Sunday, January 14, 2024

मिस पाल - मोहन राकेश

वह दूर से दिखायी देती आकृति मिस पाल ही हो सकती थी।

फिर भी विश्वास करने के लिए मैंने अपना चश्मा ठीक किया। निःसंदेह, वह मिस पाल ही थी। यह तो ख़ैर मुझे पता था कि वह उन दिनों कुल्लू में ही कहीं रहती है, पर इस तरह अचानक उससे भेंट हो जाएगी, यह नहीं सोचा था। और उसे सामने देखकर भी मुझे विश्वास नहीं हुआ कि वह स्थायी रूप से कुल्लू और मनाली के बीच उस छोटे-से गाँव में रहती होगी। जब वह दिल्ली से नौकरी छोड़कर आयी थी, तो लोगों ने उसके बारे में क्या-क्या नहीं सोचा था!

बस रायसन के डाकख़ाने के पास पहुँचकर रुक गई। मिस पाल डाकख़ाने के बाहर खड़ी पोस्टमास्टर से कुछ बात कर रही थी। हाथ में वह एक थैला लिए थी। बस के रुकने पर न जाने किस बात के लिए पोस्टमास्टर को धन्यवाद देती हुई वह बस की तरफ़ मुड़ी। तभी मैं उतरकर उसके सामने पहुँच गया। एक आदमी के अचानक सामने आ जाने से मिस पाल थोड़ा अचकचा गई, मगर मुझे पहचानते ही उसका चेहरा ख़ुशी और उत्साह से खिल गया।

“रणजीत तुम?” उसने कहा, “तुम यहाँ कहाँ से टपक पड़े?”

“मैं इस बस से मनाली से आ रहा हूँ।” मैंने कहा।

“अच्छा! मनाली तुम कब से आए हुए थे?”

“आठ-दस दिन हुए, आया था। आज वापस जा रहा हूँ।”

“आज ही जा रहे हो?” मिस पाल के चेहरे से आधा उत्साह ग़ायब हो गया, “देखो, कितनी बुरी बात है कि आठ-दस दिन से तुम यहाँ हो और मुझसे मिलने की तुमने कोशिश भी नहीं की। तुम्हें यह तो पता ही था कि मैं आजकल कुल्लू में हूँ।”

“हाँ, यह तो पता था, पर यह नहीं पता था कि कुल्लू के किस हिस्से में हो। अब भी तुम अचानक ही दिखायी दे गईं, नहीं मुझे कहाँ से पता चलता कि तुम इस जंगल को आबाद कर रही हो?”

“सचमुच बहुत बुरी बात है”, मिस पाल उलाहने के स्वर में बोली, “तुम इतने दिनों से यहाँ हो और मुझसे तुम्हारी भेंट हुई आज जाने के वक़्त…।”

ड्राइवर ज़ोर-ज़ोर से हॉर्न बजाने लगा। मिस पाल ने कुछ चिढ़कर ड्राइवर की तरफ़ देखा और एक साथ झिड़कने और क्षमा माँगने के स्वर में कहा, “बस जी एक मिनट। मैं भी इसी बस से कुल्लू चल रही हूँ। मुझे कुल्लू की एक सीट दे दीजिए। थैंक यू। थैंक यू वेरी मच!” और फिर मेरी तरफ़ मुड़कर बोली, “तुम इस बस से कहाँ तक जा रहे हो?”

“आज तो इस बस से जोगिन्दरनगर जाऊँगा। वहाँ एक दिन रहकर कल सुबह आगे की बस पकड़ूँगा।”

ड्राइवर अब और ज़ोर से हॉर्न बजाने लगा। मिस पाल ने एक बार क्रोध और बेबसी के साथ उसकी तरफ़ देखा और बस के दरवाज़े की तरफ़ बढ़ती हुई बोली, “अच्छा, कुल्लू तक तो हम लोगों का साथ है ही, और बात कुल्लू पहुँचकर करेंगे। मैं तो कहती हूँ कि तुम दो-चार दिन यहीं रुको, फिर चले जाना।”

बस में पहले ही बहुत भीड़ थी। दो-तीन आदमी वहाँ से और चढ़ गए थे, जिससे अंदर खड़े होने की जगह भी नहीं रही थी। मिस पाल दरवाज़े से अंदर जाने लगी तो कंडक्टर ने हाथ बढ़ाकर उसे रोक दिया। मैंने कंडक्टर से बहुतेरा कहा कि अंदर मेरे वाली जगह ख़ाली है, मिस साहब वहाँ बैठ जाएँगी और मैं भीड़ में किसी तरह खड़ा होकर चला जाऊँगा, मगर कंडक्टर एक बार ज़िद पर अड़ा तो अड़ा ही रहा कि और सवारी वह नहीं ले सकता। मैं अभी उससे बात कर ही रहा था कि ड्राइवर ने बस स्टार्ट कर दी। मेरा सामान बस में था, इसलिए मैं दौड़कर चलती बस में सवार हो गया। दरवाज़े से अंदर जाते हुए मैंने एक बार मुड़कर मिस पाल की तरफ़ देख लिया। वह इस तरह अचकचाई-सी खड़ी थी जैसे कोई उसके हाथ से उसका सामान छीनकर भाग गया हो और उसे समझ न आ रहा हो कि उसे अब क्या करना चाहिए।

बस हल्के-हल्के मोड़ काटती कुल्लू की तरफ़ बढ़ने लगी। मुझे अफ़सोस होने लगा कि मिस पाल को बस में जगह नहीं मिली तो मैंने ही क्यों न अपना सामान वहाँ उतरवा लिया। मेरा टिकट जोगिन्दरनगर का था, पर यह ज़रूरी नहीं था कि उस टिकट से जोगिन्दरनगर तक जाऊँ ही। मगर मिस पाल से भेंट कुछ ऐसे आकस्मिक ढंग से हुई थी और निश्चय करने के लिए समय इतना कम था कि मैं यह बात उस समय सोच भी नहीं सका था। थोड़ा-सा भी समय और मिलता, तो मैं ज़रूर कुछ देर के लिए वहाँ उतर जाता। उतने समय में तो मैं मिस पाल से कुशल-समाचार भी नहीं पूछ सका था, हालाँकि मन में उसके सम्बन्ध में कितना-कुछ जानने की उत्सुकता थी। उसके दिल्ली छोड़ने के बाद लोग उसके बारे में जाने क्या-क्या बातें करते रहे थे। किसी का ख़याल था कि उसने कुल्लू में एक रिटायर्ड अंग्रेज़ मेजर से शादी कर ली है और मेजर ने अपने सेब के बग़ीचे उसके नाम कर दिए हैं। किसी की सूचना थी कि उसे वहाँ सरकार की तरफ़ से वज़ीफ़ा मिल रहा है और वह करती-वरती कुछ नहीं, बस घूमती और हवा खाती है। कुछ ऐसे लोग भी थे जिनका कहना था कि मिस पाल का दिमाग़ ख़राब हो गया है और सरकार उसे इलाज के लिए अमृतसर पागलख़ाने में भेज रही है। मिस पाल एक दिन अचानक अपनी लगी हुई पाँच सौ की नौकरी छोड़कर चली आयी थी, उससे लोगों में उसके बारे में तरह-तरह की कहानियाँ प्रचलित थीं।

जिन दिनों मिस पाल ने त्यागपत्र दिया, मैं दिल्ली में नहीं था। लम्बी छुट्टी लेकर बाहर गया था। मगर मिस पाल के नौकरी छोड़ने का कारण मैं काफ़ी हद तक जानता था। वह सूचना विभाग में हम लोगों के साथ काम करती थी और राजेंद्रनगर में हमारे घर से दस-बारह घर छोड़कर रहती थी। दिल्ली में भी उसका जीवन काफ़ी अकेला था, क्योंकि दफ़्तर के ज़्यादातर लोगों से उसका मनमुटाव था और बाहर के लोगों से वह मिलती बहुत कम थी। दफ़्तर का वातावरण उसे अपने अनुकूल नहीं लगता था। वह वहाँ एक-एक दिन जैसे गिनकर काटती थी। उसे हर एक से शिकायत थी कि वह घटिया क़िस्म का आदमी है, जिसके साथ उसका उठना-बैठना नहीं हो सकता।

“ये लोग इतने ओछे और बेईमान हैं।” वह कहा करती, “इतनी छोटी और कमीनी बातें करते हैं कि मेरा इनके बीच काम करते हर वक़्त दम घुटता रहता है। जाने क्यों ये लोग इतनी छोटी-छोटी बातों पर एक-दूसरे से लड़ते हैं और अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए एक-दूसरे को कुचलने की कोशिश करते रहते हैं!”

मगर उस वातावरण में उसके दुखी रहने का मुख्य कारण दूसरा था, जिसे वह मुँह से स्वीकार नहीं करती थी। लोग इस बात को जानते थे, इसलिए जान-बूझकर उसे छेड़ने के लिए कुछ-न-कुछ कहते रहते थे। बुखारिया तो रोज ही उसके रंग-रूप पर कोई-न-कोई टिप्पणी कर देता था।

“क्या बात है मिस पाल, आज रंग बहुत निखर रहा है!”

दूसरी तरफ़ से जोरावरसिंह बात जोड़ देता, “आजकल मिस पाल पहले से स्लिम भी तो हो रही हैं।”

मिस पाल इन संकेतों से बुरी तरह परेशान हो उठती और कई बार ऐसे मौक़े पर कमरे से उठकर चली जाती। उसकी पोशाक पर भी लोग तरह-तरह की टिप्पणियाँ करते रहते थे। वह शायद अपने मुटापे की क्षतिपूर्ति के लिए ही बाल छोटे कटवाती थी, बग़ैर बाँह की कमीज़ें पहनती थी और बनाव-सिंगार से चिढ़ होने पर भी रोज़ काफ़ी समय मेकअप पर ख़र्च करती थी। मगर दफ़्तर में दाख़िल होते ही उसे किसी-न-किसी के मुँह से ऐसी बात सुनने को मिल जाती थी, “मिस पाल, इस नई कमीज़ का डिज़ाइन बहुत अच्छा है। आज तो ग़ज़ब ढा रही हो तुम!”

मिस पाल को इस तरह की हर बात दिल में चुभ जाती थी। जितनी देर दफ़्तर में रहती, उसका चेहरा गम्भीर बना रहता। जब पाँच बजते, तो वह इस तरह अपनी मेज़ से उठती जैसे कई घंटे की सज़ा भोगने के बाद उसे छुट्टी मिली हो। दफ़्तर से उठकर वह सीधी अपने घर चली जाती और अगले दिन सुबह दफ़्तर के लिए निकलने तक वहीं रहती। शायद दफ़्तर के लोगों से तंग आ जाने की वजह से ही वह और लोगों से भी मेलजोल नहीं रखना चाहती थी। मेरा घर पास होने की वजह से, या शायद इसलिए कि दफ़्तर के लोगों में एक मैं ही था जिसने उसे कभी शिकायत का मौक़ा नहीं दिया था, वह कभी शाम को हमारे यहाँ चली आती थी। मैं अपनी बुआ के पास रहता था और मिस पाल मेरी बुआ और उनकी लड़कियों से काफ़ी घुल-मिल गई थी। कई बार घर के कामों में वह उनका हाथ भी बँटा देती थी। किसी दिन हम उसके यहाँ चले जाते थे। वह घर में समय बिताने के लिए संगीत और चित्रकला का अभ्यास करती थी। हम लोग पहुँचते तो उसके कमरे से सितार की आवाज़ आ रही होती या वह रंग और कूचियाँ लिये किसी तस्वीर में उलझी होती। मगर जब वह इन दोनों में से कोई भी काम न कर रही होती तो अपने तख़्त पर बिछे मुलायम गद्दे पर दो तकियों के बीच लेटी छत को ताक रही होती। उसके गद्दे पर जो झीना रेशमी कपड़ा बिछा रहता था, उसे देखकर मुझे बहुत चिढ़ होती थी। मन करता था कि उसे खींचकर बाहर फेंक दूँ। उसके कमरे में सितार, तबला, रंग, कैनवस, तस्वीरें, कपड़े तथा नहाने और चाय बनाने का सामान इस तरह उलझे-बिखरे रहते थे कि बैठने के लिए कुर्सियों का उद्धार करना एक समस्या हो जाती थी। कभी मुझे उसके झीने रेशमी कपड़े वाले तख़्त पर बैठना पड़ जाता तो मुझे मन में बहुत ही परेशानी होती। मन करता कि जितनी जल्दी हो वहाँ से उठ जाऊँ। मिस पाल अपने कमरे के चारों तरफ़ खोजकर जाने कहाँ से एक चायदानी और तीन-चार टूटी प्यालियाँ निकाल लेती और हम लोगों को ‘फ़र्स्ट क्लास बोहीमियन कॉफ़ी’ पिलाने की तैयारी करने लगती। कभी वह हम लोगों को अपनी बनायी तस्वीरें दिखाती और हम तीनों—मैं और मेरी दोनों बहनें—अपना अज्ञान छिपाने के लिए उनकी प्रशंसा कर देते। मगर कई बार वह हमें बहुत उदास मिलती और ठीक ढंग से बात भी न करती। मेरी बहनें ऐसे मौक़े पर उससे चिढ़ जातीं और कहतीं कि वे उसके यहाँ फिर नहीं जाएँगी। मगर मुझे ऐसे अवसर पर मिस पाल से ज़्यादा सहानुभूति होती।

आख़िरी बार जब मैं मिस पाल के यहाँ गया, मैंने उसे बहुत ही उदास देखा था। मेरा उन दिनों एपेंडेसाइटिस का ऑपरेशन हुआ था और मैं कई दिन अस्पताल में रहकर आया था। मिस पाल उन दिनों रोज़ अस्पताल में ख़बर पूछने आती रही थी। बुआ अस्पताल में मेरे पास रहती थी पर खाने-पीने का सामान इकट्‌ठा करना उनके लिए मुश्किल था। मिस पाल सुबह-सुबह आकर सब्ज़ियाँ और दूध दे जाती थी। जिस दिन मैं उसके यहाँ गया, उससे एक ही दिन पहले मुझे अस्पताल से छुट्टी मिली थी और मैं अभी काफ़ी कमज़ोर था। फिर भी उसने मेरे लिए जो तकलीफ़ उठायी थी, उसके लिए मैं उसे धन्यवाद देना चाहता था।

मिस पाल ने दफ़्तर से छुट्टी ले रखी थी और कमरा बंद किए अपने गद्दे पर लेटी थी। मुझे पता लगा कि शायद वह सुबह से नहायी भी नहीं है।

“क्या बात है, मिस पाल? तबीयत तो ठीक है?” मैंने पूछा।

“तबीयत ठीक है”, उसने कहा, “मगर मैं नौकरी छोड़ने की सोच रही हूँ।”

“क्यों? कोई ख़ास बात हुई है क्या?”

