा – “बड़ी सर्दी है आज, बिस्तर छोड़ने को जी नहीं चाहता।”

“अजी मेम साहब, अभी क्या सरदी आयी है- बड़े दिनों में देखना कैसे दाँत कटकटाते हैं” – और करीमुद्दीन अपने हाथों को बगलों में डाले हुए इस तरह सिकुड़ गया जैसे उन दिनों की कल्पना मात्र से उसे जाड़ा लगना शुरू हो गया हो। गंजे सिर पर दोनों तरफ के उसके बाल खिजाब लगाने से कत्थई रंग के भूरे हो गये थे। बात चाहे किसी विषय पर हो रही हो, वह हमेशा खींचतान कर उसे ऐसे क्षेत्र में घसीट लाता था, जहाँ वह बेझिझक अपने विचारों को प्रकट कर सके।

“एक दफा तो यहाँ लगातार इतनी बर्फ गिरी थी कि भुवाली से लेकर डाक बँगले तक सारी सड़कें जाम हो गईं। इतनी बर्फ थी मेम साहब कि पेड़ों की टहनियाँ तक सिकुड़कर तनों से लिपट गयी थी – बिलकुल ऐसे,” और करीमुद्दीन नीचे झुककर मुर्गा-सा बन गया। “कब की बात है?” लतिका ने पूछा।

“अब यह तो जोड़-हिसाब करके ही पता चलेगा, मेम साहब, लेकिन इतना याद है कि उस वक्त अंग्रेज बहादूर यहीं थे। कण्टोनमेण्ट की इमारत पर कौमी झण्डा नहीं लगा था। बड़े जबर थे ये अंग्रेज, दो घण्टों में ही सारी सड़कें साफ करवा दीं। उन दिनों एक सीटी बजाते ही पचास घोड़ेवाले जमा हो जाते थे। अब तो सारे शेड खाली पड़े हैं। वे लोग अपनी खिदमत भी करवाना जानते थे, अब तो सब उजाड़ हो गया है”। करीमुद्दीन उदास भाव से बाहर देखने लगा। आज यह पहली बार नहीं है जब लतिका करीमुद्दीन से उन दिनों की बातें सुन रही है जब अंग्रेज बहादुर ने इस स्थान को स्वर्ग बना रखा था। “आप छुट्टियों में इस साल भी यही रहेंगी मेम साहब?” “दिखता तो कुछ ऐसा ही है करीमुद्दीन, तुम्हें फिर तंग होना पड़ेगा।” “क्या कहती हैं मेम साहब! आपके रहने से हमारा भी मन लग जाता है, वरना छुट्टियों में तो यहाँ कुत्ते लोटते हैं।”

“तुम जरा मिस्त्री से कह देना कि इस कमरे की छत की मरम्मत कर जाये। पिछले साल बर्फ का पानी दरारों से टपकता रहता था।“ लतिका को याद आया कि पिछली सर्दियों में जब कभी बर्फ गिरती थी, तो उसे पानी से बचने के लिए रात-भर कमरे के कोने में सिमटकर सोना पड़ता था।

करीमुद्दीन चाय की ट्रे उठाता हुआ बोला – “ह्यूबर्ट साहब तो शायद कल ही चले जायें, कल रात उनकी तबीयत फिर खराब हो गयी। आधी रात के वक्त मुझे जगाने आये थे। कहते थे, छाती में तकलीफ है। उन्हें यह मौसम रास नहीं आता। कह रहे थे, लड़कियों की बस में वह भी कल ही चले जायेंगे।” करीमुद्दीन दरवाजा बन्द करके चला गया। लतिका की इच्छा हुई कि वह ह्यूबर्ट के कमरे में जाकर उनकी तबीयत की पूछताछ कर आये। किन्तु फिर न जाने क्यों स्लीपर पैरों में टँगे रहे और वह खिड़की के बाहर बादलों को उड़ता हुआ देखती रही। ह्यूबर्ट का चेहरा जब उसे देखकर सहमा-सा दयनीय हो जाता है, तब लगता है कि वह अपनी मूक-निरीह याचना में उसे कोस रहा है – न वह उसकी गलतफहमी को दूर करने का प्रयत्न कर पाती है, न उसे अपनी विवशता की सफाई देने का साहस होता है उसे लगता है कि इस जाले से बाहर निकलने के लिए वह धागे के जिस सिरे को पकड़ती है वह खुद एक गाँठ बनकर रह जाता है।

बाहर बूँदाबाँदी होने लगी थी, कमरे की टिन की छत खट-खट बोलने लगी। लतिका पलँग से उठ खड़ी हुई। बिस्तर को तहाकर बिछाया। फिर पैरों में स्लीपरों को घसीटते हुए वह बड़े आईने तक आयी और उसके सामने स्टूल पर बैठकर बालों को खोलने लगी। किंतु कुछ देर तक कंघी बालों में ही उलझी रही और वह गुमसुम हो शीशे में अपना चेहरा ताकती रही। करीमुद्दीन को यह कहना याद ही नहीं रहा कि धीरे-धीरे आग जलाने की लकड़ियाँ जमा कर ले। इन दिनों सस्ते दामों पर सूखी लकड़ियाँ मिल जाती हैं। पिछले साल तो कमरा धुएँ से भर जाता था जिसके कारण कँपकँपाते जाड़े में भी उसे खिड़की खोलकर ही सोना पड़ता था।

आईने में लतिका ने अपना चेहरा देखा – वह मुस्कुरा रही थी। पिछले साल अपने कमरे की सीलन और ठण्ड से बचने के लिए कभी-कभी वह मिस वुड के खाली कमरे में चोरी-चुपके सोने चली जाया करती थी। मिस वुड का कमरा बिना आग के भी गर्म रहता था, उनके गदीले सोफे पर लेटते ही आँख लग जाती थी। कमरा छुट्टियों में खाली पड़ा रहता है, किन्तु मिस वुड से इतना नहीं होता कि दो महीनों के लिए उसके हवाले कर जायें। हर साल कमरे में ताला ठोंक जाती हैं वह तो पिछले साल़ गुसलखाने में भीतर की साँकल देना भूल गयी थीं, जिसे लतिका चोर दरवाजे के रूप में इस्तेमाल करती रही थी।

पहले साल अकेले में उसे बड़ा डर-सा लगता था। छुट्टियों में सारे स्कूल और होस्टल के कमरे साँय-साँय करने लगते हैं। डर के मारे उसे जब कभी नींद नहीं आती थी, तब वह करीमुद्दीन को रात में देर तक बातों में उलझाये रखती। बातों में जब खोयी-सी वह सो जाती, तब करीमुद्दीन चुपचाप लैम्प बुझाकर चला जाता। कभी-कभी बीमारी का बहाना करके वह डाक्टर को बुलवा भेजती थी और बाद में बहुत जिद करके दूसरे कमरे में उनका बिस्तर लगवा देती।

लतिका के कंधे से बालों का गुच्छा निकाला और उसे बाहर फेंकने के लिए वह खिड़की के पास आ खड़ी हुई। बाहर छत की ढलान से बारिश के जल की मोटी-सी धार बराबर लॉन पर गिर रही थी। मेघाच्छन्न आकाश में सरकते हुए बादलों के पीछे पहाड़ियों के झुण्ड कभी उभर आते थे, कभी छिप जाते थे, मानो चलती हुई ट्रेन से कोई उन्हें देख रहा हो। लतिका ने खिड़की से सिर बाहर निकाल लिया – हवा के झोंके से उसकी आँखें झिप गयी। उसे जितने काम याद आते हैं, उतना ही आलस घना होता जाता है। बस की सीटें रिजर्व करवाने के लिए चपरासी को रुपये देने हैं जो सामान होस्टल की लड़कियाँ पीछे छोड़े जा रही हैं, उन्हें गोदाम में रखवाना होगा। कभी-कभी तो छोटी क्लास की लड़कियों के साथ पैकिंग करवाने के काम में भी उसे हाथ बँटाना पड़ता था।

वह इन कामों से ऊबती नहीं। धीरे-धीरे सब निपटते जाते हैं, कोई गलती इधर-उधर रह जाती है, सो बाद में सुधर जाती है। हर काम में किचकिच रहती है, परेशानी और दिक्कत होती है, किन्तु देर-सबेर इससे छुटकारा मिल ही जाता है किन्तु जब लड़कियों की आखिरी बस चली जाती है, तब मन उचाट-सा हो जाता है। खाली कॉरीडोर में घूमती हुई वे कभी इस कमरे में जाती हैं और कभी उसमें। वह नहीं जान पातीं कि अपने से क्या करें, दिल कहीं भी नहीं टिक पाता, हमेशा भटका-भटका-सा रहता है।

इस सबके बावजूद जब कोई सहज भाव में पूछ बैठता है, “मिस लतिका, छुट्टियों में आप घर नहीं जा रहीं?” तब वह क्या कहे? डिंग-डांग-डिंग… स्पेशल सर्विस के लिए स्कूल चैपल के घंटे बजने लगे थे। लतिका ने अपना सिर खिड़की के भीतर कर लिया। उसने झटपट साड़ी उतारी और पेटीकोट में ही कन्धे पर तौलिया डाले गुसलखाने में घुस गयी। लेफ्ट-राइट लेफ्ट…लेफ्ट…

कण्टोनमेण्ट जानेवाली पक्की सड़क पर चार-चार की पंक्ति में कुमाऊँ रेजीमेंट के सिपाहियों की एक टुकड़ी मार्च कर रही थी। फौजी बूटों की भारी खुरदरी आवाजें स्कूल चैपल की दीवारों से टकराकर भीतर ‘प्रेयर हाल’ में गूँज रही थीं।

“ब्लेसेड आर द मीक…” फादर एल्मण्ड एक-एक शब्द चबाते हुए खँखारते स्वर में ‘सर्मन आफ द माउण्ट’ पढ़ रहे थे। ईसा मसीह की मूर्ति के नीचे ‘कैण्डलब्रियम’ के दोनों ओर मोमबत्तियाँ जल रही थीं, जिनका प्रकाश आगे बेंचों पर बैठी हुई लड़कियों पर पड़ रहा था। पिछली लाइनों की बैंचें अँधेरे में डूबी हुई थीं, जहाँ लड़कियाँ प्रार्थना की मुद्रा में बैठी हुई सिर झुकाये एक-दूसरे से घुसर-पुसर कर रही थीं। मिस वुड स्कूल सीजन के सफलतापूर्वक समाप्त हो जाने पर विद्यार्थियों और स्टाफ सदस्यों को बधाई का भाषण दे चुकी थीं- और अब फादर के पीछे बैठी हुई अपने में ही कुछ बुड़बुड़ा रही थीं मानो धीरे-धीरे फादर को ‘प्रौम्ट’ कर रही हों।

‘आमीन।’ फादर एल्मण्ड ने बाइबल मेज पर रख दी और ‘प्रेयर बुक’ उठा ली। हॉल की खामोशी क्षण भर के लिए टूट गयी। लड़कियों ने खड़े होते हुए जान-बूझकर बैंचों को पीछे धकेला – बैंचे फर्श पर रगड़ खाकर सीटी बजाती हुई पीछे खिसक गयीं – हॉल के कोने से हँसी फूट पड़ी। मिस वुड का चेहरा तन गया, माथे पर भृकुटियाँ चढ़ गयीं। फिर अचानक निस्तब्धता छा गयी। हॉल के उस घुटे हुए घुँधलके में फादर का तीखा फटा हुआ स्वर सुनायी देने लगा -“जीजस सेड, आई एम द लाइट ऑफ द वर्ल्ड, ही दैट फालोएथ मी शैल नॉट वाक इन डार्कनेस, बट शैल हैव द लाइट ऑफ लाइफ।”

डाक्टर मुखर्जी ने ऊब और उकताहट से भरी जमुहाई ली, “कब यह किस्सा खत्म होगा?” उसने इतने ऊँचे स्वर में लतिका से पूछा कि वह सकुचाकर दूसरी ओर देखने लगी। स्पेशल सर्विस के समय डाक्टर मुकर्जी के होंठों पर व्यंग्यात्मक मुस्कान खेलती रहती और वह धीरे-धीरे अपनी मूँछों को खींचता रहता। फादर एल्मण्ड की वेश-भूषा देखकर लतिका के दिल में गुदगुदी-सी दौड़ गयी। जब वह छोटी थी, तो अक्सर यह बात सेाचकर विस्मित हुआ करती थी कि क्या पादरी लोग सफेद चोगे के नीचे कुछ नहीं पहनते, अगर धोखे से वह ऊपर उठ जाये तो?

लेफ्ट…लेफ्ट…लेफ्ट… मार्च करते हुए फौजी बूट चैपल से दूर होते जा रहे थे-केवल उनकी गूँज हवा में शेष रह गयी थी।

‘हिम नम्बर 117’फादर ने प्रार्थना-पुस्तक खोलते हुए कहा। हॉल में प्रत्येक लड़की ने डेस्क पर रखी हुई हिम-बुक खोल ली। पन्नों के उलटने की खड़खड़ाहट फिसलती हुई एक सिरे से दूसरे सिरे तक फैल गयी। आगे की बैंच से उठकर ह्यूबर्ट पियानो के सामने स्टूल पर बैठ गया। संगीत शिक्षक होने के कारण हर साल स्पेशल सर्विस के अवसर पर उसे ‘कॉयर’ के संग पियानो बजाना पड़ता था। ह्यूबर्ट ने अपने रूमाल से नाक साफ की। अपनी घबराहट छिपाने के लिए ह्यूबर्ट हमेशा ऐसा ही किया करता था। कनखियों से हॉल की ओर देखते हुए अपने काँपते हाथों से हिम-बुक खोली। लीड काइण्डली लाइट…

पियानो के सुर दबे, झिझकते से मिलने लगे। घने बालों से ढँकी ह्यूबर्ट की लंबी, पीली अँगुलयाँ खुलने-सिमटने लगीं। ‘कॉयर’ में गानेवाली लड़कियों के स्वर एक-दूसरे से गुँथकर कोमल, स्निग्ध लहरों में बिंध गये। लतिका को लगा, उसका जूड़ा ढीला पड़ गया है, मानो गरदन के नीचे झूल रहा है। मिस वुड की आँख बचा लतिका ने चुपचाप बालों में लगे क्लिपों को कसकर खींच दिया। “बड़ा झक्की आदमी है…सुबह मैंने ह्यूबर्ट को यहाँ आने से मना किया था, फिर भी चला आया” – डाक्टर ने कहा।

लतिका को करीमुद्दीन की बात याद हो गयी। रात-भर ह्यूबर्ट को खाँसी का दौरा पड़ा था, कल जाने के लिए कह रहे थे। लतिका ने सिर टेढ़ा करके ह्यूबर्ट के चेहरे की एक झलक पाने की विफल चेष्टा की। इतने पीछे से कुछ भी देख पाना असंभव था, पियानो पर झुका हुआ केवल ह्यूबर्ट का सिर दिखायी देता था।