“नहीं, ख़ास बात क्या होगी? बात बस इतनी ही है मैं ऐसे लोगों के बीच काम कर ही नहीं सकती। मैं सोच रही हूँ कि दूर के किसी ख़ूबसूरत-से पहाड़ी इलाक़े में चली जाऊँ और वहाँ रहकर संगीत और चित्रकला का ठीक से अभ्यास करूँ। मुझे लगता है, मैं ख़ामख़ाह यहाँ अपनी ज़िन्दगी बरबाद कर रही हूँ। मेरी समझ में नहीं आता कि इस तरह की ज़िन्दगी जीने का आख़िर मतलब ही क्या है? सुबह उठती हूँ, दफ़्तर चली जाती हूँ। वहाँ सात-आठ घंटे ख़राब करके घर आती हूँ, खाना खाती हूँ और सो जाती हूँ। यह सारा का सारा सिलसिला मुझे बिलकुल बेमानी लगता है। मैं सोचती हूँ कि मेरी ज़रूरतें ही कितनी हैं? मैं कहीं भी जाकर एक छोटा-सा कमरा या शैक लूँ तो थोड़ा-सा ज़रूरत का सामान अपने पास रखकर पचास-साठ या सौ रुपए में गुज़ारा कर सकती हूँ। यहाँ मैं जो पाँच सौ लेती हूँ, वे पाँच के पाँच सौ हर महीने ख़र्च हो जाते हैं। किस तरह ख़र्च हो जाते हैं, यह ख़ुद मेरी समझ में नहीं आता। पर अगर ज़िन्दगी इसी तरह चलती है, तो क्यों मैं ख़ामख़ाह दफ़्तर जाने-आने का भार ढोती रहूँ? बाहर रहने में कम से कम अपनी स्वतंत्रता तो होगी। मेरे पास कुछ रुपए पहले के हैं, कुछ मुझे प्राविडेंट फ़ंड के मिल जाएँगे। इतने में एक छोटी-सी जगह पर मेरा काफ़ी दिन गुज़ारा हो सकता है। मैं ऐसी जगह रहना चाहती हूँ जहाँ यहाँ की गंदगी न हो और लोग इस तरह की छोटी हरकतें न करते हों। ठीक से जीने के लिए इंसान को कम से कम इतना तो महसूस होना चाहिए कि उसके आसपास का वातावरण उजला और साफ़ है, और वह एक मेंढक की तरह गंदले पानी में नहीं जी रहा।”

“मगर तुम यह कैसे कह सकती हो कि जहाँ भी तुम जाकर रहोगी, वहाँ हर चीज़ वैसी ही होगी जैसी तुम चाहती हो? मैं तो समझता हूँ कि इंसान जहाँ भी चला जाए, अच्छी और बुरी दोनों तरह की चीज़ें उसे अपने आसपास मिलेंगी ही। तुम यहाँ के वातावरण से घबराकर कहीं और जाती हो, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि वहाँ का वातावरण भी तुम्हें ऐसा ही नहीं लगेगा? इसलिए मेरे ख़याल से नौकरी छोड़ने की बात तुम ग़लत सोचती हो। तुम यहीं रहो और अपना संगीत और चित्रकला का अभ्यास करती रहो। लोग जैसी बातें करते हैं, करने दो।”

पर मिस पाल की वितृष्णा इससे कम नहीं हुई।

“तुम नहीं समझते, रणजीत।” वह बोली, “यहाँ ऐसे लोगों के बीच और रहूँगी, तो मेरा दिमाग़ बिलकुल खोखला हो जाएगा। तुम नहीं जानते कि मैं जो तुम्हारे लिए सुबह दूध और सब्ज़ियाँ लेकर जाती रही हूँ, उसे लेकर भी ये लोग क्या-क्या बातें करते रहे हैं। जो लोग अच्छे-से-अच्छे काम का ऐसा कमीना मतलब लेते हों, उनके बीच आदमी रह ही कैसे सकता है? मैंने यह सब बहुत दिन सह लिया है, अब और मुझसे नहीं सहा जाता। मैं सोच रही हूँ जितनी जल्दी हो सके, यहाँ से चली जाऊँ। बस यही एक बात तय नहीं कर पा रही कि जाऊँ कहाँ। अकेली होने से किसी अनजान जगह जाकर रहते डर लगता है। तुम जानते ही हो कि मैं…।” और बात बीच में छोड़कर वह उठ खड़ी हुई, “अच्छा, तुम्हारे लिए कुछ चाय-वाय तो बनाऊँ। तुम अभी अस्पताल से निकलकर आए हो और मैं हूँ कि अपनी ही बात किए जा रही हूँ। तुम्हें अभी कुछ दिन घर पर आराम करना चाहिए। अभी से इस तरह चलना-फिरना ठीक नहीं।”

“मैं चाय नहीं पिऊँगा”, मैंने कहा, “मैं तुम्हें कुछ समझा तो नहीं सकता, सिर्फ़ इतना कह सकता हूँ कि तुम लोगों की बातों को ज़रूरत से ज़्यादा महत्त्व दे रही हो। मेरा यह भी ख़याल है कि लोग वास्तव में उतने बुरे नहीं हैं जितना कि तुम उन्हें समझती हो। अगर तुम इस नज़र से सोचो कि…।”

“इस बात को रहने दो”, मिस पाल ने मेरी बात बीच में काट दी, “मैं इन लोगों से दिल से नफ़रत करती हूँ। तुम इन्हें इंसान समझते हो? मुझे तो ऐसे लोगों से अपना पिंकी ज़्यादा अच्छा लगता है। यह उन सबसे कहीं ज़्यादा सभ्य है।”

पिंकी मिस पाल का छोटा-सा कुत्ता था। वह कुछ देर उसे गोदी में लिए उसके बालों पर हाथ फेरती रही। मैंने पहले भी कई बार देखा था कि वह उस कुत्ते को एक बच्चे की तरह प्यार करती है और उसे खाना खिलाकर बच्चों की तरह ही तौलिए से उसका मुँह पोंछती है। मैं कुछ देर बाद वहाँ से उठकर चला, तो मिस पाल पिंकी को गोदी में लिए मुझे बाहर दरवाज़े तक छोड़ने आयी।

“अंकल को टा टा करो”, वह पिंकी की एक अगली टाँग हाथ से हिलाती हुई बोली, “टा टा, टा टा!”

मैं लम्बी छुट्टी से वापस आया, तो मिस पाल त्यागपत्र देकर जा चुकी थी। वह अपने बारे में लोगों को इतना ही बताकर गई थी कि वह कुल्लू के किसी गाँव में बसने जा रही है। बाक़ी बातें लोगों की कल्पना ने अपने-आप जोड़ दी थीं।

बस ब्यास के साथ-साथ मोड़ काट रही थी और मेरा मन हो रहा था कि लौटकर रायसन चला जाऊँ। मैं मनाली में दस दिन अकेला रहकर ऊब गया था, और मिस पाल थी कि कई महीनों से वहाँ रहती थी। मैं जानना चाहता था कि वह अकेली वहाँ कैसा महसूस करती है और नौकरी छोड़ने के बाद से उसने क्या-क्या कुछ कर डाला है। यूँ एक अपरिचित स्थान पर किसी पुराने परिचित से मिलने और बात करने का भी अपना आकर्षण होता है। बस जब कुल्लू पहुँचकर रुकी, तो मैंने अपना सामान वहाँ उतरवाकर हिमाचल राज्य परिवहन के दफ़्तर में रखवा दिया और रायसन के लिए वापसी की पहली बस पकड़ ली। बस ने पंद्रह-बीस मिनट में मुझे रायसन के बाज़ार में उतार दिया। मैंने वहाँ एक दुकानदार से पूछा कि मिस पाल कहाँ रहती हैं।

“मिस पाल कौन है, भाई?” दुकानदार ने अपने पास बैठे युवक से पूछा।

“वह तो नहीं, वह कटे बालों वाली मिस?”

“हाँ-हाँ, वही होगी।”

दुकान में और भी चार-पाँच व्यक्ति थे। उन सबकी आँखें मेरी तरफ़ घूम गईं। मुझे लगा जैसे वे मन में यह तय करना चाह रहे हों कि कटे बालों वाली मिस के साथ मेरा क्या रिश्ता होगा।

“चलिए, मैं आपको उसके यहाँ छोड़ आता हूँ।” कहकर युवक दुकान से उतर आया। सड़क पर मेरे साथ चलते हुए उसने पूछा, “क्यों भाई साहब यह मिस क्या अकेली ही हैं या…?”

“हाँ, अकेली ही हैं।”

कुछ देर हम लोग चुप रहकर चलते रहे। फिर उसने पूछा, “आप उसके क्या लगते हैं?”

मुझे समझ नहीं आया कि मैं उसको क्या उत्तर दूँ। पल भर सोचकर मैंने कहा, “मैं उसका रिश्तेदार नहीं हूँ। उसे वैसे ही जानता हूँ।”

सड़क से बाईं तरफ थोड़ा ऊपर को जाकर हम लोग एक खुले मैदान में पहुँच गए। मैदान चारों तरफ़ से पेड़ों से घिरा था और बीच में पाँच-छह जालीदार कॉटेज बने थे, जो बड़े-बड़े मुर्ग़ीख़ानों जैसे लगते थे। लड़का मुझे बताकर कि उनमें पहला कॉटेज मिस पाल का है, वहाँ से लौट गया। मैंने जाकर कॉटेज का दरवाज़ा खटखटाया।

“कौन है?” अंदर से मिस पाल की आवाज सुनायी दी।

“एक मेहमान है मिस, दरवाज़ा खोलो।”

“दरवाज़ा खुला है, आ जाइए।”

मैंने दरवाज़ा धकेलकर खोल लिया और अंदर चला गया। मिस पाल ने एक चारपाई पर अपना गद्दा लगा रखा था और उसी तरह दो तकियों के बीच लेटी थी जैसे दिल्ली में अपने तख़्त पर लेटी रहती थी। सिरहाने के पास एक खुली हुई पुस्तक रखी थी—बट्रेंड रसेल की ‘कांक्वेस्ट ऑफ़ हेपीनेस’। मैं देखकर तय नहीं कर सका कि वह पुस्तक पढ़ रही थी या लेटी हुई सिर्फ़ छत की तरफ देख रही थी। मुझे देखते ही वह चौंककर बैठ गई।

“अरे तुम…?”

“हाँ, मैं। तुमने सोचा भी नहीं होगा कि गया आदमी फिर वापस भी आ सकता है।”

“बहुत अजीब आदमी हो तुम! वापस आना था, तो उसी समय क्यों नहीं उतर गए!”

“बजाय इसके कि शुक्रिया अदा करो जो सात मील जाकर वापस चला आया हूँ…।”

“शुक्रिया अदा करती अगर तुम उसी समय उतर जाते और मुझे बस में अपनी सीट ले लेने देते।”

मैंने ठहाका लगाया और बैठने के लिए जगह ढूँढने लगा। वहाँ भी चारों तरफ़ वही बिखराव और अव्यवस्था थी जो दिल्ली में उसके घर दिखायी दिया करती थी। हर चीज़ हर दूसरी चीज़ की जगह काम में लायी जा रही थी। एक कुर्सी ऊपर से नीचे तक मैले कपड़ों से लदी थी। दूसरी पर कुछ रंग बिखरे थे और एक प्लेट रखी थी जिसमें बहुत-सी कीलें पड़ी थीं।

“बैठो, मैं झट से तुम्हारे लिए चाय बनाती हूँ”, मिस पाल व्यस्त होकर उठने लगी।

“अभी मुझसे बैठने को तो कहा नहीं, और चाय की फ़िक्र पहले से करने लगीं?” मैंने कहा, “मुझे बैठने की जगह बता दो और चाय-वाय रहने दो। इस वक़्त तुम्हारी ‘बोहीमियन चाय’ पीने का ज़रा मन नहीं है।”

“तो मत पियो। मुझे कौन झंझट करना अच्छा लगता है! बैठने की जगह मैं अभी बनाए देती हूँ।” और कपड़े-अपड़े हटाकर उसने एक कुर्सी ख़ाली कर दी। बाईं तरफ़ एक बड़ी-सी मेज़ थी, पर उस पर भी इतनी चीज़ें पड़ी थीं कि कहीं कुहनी रखने तक की जगह नहीं थी। मैंने बैठकर टाँगें फैलाने की कोशिश की तो पता चला कपड़ों के ढेर के नीचे मिस पाल ने अपने बनाए खाके रख रखे हैं। मिस पाल फिर से अपने बिस्तर में तकियों के सहारे बैठ गई थी। गद्दे पर उसने वही झीना रेशमी कपड़ा बिछा रखा था, जिसे देखकर मुझे चिढ़ हुआ करती थी। मेरा उस समय भी मन हुआ कि उस कपड़े को निकालकर फाड़ दूँ या कहीं आग में झोंक दूँ। मैंने सिगरेट सुलगाने के लिए मेज़ से दियासलाई की डिबिया उठायी मगर खोलते ही वापस रख दी। डिबिया में दियासलाइयाँ नहीं थीं, गुलाबी-सा रंग भरा था। मैंने चारों तरफ़ नज़र दौड़ायी, मगर और डिबिया कहीं दिखायी नहीं दी।

“दियासलाई किचन में होगी, मैं अभी लाती हूँ”, कहती हुई मिस पाल फिर उठी और कमरे से चली गई। मैं उतनी देर आसपास देखता रहा। मुझे फिर उस दिन की याद हो आयी जिस दिन मैं मिस पाल के घर देर तक बैठा उससे बातें करता रहा था। पिंकी से मिस पाल के ‘टा टा’ कराने की बात याद आने से मैं हँस दिया।

तभी मिस पाल दियासलाई की डिबिया लिए आ गई। मेरा अकेले में हँसना शायद उसे बहुत अस्वाभाविक लगा। वह सहसा गम्भीर हो गई।

“किसी ने कुछ पिला-विला दिया है क्या?” उसने मज़ाक़ और शिकायत के स्वर में कहा।

“मैं अपने इस तरह लौटकर आने की बात पर हँस रहा हूँ।” और जैसे अपने को ही अपने झूठ का विश्वास दिलाने के लिए मैंने अपनी हँसी की नक़ल की और कहा, “मैं सोच भी नहीं सकता था कि इस अनजान जगह पर अचानक तुमसे भेंट हो जाएगी? और तुम्हीं ने कहाँ सोचा होगा कि जो आदमी बस में आगे चला गया था, वह घंटा-भर बाद तुम्हारे कमरे में बैठा तुमसे बात कर रहा होगा !”

और विश्वास करके कि मैंने अपने हँसने के कारण की व्याख्या कर दी है, मैंने पूछा, “तुम्हारा पिंकी कहाँ है? यहाँ दिखायी नहीं दे रहा।”

मिस पाल पहले से भी गम्भीर हो गई। मुझे लगा कि उसका चेहरा अब काफी रूखा लगने लगा है। आँखों में लाली भर रही थी, जैसे कई रातों से वह ठीक से सोयी न हो।

“पिंकी को यहाँ आने के बाद एक रात सरदी लग गई थी”, उसने अपनी उसाँस दबाकर कहा, “मैंने उसे कितनी ही गरम चीज़ें खिलायीं, पर वह दो दिन में चलता बना।”

मैंने विषय बदल दिया। उससे शिकायत करने लगा कि वह जो अपने बारे में बिना किसी को ठीक बताए दिल्ली से चली आयी, यह उसने ठीक नहीं किया।

“दफ़्तर में अब भी लोग मिस पाल की बात करके हँसते होंगे!” उसने ऐसे पूछा जैसे वह स्वयं उस मिस पाल से भिन्न हो, जिसके बारे में वह सवाल पूछ रही थी। पर उसकी आँखों में यह जानने की बहुत उत्सुकता भर रही थी कि मैं उसके सवाल का क्या जवाब देता हूँ।

“लोगों की बातों को तुम इतना महत्त्व क्यों देती हो?” मैंने कहा, “लोग वैसी बातें इसलिए करते हैं कि उनके जीवन में मनोरंजन के दूसरे साधन बहुत कम होते हैं। जब वह व्यक्ति चला जाता है, तो चार दिन में यह भूल जाते हैं कि संसार में उसका अस्तित्व था भी या नहीं।”

कहते-कहते मुझे एहसास हो आया कि मैंने यह कहकर ग़लती की है। मिस पाल मुझसे यही सुनना चाहती थी कि लोग अब भी उसके बारे में उसी तरह बात करते हैं और उसी तरह उसका मज़ाक़ उड़ाते हैं—यह विश्वास उसके लिए अपने वर्तमान को सार्थक समझने के लिए ज़रूरी था।

“हो सकता है तुम्हारे सामने बात न करते हों”, मिस पाल बोली, “क्योंकि उन्हें पता है कि हम लोग… अम्… अ… मित्र रहे हैं। नहीं तो वे कमीने लोग बात करने से बाज़ आ सकते हैं?”

अच्छा था कि मिस पाल ने मेरी बात पर विश्वास नहीं किया। उसने समझा कि मैं झूठमूठ उसे दिलासा देने की कोशिश कर रहा हूँ।

“हो सकता है बात करते भी हों”, मैंने कहा, “पर तुम अब उन लोगों की बात क्यों सोचती हो? कम-से-कम तुम्हारे लिए तो उन लोगों का अब अस्तित्व ही नहीं है।”

“मेरे लिए उन लोगों का अस्तित्व कभी था ही नहीं”, मिस पाल ने मुँह बिचका दिया, “मैं उनमें से किसी को अपने पैर के अँगूठे के बराबर भी नहीं समझती थी।”

आँखों से लग रहा था जैसे अब भी उन लोगों को अपने पास देख रही हो और उसे खेद हो कि वह ठीक से उनसे प्रतिशोध क्यों नहीं ले पा रही।

“तुम्हें पता है कि रमेश का फिर लखनऊ ट्रांसफ़र हो गया है?” मैंने बात बदल दी।

“अच्छा, मुझे पता नहीं था!”

पर उसने उस सम्बन्ध में और जानने की उत्सुकता प्रकट नहीं की। मैं फिर भी उसे रमेश के ट्रांसफ़र का क़िस्सा विस्तार से सुनाने लगा। मिस पाल ‘हूँ-हाँ’ करती रही। पर यह साफ़ था कि वह अपने अंदर ही कहीं खो गई है।

मैं रमेश की बात कह चुका, तो कुछ क्षण हम दोनों चुप रहे। फिर मिस पाल बोली, “देखो, मैं तुमसे सच कहती हूँ रणजीत, मुझे वहाँ उन लोगों के बीच एक-एक पल काटना असम्भव लगता था। मुझे लगता था, मैं नरक में रहती हूँ। तुम्हें पता ही है, मैं दफ़्तर में किसी से बात करना भी पसंद नहीं करती थी।”

मैं सुबह मनाली से बिना नाश्ता किए चला था, इसलिए मुझे भूख लग आयी थी। मैंने बात को रोटी के प्रकरण पर ले आना उचित समझा। मैंने उससे पूछा कि उसने खाने की क्या व्यवस्था कर रखी है—ख़ुद बनाती है, या कोई नौकर रख रखा है।

“तुम्हें भूख तो नहीं लगी?” मिस पाल अब दफ़्तर के माहौल से बाहर निकल आयी, “लगी हो, तो उधर मेरे साथ किचन में चलो। जो कुछ बना है, इस वक़्त तो तुम्हें उसी में से थोड़ा-बहुत खा लेना होगा। शाम को मैं तुम्हें ठीक से बनाकर खिलाऊँगी। मुझे तुम्हारे आने का पता होता, तो मैं इस वक़्त भी कुछ और चीज़ बना रखती। यहाँ बाज़ार में तो कुछ मिलता ही नहीं। किसी दिन अच्छी सब्ज़ी मिल जाए, तो समझो बड़े भाग्य का दिन है। कोई दिन होता है जिस दिन एकाध अंडा मिल जाता है।… शाम को मैं तुम्हारे लिए मछली बनाऊँगी। यहाँ की ट्राउट बहुत अच्छी होती है। मगर मिलती बहुत मुश्किल से है।”

मुझे ख़ुशी हुई कि मैंने सफलतापूर्वक बात का विषय बदल दिया है। मिस पाल बिस्तर से उठकर खड़ी हो गई थी। मैंने भी कुर्सी से उठते हुए कहा, “आओ, चलकर तुम्हारा रसोईघर तो देख लूँ। इस समय मुझे कसकर भूख लगी है, इसलिए जो कुछ भी बना है, वह मुझे ट्राउट से अच्छा लगेगा। शाम को मैं जोगिन्दरनगर पहुँच जाऊँगा।”

मिस पाल दरवाज़े से बाहर निकलती हुई सहसा रुक गई।

“तुम्हें शाम को जोगिन्दरनगर ही पहुँचना है तो लौटकर क्यों आए थे? यह बात तुम गाँठ में बाँध लो कि आज मैं तुम्हें यहाँ से नहीं जाने दूँगी। तुम्हें पता है इन तीन महीनों में तुम मेरे यहाँ पहले ही मेहमान आए हो? मैं तुम्हें आज कैसे जाने दे सकती हूँ?… तुम्हारे साथ कुछ सामान-आमान भी है या ऐसे ही चले आए थे?”

मैंने उसे बताया कि मैं अपना सामान हिमाचल राज्य परिवहन के दफ़्तर में छोड़ आया हूँ और उससे कह आया हूँ कि दो घंटे में मैं लौट आऊँगा।

“मैं अभी पोस्टमास्टर से वहाँ टेलीफ़ोन करा दूँगी। कल तक तुम्हारा सामान यहाँ ले आएँगे। तुम कम-से-कम एक सप्ताह यहाँ रहोगे। समझे? मुझे पता होता कि तुम मनाली में आए हुए हो तो मैं भी कुछ दिन के लिए वहाँ चली आती। आजकल तो मैं यहाँ… ख़ैर… तुम पहले उधर तो आओ, नहीं भूख के मारे ही यहाँ से भाग जाओगे।”

मैं इस नई स्थिति के लिए तैयार नहीं था। उस सम्बन्ध में बाद में बात करने की सोचकर मैं उसके साथ रसोईघर में चला गया। रसोईघर में कमरे जितनी अराजकता नहीं थी, शायद इसलिए कि वहाँ सामान ही बहुत कम था। एक कपड़े की आरामकुर्सी थी, जो लगभग ख़ाली ही थी—उस पर सिर्फ़ नमक का एक डिब्बा रखा हुआ था। शायद मिस पाल उस पर बैठकर खाना बनाती थी। खाना बनाने का और सारा सामान एक टूटी हुई मेज़ पर रखा था। कुर्सी पर रखा हुआ डिब्बा उसने जल्दी से उठाकर मेज़ पर रख दिया और इस तरह मेरे बैठने के लिए जगह कर दी।

फिर मिस पाल ने जल्दी-जल्दी स्टोव जलाया और सब्ज़ी की पतीली उस पर रख दी। कलछी साफ़ नहीं थी, वह उसे साफ़ करने के लिए बाहर चली गई। लौटकर उसे कलछी को पोंछने के लिए कोई कपड़ा नहीं मिला। उसने अपनी कमीज़ से ही उसे पोंछ लिया और सब्जी को हिलाने लगी।

“दो आदमियों का खाना है भी या दोनों को ही भूखे रहना पड़ेगा?” मैंने पूछा।

“खाना बहुत है”, मिस पाल झुककर पतीली में देखती हुई बोली।

“क्या-क्या है?”

मिस पाल कलछी से पतीली में टटोलकर देखने लगी।

“बहुत कुछ है। आलू भी हैं, बैंगन भी हैं और शायद… शायद बीच में एकाध टिंडा भी है। यह सब्जी मैंने परसों बनायी थी।”

“परसों?” मैं ऐसे चौंक गया जैसे मेरा माथा सहसा किसी चीज़ से टकरा गया हो। मिस पाल कलछी चलाती रही।

“हर रोज़ तो नहीं बना पाती हूँ”, वह बोली। रोज़ बनाने लगूँ तो बस खाना बनाने की ही हो रहूँ। और अम्… अ.. अपने अकेली के लिए रोज़ बनाने का उत्साह भी तो नहीं होता। कई बार तो मैं सप्ताह-भर का खाना एक साथ बना लेती हूँ और फिर निश्चिंत होकर खाती रहती हूँ। कहो तो तुम्हारे लिए मैं अभी ताज़ा बना दूँ।”

“तो चपातियाँ भी क्या परसों की ही बना रखी हैं?” मैं अनायास कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।

“आओ, इधर आकर देख लो, खा सकोगे या नहीं।” वह कोने में रखे हुए बेंत के संदूक़ के पास चली गई। मैं भी उसके पास पहुँच गया। मिस पाल ने संदूक़ का ढकना उठा दिया। संदूक़ में पच्चीस-तीस खुश्क चपातियाँ पड़ी थीं। सूखकर उन सबने कई तरह की आकृतियाँ धारण कर ली थीं। मैं संदूक़ के पास से आकर फिर कुर्सी पर बैठ गया।

“तुम्हारे लिए ताज़ा चपातियाँ बना देती हूँ”, मिस पाल एक अपराधी की तरह देखती हुई बोली।

“नहीं-नहीं, जो कुछ बना रखा है, वही खाएँगे”, मैंने कहा। मगर अपनी इस भलमनसाहत के लिए मेरा मन अंदर-ही-अंदर कुढ़ गया।

मिस पाल संदूक़ का ढक्कन बंद करके स्टोव के पास लौट गई।

“सब्ज़ी तीन दिन से ज़्यादा नहीं चलती”, वह बोली, “बाद में मैं जैम, प्याज़ और नमक से काम चलाती हूँ। यहाँ अलूचे बहुत मिल जाते हैं, इसलिए मैंने बहुत-सा अलूचे का जैम बना रखा है। खाकर देखो, अच्छा जैम है।… ठहरो, तुम्हें प्लेट देती हूँ।”

वह फिर जल्दी से बाहर चली गई और कमरे से कीलोंवाली प्लेट ख़ाली करके ले आयी।

“गिलास में अम्… अ” वह आकर बोली, “सरसों का तेल रखा है। पानी तुम प्याली में ही ले लोगे या…?”

ट्राउट मछली… खाना खाते समय और खाना खा चुकने के बाद भी मिस पाल के दिमाग़ पर ट्राउट मछली की बात ही सवार रही। जैसे भी हो, शाम को वह ट्राउट मछली बनाएगी। उसके हठ की वजह से मैंने उससे कह दिया था कि मैं अगले दिन सुबह तक वहाँ रह जाऊँगा। मिस पाल ने आगे का फ़ैसला अगले दिन पर छोड़ दिया था। उसे शाम के लिए कई और चीज़ों का इंतज़ाम करना था, क्योंकि ट्राउट मछली आसानी से तो नहीं बन जाती। पहली चीज़ घी चाहिए था। डिब्बे में घी नाममात्र को ही था। प्याज़ और मसाला भी घर में नहीं था। मिट्टी का तेल भी चाहिए था। खाने के बाद हम लोग घूमने के लिए निकले तो पहले वह मुझे साथ बाज़ार में ले गई। हटवार के पास भी घी नहीं था। उसके लिए मिस पाल ने पोस्टमास्टर से अनुरोध किया कि वह अपने घर से उसे शाम के लिए आधा सेर घी भिजवा दे, अगले दिन कुल्लू से लाकर लौटा देगी। उससे उसने यह भी कहा कि वह अपने घर के थोड़े-से फ़्रेंच बीन भी उतरवाकर उसे भेज दे, और कोई मछलीवाला उधर से गुज़रे तो उसके लिए सेर-भर ट्राउट ले रखे।

“सब्बरवाल साहब, मैं आपको बहुत तकलीफ़ देती हूँ”, वह चलने से पहले सात-आठ बार उसे धन्यवाद देकर बोली, “मगर देखिए, मेरे मेहमान आए हुए हैं, और यहाँ ट्राउट के अलावा कोई अच्छी चीज़ मिलती नहीं। देखती हूँ, अगर बाली मुझे मिल जाए तो मैं उससे कहूँगी कि वह मुझे दरिया से एक मछली पकड़ दे। मगर बाली का कोई भरोसा नहीं। आप ज़रूर मेरे लिए ले रखिएगा। मैंने मिसेज़ एटकिन्सन को भी कहला दिया है। उन्होंने भी ले ली तो मैं आज और कल दोनों दिन बना लूँगी। ध्यान रखिएगा। कई बार मछलीवाला आवाज़ नहीं लगाता और ऐसे ही निकल जाता है। थैंक यू। थैंक यू वेरी मच!”