लीड काइण्डली लाइट, संगीत के सुर मानों एक ऊँची पहाड़ी पर चढ़कर हाँफती हुई साँसों को आकाश की अबाध शून्यता में बिखेरते हुए नीचे उतर रहे हैं। बारिश की मुलायम धूप चैपल के लम्बे-चैकोर शीशों पर झिलमिला रही है, जिसकी एक महीन चमकीली रेखा ईसा मसीह की प्रतिमा पर तिरछी होकर गिर रही है। मोमबत्तियों का धुआँ धूप में नीली-सी लकीर खींचता हुआ हवा में तिरने लगा है। पियानो के क्षणिक ‘पोज’ में लतिका को पत्तों का परिचित मर्मर कहीं दूर अनजानी दिशा से आता हुआ सुनायी दे जाता है। एक क्षण के लिए एक भ्रम हुआ कि चैपल का फीका-सा अँधेरा उस छोटे-से ‘प्रेयर-हॉल’ के चारों कोनों से सिमटता हुआ उसके आस-पास घिर आया है मानों कोई उसकी आँखों पर पट्टी बाँधकर उसे यहाँ तक ले आया हो और अचानक उसकी आँखें खोल दी हों। उसे लगा कि जैसे मोमबत्तियों के धूमिल आलोक में कुछ भी ठोस, वास्तविक न रहा हो-चैपल की छत, दीवारें, डेस्क पर रखा हुआ डाक्टर का सुघड़-सुडौल हाथ और पियानो के सुर अतीत की धुन्ध को भेदते हुए स्वयं उस धुन्ध का भाग बनते जा रहे हों।

एक पगली-सी स्मृति, एक उद्भ्रान्त भावना-चैपल के शीशों के परे पहाड़ी सूखी हवा, हवा में झुकी हुई वीपिंग विलोज की काँपती टहनियाँ, पैरों तले चीड़ के पत्तों की धीमी-सी चिर-परिचित खड़….खड़…। वहीं पर गिरीश एक हाथ में मिलिटरी का खाकी हैट लिये खड़ा है-चौड़े, उठे हुए, सबल कन्धे, अपना सिर वहाँ टिका दो, तो जैसे सिमटकर खो जायेगा, चार्ल्स बोयर, यह नाम उसने रखा था, वह झेंपकर हँसने लगा। “तुम्हें आर्मी में किसने चुन लिया, मेजर बन गये हो, लेकिन लड़कियों से भी गये बीते हो, ज़रा-ज़रा-सी बात पर चेहरा लाल हो जाता है।” यह सब वह कहती नहीं, सिर्फ सोचती भर थी, सोचा था कभी कहूँगी, वह ‘कभी’ कभी नहीं आया, बुरुस का लाल फूल लाये हो न झूठे खाकी कमीज के जिस जेब पर बैज चिपके थे, उसमें से मुसा हुआ बुरुस का फूल निकल आया। छिः सारा मुरझा गया अभी खिला कहाँ है? (हाउ क्लन्जी) उसके बालों में गिरीश का हाथ उलझ रहा है-फूल कहीं टिक नहीं पाता, फिर उसे क्लिप के नीचे फँसाकर उसने कहा- देखो

वह मुड़ी और इससे पहले कि वह कुछ कह पाती, गिरीश ने अपना मिलिटरी का हैट धप से उसके सिर पर रख दिया। वह मन्त्रमुग्ध-सी वैसी ही खड़ी रही। उसके सिर पर गिरीश का हैट है-माथे पर छोटी-सी बिन्दी है। बिन्दी पर उड़ते हुए बाल है। गिरीश ने उस बिन्दी को अपने होंठों से छुआ है, उसने उसके नंगे सिर को अपने दोनों हाथों में समेट लिया है – लतिका

गिरीश ने चिढ़ाते हुए कहा- मैन ईटर आफ कुमाऊँ- (उसका यह नाम गिरीश ने उसे चिढ़ाने के लिए रखा था)… वह हँसने लगी। “लतिका…. सुनो!” गिरीश का स्वर कैसा हो गया था! “ना, मैं कुछ भी नहीं सुन रही।” “लतिका… मैं कुछ महीनों में वापिस लौट आऊँगा” “ना… मैं कुछ भी नहीं सुन रही” किन्तु वह सुन रही है- वह नहीं जो गिरीश कह रहा है, किन्तु वह जो नहीं कहा जा रहा है, जो उसके बाद कभी नहीं कहा गया… लीड काइण्डली लाइट…

लड़कियों का स्वर पियानो के सुरों में डूबा हुआ गिर रहा है, उठ रहा है. .ह्यूबर्ट ने सिर मोड़कर लतिका को निमिष भर देखा, आँखें मूँदे ध्यानमग्ना प्रस्तर मूर्ति-सी वह स्थिर निश्चल खड़ी थी। क्या यह भाव उसके लिए है? क्या लतिका ने ऐसे क्षणों में उसे अपना साथी बनाया है? ह्यूबर्ट ने एक गहरी साँस ली और उस साँस में ढेर-सी थकान उमड़ आयी। “देखो… मिस वुड कुर्सी पर बैठे-बैठे सो रही है” डाक्टर होंठों में ही फुसफुसाया। यह डाक्टर का पुराना मजाक था कि मिस वुड प्रार्थना करने के बहाने आँखे मूँदे हुए नींद की झपकियाँ लेती है।

फादर एल्मण्ड ने कुर्सी पर फैले अपने गाउन को समेट लिया और प्रेयर बुक बंद करके मिस वुड के कानों में कुछ कहा। पियानो का स्वर क्रमशः मन्द पड़ने लगा, ह्यूबर्ट की अँगुलियाँ ढीली पड़ने लगी। सर्विस के समाप्त होने से पूर्व मिस वुड ने आर्डर पढ़कर सुनाया। बारिश होने की आशंका से आज के कार्यक्रम में कुछ आवश्यक परिवर्तन करने पड़े थे। पिकनिक के लिए झूला देवी के मन्दिर जाना सम्भव नहीं हो सकेगा, इसलिए स्कूल से कुछ दूर ‘मीडोज’ में ही सब लड़कियाँ नाश्ते के बाद जमा होंगी। सब लड़कियों को दोपहर का ‘लंच’ होस्टल किचन से ही ले जाना होगा, केवल शाम की चाय ‘मीडोज’ में बनेगी।

पहाड़ों की बारिश का क्या भरोसा? कुछ देर पहले धुआँधार बादल गरज रहे थे, सारा शहर पानी में भीगा ठिठुर रहा था- अब धूप में नहाता नीला आकाश धुन्ध की ओट से बाहर निकलता हुआ फैल रहा था। लतिका ने चैपल से बाहर आते हुए देखा-वीपिंग बिलोज की भीगी शाखाओं से धूप में चमकती हुई बारिश की बूँदे टपक रही थीं, लड़कियाँ चैपल से बाहर निकलकर छोटे-छोटे गुच्छे बनाकर कॉरीडोर में जमा हो गयी हैं, नाश्ते के लिए अभी पौन घण्टा पड़ा था और उनमें से अभी कोई भी लड़की होस्टल जाने के लिए इच्छुक नहीं थी। छुट्टियाँ अभी शुरू नहीं हुई थीं, किन्तु शायद इसीलिए वे इन चन्द बचे-खुचे क्षणों में अनुशासन के भीतर भी मुक्त होने का भरपुर आनन्द उठा लेना चाहती थीं।

मिस वुड को लड़कियों का यह गुल-गपाड़ा अखरा, किन्तु फादर एल्मण्ड के सामने वह उन्हें डाँट-फटकार नहीं सकी। अपनी झुँझलाहट दबाकर वह मुस्कराते हुए बोली- “कल सब चली जायेंगी, सारा स्कूल वीरान हो जायेगा।” फादर एल्मण्ड का लम्बा ओजपूर्ण चेहरा चैपल की घुटी हुई गरमाई से लाल हो उठा था। कॉरीडोर के जंगले पर अपनी छड़ी लटकाकर वह बोले – “छुट्टियों में पीछे हॉस्टल में कौन रहेगा?” “पिछले दो-तीन सालों से मिस लतिका ही रह रही हैं।” “और डाक्टर मुकर्जी छुट्टियों में कहीं नहीं जाते?” “डाक्टर तो सर्दी-गर्मी यहीं रहते हैं।” मिस वुड ने विस्मय से फादर की ओर देखा। वह समझ नहीं सकी कि फादर ने डाक्टर का प्रसंग क्यों छेड़ दिया है!

“डाक्टर मुकर्जी छुट्टियों में कहीं नहीं जाते?” “दो महीने की छुट्टियों में बर्मा जाना काफी कठिन है, फादर!” – मिस वुड हँसने लगी।

“मिस वुड, पता नहीं आप क्या सोचती हैं। मुझे तो मिस लतिका का होस्टल में अकेले रहना कुछ समझ में नहीं आता।” “लेकिन फादर,” मिस वुड ने कहा, “यह तो कान्वेन्ट स्कूल का नियम है कि कोई भी टीचर छुट्टियों में अपने खर्चे पर होस्टल में रह सकते हैं।” “मैं फिलहाल स्कूल के नियमों की बात नहीं कर रहा। मिस लतिका डाक्टर के संग यहाँ अकेली ही रह जायेंगी और सच पूछिए मिस वुड, डाक्टर के बारे में मेरी राय कुछ बहुत अच्छी नहीं है।” “फादर, आप कैसी बात कर रहे हैं? मिस लतिका बच्चा थोड़े ही है।” मिस वुड को ऐसी आशा नहीं थी कि फादर एल्मण्ड अपने दिल में ऐसी दकियानूसी भावना को स्थान देंगे।

फादर एल्मण्ड कुछ हतप्रभ-से हो गये, बात पलटते हुए बोले- “मिस वुड, मेरा मतलब यह नहीं था। आप तो जानती हैं, मिस लतिका और उस मिलिटरी अफसर को लेकर एक अच्छा-खासा स्कैण्डल बन गया था, स्कूल की बदनामी होने में क्या देर लगती है” “वह बेचारा तो अब नहीं रहा। मैं उसे जानती थी फादर! ईश्वर उसकी आत्मा को शान्ति दे।” मिस वुड ने धीरे-से अपनी दोनों बाँहों से क्रास किया।

फादर एल्मण्ड को मिस वुड की मुर्खता पर इतना अधिक क्षोभ हुआ कि उनसे आगे और कुछ नहीं बोला गया। डाक्टर मुकर्जी से उनकी कभी नहीं पटती थी, इसलिए मिस वुड की आँखों में वह डाक्टर को नीचा दिखाना चाहते थे। किन्तु मिस वुड लतिका का रोना ले बैठी। आगे बात बढ़ाना व्यर्थ था। उन्होंने छड़ी को जंगले से उठाया और ऊपर साफ खुले आकाश को देखते हुए बोले- “प्रोग्राम आपने यूँ ही बदला, मिस वुड, अब क्या बारिश होगी।”

ह्यूबर्ट जब चैपल से बाहर निकला तो उसकी आँखें चकाचैंध-सी हो गईं। उसे लगा जैसे किसी ने अचानक ढेर-सी चमकीली उबलती हुई रोशनी मुट्ठी में भरकर उसकी आँखों में झोंक दी हो। पियानो के संगीत के सुर रुई के छुई-मुई रेशों की भाँति अब तक उसके मस्तिष्क की थकी-माँदी नसों पर फड़फड़ा रहे थे। वह काफी थक गया था। पियानो बजाने से उसके फेफड़ों पर हमेशा भारी दबाव पड़ता, दिल की धड़कन तेज हो जाती थी। उसे लगता था कि संगीत के एक नोट को दूसरे नोट में उतारने के प्रयत्न में वह एक अँधेरी खाई पार कर रहा है।

आज चैपल में मैंने जो महसूस किया, वह कितना रहस्यमय, कितना विचित्र था, ह्यूबर्ट ने सोचा। मुझे लगा, पियानो का हर नोट चिरन्तन खामोशी की अँधेरी खोह से निकलकर बाहर फैली नीली धुन्ध को काटता, तराशता हुआ एक भूला-सा अर्थ खींच लाता है। गिरता हुआ हर ‘पोज’ एक छोटी-सी मौत है, मानो घने छायादार वृक्षों की काँपती छायाओं में कोई पगडण्डी गुम हो गयी हो, एक छोटी-सी मौत जो आनेवाले सुरों को अपनी बची-खुची गूँजों की साँसे समर्पित कर जाती है, जो मर जाती है, किन्तु मिट नहीं पाती, मिटती नहीं इसलिए मरकर भी जीवित है, दूसरे सुरों में लय हो जाती है।

“डाक्टर, क्या मृत्यु ऐसे ही आती है?” अगर मैं डाक्टर से पूछूँ तो वह हँसकर टाल देगा। मुझे लगता है, वह पिछले कुछ दिनों से कोई बात छिपा रहा है- उसकी हँसी में जो सहानुभूति का भाव होता है, वह मुझे अच्छा नहीं लगता। आज उसने मुझे स्पेशल सर्विस में आने से रोका था – कारण पूछने पर वह चुप रहा था। कौन-सी ऐसी बात है, जिसे मुझसे कहने में डाक्टर कतराता है। शायद मैं शक्की मिजाज होता जा रहा हूँ, और बात कुछ भी नहीं है।

ह्यूबर्ट ने देखा, लड़कियों की कतार स्कूल से होस्टल जानेवाली सड़क पर नीचे उतरती जा रही है। उजली धूप में उनके रंग-बिरंगे रिबन, हल्की आसमानी रंग की फ्रॉकें और सफेद पेटियाँ चमक रही हैं। सीनियर कैम्ब्रिज की कुछ लड़कियों ने चैपल की वाटिका के गुलाब के फूलों को तोड़कर अपने बालों में लगा लिया है कण्टोनमेण्ट के तीन-चार सिपाही लड़कियों को देखते हुए अश्लील मजाक करते हुए हँस रहे हैं और कभी-कभी किसी लड़की की ओर ज़रा झुककर सीटी बजाने लगते हैं।

“हलो मि. ह्यूबर्ट!” ह्यूबर्ट ने चैंककर पीछे देखा। लतिका एक मोटा-सा रजिस्टर बगल में दबाये खड़ी थी। “आप अभी यहीं हैं?” ह्यूबर्ट की दृष्टि लतिका पर टिकी रही। वह क्रीम रंग की पूरी बाँहों की ऊनी जैकट पहने हुई थी। कुमाऊँनी लड़कियों की तरह लतिका का चेहरा गोल था, धूप की तपन से पका गेहुँआ रंग कहीं-कहीं हल्का-सा गुलाबी हो आया था, मानों बहुत धोने पर भी गुलाल के कुछ धब्बे इधर-उधर बिखरे रह गये हों। “उन लड़कियों के नाम नोट करने थे, जो कल जा रही हैं सो पीछे रुकना पड़ा। आप भी तो कल जा रहे हैं मि. ह्यूबर्ट?” “अभी तक तो यही इरादा है। यहाँ रुककर भी क्या करूँगा। आप स्कूल की ओर जा रही हैं?“ “चलिए”

पक्की सड़क पर लड़कियों की भीड़ जमा थी, इसलिए वे दोनों पोलो ग्राउण्ड का चक्कर काटती हुई पगडण्डी से नीचे उतरने लगे। हवा तेज हो चली। चीड़ के पत्ते हर झोंके के संग टूट-टूटकर पगडण्डी पर ढेर लगाते जाते थे। ह्यूबर्ट रास्ता बनाने के लिए अपनी छड़ी से उन्हें बुहारकर दोनों ओर बिखेर देता था। लतिका पीछे खड़ी हुई देखती रहती थी। अल्मोड़ा की ओर से आते हुए छोटे-छोटे बादल रेशमी रूमालों से उड़ते हुए सूरज के मुँह पर लिपटे से जाते थे, फिर हवा में बह निकलते थे। इस खेल में धूप कभी मन्द, फीकी-सी पड़ जाती थी, कभी अपना उजला आँचल खोलकर समूचे शहर को अपने में समेट लेती थी।