मेरे सामान के लिए उसने कुल्लू फ़ोन भी करा दिया। अब सड़क पर चलती हुई वह सुबह के नाश्ते की बात करने लगी।

“रात को तो ट्राउट हो जाएगी, मगर सुबह नाश्ता क्या बनाया जाए? डबलरोटी यहाँ नहीं मिलेगी, नहीं तो मैं तुम्हें शहद के टोस्ट ही बनाकर खिलाती। अच्छा ख़ैर, देखो…।”

सड़क पर खुली धूप फैली थी और भेड़ों और पश्म के बकरों का रेवड़ हमारे आगे-आगे चल रहा था। साथ दो कुत्ते जीभ लपलपाते हुए पहरेदारी करते जा रहे थे। सामने से एक जीप के आ जाने से रेवड़ में खलबली मच गई। बकरीवाले भेड़ों को पहाड़ की तरफ धकेलने लगे। एक भेड़ का बच्चा ढलान से फिसल गया और नीचे से सिर उठाकर मिमियाने लगा। किसी बकरीवाले का ध्यान उसकी तरफ़ नहीं गया तो मिस पाल सहसा परेशान हो उठी, “ए भाई, देखो वह बच्चा नीचे जा गिरा है। बकरीवाले, एक बच्चा नीचे खाई में गिर गया है, उसे उठा लाओ। ए भाई!”

एक दिन पहले वर्षा हुई थी, इसलिए ब्यास ख़ूब चढ़ा हुआ था। नुकीली चट्‌टानों से छिलता और कटता हुआ पानी शोर करता हुआ बह रहा था। सामने दरिया पार करने का झूला था। झूले की चर्खियाँ घूम रही थीं, रस्सियाँ इकट्ठी हो रही थीं और झूला दो व्यक्तियों को लिए हुए इस पार से उस पार जा रहा था। सहसा झूले में बैठे हुए दोनों व्यक्ति ‘ही-ही-ही-ही’ करके हँसने लगे, जैसे किसी को चिढ़ा रहे हों। फिर उनमें से एक ने ज़ोर से छींक दिया। झूला उस पार पहुँच गया और वे व्यक्ति उसी तरह हँसते और छींकते हुए उससे उतर गए। झूला छोड़ दिया गया, और उसकी रस्सियाँ इस सिरे से उस सिरे तक आधी गोलाइयों में फैल गईं। जो व्यक्ति उधर उतरे थे, वे उस किनारे से फिर एक बार ज़ोर से हँसे। तभी झूला खींचने वालों में एक लड़का मचान से उतरकर हमारे पास आ गया। वह ऐसे बात करने लगा जैसे अभी-अभी कोई दुर्घटना होकर हटी हो।

“मिस साहब”, उसने कहा, “यह वही सुदर्शन है, जिसने आपके कुत्ते को कुछ खिलाया था। यह अब भी शरारत करने से बाज़ नहीं आता।”

उन व्यक्तियों के हँसने और छींकने का मिस पाल पर उतना असर नहीं हुआ था जितना उस लड़के की बात का हुआ था। उसका चेहरा एकदम से उतर गया और आवाज खुश्क हो गई।

“यह उधर के गाँव का आदमी है न?” उसने पूछा।

“हाँ, मिस साहब!”

“तुम पोस्टमास्टर को बताना। वे अपने-आप इसे ठीक कर लेंगे।”

“मिस साहब, यह हमसे कहता है कि यह मिस साहब…!”

“तुम इस वक़्त जाओ अपना काम करो”, मिस पाल उसे झिड़ककर बोली, “पोस्टमास्टर से कहना वे इसे एक दिन में ठीक कर देंगे।”

“मगर मिस साहब…!”

“जाओ, फिर कभी उधर आकर बात करना।”

लड़के की समझ में नहीं आया कि मिस साहब से बात करने में उस समय उससे क्या अपराध हुआ है। वह सिर लटकाए हुए चुपचाप वहाँ से लौट गया।

कुछ देर हम लोग वहीं रुके रहे। मिस पाल जैसे थकी हुई-सी सड़क के किनारे एक बड़े-से पत्थर पर बैठ गई। मैं दरिया के उस पार पहाड़ की चोटी पर उगे हुए वृक्षों की लम्बी पंक्ति को देखने लगा, जो नीले आकाश और ग़ुब्बारे जैसे सफ़ेद बादलों के बीच खिंची हुई लकीर-सी लगती थी। दरिया के दोनों तरफ़ पुल के सलेटी खम्भे खड़े थे, जिन पर अभी पुल नहीं बना था। खम्भों के आसपास से झड़कर थोड़ी-थोड़ी मिट्टी दरिया में गिर रही थी। मैंने उधर से आँखें हटाकर मिस पाल की तरफ़ देखा। मिस पाल मेरी तरफ़ देख रही थी। शायद वह जानना चाहती थी कि झूलेवाले लड़के की बात का मेरे मन पर क्या प्रभाव पड़ा है।

“तो आगे चलें?” मुझसे आँखें मिलते ही उसने पूछा।

“हाँ, चलो।”

मिस पाल उठ खड़ी हुई। उसकी साँस कुछ-कुछ फूल रही थी। वह चलती हुई मुझे बताने लगी कि वहाँ के लोगों में कितनी तरह के अंधविश्वास हैं। जब पिंकी बीमार हुआ तो वहाँ के लोगों ने सोचा था कि किसी ने उसे कुछ खिला-विला दिया है।

“ये अनपढ़ लोग हैं। मैंने इनकी बातों का विरोध भी नहीं किया। ये लोग अपने अंधविश्वास एक दिन में थोड़े ही छोड़ सकते हैं! इस चीज़ में जाने अभी कितने बरस लगेंगे!”

और रास्ते में चलते हुए वह बार-बार मेरी तरफ़ देखती रही कि मुझे उसकी बात पर विश्वास हुआ है या नहीं। मैंने सड़क से एक छोटा-सा पत्थर उठा लिया था और चुपचाप उसे उछालने लगा था। काफ़ी देर तक हम लोग ख़ामोश चलते रहे। वह ख़ामोशी मुझे अस्वाभाविक लगने लगी तो मैंने मिस पाल से वापस घर चलने का प्रस्ताव किया।

“चलो, चलकर तुम्हारी बनायी हुई नई तस्वीरें ही देखी जाएँ”, मैंने कहा, “इन तीन-चार महीनों में तो तुमने काफ़ी काम कर लिया होगा।”

“पहले घर चलकर एक-एक प्याली चाय पीते हैं”, मिस पाल बोली, “सचमुच इस समय मैं चाय की गरम प्याली के लिए ज़िन्दगी की कोई भी चीज़ क़ुर्बान कर सकती हूँ। मेरा तो मन था कि घर से चलने से पहले ही एक-एक प्याली पी लेते, मगर फिर मैंने कहा कि पोस्टमास्टर से कहने में देर हो जाएगी तो मछलीवाला निकल जाएगा।”

इस बात ने मेरे मन को थोड़ा गुदगुदा दिया कि तीन महीने में आया हुआ पहला मेहमान उस समय मिस पाल के लिए अपनी तस्वीरों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।

लौटकर कॉटेज में पहुँचते ही मिस पाल चाय बनाने में व्यस्त हो गई। वह आते हुए काफ़ी थक गई थी, क्योंकि ज़रा-सी चढ़ाई चढ़ने में ही उसकी साँस फूलने लगती थी, मगर वह ज़रा देर भी सुस्ताने के लिए नहीं रुकी। चाय के लिए उसकी यह व्यस्तता मुझे बहुत अस्वाभाविक लगी, शायद इसलिए कि मुझे ख़ुद चाय की ज़रूरत महसूस नहीं हो रही थी। मिस पाल इस तरह चम्मचों और प्यालियों को ढूँढने के लिए परेशान हो रही थी, जैसे उसके दस मेहमान चाय का इंतज़ार कर रहे हों और उसे समझ न आ रहा हो कि कैसे जल्दी से सारा इंतज़ाम करे।

मैं घूमकर कमरे में और बरामदे में लगी हुई तस्वीरों को देखने लगा। जिस-जिस तस्वीर पर भी मेरी नज़र पड़ी, मुझे लगा वह मेरी पहले की देखी हुई है। कुछ बड़ी तस्वीरें थीं जो मिस पाल पंजाब के एक मेले से बनाकर लायी थी। वह अजीब-अजीब-से चेहरे थे, जिन पर हम लोग एक बार फब्तियाँ कसते रहे थे। जाने क्यों, मिस पाल अपने चित्रों के लिए सदा ऐसे ही चेहरे चुनती थी जो किसी-न-किसी रूप में विकृत हों! मैंने सारा कमरा और बरामदा घूम लिया। दो-एक अधूरी तस्वीरों को छोड़कर मुझे एक भी नई चीज़ दिखायी नहीं दी। मैंने रसोईघर में जाकर मिस पाल से पूछा कि उसकी नई तस्वीरें कहाँ हैं।

“अजी छोड़ो भी”, मिस पाल प्यालियाँ धोती हुई बोली, “चाय की प्याली पीकर हम लोग ऊपर की तरफ़ घूमने चलते हैं। ऊपर एक बहुत पुराना मंदिर है। वहाँ का पुजारी तुम्हें ऐसे-ऐसे क़िस्से सुनाएगा कि तुम सुनकर हैरान रह जाओगे। एक दिन वह बता रहा था कि यहाँ कुछ मंदिर ऐसे हैं, जहाँ लोग पहले तो देवता से वर्षा के लिए प्रार्थना करते हैं, मगर बाद में अगर देवता वर्षा नहीं देता तो उसे हिडिम्बा के मंदिर में ले जाकर रस्सी से लटका देते हैं। है नहीं मज़ेदार बात? जो देवता तुम्हारा काम न करे, उसे फाँसी लगा दो। मैं कहती हूँ रणजीत, यहाँ लोगों में इतने अंधविश्वास हैं, इतने अंधविश्वास हैं कि क्या कहा जाए! ये लोग अभी तक जैसे कौरवों-पांडवों के ज़माने में ही जीते हैं, आज के ज़माने से इनका कोई सम्बन्ध ही नहीं है।”

और एक बार उड़ती नज़र से मुझे देखकर वह चीनी ढूँढने में व्यस्त हो गई।

“अरे चीनी कहाँ चली गई? अभी हाथ में थी, और अभी न जाने कहाँ रख दी? देखो, कैसी भुलक्कड़ हो गई हूँ! मेरा तो बस एक ही इलाज है कि कोई हाथ में छड़ी लेकर मुझे ठीक करे। यह भी कोई रहने का ढंग है जैसे मैं रहती हूँ?”

“तुमने यहाँ के कुछ लैंडस्केप नहीं बनाए?” मैंने पूछा।

“तस्वीरें तो बहुत-सी शुरू कर रखी हैं, पर अभी तक पूरी नहीं कर सकी”, मिस पाल जैसे उस मुश्किल स्थिति से बचने का प्रयत्न करती हुई बोली, “अब किसी दिन लगकर सबकी-सब तस्वीरें पूरी करूँगी। तारपीन का तेल भी ख़त्म हो चुका है, किसी दिन जाकर लाना है। कई दिनों से सोच रही थी कि मंडी जाकर कैनवस और रंग भी ले आऊँ, पर यूँ ही आलस कर जाती हूँ। कुछ ड्राइंग पेपर भी जिल्द कराने हैं। अब जाऊँगी किसी दिन और सारे काम एक साथ ही कर आऊँगी।”

बात करते हुए मिस पाल की आँखें झुकी जा रही थीं, जैसे वह अपने ही सामने किसी चीज़ के लिए अपराधी हो, और लगातार बात करके अपने अपराध के अनुभव को छिपाना चाहती हो। मैं चुप रहकर उसे चाय में चीनी मिलाते देखता रहा। उसे देखते हुए उस समय मेरे मन में कुछ वैसी उदासी भरने लगी जैसी एक निर्जन समुद्र-तट पर या ऊँची पहाड़ियों से घिरी हुई किसी एकांत पथरीली घाटी में जाकर अनायास मन में भर जाती है।

“कल से एक तो मैं अपने घर को ठीक करूँगी”, मिस पाल क्षण-भर बाद फिर उसी तरह बिना रुके बात करने लगी, “एक तो घर का सारा सामान ठीक ढंग से लगाना है। तुम्हें पता है, मैंने कितने चाव से दिल्ली में अपने कमरे के लिए जाली के पर्दे बनवाए थे? वे पर्दे यहाँ ज्यों-के-त्यों बक्स में बंद पड़े हैं; मेरा लगाने को मन ही नहीं हुआ। मैं कल ही तरखान से कहकर पर्दों के लिए चौखटे बनवाऊँगी। खाने-पीने का थोड़ा-बहुत सामान भी घर में रखना ही चाहिए; बिस्कुट, मक्खन, डबलरोटी और अचार का होना तो बहुत ही ज़रूरी है। जो चीज़ें कुल्लू से मिल जाती हैं, वे तो मैं लाकर रख ही सकती हूँ।… तारपीन का तेल भी मुझे कुल्लू से ही मिल जाएगा।”

उसने चाय की प्याली मेरे हाथ में दे दी तो भी मेरे मुँह से कोई बात नहीं निकली, और मैं चुपचाप छोटे-छोटे घूँट भरने लगा। मेरे मन को उस समय एक तरह की जड़ता ने घेर लिया था। कहाँ मिस पाल के बारे में दिल्ली के लोगों से सुनी हुई वे सब बातें और कहाँ उसके जीवन की यह एकांत विडम्बना!

ट्राउट मछली! मिस पाल की सारी परेशानी के बावजूद उस दिन उसे ट्राउट नहीं मिल सकी। पोस्टमास्टर ने बताया कि मछलीवाला उस दिन आया ही नहीं। मिस पाल के बहुत-बहुत ख़ुशामद करने पर भी मकान-मालकिन का चौकीदार बाली दरिया से मछली पकड़ने के लिए राज़ी नहीं हुआ। उसने कहा कि वह अपनी छड़ी पॉलिश कर रहा है, उसे फ़ुरसत नहीं है। मिसेज़ एटकिन्सन के बच्चों ने एक मछली पकड़ी थी। मगर उसके पति ने उस दिन ख़ासतौर पर मछली की कतलियों के लिए कहा था, इसलिए वह अपनी मछली मिस पाल को नहीं दे सकती थी। हाँ, पोस्टमास्टर ने फ़्रेंच बीन ज़रूर भेज दिए। चावल और सूखे फ़्रेंच बीन! रात की रोटी के लिए मिस पाल का सारा उत्साह ठंडा पड़ गया। खाना बनाने में उसका मन भी नहीं लगा, जिससे चावल थोड़ा नीचे लग गए। खाना खाते समय मिस पाल बस अफ़सोस ही प्रकट करती रही।

“मैं बहुत बदक़िस्मत हूँ रणजीत, हर लिहाज़ से मैं बहुत ही बदक़िस्मत हूँ”, खाना खाने के बाद हम लोग बाहर मैदान में कुर्सियाँ निकालकर बैठ गए तो उसने कहा। वह सिर के पीछे हाथ रखे आकाश की ओर देख रही थी। बारहीं या तेरहीं की रात होने से आकाश में तीन तरफ़ खुली चाँदनी फैली थी। ब्यास की आवाज़ वातावरण में एक गूँज पैदा कर रही थी। वृक्षों की सरसराहट के अतिरिक्त मैदान की घास से भी एक धीमी-सी सरसराहट निकलती प्रतीत होती थी। हवा तेज़ थी और सामने पहाड़ के पीछे से उठता हुआ बादल धीरे-धीरे चाँद की तरफ़ सरक रहा था।

“क्या बात है मिस पाल, तुम इस तरह गुमसुम क्यों हो रही हो?” मैंने कहा, “चावल थोड़े ख़राब हो गए, तो इसमें इस तरह उदास होने की क्या बात है!”

मिस पाल सामने पहाड़ की धुँधली रेखा को देखती रही, जैसे उसमें कोई चीज़ खोज रही हो।

“मैं सोचती हूँ रणजीत कि मेरे जीने का कोई भी अर्थ नहीं है”, उसने कहा।

और वह मुझे अपने आरम्भिक जीवन की कहानी सुनाने लगी। उसे बहुत बड़ी शिकायत थी कि आरम्भ में अपने घर में भी उसे ज़रा सुख नहीं मिला, यहाँ तक कि अपने माता-पिता का स्नेह भी उसे नहीं मिला। उसकी माँ ने—उसकी अपनी माँ ने—भी उसे प्यार नहीं किया। इसी वजह से पंद्रह साल पहले वह अपना घर छोड़कर नौकरी करने के लिए निकल आयी थी।

“सोचो, माँ को मेरा घर में होना ही बुरा लगता था। पिताजी को मेरे संगीत सीखने से चिढ़ थी। वे कहा करते थे कि मेरा घर—घर है रंडीख़ाना नहीं। भाइयों का जो थोड़ा-बहुत प्यार था, वह भी भाभियों के आने के बाद छिन गया। मैंने आज तक कितनी-कितनी मुश्किल से अपनी अम्… अ… पवित्रता को बचाया है, यह मैं ही जानती हूँ। तुम सोच सकते हो कि एक अकेली लड़की के लिए यह कितना मुश्किल होता है। मेरा लाहौर की तरफ़ घूमने जाने को मन था; वहाँ की कुछ तस्वीरें बनाना चाहती थी, मगर मैं वहाँ नहीं गई, क्योंकि मैं सोचती थी कि मर्द की पशु-शक्ति के सामने अम्… अ… मैं अकेली क्या कर सकूँगी। फिर, तुम्हें पता है कि डिपार्टमेंट के लोग वहाँ मेरे बारे में कैसी बुरी-बुरी बातें किया करते थे। इसीलिए मैं कहती हूँ कि मुझे वहाँ के एक-एक आदमी से नफ़रत है। वे तुम्हारे बुखारिया और मिर्ज़ा और जोरावरसिंह। मैं तो कभी ऐसे लोगों के साथ बैठकर एक प्याली चाय भी पीना पसंद नहीं करती थी। तुम्हें याद है, एक बार जब जोरावरसिंह ने मुझसे कहा था…”

और फिर वह दफ़्तर के जीवन की कई छोटी-छोटी घटनाएँ दोहराने लगी। जब मैंने देखा कि वह फिर से उसी वातावरण में जाकर ख़ामख़ाह अपना ग़ुस्सा भड़का रही है तो मैंने उससे फिर कहा कि वह अब दफ़्तर के लोगों के बारे में न सोचे, अपने संगीत और अपने चित्रों की बात ही सोचे।

“तुम यहाँ रहकर कुछ अच्छी-अच्छी चीज़ें बना लो, फिर दिल्ली आकर अपनी प्रदर्शनी करना।” मैंने कहा, “जब लोग तुम्हारी चीज़ें देखेंगे और तुम्हारा नाम सुनेंगे तो अपने-आप तुम्हारी क़द्र करेंगे।”

“न, मैं प्रदर्शनी-अदर्शनी के किसी चक्कर में नहीं पड़ूँगी।” मिस पाल उसी तरह सामने की तरफ़ देखती हुई बोली, “तुम जानते ही हो इन सब चीज़ों में कितनी पॉलिटिक्स चलती है। मैं उस पॉलिटिक्स में नहीं पड़ना चाहती। मेरे पास अभी तीन-चार हज़ार रुपए हैं, जिनसे मेरा काफ़ी दिन गुज़ारा चल जाएगा। जब ये रुपए चुक जाएँगे, तो…” और वह जैसे कुछ सोचती हुई चुप कर गई।

मैं आगे की बात सुनने के लिए बहुत उत्सुक था। मगर मिस पाल कुछ देर बाद कंधे हिलाकर बोली, “…तो भी कुछ-न-कुछ हो ही जाएगा। अभी वह वक़्त आए तो सही।”

बादल ऊँचा उठ रहा था और वातावरण में ठंडक बढ़ती जा रही थी। जंगल की तरफ़ से आती हुई हवा की गूँज शरीर में बार-बार सिहरन भर देती थी। साथ के कॉटेज में रेडियो पर पश्चिमी संगीत चल रहा था। उससे आगे के कॉटेज में लोग खिलखिलाकर हँस रहे थे। मिस पाल अपनी आँखें मूँदें हुए मुझे बताने लगी कि होशियारपुर में उसने भृगुसंहिता से अपनी कुंडली निकलवायी थी। उस कुंडली के फल के अनुसार इस जन्म में उस पर यह शाप है कि उसे कोई सुख नहीं मिल सकता—न धन का, न ख्याति का, न प्यार का। इसका कारण भी भृगुसंहिता में दिया था। अपने पिछले जन्म में वह सुंदर लड़की थी और नृत्य-संगीत आदि कलाओं में बहुत पटु थी। उसके पिता बहुत धनी थे और वह उनकी अकेली संतान थी। जिस व्यक्ति से उसका ब्याह हुआ, वह बहुत सुंदर और धनी था।

“मगर मुझे अपनी सुंदरता और अपनी कला का बहुत मान था, इसलिए मैंने अपने पति का आदर नहीं किया। कुछ ही दिनों में वह बेचारा दुखी होकर इस संसार से चल बसा। इसीलिए मुझ पर अब यह शाप है कि इस जन्म में मुझे सुख नहीं मिल सकता।”

मैं चुपचाप उसे देखता रहा। अभी दिन में ही वह वहाँ के लोगों के अंधविश्वासों की चर्चा करती हुई उनका मज़ाक़ उड़ा रही थी। सहसा मिस पाल भी बोलते-बोलते चुप कर गई और उसकी आँखें मेरे चेहरे पर स्थिर हो गईं। उसके लिपस्टिक से रँगे हुए ओठों की तह में जैसे उस समय कोई चीज़ काँप रही थी। काफ़ी देर हम लोग चुप बैठे रहे। बादल ने चाँद को छा लिया था और चारों तरफ़ गहरा अँधेरा हो रहा था। सहसा साथ के कॉटेज की बत्ती भी बुझ गई, जिससे अँधेरा और भी गहरा लगने लगा।

मिस पाल उसी तरह मेरी तरफ़ देख रही थी। मुझे महसूस होने लगा कि मेरे आसपास की हवा कुछ भारी हो रही है। मैं सहसा कुर्सी पीछे सरकाकर उठ खड़ा हुआ।

“मेरा ख़याल है, अब रात काफ़ी हो गई है”, मैंने कहा, “इसलिए अब चलकर सो रहा जाए। और बातें अब सुबह होंगी।”

“हाँ-हाँ”, मिस पाल भी अपनी कुर्सी से उठती हुई बोली, “मैं अभी चलकर बिस्तर बिछा देती हूँ। तुम बताओ, तुम्हारा बिस्तर बरामदे में बिछा दूँ या…”

“हाँ, बरामदे में ही बिछा दो। अंदर काफ़ी गरमी होगी।”

“देख लो, रात को ठंड हो जाएगी।”

“कोई बात नहीं, बरामदे में हवा आती रहेगी तो अच्छा लगेगा।”

और बरामदे में लेटे हुए मैं देर तक जाली के बाहर देखता रहा। बादल पूरे आकाश में छा गया था और दरिया का शब्द बहुत पास आया-सा लगता था। जाली से लगा हुआ मकड़ी का जाला हवा से हिल रहा था। पास ही कोई चूहा कोई चीज़ कुतर रहा था। अंदर कमरे से बार-बार करवट बदलने की आवाज़ सुनायी दे जाती थी।

“रणजीत!” अंदर से आवाज़ आयी तो मेरे सारे शरीर में एक सिहरन भर गई।

“मिस पाल!”

“सरदी तो नहीं लग रही?”

“नहीं, बल्कि हवा है, इसलिए अच्छा लग रहा है।”

और तभी टप्‌-टप्‌-टप्‌-टप्‌ मोटी-मोटी बूँदें पड़ने लगीं। पानी की बौछार मेरे बिस्तर पर आने लगी तो मैंने करवट बदली। बरामदे की बत्ती मैंने जलती रहने दी थी, इसलिए कई चीज़ें इधर-उधर बिखरी नज़र आ रही थीं। बिस्तर बिछाते समय मिस पाल को घर की काफ़ी उथल-पुथल करनी पड़ी थी। मेरी चारपाई के पास ही एक तिपाई औंधी पड़ी थी और उससे ज़रा आगे तस्वीरों के कुछ एक फ़्रेम रास्ते में गिरे थे। सामने के कोने में मिस पाल के ब्रश और कपड़े एक ढेर में उलझे हुए पड़े थे।

अंदर की चारपाई चिरमिरायी और लकड़ी के फ़र्श पर पैरों की धप्-धप्‌ आवाज़ सुनायी देने लगी। फिर सुराही से चुल्लू में पानी पीने की आवाज़ आने लगी।

“रणजीत!”

“मिस पाल!”

“प्यास तो नहीं लगी?”

“नहीं।”

“अच्छा, सो जाओ।”

कुछ देर मुझे लगता रहा जैसे मेरे आसपास एक बहुत तेज़ साँस चल रही है जो धीरे-धीरे दबे पैरों, सारे वातावरण पर अधिकार करती जा रही है, और आसपास की हर चीज़ अपने पर उसका दबाव महसूस कर रही है। पानी की बौछार कुछ धीमी पड़ने लगी तो मैंने फिर से जाली की तरफ़ करवट बदल ली और पहले की तरह ही बाहर देखने लगा। तभी पास ही झन्न से किसी चीज़ के गिरने की आवाज़ सुनायी दी।

“क्या गिरा है रणजीत?” अंदर से आवाज़ आयी।

“पता नहीं, शायद किसी चूहे ने कुछ गिरा दिया है।”

“सचमुच मैं यहाँ चूहों से बहुत तंग आ गई हूँ।”

मैं चुप रहा। अंदर की चारपाई फिर चिरमिरायी।

“अच्छा, सो जाओ!”