लतिका तनिक आगे निकल गयी। ह्यूबर्ट की साँस चढ़ गयी थी और वह धीरे-धीरे हाँफता हुआ पीछे से आ रहा था। जब वे पोलोग्राउण्ड के पवेलियन को छोड़कर सिमिट्री के दायीं और मुडे, तो लतिका ह्यूबर्ट की प्रतीक्षा करने के लिए खड़ी हो गयी। उसे याद आया, छुट्टियों के दिनों में जब कभी कमरे में अकेले बैठे-बैठे उसका मन ऊब जाता था, तो वह अक्सर टहलते हुए सिमिट्री तक चली जाती थी। उससे सटी पहाड़ी पर चढ़कर वह बर्फ में ढँके देवदार वृक्षों को देखा करती थी। जिनकी झुकी हुई शाखों से रुई के गोलों-सी बर्फ नीचे गिरा करती थी, नीचे बाजार जानेवाली सड़क पर बच्चे स्लेज पर फिसला करते थे। वह खड़ी-खड़ी बर्फ में छिपी हुई उस सड़क का अनुमान लगाया करती थी जो फादर एल्मण्ड के घर से गुजरती हुई मिलिटरी अस्पताल और डाकघर से होकर चर्च की सीढ़ियों तक जाकर गुम हो जाती थी। जो मनोरंजन एक दुर्गम पहेली को सुलझाने में होता है, वही लतिका को बर्फ में खोये रास्तों को खोज निकालने में होता था।

“आप बहुत तेज चलती हैं, मिस लतिका” – थकान से ह्यूबर्ट का चेहरा कुम्हला गया था। माथे पर पसीने की बूँदे छलक आयी थीं। “कल रात आपकी तबियत क्या कुछ खराब हो गयी थी?” “आपने कैसे जाना? क्या मैं अस्वस्थ दीख रहा हूँ?” ह्यूबर्ट के स्वर में हलकी-सी खीज का आभास था। सब लोग मेरी सेहत को लेकर क्यों बात शुरू करते हैं, उसने सोचा। “नहीं, मुझे तो पता भी नहीं चलता, वह तो सुबह करीमुद्दीन ने बातों-ही-बातों में जिक्र छेड़ दिया था।” लतिका कुछ अप्रतिभ-सी हो आयी। “कोई खास बात नहीं, वही पुराना दर्द शुरू हो गया था, अब बिल्कुल ठीक है।” अपने कथन की पुष्टि के लिए ह्यूबर्ट छाती सीधी करके तेज कदम बढ़ाने लगा। “डाक्टर मुकर्जी को दिखलाया था?” “वह सुबह आये थे। उनकी बात कुछ समझ में नहीं आती। हमेशा दो बातें एक-दूसरे से उल्टी कहते हैं। कहते थे कि इस बार मुझे छह-सात महीने की छुट्टी लेकर आराम करना चाहिए, लेकिन अगर मैं ठीक हूँ, तो भला इसकी क्या जरूरत है?”

ह्यूबर्ट के स्वर में व्यथा की छाया लतिका से छिपी न रह सकी। बात को टालते हुए उसने कहा – “आप तो नाहक चिन्ता करते हैं, मि. ह्यूबर्ट! आजकल मौसम बदल रहा है, अच्छे भले आदमी तक बीमार हो जाते हैं।” ह्यूबर्ट का चेहरा प्रसन्नता से दमकने लगा। उसने लतिका को ध्यान से देखा। वह अपने दिल का संशय मिटाने के लिए निश्चिन्त हो जाना चाहता था कि कहीं लतिका उसे केवल दिलासा देने के लिए ही तो झूठ नहीं बोल रही। “यही तो मैं सोच रहा था, मिस लतिका! डाक्टर की सलाह सुनकर मैं डर ही गया। भला छह महीने की छुट्टी लेकर मैं अकेला क्या करूँगा। स्कूल में तो बच्चों के संग मन लगा रहता है। सच पूछो तो दिल्ली में ये दो महीनों की छुट्टियाँ काटना भी दूभर हो जाता है।”

“मि. ह्यूबर्ट….कल आप दिल्ली जा रहे हैं?” लतिका चलते-चलते हठात् ठिठक गयी। सामने पोलो-ग्राउण्ड फैला था, जिसके दूसरी ओर मिलिटरी की ट्रकें कण्टोनमेण्ट की ओर जा रही थीं। ह्यूबर्ट को लगा, जैसे लतिका की आँखें अधमुँदी-सी खुली रह गयी हैं, मानों पलकों पर एक पुराना भूला-सा सपना सरक आया है।

“मि.ह्यूबर्ट…आप दिल्ली जा रहे हैं,” इस बार लतिका ने प्रश्न नहीं दुहराया उसके स्वर में केवल एक असीम दूरी का भाव घिर आया। “बहुत अर्सा पहले मैं भी दिल्ली गयी थी, मि. ह्यूबर्ट! तब मैं बहुत छोटी थी, न जाने कितने बरस बीत गये। हमारी मौसी का ब्याह वहीं हुआ था। बहुत-सी चीजें देखी थीं, लेकिन अब तो सब कुछ धुँधला-सा पड़ गया है। इतना याद है कि हम कुतुब पर चढ़े थे। सबसे ऊँची मंजिल से हमने नीचे झाँका था, न जाने कैसा लगा था। नीचे चलते हुए आदमी चाभी भरे हुए खिलौनों-से लगते थे। हमने ऊपर से उन पर मूँगफलियाँ फेंकी थीं, लेकिन हम बहुत निराश हुए थे क्योंकि उनमें से किसी ने हमारी तरफ नहीं देखा। शायद माँ ने मुझे डाँटा था, और मैं सिर्फ नीचे झाँकते हुए डर गयी थी। सुना है, अब तो दिल्ली इतना बदल गया है कि पहचाना नहीं जाता”

वे दोनों फिर चलने लगे। हवा का वेग ढीला पड़ने लगा। उड़ते हुए बादल अब सुस्ताने से लगे थे, उनकी छायाएँ नन्दा देवी और पंचचूली की पहाड़ियों पर गिर रही थीं। स्कूल के पास पहुँचते-पहुँचते चीड़ के पेड़ पीछे छूट गये, कहीं-कहीं खुबानी के पेड़ों के आस-पास बुरुस के लाल फूल धूप में चमक जाते थे। स्कूल तक आने में उन्होंने पोलोग्राउण्ड का लम्बा चक्कर लगा लिया था। “मिस लतिका, आप कहीं छुट्टियों में जाती क्यों नहीं, सर्दियों में तो यहाँ सब कुछ वीरान हो जाता होगा?”

“अब मुझे यहाँ अच्छा लगता है,” लतिका ने कहा, “पहले साल अकेलापन कुछ अखरा था, अब आदी हो चुकी हूँ। क्रिसमस से एक रात पहले क्लब में डान्स होता है, लाटरी डाली जाती है और रात को देर तक नाच-गाना होता रहता है। नये साल के दिन कुमाऊँ रेजीमेण्ट की ओर से परेड-ग्राउण्ड में कार्नीवाल किया जाता है, बर्फ पर स्केटिंग होती है, रंग-बिरंगे गुब्बारों के नीचे फौजी बैण्ड बजता है, फौजी अफसर फैन्सी ड्रेस में भाग लेते हैं, हर साल ऐसा ही होता है, मि. ह्यूबर्ट। फिर कुछ दिनों बाद विण्टर स्पोट्र्स के लिए अंग्रेज टूरिस्ट आते हैं। हर साल मैं उनसे परिचित होती हूँ, वापिस लौटते हुए वे हमेशा वादा करते हैं कि अगले साल भी आयेंगे, पर मैं जानती हूँ कि वे नहीं आयेंगे, वे भी जानते हैं कि वे नहीं आयेंगे, फिर भी हमारी दोस्ती में कोई अंतर नहीं पड़ता। फिर…फिर कुछ दिनों बाद पहाड़ों पर बर्फ पिघलने लगती है, छुट्टियाँ खत्म होने लगती हैं, आप सब लोग अपने-अपने घरों से वापिस लौट आते हैं – और मि. ह्यूबर्ट पता भी नहीं चलता कि छुट्टियाँ कब शुरू हुई थीं, कब खत्म हो गईं”

लतिका ने देखा कि ह्यूबर्ट उसकी ओर आतंकित भयाकुल दृष्टि से देख रहा है। वह सिटपिटाकर चुप हो गयी। उसे लगा, मानों वह इतनी देर से पागल-सी अनर्गल प्रलाप कर रही हो। “मुझे माफ करना मि. ह्यूबर्ट, कभी-कभी मैं बच्चों की तरह बातों में बहक जाती हूँ।” “मिस लतिका…” ह्यूबर्ट ने धीरे-से कहा। वह चलते-चलते रुक गया था। लतिका ह्यूबर्ट के भारी स्वर से चौंक-सी गयी। “क्या बात है मि. ह्यूबर्ट?” “वह पत्र उसके लिए मैं लज्जित हूँ। उसे आप वापिस लौटा दें, समझ लें कि मैंने उसे कभी नहीं लिखा था।”

लतिका कुछ समझ न सकी, दिग्भ्रान्त-सी खड़ी हुई ह्यूबर्ट के पीले उद्धिग्न चेहरे को देखती रही। ह्यूबर्ट ने धीरे-से लतिका के कन्धे पर हाथ रख दिया। “कल डाक्टर ने मुझे सबकुछ बता दिया। अगर मुझे पहले से मालूम होता तो…तो” ह्यूबर्ट हकलाने लगा। “मि. ह्यूबर्ट…” किन्तु लतिका से आगे कुछ भी नहीं कहा गया। उसका चेहरा सफेद हो गया था।

दोनों चुपचाप कुछ देर तक स्कूल के गेट के बाहर खड़े रहे। मीडोज…पगडण्डियों, पत्तों, छायाओं से घिरा छोटा-सा द्वीप, मानों कोई घोंसला दो हरी घाटियों के बीच आ दबा हो। भीतर घूसते ही पिकनिक के काले आग से झुलसे हुए पत्थर, अधजली टहनियाँ, बैठने के लिए बिछाये गये पुराने अखबारों के टुकड़े इधर-उधर बिखरे हुए दिखायी दे जाते हैं। अक्सर टूरिस्ट पिकनिक के लिए यहाँ आते हैं। मीडोज को बीच में काटता हुआ टेढ़ा-मेढ़ा बरसाती नाला बहता है, जो दूर से धूप में चमकता हुआ सफेद रिबन-सा दिखायी देता है।

यहीं पर काठ के तख्तों का बना हुआ टूटा-सा पुल है, जिस पर लड़कियाँ हिचकोले खाते हुए चल रही हैं।

“डाक्टर मुकर्जी, आप तो सारा जंगल जला देंगे”। मिस वुड ने अपनी ऊँची एड़ी के सैण्डल से जलती हुई दियासलाई को दबा डाला, जो डाक्टर ने सिगार सुलगाकर चीड़ के पत्तों के ढेर पर फेंक दी थी। वे नाले से कुछ दूर हटकर चीड़ के दो पेड़ों से गुँथी हुई छाया के नीचे बैठे थे। उनके सामने एक छोटा-सा रास्ता नीचे पहाड़ी गाँव की ओर जाता था, जहाँ पहाड़ की गोद में शकरपारों के खेत एक-दूसरे के नीचे बिछे हुए थे। दोपहर के सन्नाटे में भेड़-बकरियों के गलों में बँधी हुई धण्टियों का स्वर हवा में बहता हुआ सुनायी दे जाता था। घास पर लेटे-लेटे डाक्टर सिगार पीते रहे। “जंगल की आग कभी देखी है, मिस वुड…एक अलमस्त नशे की तरह धीरे-धीरे फैलती जाती है।”

“आपने कभी देखी है डाक्टर?” मिस वुड ने पूछा, “मुझे तो बड़ा डर लगता है।”

“बहुत साल पहले शहरों को जलते हुए देखा था।” डाक्टर लेटे हुए आकाश की ओर ताक रहे थे। “एक-एक मकान” ताश के पत्तों की तरह गिरता जाता। दुर्भाग्यवश ऐसे अवसर देखने में बहुत कम आते हैं।

“आपने कहाँ देखा, डाक्टर?”

“लड़ाई के दिनों में अपने शहर रंगून को जलते हुए देखा था।” मिस वुड की आत्मा को ठेस लगी, किन्तु फिर भी उनकी उत्सुकता शान्त नहीं हुई।

“आपका घर, क्या वह भी जल गया था?”

डाक्टर कुछ देर तक चुपचाप लेटा रहा।

“हम उसे खाली छोड़कर चले आये थे, मालूम नहीं बाद में क्या हुआ।” अपने व्यक्तिगत जीवन के सम्बन्ध में कुछ भी कहने में डाक्टर को कठिनाई महसूस होती है।

“डाक्टर, क्या आप कभी वापिस बर्मा जाने की बात नहीं सोचते?” डाक्टर ने अँगड़ाई ली और करवट बदलकर औंधे मुँह लेट गये। उनकी आँखें मुँद गईं और माथे पर बालों की लटें झूल आयीं।

“सोचने से क्या होता है मिस वुड… जब बर्मा में था, तब क्या कभी सोचा था कि यहाँ आकर उम्र काटनी होगी?”