सारी रात पानी पड़ता रहा। सुबह-सुबह, वर्षा थम गई, मगर आकाश साफ़ नहीं हुआ। सुबह उठकर चाय के समय तक मेरी मिस पाल से ख़ास बात नहीं हुई। चाय पीते समय भी मिस पाल अधूरे-अधूरे टुकड़ों में ही बात करती रही। मैंने उससे कहा कि मैं अब पहली बस से चला जाऊँगा तो उसने एक बार भी मुझसे रुकने के लिए आग्रह नहीं किया। यूँ साधारण बातचीत में भी मिस पाल काफ़ी तकल्लुफ़ बरत रही थी, जैसे किसी बिलकुल अपरिचित व्यक्ति से बात कर रही हो। मुझे उसका सारा व्यवहार बहुत अस्वाभाविक लग रहा था। वह जैसे बात न करने के लिए ही अपने को छोटे-छोटे कामों में व्यस्त रख रही थी। मैंने दो-एक बार उससे हल्के-से मज़ाक़ करने का भी प्रयत्न किया जिससे तनाव हट जाए और मैं उससे ठीक से विदा लेकर जा सकूँ, मगर मिस पाल के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कराहट भी नहीं आयी।

“अच्छा तो मिस पाल, अब चलने की बात की जाए”, आख़िर मैंने कहा, “तुम कल कह रही थीं कि तुम भी कुल्लू तक साथ ही चलोगी। तो अच्छा होगा कि तुम आज ही वहाँ से अपना सारा सामान भी ले आओ। बाद में तुम फिर आलस कर जाओगी।”

“नहीं, मैं आलस नहीं करूँगी”, मिस पाल बोली, “किसी दिन जाकर जो-जो कुछ लाना है, सब ले आऊँगी।”

और फिर बरामदे में बिखरे हुए कपड़ों को बिना मतलब ही उठाकर इधर से उधर रखते हुए उसने कहा, “आज बरसात का दिन है, इसलिए आज नहीं जाऊँगी। कल या परसों किसी समय देखूँगी। लाने के लिए कितनी ही चीज़ें हैं, इसलिए अच्छी तरह सब सोचकर जाना चाहिए। आज घिरा हुआ दिन है, इसलिए आज नहीं…।”

“घिरा हुआ दिन है तो क्या घर का सामान नहीं आएगा?” मैंने अपने आग्रह से उसे सुलझाने की चेष्टा करते हुए कहा, “तुम मुझे बताओ कि घी और तारपीन के डिब्बे कहाँ रखे हैं। कोई बड़ा थैला हो तो वह भी साथ में ले लो। फुटकर चीज़ें उसमें आ जाएँगी। यहाँ से जो भी बस मिलेगी, उसमें हम लोग साथ-साथ चले चलेंगे। मैं कुल्लू से बारह बजे की बस पकड़कर आगे चला जाऊँगा। तुम्हें तो उधर से लौटने के लिए सारा दिन बसें मिलती रहेंगी।”

मैं जान-बूझकर इस तरह बात कर रहा था जैसे मिस पाल का साथ चलना निश्चित ही हो, हालाँकि मैं जानता था कि वह टालने का पूरा प्रयत्न करेगी। मिस पाल इधर से उधर जाती हुई ढूँढ-ढूँढकर अपने करने के लिए काम निकाल रही थी। उसके चेहरे से लग रहा था जैसे मेरी बातें उसे बिलकुल व्यर्थ लग रही हों और वह जल्द-अज़-जल्द अपने एकांत में लौट जाना चाहती हो।

“देखो, कभी-कभी यहाँ बस में एक भी सीट नहीं मिलती”, उसने कहा, “दो-दो सीटें मिलना तो बहुत ही मुश्किल है। तुम मेरी वजह से अपनी बारह बजे की बस क्यों मिस करते हो? तुम चले जाओ, मैं कल या परसों जाकर, जो कुछ भी मुझे लाना है, ले आऊँगी।” और जैसे सहसा कोई काम याद आ जाने से वह जल्दी से अपना चेहरा दूसरी तरफ़ हटाए हुए कमरे में चली गई। कुछ देर में वह पेटीकोट लिए हुए कमरे से बाहर आयी। पेटीकोट को टिड्डियाँ काट गई थीं। उसने जैसे नुक़सान की परेशानी की वजह से ही चेहरा सख़्त किए हुए उसे एक तरफ़ कोने में फेंक दिया और किसी तरह कठिनाई से बोली, “मैंने तुमसे कह दिया है कि तुम चले जाओ। तुम्हें पता है कि मुझे तो अकेली को ही दो सीटें चाहिए।”

“ये सब बहाने तुम रहने दो”, मैंने कहा, “एक बस में जगह नहीं मिलेगी तो दूसरी में मिल जाएगी। तुम इधर आकर मुझे बताओ कि वे डिब्बे कहाँ रखे हैं।”

मिस पाल शायद ज़्यादा बात नहीं करना चाहती थी, इसलिए उसने मेरी बात का विरोध नहीं किया।

“अच्छा तुम बैठो, मैं अभी ढूँढती हूँ।” उसने कहा और आँखें बचाती हुई रसोईघर में चली गई।

पहली बस में सचमुच हम लोगों को जगह नहीं मिली। ड्राइवर ने बस वहाँ रोकी ही नहीं, और हाथ के इशारे से कह दिया कि बस में जगह नहीं है। दूसरी बस में भी जगह नहीं थी, मगर किसी तरह कह-कहाकर हमने उसमें अपने लिए जगह बना ली। मगर हम कुल्लू काफ़ी देर से पहुँचे, क्योंकि रात की बरसात से एक जगह सड़क टूट गई थी और उसकी मरम्मत की जा रही थी। हमारे कुल्लू पहुँचने के लगभग साथ ही बारह बजे की बस भी मनाली से आ पहुँची। पौने बारह हो चुके थे। मैंने अंदर जाकर अपने सामान का पता किया, फिर बाहर मिस पाल के पास आ गया। मिस पाल ने ख़ाली डिब्बे अपने दोनों हाथों में सम्भाल रखे थे। मैं डिब्बे उसके हाथों से लेने लगा तो उसने अपने हाथ पीछे हटा लिए।

“चलो, पहले बाज़ार में चलकर तुम्हारा सामान ख़रीद लें”, मैंने कहा।

“अब सामान की बात रहने दो।” उसने कहा, “तुम्हारी बस आ गई है, तुम इसमें चले जाओ। सामान तो मैं किसी भी समय ख़रीद लूँगी। तुम्हें इसके बाद फिर किसी बस में जगह नहीं मिलेगी। दो बजे की बस मनाली से ही भरी हुई आती है। तुम्हारा एक दिन और यहाँ ख़राब होगा।”

“दिन ख़राब होने की क्या बात है।” मैंने कहा, “पहले चलकर बाज़ार से सामान ख़रीद लेते हैं। अगर आज सचमुच किसी बस में जगह नहीं मिली तो मैं तुम्हारे साथ लौट चलूँगा और कल किसी बस से चला जाऊँगा। मुझे वापस पहुँचने की ऐसी कोई जल्दी नहीं है।”

“नहीं तुम चले जाओ”, मिस पाल हठ के साथ बोली, “अपने लिए ख़ामख़ाह मैं तुम्हें क्यों परेशान करूँ? अपना सामान तो मैं जब कभी भी ले लूँगी।”

“मगर मुझे लगता है कि आज तुम ये डिब्बे इसी तरह लिए हुए ही लौट जाओगी।”

“अरे नहीं”, मिस पाल की आँखें उमड़ आयीं और वह अपने आँसुओं को रोकने के लिए दूसरी तरफ़ देखने लगी, “तुम समझते हो मैं अपने शरीर की देखभाल ही नहीं करती। अगर न करती तो यह इतना शरीर ऐसे ही होता?… लाओ, पैसे दो मैं तुम्हारा टिकट ले आती हूँ। देर करोगे तो इस बस में भी जगह नहीं मिलेगी।”

“तुम इस तरह ज़िद क्यों करती हो मिस पाल? मुझे जाने की सचमुच ऐसी कोई जल्दी नहीं है।” मैंने कहा।

“मैंने तुमसे कहा है, तुम पैसे निकालो, मैं तुम्हारा टिकट ले आ…। मगर नहीं, तुम रहने दो। कल का तुम्हारा टिकट मेरी वजह से ख़राब हुआ था। मैं फिर तुमसे पैसे किसलिए माँग रही हूँ?”

और वह डिब्बे वहीं रखकर झटपट टिकटघर की तरफ़ बढ़ गई।

“ठहरो, मिस पाल”, मैंने असमंजस में अपना बटुआ जेब से निकाल लिया।

“तुम रुको, मैं अभी आ रही हूँ। तुम उतनी देर में अपना सामान निकलवाकर ऊपर रखवाओ।”

मेरा मन उस समय न जाने कैसा हो रहा था, फिर भी मैंने अंदर से अपना सामान निकलवाया और बस की छत पर रखवा दिया। मिस पाल तब तक टिकटघर के बाहर ही खड़ी थी। शनिवार होने के कारण उस दिन स्कूल में जल्दी छुट्टी हो गई थी और बहुत-से बच्चे बस्ते लटकाए सुल्तानपुर की पहाड़ी से नीचे आ रहे थे। कई बच्चे बस की सवारियों को देखने के लिए वहाँ आसपास जमा हो रहे थे। मिस पाल उस समय प्याज़ी रंग की सलवार-कमीज़ पहने थी और ऊपर काला दुपट्‌टा लिए थी। उन कपड़ों की वजह से उसका शरीर पीछे से और भी फैला हुआ लगता था। बच्चे एक-दूसरे से आगे होते हुए टिकटघर के नज़दीक जाने लगे। मिस पाल टिकटघर की खिड़की पर झुकी हुई थी। एक लड़के ने धीरे-से आवाज़ लगायी, “कमाल है भई कमाल है!”

इस पर आसपास खड़े बहुत-से बच्चे हँस दिए। मुझे लगा जैसे किसी ने मेरे भारी मन पर एक और बड़ा पत्थर डाल दिया हो। बच्चे सबके सब टिकटघर के आसपास जमा हो गए थे और आपस में खुसर-पुसर कर रहे थे। मैं उनसे कुछ कह भी नहीं सकता था, क्योंकि उससे मिस पाल का ध्यान ख़ामख़ाह उनकी तरफ़ चला जाता। मैं उधर से अपना ध्यान हटाकर दरिया की तरफ़ से आते हुए लोगों को देखने लगा। फिर भी बच्चों की खुसर-पुसर मेरे कानों में पड़ती रही। दो लड़कियाँ बहुत धीरे-धीरे आपस में बात कर रही थीं, “मर्द है।”

“नहीं, औरत है।”

“तू सिर के बाल देख, बाक़ी शरीर देख। मर्द है।”

“तू कपड़े देख, और सब कुछ देख। औरत है।”

“आओ, बच्चो आओ, पास आकर देखो”, मिस पाल की आवाज़ से मैं जैसे चौंक गया। मिस पाल टिकट लेकर खिड़की से हट आयी थी। बच्चे उसे आते देखकर ‘आ गई, आ गई’ कहते भाग खड़े हुए। एक बच्चे ने सड़क के उस तरफ़ जाकर फिर ज़ोर से आवाज़ लगायी, “कमाल है भई कमाल है !”

मिस पाल सड़क पर आकर कई क़दम बच्चों के पीछे चली गई।

“आओ बच्चों, यहाँ हमारे पास आओ”, वह कहती रही, “हम तुम्हें मारेंगे नहीं, टॉफ़ियाँ देंगे। आओ…”

मगर बच्चे पास आने के बजाय और भी दूर भाग गए। मिस पाल कुछ देर सड़क के बीच रुकी रही, फिर लौटकर मेरे पास आ गई। उस समय उसके चेहरे का भाव बहुत विचित्र लग रहा था। उसकी आँखों में आए हुए आँसू नीचे गिरने को हो रहे थे और उन्हें झुठलाने के लिए एक फीकी हँसी का प्रयत्न कर रही थी। उसने अपने ओठों को जाने किस तरह काटा था कि एकाध जगह से उसकी लिपस्टिक नीचे फैल गई थी। उसकी घिसी हुई कमीज़ की सीवनें कंधे के पास से खुल रही थीं।

“ख़ूबसूरत बच्चे थे, नहीं?” उसने आँखें झपकाते हुए कहा।

मैंने उसकी बात का समर्थन करने के लिए सिर हिलाया तो मुझे लगा कि मेरा सिर पत्थर की तरह भारी हो गया है। उसके बाद मेरी समझ में कुछ नहीं आया कि मिस पाल मुझसे क्या कह रही है और मैं उससे क्या बात कर रहा हूँ; जैसे आँखों और शब्दों के साथ विचारों का कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा था। मुझे इतना याद है कि मैंने मिस पाल को टिकट के पैसे देने का प्रयत्न किया, मगर वह पीछे हट गई और मेरे बहुत अनुरोध करने पर भी उसने पैसे नहीं लिए। मगर किस अवचेतन प्रक्रिया से हम लोगों के बीच अब तक बातचीत का सूत्र बना रहा, यह मैं नहीं जान सका। मेरे कान उसे बोलते सुन रहे थे और अपने को भी। परन्तु वे जैसे दूर की ध्वनियाँ थीं—अस्फुट, अस्पष्ट और अर्थहीन। जो बात मैं ठीक से सुन सका वह यही थी, “और वहाँ जाकर रणजीत, दफ़्तर में मेरे बारे में किसी से बात मत करना। समझे? तुम्हें पता ही है कि वे लोग कितने ओछे हैं। बल्कि अच्छा होगा कि तुम किसी को यह भी न बताओ कि तुम मुझे यहाँ मिले थे। मैं नहीं चाहती कि वहाँ कोई भी मेरे बारे में कुछ जाने या बात करे। समझे।”

बस तब स्टार्ट हो रही थी और मैं खिड़की से झाँककर मिस पाल को देख रहा था। बस चली तो मिस पाल हाथ हिलाने लगी। दोनों ख़ाली डिब्बे वह अपने हाथों में लिए हुए थी। मैंने भी एक बार उसकी तरफ़ हाथ हिलाया और बस के मुड़ने तक हिलते हुए ख़ाली डिब्बों को ही देखता रहा।

Sunday, January 7, 2024

पाजेब - जैनेंद्र कुमार


बाजार में एक नई तरह की पाजेब चली है। पैरों में पड़कर वे बड़ी अच्छी मालूम होती हैं। उनकी कड़ियां आपस में लचक के साथ जुड़ी रहती हैं कि पाजेब का मानो निज का आकार कुछ नहीं है, जिस पांव में पड़े उसी के अनुकूल ही रहती हैं।

पास-पड़ोस में तो सब नन्हीं-बड़ी के पैरों में आप वही पाजेब देख लीजिए। एक ने पहनी कि फिर दूसरी ने भी पहनी। देखा-देखी में इस तरह उनका न पहनना मुश्किल हो गया है।

हमारी मुन्नी ने भी कहा कि बाबूजी, हम पाजेब पहनेंगे। बोलिए भला कठिनाई से चार बरस की उम्र और पाजेब पहनेगी।

मैंने कहा, कैसी पाजेब?

बोली, वही जैसी रुकमन पहनती है, जैसी शीला पहनती है।

मैंने कहा, अच्छा-अच्छा।

बोली, मैं तो आज ही मंगा लूंगी।

मैंने कहा, अच्छा भाई आज सही।

उस वक्त तो खैर मुन्नी किसी काम में बहल गई। लेकिन जब दोपहर आई मुन्नी की बुआ, तब वह मुन्नी सहज मानने वाली न थी।

बुआ ने मुन्नी को मिठाई खिलाई और गोद में लिया और कहा कि अच्छा, तो तेरी पाजेब अबके इतवार को जरूर लेती आऊंगी।

इतवार को बुआ आई और पाजेब ले आई। मुन्नी पहनकर खुशी के मारे यहां-से-वहां ठुमकती फिरी। रुकमन के पास गई और कहा-देख रुकमन, मेरी पाजेब। शीला को भी अपनी पाजेब दिखाई। सबने पाजेब पहनी देखकर उसे प्यार किया और तारीफ की। सचमुच वह चांदी कि सफेद दो-तीन लड़ियां-सी टखनों के चारों ओर लिपटकर, चुपचाप बिछी हुई, बहुत ही सुघड़ लगती थी, और बच्ची की खुशी का ठिकाना न था।

और हमारे महाशय आशुतोष, जो मुन्नी के बड़े भाई थे, पहले तो मुन्नी को सजी-बजी देखकर बड़े खुश हुए। वह हाथ पकड़कर अपनी बढ़िया मुन्नी को पाजेब-सहित दिखाने के लिए आस-पास ले गए। मुन्नी की पाजेब का गौरव उन्हें अपना भी मालूम होता था। वह खूब हँसे और ताली पीटी, लेकिन थोड़ी देर बाद वह ठुमकने लगे कि मुन्नी को पाजेब दी, सो हम भी बाईसिकिल लेंगे।

बुआ ने कहा कि अच्छा बेटा अबके जन्म-दिन को तुझे बाईसिकिल दिलवाएंगे।

आशुतोष बाबू ने कहा कि हम तो अभी लेंगे।

बुआ ने कहा, ‘छी-छी, तू कोई लड़की है? जिद तो लड़कियाँ किया करती हैं। और लड़कियाँ रोती हैं। कहीं बाबू साहब लोग रोते हैं?”

आशुतोष बाबू ने कहा कि तो हम बाईसिकिल जरूर लेंगे जन्म-दिन वाले रोज।

बुआ ने कहा कि हां, यह बात पक्की रही, जन्म-दिन पर तुमको बाईसिकिल मिलेगी।

इस तरह वह इतवार का दिन हंसी-खुशी पूरा हुआ। शाम होने पर बच्चों की बुआ चली गई। पाजेब का शौक घड़ीभर का था। वह फिर उतारकर रख-रखा दी गई; जिससे कहीं खो न जाए। पाजेब वह बारीक और सुबुक काम की थी और खासे दाम लग गए थे।

श्रीमतीजी ने हमसे कहा, क्यों जी, लगती तो अच्छी है, मैं भी अपने लिए बनवा लूं?

मैंने कहा कि क्यों न बनावाओं! तुम कौन चार बरस की नहीं हो?

खैर, यह हुआ। पर मैं रात को अपनी मेज पर था कि श्रीमती ने आकर कहा कि तुमने पाजेब तो नहीं देखी?

मैंने आश्चर्य से कहा कि क्या मतलब?

बोली कि देखो, यहाँ मेज-वेज पर तो नहीं है? एक तो है पर दूसरे पैर की मिलती नहीं है। जाने कहां गई?

मैंने कहा कि जाएगी कहाँ? यहीं-कहीं देख लो। मिल जाएगी।

उन्होंने मेरे मेज के कागज उठाने-धरने शुरू किए और आलमारी की किताबें टटोल डालने का भी मनसूबा दिखाया।

मैंने कहा कि यह क्या कर रही हो? यहां वह कहाँ से आएगी?

जवाब में वह मुझी से पूछने लगी कि फिर कहाँ है?

मैंने कहा तुम्हीं ने तो रखी थी। कहाँ रखी थी?

बतलाने लगी कि दोपहर के बाद कोई दो बजे उतारकर दोनों को अच्छी तरह संभालकर उस नीचे वाले बाक्स में रख दी थीं। अब देखा तो एक है, दूसरी गायब है।

मैंने कहा कि तो चलकर वह इस कमरे में कैसे आ जाएगी? भूल हो गई होगी। एक रखी होगी, एक वहीं-कहीं फर्श पर छूट गई होगी। देखो, मिल जाएगी। कहीं जा नहीं सकती।

इस पर श्रीमती कहा-सुनी करने लगीं कि तुम तो ऐसे ही हो। खुद लापरवाह हो, दोष उल्टे मुझे देते हो। कह तो रही हूँ कि मैंने दोनों संभालकर रखी थीं।

मैंने कहा कि संभालकर रखी थीं, तो फिर यहां-वहां क्यों देख रही थी? जहां रखी थीं वहीं से ले लो न। वहां नहीं है तो फिर किसी ने निकाली ही होगी।

श्रीमती बोलीं कि मेरा भी यही ख्याल हो रहा है। हो न हो, बंसी नौकर ने निकाली हो। मैंने रखी, तब वह वहां मौजूद था।

मैंने कहा, तो उससे पूछा?

बोलीं, वह तो साफ इंकार कर रहा है।

मैंने कहा, तो फिर?

श्रीमती जोर से बोली, तो फिर मैं क्या बताऊं? तुम्हें तो किसी बात की फिकर है नही। डांटकर कहते क्यों नहीं हो, उस बंसी को बुलाकर? जरूर पाजेब उसी ने ली है।

मैंने कहा कि अच्छा, तो उसे क्या कहना होगा? यह कहूं कि ला भाई पाजेब दे दे!

श्रीमती झल्ला कर बोलीं कि हो चुका सब कुछ तुमसे। तुम्हीं ने तो उस नौकर की जात को शहजोर बना रखा है। डांट न फटकार, नौकर ऐसे सिर न चढ़ेगा तो क्या होगा?

बोलीं कि कह तो रही हूं कि किसी ने उसे बक्स से निकाला ही है। और सोलह में पंद्रह आने यह बंसी है। सुनते हो न, वही है।

मैंने कहा कि मैंने बंसी से पूछा था। उसने नहीं ली मालूम होती।

इस पर श्रीमती ने कहा कि तुम नौकरों को नहीं जानते। वे बड़े छंटे होते हैं। बंसी चोर जरूर है। नहीं तो क्या फरिश्ते लेने आते?

मैंने कहा कि तुमने आशुतोष से भी पूछा?

बोलीं, पूछा था। वह तो खुद ट्रंक और बक्स के नीचे घुस-घुसकर खोज लगाने में मेरी मदद करता रहा है। वह नहीं ले सकता।

मैंने कहा, उसे पतंग का बड़ा शौक है।

बोलीं कि तुम तो उसे बताते-बरजते कुछ हो नहीं। उमर होती जा रही है। वह यों ही रह जाएगा। तुम्हीं हो उसे पतंग की शह देने वाले।

मैंने कहा कि जो कहीं पाजेब ही पड़ी मिल गई हो तो?

बोलीं, नहीं, नहीं! मिलती तो वह बता न देता?

खैर, बातों-बातों में मालूम हुआ कि उस शाम आशुतोष पतंग और डोर का पिन्ना नया लाया है।

श्रीमती ने कहा कि यह तुम्हीं हो जिसने पतंग की उसे इजाजत दी। बस सारे दिन पतंग-पतंग। यह नहीं कि कभी उसे बिठाकर सबक की भी कोई बात पूछो। मैं सोचती हूँ कि एक दिन तोड़-ताड़ दूं उसकी सब डोर और पतंग।

मैंने कहा कि खैर; छोड़ो। कल सवेरे पूछ-ताछ करेंगे।

सवेरे बुलाकर मैंने गंभीरता से उससे पूछा कि क्यों बेटा, एक पाजेब नहीं मिल रही है, तुमने तो नहीं देखी?

वह गुम हो गया। जैसे नाराज हो। उसने सिर हिलाया कि उसने नहीं ली। पर मुंह नहीं खोला।

मैंने कहा कि देखो बेटे, ली हो तो कोई बात नहीं, सच बता देना चाहिए।

उसका मुँह और भी फूल आया। और वह गुम-सुम बैठा रहा।

मेरे मन में उस समय तरह-तरह के सिद्धांत आए। मैंने स्थिर किया कि अपराध के प्रति करुणा ही होनी चाहिए। रोष का अधिकार नहीं है। प्रेम से ही अपराध-वृति को जीता जा सकता है। आतंक से उसे दबाना ठीक नहीं है। बालक का स्वभाव कोमल होता है और सदा ही उससे स्नेह से व्यवहार करन चाहिए, इत्यादि।

मैंने कहा कि बेटा आशुतोष, तुम घबराओ नहीं। सच कहने में घबराना नहीं चाहिए। ली हो तो खुल कर कह दो, बेटा! हम कोई सच कहने की सजा थोड़े ही दे सकते हैं। बल्कि बोलने पर तो इनाम मिला करता है।

आशुतोष तब बैठा सुनता रहा। उसका मुंह सूजा था। वह सामने मेरी आँखों में नहीं देख रहा था। रह-रहकर उसके माथे पर बल पड़ते थे।

“क्यों बेटे, तुमने ली तो नहीं?”

उसने सिर हिलाकर क्रोध से अस्थिर और तेज आवाज में कहा कि मैंने नहीं ली, नहीं ली, नहीं ली। यह कहकर वह रोने को हो आया, पर रोया नहीं। आँखों में आँसू रोक लिए।

उस वक्त मुझे प्रतीत हुआ, उग्रता दोष का लक्षण है।

मैंने कहा, देखो बेटा, डरो नहीं; अच्छा जाओ, ढूंढो; शायद कहीं पड़ी हुई वह पाजेब मिल जाए। मिल जाएगी तो हम तुम्हें इनाम देंगे।

वह चला गया और दूसरे कमरे में जाकर पहले तो एक कोने में खड़ा हो गया। कुछ देर चुपचाप खड़े रहकर वह फिर यहां-वहां पाजेब की तलाश में लग गया।

श्रीमती आकर बोलीं, आशू से तुमने पूछ लिया? क्या ख्याल है?

मैंने कहा कि संदेह तो मुझे होता है। नौकर का तो काम यह है नहीं!

श्रीमती ने कहा, नहीं जी, आशू भला क्यों लेगा?

मैं कुछ बोला नहीं। मेरा मन जाने कैसे गंभीर प्रेम के भाव से आशुतोष के प्रति उमड़ रहा था। मुझे ऐसा मालूम होता था कि ठीक इस समय आशुतोष को हमें अपनी सहानुभूति से वंचित नहीं करना चाहिए। बल्कि कुछ अतिरिक्त स्नेह इस समय बालक को मिलना चाहिए। मुझे यह एक भारी दुर्घटना मालूम होती थी। मालूम होता था कि अगर आशुतोष ने चोरी की है तो उसका इतना दोष नहीं है; बल्कि यह हमारे ऊपर बड़ा भारी इल्जाम है। बच्चे में चोरी की आदत भयावह हो सकती है, लेकिन बच्चे के लिए वैसी लाचारी उपस्थित हो आई, यह और भी कहीं भयावह है। यह हमारी आलोचना है। हम उस चोरी से बरी नहीं हो सकते।

मैंने बुलाकर कहा, “अच्छा सुनो। देखो, मेरी तरफ देखो, यह बताओ कि पाजेब तुमने छुन्नू को दी है न?”

वह कुछ देर कुछ नहीं बोला। उसके चेहरे पर रंग आया और गया। मैं एक-एक छाया ताड़ना चाहता था।

मैंने आश्वासन देते हुए कहा कि डरने की कोई बात नहीं। हाँ, हाँ, बोलो डरो नहीं। ठीक बताओ, बेटे ! कैसा हमारा सच्चा बेटा है!

मानो बड़ी कठिनाई के बाद उसने अपना सिर हिलाया।

मैंने बहुत खुश होकर कहा कि दी है न छुन्नू को ?

उसने सिर हिला दिया।

अत्यंत सांत्वना के स्वर में स्नेहपूर्वक मैंने कहा कि मुंह से बोलो। छुन्नू को दी है?

उसने कहा, “हाँ-आँ।”

मैंने अत्यंत हर्ष के साथ दोनों बाँहों में लेकर उसे उठा लिया। कहा कि ऐसे ही बोल दिया करते हैं अच्छे लड़के। आशू हमारा राजा बेटा है। गर्व के भाव से उसे गोद में लिए-लिए मैं उसकी माँ की तरफ गया। उल्लासपूर्वक बोला कि देखो हमारे बेटे ने सच कबूल किया है। पाजेब उसने छुन्नू को दी है।

सुनकर माँ उसकी बहुत खुश हो आईं। उन्होंने उसे चूमा। बहुत शाबाशी दी ओर उसकी बलैयां लेने लगी !

आशुतोष भी मुस्करा आया, अगरचे एक उदासी भी उसके चेहरे से दूर नहीं हुई थी।

उसके बाद अलग ले जाकर मैंने बड़े प्रेम से पूछा कि पाजेब छुन्नू के पास है न? जाओ, माँग ला सकते हो उससे?

आशुतोष मेरी ओर देखता हुआ बैठा रहा। मैंने कहा कि जाओ बेटे! ले आओ।

उसने जवाब में मुंह नहीं खोला।

मैंने आग्रह किया तो वह बोला कि छुन्नू के पास नहीं हुई तो वह कहाँ से देगा ?

मैंने कहा कि तो जिसको उसने दी होगी उसका नाम बता देगा। सुनकर वह चुप हो गया। मेरे बार-बार कहने पर वह यही कहता रहा कि पाजेब छुन्नू के पास न हुई तो वह देगा कहाँ से ?

अंत में हारकर मैंने कहा कि वह कहीं तो होगी। अच्छा, तुमने कहाँ से उठाई थी ?

“पड़ी मिली थी ।”

“और फिर नीचे जाकर वह तुमने छुन्नू को दिखाई ?”

“हाँ !”

“फिर उसी ने कहा कि इसे बेचेंगे !”

“हाँ !”

“कहाँ बेचने को कहा ?”

“कहा मिठाई लाएंगे ?”

“नहीं, पतंग लाएंगे ?”

“हाँ!”

“सो पाजेब छुन्नू के पास रह गई ?”

“हाँ !”

“तो उसी के पास होनी चाहिए न ! या पतंग वाले के पास होगी ! जाओ, बेटा, उससे ले आओ। कहना, हमारे बाबूजी तुम्हें इनाम देंगे।

वह जाना नहीं चाहता था। उसने फिर कहा कि छुन्नू के पास नहीं हुई तो कहाँ से देगा !

मुझे उसकी जिद बुरी मालूम हुई। मैंने कहा कि तो कहीं तुमने उसे गाड़ दिया है? क्या किया है? बोलते क्यों नहीं?

वह मेरी ओर देखता रहा, और कुछ नहीं बोला।

मैंने कहा, कुछ कहते क्यों नहीं?