“लेकिन डाक्टर, कुछ भी कह लो, अपने देश का सुख कहीं और नहीं मिलता। यहाँ तुम चाहे कितने वर्ष रह लो, अपने को हमेशा अजनबी ही पाओगे।”

डाक्टर ने सिगार के धुएँ को धीरे-धीरे हवा में छोड़ दिया- “दरअसल अजनबी तो मैं वहाँ भी समझा जाऊँगा, मिस वुड। इतने वर्षों बाद मुझे कौन पहचानेगा! इस उम्र में नये सिरे से रिश्ते जोड़ना काफी सिरदर्द का काम है, कम-से-कम मेरे बस की बात नहीं है।”

“लेकिन डाक्टर, आप कब तक इस पहाड़ी कस्बे में पड़े रहेंगे, इसी देश में रहना है तो किसी बड़े शहर में प्रैक्टिस शुरू कीजिए।”

“प्रैक्टिस बढ़ाने के लिए कहाँ-कहाँ भटकता फिरूँगा, मिस वुड। जहाँ रहो, वहीं मरीज मिल जाते हैं। यहाँ आया था कुछ दिनों के लिए, फिर मुद्दत हो गयी और टिका रहा। जब कभी जी ऊबेगा, कहीं चला जाऊँगा। जड़ें कहीं नहीं जमतीं, तो पीछे भी कुछ नहीं छूट जाता। मुझे अपने बारे में कोई गलतफहमी नहीं है मिस वुड, मैं सुखी हूँ।”

मिस वुड ने डाक्टर की बात पर विशेष ध्यान नहीं दिया। दिल में वह हमेशा डाक्टर को उच्छृंखल, लापरवाह और सनकी समझती रही है, किन्तु डाक्टर के चरित्र में उनका विश्वास है, न जाने क्यों, क्योंकि डाक्टर ने जाने-अनजाने में उसका कोई प्रमाण दिया हो, यह उन्हें याद नहीं पड़ता।

मिस वुड ने एक ठण्डी साँस भरी। वह हमेशा यह सोचती थी कि यदि डाक्टर इतना आलसी और लापरवाह न होता, तो अपनी योग्यता के बल पर काफी चमक सकता था। इसलिए उन्हें डाक्टर पर क्रोध भी आता था और दुख भी होता था।

मिस वुड ने अपने बैग से ऊन का गोला और सलाइयाँ निकालीं, फिर उसके नीचे से अखबार में लिपटा हुआ चौड़ा कॉफी का डिब्बा उठाया, जिसमें अण्डों की सैण्डविचें और हैम्बर्गर दबे हुए थे। थर्मस से प्यालों में कॉफी उंडेलते हुए मिस वुड ने कहा – “डाक्टर, कॉफी ठण्डी हो रही है”

डाक्टर लेटे-लेटे बुड़बुड़ाया। मिस वुड ने नीचे झुककर देखा, वह कोहनी पर सिर टिकाये सो रहा था। ऊपर का होंठ जरा-सा फैलकर मुड़ गया था, मानों किसी से मजाक करने से पहले मुस्करा रहा हो।

उसकी अँगुलियों में दबा हुआ सिगार नीचे झुका हुआ लटक रहा था। “मेरी, मेरी, वाट डू यू वाण्ट, वाट डू यू वाण्ट?” दूसरे स्टैण्डर्ड में पढ़नेवाली मेरी ने अपनी चंचल, चपल आँखें ऊपर उठायीं, लड़कियों का दायरा उसे घेरे हुए कभी पास आता था, कभी दूर खिंचता चला जाता था।

“आई वाण्ट… आई वाण्ट ब्लू” दोनों हाथों को हवा में घुमाते हुए मेरी चिल्लायी। दायरा पानी की तरह टूट गया। सब लड़कियाँ एक-दूसरे पर गिरती-पड़ती किसी नीली वस्तु को छूने के लिए भाग-दौड़ करने लगीं। लंच समाप्त हो चुका था। लड़कियों के छोटे-छोटे दल मीडोज में बिखर गये थे। ऊँची क्लास की कुछ लड़कियाँ चाय का पानी गर्म करने के लिए पेड़ों पर चढ़कर सूखी टहनियाँ तोड़ रही थीं।

दोपहर की उस घड़ी में मीडोज अलसाया-ऊँघता-सा जान पड़ता था। हवा का कोई भूला-भटका झोंका, चीड़ के पत्ते खड़खड़ा उठते थे। कभी कोई पक्षी अपनी सुस्ती मिटाने झाड़ियों से उड़कर नाले के किनारे बैठ जाता था, पानी में सिर डुबोता था, फिर ऊबकर हवा में दो-चार निरुद्देश्य चक्कर काटकर दुबारा झाड़ियों में दुबक जाता था।

किन्तु जंगल की खामोशी शायद कभी चुप नहीं रहती। गहरी नींद में डूबी सपनों-सी कुछ आवाजें नीरवता के हल्के झीने परदे पर सलवटें बिछा जाती हैं, मूक लहरों-सी हवा में तिरती हैं, मानों कोई दबे पाँव झाँककर अदृश्य संकेत कर जाता है- “देखो मैं यहाँ हूँ” लतिका ने जूली के ‘बाब हेयर’ को सहलाते हुए कहा, “तुम्हें कल रात बुलाया था।”

“मैडम, मैं गयी थी, आप अपने कमरे में नहीं थीं।” लतिका को याद आया कि रात वह डाक्टर के कमरे के टैरेस पर देर तक बैठी रही थी और भीतर ह्यूबर्ट पियानो पर शोपाँ का नौक्टर्न बजा रहा था। “जूली, तुमसे कुछ पूछना था।” उसे लगा, वह जूली की आँखों से अपने को बचा रही है। जूली ने अपना चेहरा ऊपर उठाया। उसकी भूरी आँखों से कौतूहल झाँक रहा था।

“तुम आफिसर्स मेस में किसी को जानती हो?” जूली ने अनिश्चित भाव से सिर हिलाया। लतिका कुछ देर तक जूली को अपलक घूरती रही।

“जूली, मुझे विश्वास है, तुम झूठ नहीं बोलोगी।” कुछ क्षण पहले जूली की आँखों में जो कौतूहल था, वह भय से परिणत होने लगा। लतिका ने अपनी जैकेट की जेब से एक नीला लिफाफा निकालकर जूली की गोद में फेंक दिया। “यह किसकी चिट्ठी है?”

जूली ने लिफाफा उठाने के लिए हाथ बढ़ाया, किन्तु फिर एक क्षण के लिए उसका हाथ काँपकर ठिठक गया-लिफाफे पर उसका नाम और होस्टल का पता लिखा हुआ था।

“थैंक यू मैडम, मेरे भाई का पत्र है, वह झाँसी में रहते हैं।” जूली ने घबराहट में लिफाफे को अपने स्कर्ट की तहों में छिपा लिया। “जूली, ज़रा मुझे लिफाफा दिखलाओ।” लतिका का स्वर तीखा, कर्कश-सा हो आया।

जूली ने अनमने भाव से लतिका को पत्र दे दिया। “तुम्हारे भाई झाँसी में रहते हैं?” जूली इस बार कुछ नहीं बोली। उसकी उद्भ्रान्त उखड़ी-सी आँखें लतिका को देखती रहीं। “यह क्या है?”

जूली का चेहरा सफेद, फक पड़ गया। लिफाफे पर कुमाऊँ रेजीमेण्टल सेण्टर की मुहर उसकी ओर घूर रही थी। “कौन है यह?” लतिका ने पूछा। उसने पहले भी होस्टल में उड़ती हुई अफवाह सुनी थी कि जूली को क्लब में किसी मिलिटरी अफसर के संग देखा गया था, किन्तु ऐसी अफवाहें अक्सर उड़ती रहती थीं, और उसने उन पर विश्वास नहीं किया था। “जूली, तुम अभी बहुत छोटी हो” जूली के होंठ काँपे-उसकी आँखों में निरीह याचना का भाव घिर आया।

“अच्छा अभी जाओ, तुमसे छुट्टियों के बाद बातें करूँगी।” जूली ने ललचाई दृष्टि से लिफाफे को देखा, कुछ बोलने को उद्यत हुई, फिर बिना कुछ कहे चुपचाप वापिस लौट गयी।

लतिका देर तक जूली को देखती रही, जब तक वह आँखों से ओझल नहीं हो गयी। क्या मैं किसी खूँसट बुढ़िया से कम हूँ? अपने अभाव का बदला क्या मैं दूसरों से ले रही हूँ?

शायद, कौन जाने… शायद जूली का यह प्रथम परिचय हो, उस अनुभूति से, जिसे कोई भी लड़की बड़े चाव से सँजोकर, सँभालकर अपने में छिपाये रहती है, एक अनिर्वचनीय सुख, जो पीड़ा लिये है, पीड़ा और सुख को डुबोती हुई उमड़ते ज्वर की खुमारी, जो दोनों को अपने में समो लेती है एक दर्द, जो आनन्द से उपजा है और पीड़ा देता है।

यहीं इसी देवदार के नीचे उसे भी यही लगा था, जब गिरीश ने पूछा था-“तुम चुप क्यों हो?” वह आँखें मूँदे सोच रही थी, सोच कहाँ रही थी, जी रही थी, उस क्षण को जो भय और विस्मय के बीच भिंचा था-बहका-सा पागल क्षण। वह अभी पीछे मुड़ेगी तो गिरीश की ‘नर्वस’ मुस्कराहट दिखायी दे जायेगी, उस दिन से आज दोपहर तक का अतीत एक दुःस्वप्न की मानिन्द टूट जाएगा। वही देवदार है, जिस पर उसने अपने बालों के क्लिप से गिरीश का नाम लिखा था। पेड़ की छाल उतरती नहीं थी, क्लिप टूट-टूट जाता था, तब गिरीश ने अपने नाम के नीचे उसका नाम लिखा था। जब कभी कोई अक्षर बिगड़कर ढेढ़ा-मेढ़ा हो जाता था तब वह हँसती थी, और गिरीश का काँपता हाथ और भी काँप जाता था।

लतिका को लगा कि जो वह याद करती है, वही भूलना भी चाहती है, लेकिन जब सचमुच भूलने लगती है, तब उसे भय लगता है कि जैसे कोई उसकी किसी चीज को उसके हाथों से छीने लिये जा रहा है, ऐसा कुछ जो सदा के लिए खो जायेगा। बचपन में जब कभी वह अपने किसी खिलौने को खो देती थी, तो वह गुमसुम-सी होकर सोचा करती थी, कहाँ रख दिया मैंने। जब बहुत दौड़-धूप करने पर खि़लौना मिल जाता, तो वह बहाना करती कि अभी उसे खोज ही रही है, कि वह अभी मिला नहीं है। जिस स्थान पर खिलौना रखा होता, जान-बूझकर उसे छोड़कर घर के दूसरे कोने में उसे खोजने का उपक्रम करती। तब खोई हुई चीज याद रहती, इसलिए भूलने का भय नहीं रहता था।

आज वह उस बचपन के खेल का बहाना क्यों नहीं कर पाती? ‘बहाना’शायद करती है, उसे याद करने का बहाना, जो भूलता जा रहा है…दिन, महीने बीत जाते हैं, और वह उलझी रहती है, अनजाने में गिरीश का चेहरा धुँधला पड़ता जाता है, याद वह करती है, किन्तु जैसे किसी पुरानी तस्वीर के धूल भरे शीशे को साफ कर रही हो। अब वैसा दर्द नहीं होता, सिर्फ उसको याद करती है, जो पहले कभी होता था, तब उसे अपने पर ग्लानि होती है। वह फिर जान-बूझकर उस घाव को कुरेदती है, जो भरता जा रहा है, खुद-ब-खुद उसकी कोशिशों के बावजूद भरता जा रहा है। देवदार पर खुदे हुए अधमिटे नाम लतिका की ओर निस्तब्ध निरीह भाव से निहार रहे थे। मीडोज के घने सन्नाटे में नाले पार से खेलती हुई लड़कियों की आवाजें गूँज जाती थीं…वाट डू यू वाण्ट? वाट डू यू वाण्ट?

तितलियाँ, झींगुर, जुगनू…मीडोज पर उतरती हुई साँझ की छायाओं में पता नहीं चलता, कौन आवाज किसकी है? दोपहर के समय जिन आवाजों को अलग-अलग पहचाना जा सकता था, अब वे एकस्वरता की अविरल धारा में घुल गयी थीं। घास से अपने पैरों को पोंछता हुआ कोई रेंग रहा है झाड़ियों के झुरमुट से परों को फड़फड़ाता हुआ झपटकर कोई ऊपर से उड़ जाता है किन्तु ऊपर देखो तो कहीं कुछ भी नहीं है। मीडोज के झरने का गड़गड़ाता स्वर, जैसे अँधेरी सुरंग में झपाटे से ट्रेन गुजर गयी हो, और देर तक उसमें सीटियों और पहियों की चीत्कार गूँजती रही हो।

पिकनिक कुछ देर तक और चलती, किन्तु बादलों की तहें एक-दूसरे पर चढ़ती जा रही थीं। पिकनिक का सामान बटोरा जाने लगा। मीडोज के चारों ओर बिखरी हुई लड़कियाँ मिस वुड के इर्द-गिर्द जमा होने लगीं। अपने संग वे अजीबोगरीब चीजें बटोर लायी थीं। कोई किसी पक्षी के टूटे पंख को बालों में लगाये हुए थी, किसी ने पेड़ की टहनी को चाकू से छीलकर छोटी-सी बेंत बना ली थी। ऊँची क्लास की कुछ लड़कियों ने अपने-अपने रूमालों में नाले से पकड़ी हुई छोटी-छोटी बालिश्त भर की मछलियों को दबा रखा था जिन्हें मिस वुड से छिपकर वे एक-दूसरे को दिखा रही थीं।

मिस वुड लड़कियों की टोली के संग आगे निकल गयीं। मीडोज से पक्की सड़क तक तीन-चार फर्लांग की चढ़ाई थी। लतिका हाँफने लगी। डाक्टर मुकर्जी सबसे पीछे आ रहे थे। लतिका के पास पहुँचकर वह ठिठक गये। डाक्टर ने दोनों घुटनों को जमीन पर टेकते हुए सिर झुकाकर एलिजाबेथयुगीन अंगे्रजी में कहा – “मैडम, आप इतनी परेशान क्यों नजर आ रही हैं?” और डाक्टर की नाटकीय मुद्रा को देखकर लतिका के होंठों पर एक थकी-सी ढीली-ढीली मुस्कराहट बिखर गयी। “प्यास के मारे गला सूख रहा है और यह चढ़ाई है कि खत्म होने में नहीं आती।”

डाक्टर ने अपने कन्धे पर लटकते हुए थर्मस को उतारकर लतिका के हाथों में देते हुए कहा – “थोड़ी-सी कॉफ़ी बची है, शायद कुछ मदद कर सके।” “पिकनिक में तुम कहाँ रह गये डाक्टर, कहीं दिखायी नहीं दिये?” “दोपहर भर सोता रहा-मिस वुड के संग। मेरा मतलब है, मिस वुड पास बैठी थीं।” “मुझे लगता है, मिस वुड मुझसे मुहब्बत करती हैं।” कोई भी मजाक करते समय डाक्टर अपनी मूँछों के कोनों को चबाने लगता है। “क्या कहती थीं?” लतिका ने थर्मस से कॉफी को मुँह में उँडेल लिया। “शायद कुछ कहतीं, लेकिन बदकिस्मती से बीच में ही मुझे नींद आ गयी। मेरी जिन्दगी के कुछ खूबसूरत प्रेम-प्रसंग कम्बख्त इस नींद के कारण अधूरे रह गये हैं।”

और इस दौरान में जब दोनों बातें कर रहे थे, उनके पीछे मीडोज और मोटर रोड के संग चढ़ती हुई चीड़ और बाँज के वृक्षों की कतारें साँझ के घिरते अँधेरे में डूबने लगीं, मानों प्रार्थना करते हुए उन्होंने चुपचाप अपने सिर नीचे झुका लिये हों। इन्हीं पेड़ों के ऊपर बादलों में गिरजे का क्रास कहीं उलझा पड़ा था। उसके नीचे पहाड़ों की ढलान पर बिछे हुए खेत भागती हुई गिलहरियों से लग रहे थे, जो मानों किसी की टोह में स्तब्ध ठिठक गयी हों। “डाक्टर, मि. ह्यूबर्ट पिकनिक पर नहीं आये?” डाक्टर मुकर्जी टार्च जलाकर लतिका के आगे-आगे चल रहे थे। “मैंने उन्हें मना कर दिया था।” “किसलिए?”

अँधेरे में पैरों के नीचे दबे हुए पत्तों की चरमराहट के अतिरिक्त कुछ सुनायी नहीं देता था। डॉक्टर मुकर्जी ने धीरे-से खाँसा। “पिछले कुछ दिनों से मुझे संदेह होता जा रहा है कि ह्यूबर्ट की छाती का दर्द शायद मामूली दर्द नहीं है।” डाक्टर थोड़ा-सा हँसा, जैसे उसे अपनी यह गम्भीरता अरुचिकर लग रही हो।

डाक्टर ने प्रतीक्षा की, शायद लतिका कुछ कहेगी। किन्तु लतिका चुपचाप उसके पीछे चल रही थी। “यह मेरा महज शक है, शायद मैं बिल्कुल गलत होऊँ, किन्तु यह बेहतर होगा कि वह अपने एक फेफड़े का एक्सरे करा लें, इससे कम-से-कम कोई भ्रम तो नहीं रहेगा।” “आपने मि. ह्यूबर्ट से इसके बारे में कुछ कहा है?” “अभी तक कुछ नहीं कहा। ह्यूबर्ट जरा-सी बात पर चिन्तित हो उठता है, इसलिए कभी साहस नहीं हो पाता” डॉक्टर को लगा, उसके पीछे आते हुए लतिका के पैरों का स्वर सहसा बन्द हो गया है। उन्होंने पीछे मुड़कर देखा, लतिका बीच सड़क पर अँधेरे में छाया-सी चुपचाप निश्चल खड़ी है। “डाक्टर…” लतिका का स्वर भर्राया हुआ था। “क्या बात है मिस लतिका, आप रुक क्यों गयी?” “डाक्टर-क्या मि. ह्यूबर्ट…?

डाक्टर ने अपनी टार्च की मद्धिम रोशनी लतिका पर उठा दी…उसने देखा लतिका का चेहरा एकदम पीला पड़ गया है और वह रह-रहकर पत्ते-सी काँप जाती है। “मिस लतिका, क्या बात है, आप तो बहुत डरी-सी जान पड़ती हैं?” “कुछ नहीं डाक्टर, मुझे…मुझे कुछ याद आ गया था” वे दोनों फिर चलने लगे। कुछ दूर जाने पर उनकी आँखें ऊपर उठ गयीं। पक्षियों का एक बेड़ा धूमिल आकाश में त्रिकोण बनाता हुआ पहाड़ों के पीछे से उनकी ओर आ रहा था। लतिका और डाक्टर सिर उठाकर इन पक्षियों को देखते रहे। लतिका को याद आया, हर साल सर्दी की छुट्टियों से पहले ये परिन्दे मैदानों की ओर उड़ते हैं, कुछ दिनों के लिए बीच के इस पहाड़ी स्टेशन पर बसेरा करते हैं, प्रतीक्षा करते हैं बर्फ के दिनों की, जब वे नीचे अजनबी, अनजाने देशों में उड़ जायेंगे।

क्या वे सब भी प्रतीक्षा कर रहे हैं? वह, डाक्टर मुकर्जी, मि. ह्यूबर्ट, लेकिन कहाँ के लिए, हम कहाँ जायेंगे?

किन्तु उसका कोई उत्तर नहीं मिला-उस अँधेरे में मीडोज के झरने के भुतैले स्वर और चीड़ के पत्तों की सरसराहट के अतिरिक्त कुछ सुनायी नहीं देता था। लतिका हड़बड़ाकर चौंक गयी। अपनी छड़ी पर झुका हुआ डाक्टर धीरे-धीरे सीटी बजा रहा था।

“मिस लतिका, जल्दी कीजिए, बारिश शुरू होनेवाली है।” होस्टल पहुँचते-पहुँचते बिजली चमकने लगी थी। किन्तु उस रात बारिश देर तक नहीं हुई। बादल बरसने भी नहीं पाते थे कि हवा के थपेड़ों से धकेल दिये जाते थे। दूसरे दिन तड़के ही बस पकड़नी थी, इसलिए डिनर के बाद लड़कियाँ सोने के लिए अपने-अपने कमरों में चली गयी थीं।

जब लतिका अपने कमरे में गयी, तो उस समय कुमाऊँ रेजीमेण्ट सेण्टर का बिगुल बज रहा था। उसके कमरे में करीमुद्दीन कोई पहाड़ी धुन गुनगुनाता हुआ लैम्प में गैस पम्प कर रहा था। लतिका उन्हीं कपड़ों में, तकिये को दुहरा करके लेट गयी। करीमुद्दीन ने उड़ती हुई निगाह से लतिका को देखा, फिर अपने काम में जुट गया। “पिकनिक कैसी रही मेम साहब?” “तुम क्यों नहीं आये, सब लड़कियाँ तुम्हें पूछ रही थीं?” लतिका को लगा, दिन-भर की थकान धीरे-धीरे उसके शरीर की पसलियों पर चिपटती जा रही है। अनायास उसकी आँखें नींद के बोझ से झपकने लगीं। “मैं चला आता तो ह्यूबर्ट साहब की तीमारदारी कौन करता। दिनभर उनके बिस्तर से सटा हुआ बैठा रहा और अब वह गायब हो गये हैं।” करीमुद्दीन ने कन्धे पर लटकते हुए मैचे-कुचैले तौलिये को उतारा और लैम्प के शीशों की गर्द पोंछने लगा।

लतिका की अधमुँदी आँखें खुल गयी। “क्या ह्यूबर्ट साहब अपने कमरे में नहीं हैं?” “खुदा जाने, इस हालत में कहाँ भटक रहे हैं। पानी गर्म करने कुछ देर के लिए बाहर गया था, वापिस आने पर देखता हूँ कि कमरा खाली पड़ा है।” करीमुद्दीन बड़बड़ाता हुआ बाहर चला गया। लतिका ने लेटे-लेटे पलँग के नीचे चप्पलों को पैरों से उतार दिया।

ह्यूबर्ट इतनी रात कहाँ गये? किन्तु लतिका की आँखें फिर झपक गयीं। दिन-भर की थकान ने सब परेशानियों, प्रश्नों पर कुंजी लगा दी थी, मानों दिन-भर आँख-मिचौनी खेलते हुए उसने अपने कमरे में ‘दय्या’ को छू लिया था। अब वह सुरक्षित थी, कमरे की चहारदीवारी के भीतर उसे कोई नहीं पकड़ सकता। दिन के उजाले में वह गवाह थी, मुजरिम थी, हर चीज का उससे तकाजा था, अब इस अकेलेपन में कोई गिला नहीं, उलाहना नहीं, सब खींचातानी खत्म हो गयी है, जो अपना है, वह बिल्कुल अपना-सा हो गया है, जो अपना नहीं है, उसका दुख नहीं, अपनाने की फुरसत नहीं…

लतिका ने दीवार की ओर मुँह घुमा लिया। लैम्प के फीके आलोक में हवा में काँपते परदों की छायाएँ हिल रही थीं। बिजली कड़कने से खिड़कियों के शीशे-चमक-चमक जाते थे, दरवाजे चटखने लगते थे, जैसे कोई बाहर से धीमे-धीमे खटखटा रहा हो। कॉरीडोर से अपने-अपने कमरों में जाती हुई लड़कियों की हँसी, बातों के कुछ शब्द, फिर सबकुछ शान्त हो गया, किन्तु फिर भी देर तक कच्ची नींद में वह लैम्प का धीमा-सा ‘सी-सी’ स्वर सुनती रही। कब वह स्वर भी मौन का भाग बनकर मूक हो गया, उसे पता न चला। कुछ देर बाद उसको लगा, सीढ़ियों से कुछ दबी आवाजें ऊपर आ रही हैं, बीच-बीच में कोई चिल्ला उठता है, और फिर सहसा आवाजें धीमी पड़ जाती हैं। “मिस लतिका, जरा अपना लैम्प ले आइये” – कॉरिडोर के जीने से डाक्टर मुकर्जी की आवाज आयी थी।

कॉरीडोर में अँधेरा था। वह तीन-चार सीढ़ियाँ नीचे उतरी, लैम्प नीचे किया। सीढ़ियों से सटे जंगले पर ह्यूबर्ट ने अपना सिर रख दिया था, उसकी एक बाँह जंगले के नीचे लटक रही थी और दूसरी डाक्टर के कन्धे पर झूल रही थी, जिसे डाक्टर ने अपने हाथों में जकड़ रखा था। “मिस लतिका, लैम्प ज़रा और नीचे झुका दीजिए….ह्यूबर्ट…ह्यूबर्ट…” डाक्टर ने ह्यूबर्ट को सहारा देकर ऊपर खींचा। ह्यूबर्ट ने अपना चेहरा ऊपर किया। व्हिस्की की तेज बू का झोंका लतिका के सारे शरीर को झिंझोड़ गया। ह्यूबर्ट की आँखों में सुर्ख डोरे खिंच आये थे, कमीज का कालर उलटा हो गया था और टाई की गाँठ ढीली होकर नीचे खिसक आयी थी। लतिका ने काँपते हाथों से लैम्प सीढ़ियों पर रख दिया और आप दीवार के सहारे खड़ी हो गयी। उसका सिर चकराने लगा था।

“इन ए बैक लेन ऑफ द सिटी, देयर इज ए गर्ल हू लव्ज मी…” ह्यूबर्ट हिचकियों के बीच गुनगुना उठता था।

“ह्यूबर्ट प्लीज…प्लीज,” डाक्टर ने ह्यूबर्ट के लड़खड़ाते शरीर को अपनी मजबूत गिरफ्त में ले लिया।

“मिस लतिका, आप लैम्प लेकर आगे चलिए” लतिका ने लैम्प उठाया। दीवार पर उन तीनों की छायाएँ डगमगाने लगीं।

“इन ए बैक लेन ऑफ द सिटी, देयर इज ए गर्ल हू लव्ज मी” ह्यूबर्ट डाक्टर मुकर्जी के कन्धे पर सिर टिकाये अँधेरी सीढ़ियों पर उल्टे-सीधे पैर रखता चढ़ रहा था।

“डाक्टर, हम कहाँ हैं?” ह्यूबर्ट सहसा इतनी जोर से चिल्लाया कि उसकी लड़खड़ाती आवाज सुनसान अँधेरे में कॉरीडोर की छत से टकराकर देर तक हवा में गूँजती रही।

“ह्यूबर्ट…” डाक्टर को एकदम ह्यूबर्ट पर गुस्सा आ गया, फिर अपने गुस्से पर ही उसे खीझ-सी हो आयी और वह ह्यूबर्ट की पीठ थपथपाने लगा। “कुछ बात नहीं है ह्यूबर्ट डियर, तुम सिर्फ थक गये हो।“ ह्यूबर्ट ने अपनी आँखें डाक्टर पर गड़ा दीं, उनमें एक भयभीत बच्चे की-सी कातरता झलक रही थी, मानो डाक्टर के चेहरे से वह किसी प्रश्न का उत्तर पा लेना चाहता हो। ह्यूबर्ट के कमरे में पहुँचकर डाक्टर ने उसे बिस्तरे पर लिटा दिया। ह्यूबर्ट ने बिना किसी विरोध के चुपचाप जूते-मोजे उतरवा दिये। जब डाक्टर ह्यूबर्ट की टाई उतारने लगा, तो ह्यूबर्ट, अपनी कुहनी के सहारे उठा, कुछ देर तक डाक्टर को आँखें फाड़ते हुए घूरता रहा, फिर धीरे-से उसका हाथ पकड़ लिया। “डाक्टर, क्या मैं मर जाऊँगा?” “कैसी बात करते हो ह्यूबर्ट!” डाक्टर ने हाथ छुड़ाकर धीरे-से ह्यूबर्ट का सिर तकिये पर टिका दिया। “गुड नाइट ह्यूबर्ट” “गुड नाइट डाक्टर,” ह्यूबर्ट ने करवट बदल ली। “गुड नाइट मि. ह्यूबर्ट…” लतिका का स्वर सिहर गया। किन्तु ह्यूबर्ट ने कोई उत्तर नहीं दिया। करवट बदलते ही उसे नींद आ गयी थी।

कॉरीडोर में वापिस आकर डाक्टर मुकर्जी रेलिंग के सामने खड़े हो गये। हवा के तेज झोंकों से आकाश में फैले बादलों की परतें जब कभी इकहरी हो जातीं, तब उनके पीछे से चाँदनी बुझती हुई आग के धुएँ-सी आस-पास की पहाड़ियों पर फैल जाती थी। “आपको मि. ह्यूबर्ट कहाँ मिले?” लतिका कॉरीडोर के दूसरे कोने में रेलिंग पर झुकी हुई थी। “क्लब के बार में उन्हें देखा था, मैं न पहुँचता तो न जाने कब तक बैठे रहते। डाक्टर मुकर्जी ने सिगरेट जलायी। उन्हें अभी एक-दो मरीजों के घर जाना था। कुछ देर तक उन्हें टाल देने के इरादे से वह कॉरीडोर में खड़े रहे।” नीचे अपने क्वार्टर में बैठा हुआ करीमुद्दीन माउथ आर्गन पर कोई पुरानी फिल्मी धुन बजा रहा था।

“आज दिन भर बादल छाये रहे, लेकिन खुलकर बारिश नहीं हुई” “क्रिसमस तक शायद मौसम ऐसा ही रहेगा।” कुछ देर तक दोनों चुपचाप ख़डे रहे। कॉन्वेन्ट स्कूल के बाहर फैले लॉन से झींगुरों का अनवरत स्वर चारों ओर फैली निस्तब्धता को और भी अधिक घना बना रहा था। कभी-कभी ऊप़र मोटर रोड पर किसी कुत्ते की रिरियाहट सुनायी पड़ा जाती थी। “डाक्टर… कल रात आपने मि. ह्यूबर्ट से कुछ कहा था मेरे बारे में?” “वही जो सब लोग जानते हैं और ह्यूबर्ट, जिसे जानना चाहिए था, नहीं जानता था।” डाक्टर ने लतिका की ओर देखा, वह जड़वत अविचलित रेलिंग पर झुकी हुई थी। “वैसे हम सबकी अपनी-अपनी जिद होती है, कोई छोड़ देता है, कोई आखिर तक उससे चिपका रहता है।” डाक्टर मुकर्जी अँधेरे में मुस्कराये। उनकी मुस्कराहट में सूखा-सा विरक्ति का भाव भरा था। “कभी-कभी मैं सोचता हूँ मिस लतिका, किसी चीज को न जानना यदि गलत है, तो जान-बूझकर न भूल पाना, हमेशा जोंक की तरह उससे चिपटे रहना, यह भी गलत है। बर्मा से आते हुए मेरी पत्नी की मृत्यु हुई थी, मुझे अपनी जिन्दगी बेकार-सी लगी थी। आज इस बात को अर्सा गुजर गया और जैसा आप देखती हैं, मैं जी रहा हूँ उम्मीद है कि काफी अर्सा और जिऊँगा। जिन्दगी काफी दिलचस्प लगती है, और यदि उम्र की मजबूरी न होती तो शायद मैं दूसरी शादी करने में भी न हिचकता। इसके बावजूद कौन कह सकता है कि मैं अपनी पत्नी से प्रेम नहीं करता था, आज भी करता हूँ” “लेकिन डाक्टर…” लतिका का गला रुँध आया था। “क्या मि़स लतिका…”

“डाक्टर – सबकुछ होने के बावजूद वह क्या चीज़ है जो हमें चलाये चलती है, हम रुकते हैं तो भी अपने रेले में वह हमें घसीट ले जाती है।” लतिका को लगा कि वह जो कहना चाह रही है, कह नहीं पा रही, जैसे अँधेरे में कुछ खो गया है, जो मिल नहीं पा रहा, शायद कभी नहीं मिल पायेगा। “यह तो आपको फादर एल्मण्ड ही बता सकेंगे मिस लतिका,” डाक्टर की खोखली हँसी में उनका पुराना सनकीपन उभर आया था। “अच्छा चलता हूँ, मिस लतिका, मुझे काफी देर हो गयी है,” डाक्टर ने दियासलाई जलाकर घड़ी को देखा। “गुड नाइट, मिस लतिका।” “गुड नाइट, डाक्टर।”

डाक्टर के जाने पर लतिका कुछ देर तक अँधेरे में रेलिंग से सटी खड़ी रही। हवा चलने से कॉरीडोर में जमा हुआ कुहरा सिहर उठता था। शाम को सामान बाँधते हुए लड़कियों ने अपने-अपने कमरे के सामने जो पुरानी कापियों, अखबारों और रद्दी के ढेर लगा दिये थे, वे सब अब अँधेरे कॉरीडोर में हवा के झोंकों से इधर-उधर बिखरने लगे थे।

लतिका ने लैम्प उठाया और अपने कमरे की ओर जाने लगी। कॉरीडोर में चलते हुए उसने देखा, जूली के कमरे में प्रकाश की एक पतली रेखा दरवाजे के बाहर खिंच आयी है। लतिका को कुछ याद आया। वह कुछ क्षणों तक साँस रोके जूली के कमरे के बाहर खड़ी रही। कुछ देर बाद उसने दरवाजा खटखटाया। भीतर से कोई आवाज नहीं आयी। लतिका ने दबे हाथों से हलका-सा धक्का दिया, दरवाजा खुल गया। जूली लैम्प बुझाना भूल गयी थी। लतिका धीरे-धीरे दबे पाँव जूली के पलँग के पास चली आयी। जूली का सोता हुआ चेहरा लैम्प के फीके आलोक में पीला-सा दीख रहा था। लतिका ने अपनी जेब से वही नीला लिफाफा निकाला और उसे धीरे-से जूली के तकिये के नीचे दबाकर रख दिया।

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Wednesday, September 2, 2020

कर्मनाशा की हार - शिवप्रसाद सिंह (Karmnasha Ki Haar by Shiv Prasad Singh)


काले सांप का काटा आदमी बच सकता है, हलाहल ज़हर पीने वाले की मौत रुक सकती है, किंतु जिस पौधे को एक बार कर्मनाशा का पानी छू ले, वह फिर हरा नहीं हो सकता। कर्मनाशा के बारे में किनारे के लोगों में एक और विश्वास प्रचलित था कि यदि एक बार नदी बढ़ आये तो बिना मानुस की बलि लिये लौटती नहीं। हालांकि थोड़ी ऊंचाई पर बसे हुए नयी डीह वालों को इसका कोई खौफ न था; इसी से वे बाढ़ के दिनों में, गेरू की तरह फैले हुए अपार जल को देखकर खुशियां मनाते, दो-चार दिन की यह बाढ़ उनके लिए तब्दीली बनकर आती, मुखियाजी के द्वार पर लोग-बाग इकट्ठे होते और कजली-सावन की ताल पर ढोलकें उनकने लगतीं।

गांव के दुधमुंहे तक ‘ई बाढ़ी नदिया जिया ले के माने’ का गीत गाते; क्योंकि बाढ़ उनके किसी आदमी का जिया नहीं लेती थी। किंतु पिछले साल अचानक जब नदी का पानी समुद्र के ज्वार की तरह उमड़ता हुआ, नयी डीह से जा टकराया, तो ढोलकें बह चलीं, गीत की कड़ियां मुरझाकर होंठों पे पपड़ी की तरह छा गयीं, सोखा ने जान के बदले जान देकर पूजा की, पांच बकरों की दौरी भेंट हुई, किंतु बढ़ी नदी का हौसला कम न हुआ। एक अंधी लड़की, एक अपाहिज बुढ़िया बाढ़ की भेंट रहीं. नयी डीह वाले कर्मनाशा के इस उग्र रूप से कांप उठे, बूढ़ी औरतों ने कुछ सुराग मिलाया. पूजा-पाठ कराकर लोगों ने पाप-शांति की।

एक बाढ़ बीती, बरस बीता. पिछले घाव सूखे न थे कि भादों के दिनों में फिर पानी उमड़ा. बादलों की छांव में सोया गांव भोर की किरण देखकर उठा तो सारा सिचान रक्त की तरह लाल पानी से घिरा था. नयी डीह के वातावरण में हौलदिली छा गयी. गांव ऊंचे अरार पर बसा था, जिस पर नदी की धारा अनवरत टक्कर मार रही थी, बड़े-बड़े पेड़ जड़-मूल के साथ उलटकर नदी के पेट में समा रहे थे, यह बाढ़ न थी, प्रलय का संदेश था, नयी डीह के लोग चूहेदानी में फंसे चूहे की तरह भय से दौड़-धूप कर रहे थे, सबके चेहरे पर मुर्दनी छा गयी थी.

“कल दीनापुर में कड़ाह चढ़ा था पांड़ेजी,” इंसुर भगत हकलाते हुए बोला. कुएं की जगत से बाल्टी का पानी लिये जगेसर पांड़े उतर रहे थे. घबड़ाकर बाल्टी सहित ऊपर से कूद पड़े।

“क्या कह रहे थे भगत, कड़ाह चढ़ा था, क्या कहा सोखा ने?” चौराहे पर छोटी भीड़ इकट्ठी हो गयी। भगत अपने शब्दों को चुभलाते हुए बोले, “काशीनाथ की सरन, भाई लोगो, सोखा ने कहा कि इतना पानी गिरेगा कि तीन घड़े भरे जाएंगे, आदमी-मवेशी की छय होगी, चारों ओर हाहाकार मच जाएगा, परलय होगी।”

“परलय न होगी, तब क्या बरक्कत होगी? हे भगवान, जिस गांव में ऐसा पाप करम होगा वह बहेगा नहीं, तब क्या बचेगा?” माथे के लुग्गे को ठीक करती हुई धनेसरा चाची बोलीं, “मैं तो कहूं कि फुलमतिया ऐसी चुप काहे है। राम रे राम, कुतिया ने पाप किया, गांव के सिर बीता। उसकी माई कैसी सतवंती बनती थी। आग लाने गयी तो घर में जाने नहीं दिया, मैं तो तभी छनगी की हो न हो दाल में कुछ काला है। आग लगे ऐसी कोख में. तीन दिन की बिटिया और पेट में ऐसी घनघोर दाढ़ी।”

“कुछ साफ़ भी कहोगी भौजी,” बीच में जगेसर पांड़े बोले, “क्या हुआ आखिर?”

“हुआ क्या, फुलमतिया रांड मेमना लेके बैठकी है. विधवा लड़की बेटा बियाकर सुहागिन बनी है।”

“ऐ कब हुआ” सबकी आंखों में उत्सुकता के फफोले उभर आये। आगत भय से सबकी सांसें टंगी रह गयीं। तभी मिर्चे की तरह तीखी आवाज़ में चाची बोलीं, “कोई आज की बात है? तीन दिन से सौरों में बैठी है डाइन। पाप को छाती से चिपकाये है, यह भी न हुआ कि गर्दन मरोड़कर गड़हे-गुच्ची में डाल दे।”

लोगों को परलय की सूचना देकर, हवा में उड़ते हुए आंचल को बरजोरी बस में करती चाची दूसरे चौराहे की ओर बढ़ चलीं। गांव का सारा आतंक, भय, पाप उनके पीछे कुत्ते की तरह दुम दबाये चले जा रहे थे। सबकी आंखों में नयी डीह का भविष्य था, रक्त की तरह लाल पानी में चूहे की तरह ऊभ-चूभ करते हुए लोग चिल्ला रहे थे, मौत का ऐसा भयंकर स्वप्न भी शायद ही किसी ने देखा था।

भैरों पांड़े बैसाखी के सहारे अपनी बखरी के दरवाजे में खड़े बाढ़ के पानी का ज़ोर देख रहे थे, अपार जल में बहते हुए सांप-बिच्छू चले आ रहे थे। मरे हुए जानवर की पीठ पर बैठा कौआ लहर के धक्के से बिछल जाता, भीगे चूहे पानी से बाहर निकलते तो चील झपट पड़ते। विचित्र दृश्य है- पांडे न जाने क्यों बुदबुदाए। फिर मिट्टी की बनी पुरानी बखरी की ओर देखा। पांड़े के दादा-देस-दिहात के नामी-गिरामी पंडित थे, उनका ऐसा इकबाल था कि कोई किसी को कभी सताने की हिम्मत नहीं करता था। उनकी बनवायी है यह बखरी। भाग की लेख कौन टारे। दो पुश्त के अंदर ही सभी कुछ खो गया, मुट्ठी में बंद जुगनू हाथ के बाहर निकल गया और किसी ने जाना भी नहीं। आज से सोलह साल पहले मां-बांप एक नन्हा लड़का हाथ में सौंपकर चले गये, पैर से पंगु भैरों पांड़े अपने दो बरस के छेटे भाई को कंधे से चिपकाये असहाय, निरवलम्ब खड़े रह गये- धन के नाम पर बाप का कर्ज़ मिला, काम-धाम के लिए दुधमुंहे भाई की देख-रेख, रहने के लिए बखरी जिसे पिछली बाढ़ के धक्कों ने एकदम जर्जर कर दिया है।

“अब यह भी न बचेगी”- पांड़े के मुंह से भवितव्य फूट रहा था जिसकी भयंकरता पर उन्होंने ज़रा भी ख्याल करना ज़रूरी नहीं समझा। दरारों से भरी दीवारें उनके खुरदरे हाथों के स्पर्श से पिघल गयीं, वर्षा का पानी पसीज कर हाथों में आंसू की तरह चिपक गया।

सनसनाती हवा गांव के इस छोर से उस छोर तक चक्कर लगा रही थी. विधवा फुलमतिया को बेटा हुआ है, बेटा-कुतिया के पाप से गांव तबाह हो रहा है, राम राम ऐसा पाप भैरों पांड़े के कानों में आवाज़ के स्पर्श से ही भयंकर पीड़ा पैदा हो गयी। बैसाखी उनके शरीर के भार को सम्भाल न सकी और वे धम्म से चौखट पर बैठ गये। बाजू के धक्के से कुहनी छिल गयी, चिनचिनाती कुहनी का दर्द उनके रोयें-रोयें में बिंध रहा था, और पांड़े इस पीड़ा को होंठों के बीच दबाने का प्रयत्न कर रहे थे।

“सब कुछ गया”- वे बुदबुदाए. कर्मनाशा की बाढ़ उनकी उस जर्जर बखरी को हड़पने नहीं, उनके पितामह की उस अमूल्य प्रतिष्ठा को हड़पने आयी है, जिसे अपनी इस विपन्न अवस्था में भी पांड़े ने धरती पर नहीं रखा। दुलार से पली वह प्रतिष्ठा सदा उनके कंधे पर पड़ी रही। “मैं जानता था कि वह छोकरा इस खानदान का नाश करने आया है”- पांड़े की आंखों में उनके छोटे भाई की तस्वीर नाच उठी। 

अठारह वर्ष का छरहरा पानीदार कुलदीप, जिसकी आंखों में भैरों को मां की छाया तैरती नज़र आती, उसके काले काकुल को देखकर मुखियाजी कहते कि इस पर भैरों पांड़े के दादा की लौछार पड़ी है। पांड़े हो-हो कर हंस पड़ते। “जा रे कुलदीप, बरामदे में बैठकर पढ़।” भैरों पांड़े मन में बुदबुदाते- ‘तेरे आंख में सौ कुंड चालू, हरामी कहीं का, लड़के पर नज़र गड़ाता है, कुछ भी हुआ इसे तो भगवान कसम तेरा गला घोंट दूंगा, बड़ा आया मुखियाजी’, फिर ज़रा बढ़ के बोलते- “क्या लौछार पड़ेगी मुखियाजी, दादा के पास तो पांच पछाहीं गाएं थीं, एक से एक, दो धन दुह लें तो पंचसेरी बाल्टी भर जाती थी. यहां तो इस लौंडे को दूध पचता ही नहीं। फिर साल-बारह महीने हमेशा मिलता भी कहां है हम गरीबों को?”

“अब वह पुराने जमाने की बात कहां रही पांड़ेजी,” मुखिया कहता है और अपने संकेतों से शब्दों में मिर्चे की तिताई भरकर चला जाता। काले-काले काकुलों वाला नवजवान कुलदीप उसे फूटी आंखों नहीं सुहाता, किंतु भैरों पांड़े के डर से वह कुछ कह न पता।


भैरों पांड़े, दिन-भर बरामदे में बैठकर रुई से बिनौले निकालते, तूंमते, सूत तैयार करते और अपनी तकली नचा-नचाकर जनेऊ बनाते, जजमानी चलाते, पत्रा देख देते, सत्यनारायण की कथा बांच देते, और इससे जो कुछ मिलता, कुलदीप की पढ़ाई और उसके कपड़े-लत्ते आदि में खर्च हो जाता।

यह सब-कुछ मर-मर कर किया था इसी दिन को- पांड़े की आंखों में प्यास छा गयी, लड़के ने उन्हें किसी ओर का नहीं रखा। आज यहां आफत मची है, आप पता नहीं कहां भाग कर छिपा है।

“राम जाने कैसे हो,” सूखी आंखों से दो बूंदें गिर पड़ीं, “अपने से तो कौर भी नहीं उठा पाता था, भूखा बैठा होगा कहीं, बैठे-मरे हम क्या करें” पांडे ने बैसाखी उठायी। बगल की चारपाई तक गये और धम्म से बैठ गये। दोनों हाथों में मुंह छिपा लिया और चुप लेटे रहे।


पूरबी आकाश पर सूरज दो लट्ठे ऊपर चढ़ आया था। काले-काले बादलों की दौड़-धूप जारी थी, कभी-कभी हल्की हवा के साथ बूंदें बिखर जातीं। दूर किनारों पर बाढ़ के पानी की टकराहट हवा में गूंज उठती। भैरों पांड़े उसी तरह चारपाई पर लेटे आंगन की ओर देख रहे थे। बीचोंबीच आंगन के तुलसी-चौरा था जो बरसात के पानी से कटकर खुरदरा हो गया था। पुराने पौधे के नीचे कई मासूम मरकती पत्तियों वाले छोटे-छोटे पौधे लहराने लगे थे। वर्षा की बूंदें पुराने पौधे की सख्त पत्तियों पर टकराकर बिखर जातीं, टूटी हुई बूंदों की फुहार धीरे-से मासूम पौधों पर फिसल जातीं, कितने आनंद-मग्न थे वे मासूम पौधे। पांड़े की आंखों के सामने कातिक की वह शाम भी नाच उठी। दो बरस पहले की बात होगी। शाम के समय जब वे बरामदे में लेटे थे, फुलमत आयी, अपनी बाल्टी मांगने, सुबह भैरों पांड़े ले आये थे किसी काम से।

“कुलदीप, ज़रा भीतर से बाल्टी दे देना,” कहा था पांड़े ने। सफेद साड़ी में लिपटी-लिपटाई गुड़िया की तरह फुलमत आंगन में इसी चौरे के पास आकर खड़ी हो गयी थी। और बाल्टी उठाने के लिए जब कुलदीप झुका था तो फुलमत भी अपने दोनों हाथों से आंचल का खूंट पकड़कर तुलसीजी की वंदना करने के लिए झुकी थी। कुलदीप के झटके से उठने पर वह उसकी पीठ से टकरा गयी थी अचानक। तब न जाने क्यों दोनों मुस्करा उठे थे। भैरों पांड़े क्रोध से तिलमिला गये थे। वे गुस्से के मारे चारपाई से उठे तो देखा कि कुलदीप बाल्टी लिये खड़ा था और फुलमत तुलसी-चौरे पर सिर रखकर प्रार्थना कर रही थी। न जाने क्यों, पांड़े की आंखें भर आयीं। बरसात के दिनों के बाद इस खुरदरे चौरे को उनकी मां पीली मिट्टी के लेवन से संवार फिर श्वेत बलुई माटी से पोत कर सफेद कर देतीं। शाम को सूखे हुए चबूतरे पर घी के दीपक जलाकर माथा टेककर वे लड़कों के मंगल के लिए विनय करतीं। तब वे भी ऐसे ही झुककर आशीर्वाद मांगतीं और पांड़े बगल में चुपचाप खड़े दियों का जलना देखा करते थे। 

पांड़े को सामने खड़ा देख कुलदीप हड़बड़ाया और फुलमत बाल्टी लेकर चुपचाप बाहर चली गयी। पांड़े के चेहरे पर एक विचित्र भाव था, जिसे सम्भाल सकने की ताकत उन दोनों के मन में न थी, और दोनों ही भय की कम्पन लिये इधर-उधर भाग खड़े हुए। 

बहुत दिनों तक पांड़े के चेहरे पर अवसाद का यह भाव बना रहा। कुलदीप डर के मारे उनकी ओर देख नहीं पाता, न तो पहले जैसी ज़िद कर सकने को हिम्मत होती, न हंसी के कलरव से घर के कोने-कोने को गुंजान बनाने का साहस। पांड़े ने अपने दिल को समझाया, इसे लड़कों का क्षणिक खिलवाड़ समझा। सोचा, धरती की छाती बड़ी कड़ी है। ठेस लगते ही सारी गुलाबी पंखुरियां बिखर जाएंगी, दोनों को दुनिया का भाव-ताव मालूम हो जाएगा।

पांड़े के रुख से फुलमत भी सशंक हो गयी थी, वह इधर कम आती। कुलदीप के उठने-बैठने, पढ़ने-लिखने पर पांड़े की कड़ी नज़र थी। वह किताब खोलकर बैठता तो दीये की टेम में श्वेत वत्रों में लिपटी फुलमत खड़ी हो जाती, पुस्तक के पन्ने खुले रह जाते और वह एकटक दीये की लौ की ओर देखता रह जाता। पांड़े को उसकी यह दशा देखकर बड़ा क्रोध आता, पर कुछ कहते नहीं। 

“कुलदीप”, एक बार टोक भी दिया था- “क्या देखते रहते हो इस तरह, तबीयत तो ठीक है न?”

“जी,” इतना ही कहा था कुलदीप ने, और फिर पढ़ने लग गया था। दीये की टेम कुलदीप के चेहरे पर पड़ रही थी, जिसे पीछे घने अंधकार में लेटे पांड़े क्रोध, मोह और न जाने कितने प्रकार के भावों के चक्कर में झूल रहे थे।  उन्हें फुलमत पर बेहद गुस्सा आता। टीमल मल्लाह की यह विधवा लड़की मेरा घर चौपट करने पर क्यों तुली है, बाप मरा, पति मरा, अब न जाने क्या करेगी। जाने कौन-सा मंत्र पढ़ दिया। यह कबूतर की तरह मुंह फुलाये बैठा रहता है। न पढ़ता है, न लिखता है। हंसना, खेलना, खाना सब भूल गया। पांड़े चारपाई से उतरकर इधर-उधर चक्कर लगाते रहे. पर कुछ निर्णय न कर सके।

समय बीतता गया। कुलदीप भी खुश नज़र आता। हंसता-खेलता। पांड़े की छाती से चिंता का भारी पत्थर खिसक गया। एक बार फिर उनके चेहरे पर हंसी की आभा लौटने लगी। रुई-सूत का काम फिर शुरू हुआ। गांव के दो-चार उठल्ले-निठल्ले आकर बैठ जाते, दिन गपास्टक में बीत जाता। सुरती मल-मल ताल ठोंकने और पिच्च से थूककर किसी को गाली देते या निंदा करते। इन सब चीज़ों से वास्ता ना रखते हुए भी पांड़े सुनते जाते। उनका मन तो चक्कर खाती तकली के साथ ही घूमता रहता, हूं-हां करते जाते और निठल्लों की बातों में सन्नाटे को किसी तरह झेल ले जाते।

पांड़े उसी चारपाई पर लेटे थे। अंतर इतना ही था कि दिन थोड़ा और ऊपर चढ़ आया था, लहरों की टकराहट थोड़ी और तेज़ हो गयी थी, रक्त की तरह खौलता हुआ लाल पानी गांव के थोड़ा और निकट आ गया था। उनकी नसें किसी तीव्र व्यथा से जल रही थीं। “पांड़े के वंश में कभी ऐसा नहीं हुआ था”- वे फुसफुसाये. बगल को दीवार में ताखे पर रामायन की गुटका रखी थी; उन्होंने उठाया, एक जगह लाल निशान लगा था। पिछले दिनों कुलदीप रात में रामायन पढ़ा करता था। जब से वह गया है आज तक गुटका खुली नहीं। पांड़े के हाथ कांपे, गुटका उलटकर उनकी छाती पर गिर पड़ी. उठाकर खोला, वही लाल निशान-

वह सीता भा विधि प्रतिकूला ।

मिलइ न पावक मिटइ न सूला ।।

सुनहु विनय नम विटप असोका ।

सत्य नाम करु हरु मम सोका ।।

पांड़े की आंखें भरभरा आयी। झरझर आंसू गिरने लगे। हिचकी लेकर वे टूट पड़े. “यह चुड़ैल मेरा घर खा गयी”- शब्द फूटे, किंतु भीतर घुमड़कर रह गये। “गाली देने से ही क्या होगा अब, इतने तक रहता तो कोई बात थी, आज उसे बच्चा हुआ है, कहीं कह दे कि लड़का कुलदीप का है तो नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता,” पांड़े बडबड़ाये. उन्होंने अपने बालों को मुट्ठियों से कसकर खींचा, जैसे इनकी जड़ में पीड़ा जम गयी है, खींचने से थोड़ी राहत मिलेगी। वे उठना चाहते थे, किंतु उठ न सके। आंखों के सामने चिनगारियां फूटने लगीं। उन्हें आज मालूम हुआ कि वे इतने कमज़ोर हो गये हैं। कुलदीप के जाने के बाद से आज तक उनका जीवन अव्यवस्था की एक कहानी बनकर रह गया है। चार-पांच महीने से कुलदीप भागा है; पहले कई दिनों तक वे ज़रूर बहुत बेचैन थे, किंतु समय ने दुख को भुलाने में मदद की थी। आज फिर कुलदीप उनकी आंखों के सामने आकर खड़ा हो गया। बीती घटनाएं एक-एक कर आंखों के सामने नाचने लगीं। 

फागुन का आरम्भ था। मुखिया जी की लड़की की शादी थी। गांवभर में खुशी छायी रहती, जैसे सबके घर शादी होने वाली हो। शादी के दिन तो गांववालों में बनने-संवरने की होड़ लग गयी. सब लोग पट्टी कटा रहे थे, शौकीनों की पट्टी चार-चार अंगुल चौड़ी, छुरे से बनी थी। कुएं की जगत पर दोपहर के दो घंटे पहले से भीड़ लगी थी, और अब दो बजने को आये, साबुन लग रही थी, पैरों में जमी मैल सिकड़े से रगड़-रगड़ कर छुड़ायी जा रही थी। 

बारात आयी। द्वार-पूजा की शोभा का क्या कहना? बनारस की रंडी नाचने आयी थी। छैल-छबीलों की भीड़ जम गयी थी। शाम को महफिल जमी। मुखिया जी का दरवाज़ा आदमियों से खचाखच भरा था। एक ओर गली में सिमटकर औरतें बैठी हुई थीं। गांव की लड़कियां, बूढ़ियां और कुछ मनचली बहुएं बाई जी आयी। अपना ताम-झाम फैलाकर बैठ गयी। सारंगी लेकर बूढ़े मियां ने किन-किन किया, बाई जी ने अलाप के बाद गाया–

नीच उंच कुछ बूझत नाहीं, मैं हारी समझाव

वे दोनों नैना बड़े बेदरदी दिल में गड़ि गयो हाव

महफिल से बहुत दूर, गांव के छोर पर आमों के पेड़ों पर फागुन के पीले चांद की छाया फैली थी, जिसके नीचे चितकबरे के चाम की तरह फैली चांदनी में एक प्रश्न उठा, “मुखिया जी की महफिल में पतुरिया ने जो गीत गाया था, कितना सही था?”

“कौन-सा गीत?”

“ये दोनों नैना बड़े बेदरदी”

“धत्!”

“उस दिन मैं बड़ी देर तक इंतज़ार करता रहा!”

“मेरी मां के सिर में दर्द था.”

“कौन है?” ज़ोर की आवाज़ गूंज उठी थी.

पास की गली में एक छाया खो गयी थी।

“कौन है?” फिर आवाज़ आयी थी.

“मैं हूं कुलदीप!”

“यहां क्या कर रहे हो?”

“नदी की ओर चला गया था!”

“इस समय?”

“पेट में दर्द था!”

क्रोध की हालत में भी भैरों पांड़े मुस्करा उठे थे- झूठे, पेट में दर्द था कि आंख में। कुलदीप का सिर लज्जा से झुक गया था। उसे लगा जैसे एक क्षण का यह भयप्रद जीवन उसकी आत्मा पर सदा के लिए छा जाएगा। एक क्षण के लिए बोला हुआ यह झूठ उसके जीवन को झूठा साबित कर देगा। एक क्षण के लिए झुका यह माथा फिर कभी न उठ सकेगा। वह झूठ के इस पर्दे को फाड़ डालना चाहता था, किंतु “कुलदीप” भैरों पांड़े ने आहिस्ते-आहिस्ते कहा, “तुम गलत रास्ते पर पांव रख रहे हो, बेटा, तुमने कभी अपने बाप-दादों की इज्जत के बारे में सोचा है? बड़े पुण्य के बाद इस घर में जन्म मिला है भाई, इसे कभी मत भूलना कि अच्छे घर में जन्म लेने से कोई बहुत बड़ा नहीं हो जाता, किंतु इस अवसर को गलत कहकर नीचे गिरने से बड़ा पाप और कोई नहीं है.” कुलदीप को लगा कि तीखे कांटों वाली कोई जीवित मछली उसके गले में फंस गयी है, गर्दन को चीरती हुई यदि वह निकल जाए तो भी गनीमत, किंतु यह असह्य पीड़ा तो नहीं सही जाती और न जाने क्यों वह हिचकियों से फूट-फूटकर रो उठा था। 

भाई के मन की पीड़ा की कल्पना भी उसके लिए कष्टकर थी, किंतु उसकी आत्मा अपने सम्पूर्ण भाव से जिस वस्तु को वरेण्य समझती है, उसे वह एकदम ही व्यर्थ कैसे कह दे! जिस छाया में न जाने क्यों उसे एक अजाने आनंद का अनुभव होता है, उसे कालिख कह सकना उसके वश की बात नहीं थी, और इस कष्ट के भार को उसकी आंखें सम्भाल न सकीं। भैरों पांड़े भी भाई से लिपट गये थे। उसकी पीठ सहला रहे थे और उसे बार-बार चुप हो जाने को कह रहे थे, “यदि कोई देख ले तो,” उनके मन में आया और वे कुलदीप को जल्दी-जल्दी खींचते हुए एक ओर चले गये।

आंसुओं में जो पश्चाताप उमड़ता है, वह दिल की कलौज को मांज डालता है। पांड़े ने सोचा था कि कुलदीप अब ठीक रास्ते पर आ जाएगा। उनके वंश की मर्यादा अपमान के तराजू पर चढ़ने से बच जाएगी, भूखों रहकर भी पांड़े ने इज्जत के जिस बिरवे को खून से सींचकर तरोताज़ा रखा है, उस पर किसी के व्यंग-कुठार नहीं चलेंगे। किंतु एक महीना भी नहीं बीता कि कुलदीप फिर उसी रास्ते पर चल पड़ा। छोटे भाई के इस कार्य को छिपकर देखने की पापाग्नि में भैरों पांड़े अपनी आत्मा को जलते हुए देखते, किंतु वे विवश थे। 

चैत के दिनों में गर्मी से जली-तपी कर्मनाशा किनारे के नीचे सिमट गयी थी। नदी के पेट में दूर तक फैले हुए लाल बालू का मैदान, चांदनी में सीपियों के चमकते हुए टुकड़े, सामने के ऊंचे अरार पर घन-पलास के पेड़ों की आरक्त पांतें, बीच में घुग्घू, चारों ओर जल-विहार करने वाले पक्षियों का स्वर कगार से नदी तीर तक बने हुए छोटे-बड़े पैरों के निशानों की दो पंक्तियां सिर्फ दो। 

“तुम मुझे मझधार में लाकर छोड़ तो नहीं दोगे!” घुटन और शंका में खोये हुए धीमे स्वर. श्यामा की चीरती दर्द-भरी आवाज़।

एक चुप्पी, फिर हकलाती आवाज़, “मैं अपना प्राण दे सकता हूं, किंतु तुमको… कभी नहीं”

चांदनी की झीनी परतें सघन होती जा रही थीं, सुनसान किनारे पर भटकी हवा की सनसनाहट में आवाज़ों का अर्थ खो जाता, कभी हल्के हास्य की नर्म ध्वनि, कभी आक्रोश के बुलबुले, कभी उल्लास तरंग, कभी सिसकियों की सरसराहट।

भैरों पांड़े एक बार चांदनी के इस पवित्र आलोक में अपनी क्रूरता और निर्ममता पर विचार करने के लिए रुक गये, तो क्या आज तक का उनका सारा प्रयत्न निष्फल था? क्या वे असाध्य को सम्भव बनाने का ही प्रयत्न करते रहे? एक क्षण के लिए भैरों पांड़े ने सोचा- काश, फुलमत अपनी ही जाति की होती! कितना अच्छा होता, यह विधवा न होती। तुलसी चौरे की वंदना पांड़े के मस्तिष्क में चंदन की सुगंध की तरह छा गयी. उसका रूप, चाल-चलन, संकोच सब-कुछ किसी को भी शोभा देने लायक था। एक क्षण के लिए उनकी आंखों के सामने सफेद साड़ी में लिपटी फुलमत की पतली-दुबली काया हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी, जैसे वह आंचल फैलाकर आशीर्वाद मांग रही हो. भैरों पांड़े विजड़ित खड़े थे, दिग्मूढ़। 

“यह असम्भव है!” पांड़े ने बैसाखी सम्भाली और नीचे की ओर लपके.

“कुलदीप!” बड़ी कर्कश आवाज़ थी पांड़े की.

दोनों सिर झुकाये सामने खड़े थे, आज पहली बार पाप की साक्षी में दोनों समवेत दिखाई पड़े थे। पांड़े फिर एक क्षण के लिए चुप हो गये

“मैं पूछता हूं, यह सब क्या है?” पांड़े चिल्लाये, “इतने निर्लज्ज हो तुम दोनों?” पांड़े बढ़कर सामने आये, फुलमत की ओर मुंह फेरकर बोले, “तू इसकी ज़िंदगी क्यों बिगाड़ना चाहती है? क्या तू नहीं जानती कि तू जो चाहती है वह स्वप्न में भी नहीं हो सकता, कभी नहीं!”

फुलमत चुप थी, पांड़े दूने क्रोध-से बोले, “चुप क्यों है चुड़ैल, बोलती क्यों नहीं?”

“मैं क्यों इनकी ज़िंदगी बिगाडूंगी, दादा?”- वह सहसा एकदम निचुड़ गयी, “मैंने तो इन्हें कई बार मना किया.”

“कुलदीप!” पांड़े दहाड़े, “सीधे रास्ते पर आ जाओ, अच्छा होगा। तुमने भैरों का प्यार देखा है क्रोध नहीं; जिन हाथों से मैंने पाल-पोसकर बड़ा किया है, उसी से तुम्हारा गला घोटते मुझे देर न लगेगी.”

“दादा!” कुलदीप हकलाया, “हम दोनों.”

“पापी, नीच” भैरों पांड़े के हाथ की पांचो अंगुलियां कुलदीप के चेहरे पर उभर आयी, “मैं सोचता था तू ठीक हो जाएगा!” पांड़े क्रोध से कांप रहे थे, “लेकिन नहीं, तू मेरी हत्या करने पर तुल ही गया है.” वे फुलमत की ओर घूमकर चिल्लाये, “क्या खड़ी है डायन, भाग नहीं तो तेरा गला घोंटकर इसी पानी में फेंक दूंगा!”

अंधड़ को पीते हुए तृषित सांप जैसा स्वर, “यह सब मैंने किया था.” पांड़े चारपाई पर घायल सांप की तरह तड़फड़ाते हुए बुदबुदाये। उनकी छाती से सरककर रामायण की गुटका ज़मीन पर गिर पड़ी और उस पवित्र आराध्य वस्तु को उठाने का उन्हें ध्यान न रहा। कुलदीप दूसरे ही दिन लापता हो गया। पांड़े अपनी बैसाखी के सहारे दिन भर गांव-गिरांव की खाक छानते फिरे, किंतु वह नहीं मिला। थककर, हार कर पांड़े वापस आ गये। बाप-दादों की इज्ज़त की प्रतीक इतनी विशाल बखरी, जिसकी दीवारें मुंह दबाये शांत, पुजारी के तप की तरह अडिग खड़ी थीं, किंतु कितनी सुनसान, डरावनी, निष्प्राण पिंजर की तरह लगती थीं यह बखरी। चौखट पर पैर रखते हुए पांड़े की आत्मा कराह उठी- “चला गया!” बैसाखी रखकर पांड़े आंगन के कोने में बैठ गये- “अब वह कभी नहीं लौटेगा.”

रात में उन्हें बड़ी देर तक नींद नहीं आयी। कुलदीप को बचपन से लेकर आज तक उन्होंने कभी अपनी आंख की ओट नहीं होने दिया। छुटपन से लेकर आज तक खिलाया-पिलाया, पाला-पोसा, और आज लड़का दगा देकर निकल गया। पांड़े अधरों की मेड़ के पीछे बिथा के सैलाब को रोकने का असफल प्रयत्न करते रहे। 

भोर होने में देर थी, उनींदी आंखें करुआ रही थीं, किंतु मन की जलन के आगे उस दर्द का मोल। पांड़े उठकर टहलने लगे। सामने की बंसवार के भीतर से पूरबी क्षितिज पर ललछौहां उजास फूटने लगा था। गली के मोड़ के कच्चे मकान के भीतर से जांत की घर्र-घर्र गूंज रही थी। एक घुमड़ता गरगराहट का स्वर, जिसके पीछे जांत वाली के कंठ की व्यथा की एक सुरीली तान टूट-टूटकर कौंध उठती थी।

मोहे जोगिनी बनाके कहां गइले रे जोगिया

पांड़े एक क्षण अवाक् होकर इस दर्दीले गीत को सुनते रहे। प्यासे, भूले-भटके, थके हुए स्वर, पांड़े की आत्मा में जैसे समान वेदना को पहचानकर उतरते चले जा रहे हों।  “अब रोने चली है चुड़ैल!” पांड़े पागल की तरह बड़बड़ाते रहे, “रो-रोकर मर, मैं क्या करूं?”

बाढ़ के लाल पानी में सूरज डूब रहा था, पांड़े बैसाखी के सहारे आकर दरवाजे पर खड़े हुए नदी की ओर आदमियों की भीड़ खड़ी थी। वे धीरे-धीरे उधर ही बढ़े। सामने तीन-चार लड़के अरहर की खूंटियां गाड़कर पानी का बढ़ाव नाप रहे थे।

“क्या कर रहा है, छबीला!” पांड़े बलात चेहरे पर मुस्कराहट का भाव लाकर बोले। 

“देखता नहीं लंगड़े, बाढ़ रोक रहे हैं!”

पांड़े मुस्कराये- “जैसा बाप वैसा बेटा। तेरा बाप भी खूंटिया गाड़ कर कर्मनाशा की बाढ़ को रोकना चाहता है।”

“वह भीड़ कैसी है रे, छबीले?”

“नहीं जानते, फुलमत को नदी में फेंक रहे हैं। उसके बच्चे को भी। उसने पाप किया है.” छबीला फिर गम्भीर खड़े पांड़े से सटकर बोला- “क्यों पांड़े चाचा, जान लेकर बाढ़ उतर जाती है न?”

“हां, हां” पांड़े आगे बढ़ा। बोतल की टीप खुल गयी थी। पांड़े के मन में भयानक प्रेत खड़ा हो गया। “चलो, न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। हूं, चली थी पांड़े के वंश में कालिख पोतने। अच्छा ही हुआ कि वह छोकरा भी आज नहीं है.”

फुलमत अपने बच्चे को छाती से चिपकाये टूटते हुए अरार पर एक नीम के तने से सटकर खड़ी थी। उसकी बूढ़ी मां जार-बेजार हो रही थी, किंतु आज जैसे मनुष्य ने पसीजना छोड़ दिया था, अपने-अपने प्राणों का मोह इन्हें पशु से भी नीचे उतार चुका था, कोई इस अन्याय के विरुद्ध बोलने की हिम्मत नहीं करता था। कर्मनाशा को प्रणों की बलि चाहिए, बिना प्रणों की बलि लिये बाढ़ नहीं उतरेगी फिर उसी की बलि क्यों न दी जाय जिसने पाप किया… परसाल जान के बदले जान दी गयी, पर कर्मनाशा दो बलि लेकर ही मानी… त्रिशुंक के पाप की लहरें किनारों पर सांस की तरह फुफकार रही थीं। आज मुखिया का विरोध करने का किसी में साहस न था। उसके नीचता के कार्यों का ऐसा समर्थन कभी न हुआ था। “पता नहीं, किस बैर का बदला ले रहा है बेचारी से.” भीड़ में कई इस तरह सोचते, ऐसा तो कभी नहीं हुआ था, किंतु कौन बोले सब मुंह सिये खड़े थे। 

“तुम्हारी क्या राय है भैरों पांडे!” मुखिया बोला, “सारे गांव ने फैसला कर दिया- एक के पाप के लिए सारे गांव को मौत के मुंह में नहीं झोंक सकते। जिसने पाप किया है उसका दंड भी वही भोगे.”

एक वीभत्स सन्नाटा। पांड़े ने आकाश की ओर देखा, आगे बढ़े, फुलमत भय से चिल्ला उठी। पांड़े ने बच्चे को उसकी गोद से छीन लिया. “मेरी राय पूछते हो मुखिया जी? तो सुनो, कर्मनाशा की बाढ़ दुधमुंहे बच्चे और एक अबला की बलि देने से नहीं रुकेगी, उसके लिए तुम्हें पसीना बहाकर बांधों को ठीक करना होगा। कुलदीप कायर हो सकता है, वह अपने बहू-बच्चे को छोड़कर भाग सकता है, किंतु मैं कायर नहीं हूं. मेरे जीते-जी बच्चे और उसकी मां का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता समझे?”

“तो यह है बूढ़े पांड़े जी की बहू!” मुखिया व्यंग से बोला, “पाप का फल तो भोगना ही होगा, पांड़े जी, समाज का दंड तो झेलना ही होगा.”

“ज़रूर भोगना होगा, मुखिया जी मैं आपके समाज को कर्मनाशा से कम नहीं समझता। किंतु, मैं एक-एक के पाप गिनाने लगूं तो यहां खड़े सारे लोगों को परिवार समेत कर्मनाशा के पेट में जाना पड़ेगा। है कोई तैयार जाने को?”

लोग अवाक् पांड़े को देख रहे थे, जो अपने कंधे से छोटे बच्चे को चिपकाये अपनी बैसाखी के सहारे खड़े थे। पत्थर की विशाल मूर्ति की तरह उन्नत, प्रशस्त, अटल कर्मनाशा के लाल पानी में सूरज डूब रहा था।

जिन उद्धत लहरों की चपेट से बड़े-बड़े विशाल पीपल के पेड़ धराशायी हो गये थे; वे एक टूटे नीम के पेड़ से टकरा रही थीं, सूखी जड़ें जैसे सख्त चट्टान की तरह अडिग थीं, लहरें टूट-टूटकर पछाड़ खाकर गिर रही थीं. शिथिल-थकी पराजित।

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Sunday, January 19, 2020

No one understands you completely and it's Okay.


In this world, nobody will be able understand you completely and it’s not their fault. You also don’t understand anyone completely and it’s not your fault. In fact, it’s nobody’s fault.

First of all, everybody have this worldview which they have constructed and nurtured over the years and they try to see everything and everyone according to their worldview. They will judge according to their set of biases. They are not going to put aside their prejudices and confirmations for you. It will require a great deal of time, effort and mental space on their part to understand you; let’s be honest, nobody’s got that much time and energy to spare on (insignifant) you.

Secondly, even if they are ready to make an effort to understand you by putting aside their biases; even if their intentions are pure; even if their worldview matches your; still, they just can’t understand you completely. It’s just simply not possible and it’s neither their fault nor yours.

Further, even after all the efforts, they can only understand you in binaries. Either you confirm to their bias or not. You’d come across as a guy/girl who’s happy or not happy, good or not good, hardworking or not hardworking, sincere or not sincere, honest or not honest, politically correct or not correct, introvert or extrovert, religious or not religious etc.

Only you know yourself completely. You know that you’re part liberal part conservative. You’re part witty & funny and part sad. You’re part absolutely original and part a little bit fake. You’re part courageous and part a coward. Part of you sees hope in everything and part of you has lost it all. You hold multiple views simultaneously.

You are a manifestation of all these diverse views that you have acquired over your journey of life. It’s your journey. They have seen only a part of it. They have seen your beginning, your destination and some major milestones, but they didn’t witness the whole of it. They didn’t see the demons you fought in the darkness of the night. They didn’t see you lying on the bed for hours, struggling to sleep. They didn’t see the sacrifices you made to come this far. They can’t notice the restlessness that you feel inside constantly. They see you as only ‘one’ and they are not aware that ‘thousands of you’ exist inside you.

People will not understand that and they will always try to tag you with their preconceived notions. So, don’t worry about what people think about you, they don’t know you completely. No matter how closed they are to you. Whether they are in the form of spouse, parents, children or best of your friends, they don’t know you. They will never be able to know you, just like you won’t be able to know them.  It’s not their fault, it’s not yours either.

The world is built that way. Information about you will always travel in binaries to them and you just cannot do anything about it. Nobody will be able to understand you in the way you see yourself. I know it’s sad but it doesn’t matter. Don’t take their judgment to your heart. It should not matter to you what they think of you. Don’t confirm to their biases. They don’t know you, only you know yourself.

In this world, where no person can understand the other one completely, the best we can do is to show a bit more empathy towards each other. There are all kinds of people in the world, we should accept that fact and we should avoid this tendency of judging people at all cost. We should meet people with smiling faces, broad minds and open arms.

Whenever people around us do something unexpected, we should be more forgiving about that, for it represents only a part of their personality & not the whole of it. We should develop a better and deeper understanding of the human nature and should accept the fact that a person can possess multiple views simultaneously and that none of the viewpoints held by that person defines the person completely. We should understand that personalities are not just black and white; they come in all kinds of shades.

Finally, on one hand, we should never be bothered about the opinion of others about us as no one in this world understands us completely, on the other hand, we should be more caring and empathetic in our approach towards others, for they are already consumed in fighting their inner battles. PEACE.


Friday, December 22, 2017

We should never give up on our friends.

No matter how angry they are with us. It is very easy to give up in any relationship, what is hard is to clinging to it, sticking to it, keeping faith in it, holding it together even when all the things in the relationship are going wrong and falling apart. Friendship is like a plant, for it to grow into a tree, you have to take care of it, have to nurture it for it to survive the hard troubled days. Just like in any other relationship, in friendship too, hard days should be as treasured as good days, for it allows the friendship to mature, to grow into something durable and profound.

In this world nobody is perfect and nobody is living a perfect life. At some level we all are insecure, whether it’s about our education, our past, our job, our financial situation, our incompetence in this highly competitive world or whatever it is, but the truth is that at some level we all are insecure and this insecurity is increasing and reaching to ubiquitous level due to deep outreach of social media into our lives.
At some level we all are desolated and lonely, fighting our own little battle within ourselves every day, seeking compassion, seeking someone who’d understand us, who’d love us instead of our frailties, weaknesses and vulnerabilities and that’s where a friend pitch in, who’d listen with an open heart, who wrings out all the misery and melancholy that has occupied our heart and absorbs it all to make us feel lightened and less burdened again.
People get angry when they expect certain things from us and sometimes, somehow those expectations don’t get fulfilled. In the first place we should be happy that someone is at least expecting something from us because we expect only from our loved or trusted ones. We expect from our parents, we expect from our siblings, we expect from our friends.
Believe me Friends expecting something from us and then getting angry over it with us isn’t a bad thing at all, what could be bad is, our giving up on them. One friend getting angry and other cajoling him is one of the beautiful aspects of the friendship. Friendship is not supposed to be earnest and sober all the time. Friendship is supposed to be fragile and whimsical. It is different from any other relationship in our life. Like love, true friendship is a roller coaster of emotions.
You might have heard of the phrase “Like dissolve like”. If you are a person of reason and you rate yourself high, then it’s a surety that your friend too is a person of reason and it might be possible that he might have a solid reason to be angry with you. You should try to contemplate that reason. For the time being it may seem to you that your friend has got angry over a frivolous thing and though it might irk you but it is also possible that things might have been aggravating for quite some time and due to some other commitments in your life you couldn’t watch that.
It’s possible that your friend might have been going through a suffering for quite some time; he might have been looking for a compassionate friend, an open heart, a trustful and patient listener, a shoulder to lean upon. Though it’s not your fault that you were not there, you might have some other important and urgent matters at hand at that moment. But your friend was expecting you to be there for him, he waited for you to provide him a shoulder to lean upon, he waited for you to listen to his troubles, he craved for your counsel, he waited for quite some time and when he didn’t find you, he bore that suffering alone. He fought that battle alone. He endured those hard days alone. He has every reason to be angry with you and you have every reason to pacify him. You should coax him, make him comfortable, and at the same time make him sure of the fact that it will never happen again, that you’ll be always there for him. Make him believe that he means a lot to you. For my dear friend, life is very hard and it may be possible that sooner or later you’ll find yourself in the very situation which your friend is facing right now and in that moment you’ll need a patient ear, a warm hug, a comforting shoulder, a counseling brain, you’ll need a friend, a true friend.
So when friends get angry, no matter how angry they are, no matter how frivolous or grave the matter may seem, we should never give up on them. Never, for life is nothing but a barren island without the greenery of the friendship.