वह गुम-सुम रह गया। और नहीं बोला।

मैंने डपटकर कहा कि जाओ, जहाँ हो वही से पाजेब लेकर आओ।

जब वह अपनी जगह से नहीं उठा और नहीं गया तो मैंने उसे कान पकड़कर उठाया। कहा कि सुनते हो ? जाओ, पाजेब लेकर आओ। नहीं तो घर में तुम्हारा काम नहीं है।

उस तरह उठाया जाकर वह उठ गया और कमरे से बाहर निकल गया । निकलकर बरामदे के एक कोने में रूठा मुंह बनाकर खड़ा रह गया ।

मुझे बड़ा क्षोभ हो रहा था। यह लड़का सच बोलकर अब किस बात से घबरा रहा है, यह मैं कुछ समझ न सका। मैंने बाहर आकर धीरे से कहा कि जाओ भाई, जाकर छुन्नू से कहते क्यों नहीं हो?

पहले तो उसने कोई जवाब नहीं दिया और जवाब दिया तो बार-बार कहने लगा कि छुन्नू के पास नहीं हुई तो वह कहाँ से देगा?

मैंने कहा कि जितने में उसने बेची होगी वह दाम दे देंगे। समझे न जाओ, तुम कहो तो।

छुन्नू की माँ तो कह रही है कि उसका लड़का ऐसा काम नहीं कर सकता। उसने पाजेब नहीं देखी।

जिस पर आशुतोष की माँ ने कहा कि नहीं तुम्हारा छुन्नू झूठ बोलता है। क्यों रे आशुतोष, तैने दी थी न?

आशुतोष ने धीरे से कहा, हाँ, दी थी।

दूसरे ओर से छुन्नू बढ़कर आया और हाथ फटकारकर बोला कि मुझे नहीं दी। क्यों रे, मुझे कब दी थी ?

आशुतोष ने जिद बांधकर कहा कि दी तो थी। कह दो, नहीं दी थी ?

नतीजा यह हुआ कि छुन्नू की माँ ने छुन्नू को खूब पीटा और खुद भी रोने लगी। कहती जाती कि हाय रे, अब हम चोर हो गए। कुलच्छनी औलाद जाने कब मिटेगी ?

बात दूर तक फैल चली। पड़ोस की स्त्रियों में पवन पड़ने लगी। और श्रीमती ने घर लौटकर कहा कि छुन्नू और उसकी माँ दोनों एक-से हैं। मैंने कहा कि तुमने तेजा-तेजी क्यों कर डाली? ऐसी कोई बात भला सुलझती है !

बोली कि हाँ, मैं तेज बोलती हूँ। अब जाओ ना, तुम्हीं उनके पास से पाजेब निकालकर लाते क्यों नहीं ? तब जानूँ, जब पाजेब निकलवा दो।

मैंने कहा कि पाजेब से बढ़कर शांति है । और अशांति से तो पाजेब मिल नहीं जाएगी।

श्रीमती बुदबुदाती हुई नाराज होकर मेरे सामने से चली गईं ।

थोड़ी देर बाद छुन्नू की माँ हमारे घर आई । श्रीमती उन्हें लाई थी। अब उनके बीच गर्मी नहीं थी, उन्होंने मेरे सामने आकर कहा कि छुन्नू तो पाजेब के लिए इनकार करता है। वह पाजेब कितने की थी, मैं उसके दाम भर सकती हूँ।

मैंने कहा, “यह आप क्या कहती है! बच्चे बच्चे हैं। आपने छुन्नू से सहूलियत से पूछा भी !”

उन्होंने उसी समय छुन्नू को बुलाकर मेरे सामने कर दिया। कहा कि क्यों रे, बता क्यों नहीं देता जो तैने पाजेब देखी हो ?

छुन्नू ने जोर से सिर हिलाकर इनकार किया। और बताया कि पाजेब आशुतोष के हाथ में मैंने देखी थी और वह पतंग वालों को दे आया है। मैंने खूब देखी थी, वह चाँदी की थी।

“तुम्हें ठीक मालूम है ?”

“हाँ, वह मुझसे कह रहा था कि तू भी चल। पतंग लाएंगे।”

“पाजेब कितनी बड़ी थी? बताओ तो ।”

छुन्नू ने उसका आकार बताया, जो ठीक ही था।

मैंने उसकी माँ की तरफ देखकर कहा देखिए न पहले यही कहता था कि मैंने पाजेब देखी तक नहीं। अब कहता है कि देखी है ।

माँ ने मेरे सामने छुन्नू को खींचकर तभी धम्म-धम्म पीटना शुरू कर दिया। कहा कि क्यों रे, झूठ बोलता है ? तेरी चमड़ी न उधेड़ी तो मैं नहीं।

मैंने बीच-बचाव करके छुन्नू को बचाया। वह शहीद की भांति पिटता रहा था। रोया बिल्कुल नहीं और एक कोने में खड़े आशुतोष को जाने किस भाव से देख रहा था।

खैर, मैंने सबको छुट्टी दी। कहा, जाओ बेटा छुन्नू खेलो। उसकी माँ को कहा, आप उसे मारिएगा नहीं। और पाजेब कोई ऐसी बड़ी चीज़ नहीं है।

छुन्नू चला गया। तब, उसकी माँ ने पूछा कि आप उसे कसूरवर समझतें हैं ?

मैंने कहा कि मालूम तो होता है कि उसे कुछ पता है। और वह मामले में शामिल है।

इस पर छुन्नू की माँ ने पास बैठी हुई मेरी पत्नी से कहा, “चलो बहनजी, मैं तुम्हें अपना सारा घर दिखाए देती हूँ। एक-एक चीज देख लो। होगी पाजेब तो जाएगी कहाँ ?”

मैंने कहा, “छोड़िए भी। बेबात को बात बढ़ाने से क्या फायदा ।” सो ज्यों-त्यों मैंने उन्हें दिलासा दिया। नहीं तो वह छुन्नू को पीट-पाट हाल-बेहाल कर डालने का प्रण ही उठाए ले रही थी। कुलच्छनी, आज उसी धरती में नहीं गाड़ दिया तो, मेरा नाम नहीं ।

खैर, जिस-तिस भांति बखेड़ा टाला। मैं इस झंझट में दफ्तर भी समय पर नहीं जा सका। जाते वक्त श्रीमती को कह गया कि देखो, आशुतोष को धमकाना मत। प्यार से सारी बातें पूछना। धमकाने से बच्चे बिगड़ जाते हैं, और हाथ कुछ नहीं आता। समझी न ?

शाम को दफ्तर से लौटा तो श्रीमती से सूचना दी कि आशुतोष ने सब बतला दिया है। ग्यारह आने पैसे में वह पाजेब पतंग वाले को दे दी है। पैसे उसने थोड़े-थोड़े करके देने को कहे हैं। पाँच आने जो दिए वह छुन्नू के पास हैं। इस तरह रत्ती-रत्ती बात उसने कह दी है ।

कहने लगी कि मैंने बड़े प्यार से पूछ-पूछकर यह सब उसके पेट में से निकाला है। दो-तीन घंटे में मगज़ मारती रही। हाय राम, बच्चे का भी क्या जी होता है।

मैं सुनकर खुश हुआ। मैंने कहा कि चलो अच्छा है, अब पाँच आने भेजकर पाजेब मँगवा लेंगे। लेकिन यह पतंग वाला भी कितना बदमाश है, बच्चों के हाथ से ऐसी चीज़ें लेता है। उसे पुलिस में दे देना चाहिए । उचक्का कहीं का !

फिर मैंने पूछा कि आशुतोष कहाँ है?

उन्होंने बताया कि बाहर ही कहीं खेल-खाल रहा होगा।

मैंने कहा कि बंसी, जाकर उसे बुला तो लाओ।

बंसी गया और उसने आकर कहा कि वे अभी आते हैं।

“क्या कर रहा है ?”

“छुन्नू के साथ गिल्ली डंडा खेल रहे हैं ।”

थोड़ी देर में आशुतोष आया । तब मैंने उसे गोद में लेकर प्यार किया । आते-आते उसका चेहरा उदास हो गया और गोद में लेने पर भी वह कोई विशेष प्रसन्न नहीं मालूम नहीं हुआ।

उसकी माँ ने खुश होकर कहा कि आशुतोष ने सब बातें अपने आप पूरी-पूरी बता दी हैं। हमारा आशुतोष बड़ा सच्चा लड़का है ।

आशुतोष मेरी गोद में टिका रहा। लेकिन अपनी बड़ाई सुनकर भी उसको कुछ हर्ष नहीं हुआ, ऐसा प्रतीत होता था।

मैंने कहा कि आओ चलो । अब क्या बात है। क्यों हज़रत, तुमको पाँच ही आने तो मिले हैं न ? हम से पाँच आने माँग लेते तो क्या हम न देते? सुनो, अब से ऐसा मत करना, बेटे !

कमरे में जाकर मैंने उससे फिर पूछताछ की, “क्यों बेटा, पतंग वाले ने पाँच आने तुम्हें दिए न ?”

“हाँ”!

“और वह छुन्नू के पास हैं न!”

“हाँ!”

“अभी तो उसके पास होंगे न !”

“नहीं”

“खर्च कर दिए !”

“नहीं”

“नहीं खर्च किए?”

“हाँ”

“खर्च किए, कि नहीं खर्च किए ?”

उस ओर से प्रश्न करने वह मेरी ओर देखता रहा, उत्तर नहीं दिया।

“बताओं खर्च कर दिए कि अभी हैं ?”

जवाब में उसने एक बार ‘हाँ’ कहा तो दूसरी बात ‘नहीं’ कहा।

मैंने कहा, तो यह क्यों नहीं कहते कि तुम्हें नहीं मालूम है ?

“हाँ।”

“बेटा, मालूम है न ?”

“हाँ।”

पतंग वाले से पैसे छुन्नू ने लिए हैं न?

“हाँ”

“तुमने क्यों नहीं लिए ?”

वह चुप।

“इकन्नियां कितनी थी, बोलो ?”

“दो।”

“बाकी पैसे थे ?”

“हाँ”

“दुअन्नी थी!”

“हाँ ।”

मुझे क्रोध आने लगा। डपटकर कहा कि सच क्यों नहीं बोलते जी ? सच बताओ कितनी इकन्नियां थी और कितना क्या था ।”

वह गुम-सुम खड़ा रहा, कुछ नहीं बोला।

“बोलते क्यों नहीं ?”

वह नहीं बोला।

“सुनते हो ! बोला-नहीं तो—”

आशुतोष डर गया। और कुछ नहीं बोला।

“सुनते नहीं, मैं क्या कह रहा हूँ?”

इस बार भी वह नहीं बोला तो मैंने कान पकड़कर उसके कान खींच लिए। वह बिना आँसू लाए गुम-सुम खड़ा रहा।

“अब भी नहीं बोलोगे ?”

वह डर के मारे पीला हो आया। लेकिन बोल नहीं सका। मैंने जोर से बुलाया “बंसी यहाँ आओ, इनको ले जाकर कोठरी में बंद कर दो ।”

बंसी नौकर उसे उठाकर ले गया और कोठरी में मूंद दिया।

दस मिनट बाद फिर उसे पास बुलवाया। उसका मुँह सूजा हुआ था। बिना कुछ बोले उसके ओंठ हिल रहे थे। कोठरी में बंद होकर भी वह रोया नहीं।

मैंने कहा, “क्यों रे, अब तो अकल आई ?”

वह सुनता हुआ गुम-सुम खड़ा रहा।

“अच्छा, पतंग वाला कौन सा है ? दाई तरफ का चौराहे वाला ?”

उसने कुछ ओठों में ही बड़बड़ा दिया। जिसे मैं कुछ समझ न सका ।

“वह चौराहे वाला ? बोलो—”

“हाँ।”

“देखो, अपने चाचा के साथ चले जाओ। बता देना कि कौन सा है। फिर उसे स्वयं भुगत लेंगे। समझते हो न ?”

यह कहकर मैंने अपने भाई को बुलवाया। सब बात समझाकर कहा, “देखो, पाँच आने के पैसे ले जाओ। पहले तुम दूर रहना। आशुतोष पैसे ले जाकर उसे देगा और अपनी पाजेब माँगेगा। अव्वल तो यह पाजेब लौटा ही देगा। नहीं तो उसे डांटना और कहना कि तुझे पुलिस के सुपुर्द कर दूंगा। बच्चों से माल ठगता है ? समझे ? नरमी की जरूरत नहीं हैं।”

“और आशुतोष, अब जाओ। अपने चाचा के साथ जाओ।” वह अपनी जगह पर खड़ा था। सुनकर भी टस-से-मस होता दिखाई नहीं दिया।

“नहीं जाओगे!”

उसने सिर हिला दिया कि नहीं जाऊंगा।

मैंने तब उसे समझाकर कहा कि “भैया घर की चीज है, दाम लगे हैं। भला पाँच आने में रुपयों का माल किसी के हाथ खो दोगे ! जाओ, चाचा के संग जाओ। तुम्हें कुछ नहीं कहना होगा। हाँ, पैसे दे देना और अपनी चीज वापस माँग लेना। दे तो दे, नहीं दे तो नहीं दे । तुम्हारा इससे कोई सरोकार नहीं। सच है न, बेटे ! अब जाओ।”

पर वह जाने को तैयार ही नहीं दिखा। मुझे लड़के की गुस्ताखी पर बड़ा बुरा मालूम हुआ। बोला, “इसमें बात क्या है? इसमें मुश्किल कहाँ है? समझाकर बात कर रहे है सो समझता ही नहीं, सुनता ही नहीं।”

मैंने कहा कि, “क्यों रे नहीं जाएगा?”

उसने फिर सिर हिला दिया कि नहीं जाऊंगा।

मैंने प्रकाश, अपने छोटे भाई को बुलाया। कहा, “प्रकाश, इसे पकड़कर ले जाओ।”

प्रकाश ने उसे पकड़ा और आशुतोष अपने हाथ-पैरों से उसका प्रतिकार करने लगा। वह साथ जाना नहीं चाहता था।

मैंने अपने ऊपर बहुत जब्र करके फिर आशुतोष को पुचकारा, कि जाओ भाई! डरो नहीं। अपनी चीज घर में आएगी। इतनी-सी बात समझते नहीं। प्रकाश इसे गोद में उठाकर ले जाओ और जो चीज माँगे उसे बाजार में दिला देना। जाओ भाई आशुतोष !

पर उसका मुंह फूला हुआ था। जैसे-तैसे बहुत समझाने पर वह प्रकाश के साथ चला। ऐसे चला मानो पैर उठाना उसे भारी हो रहा हो। आठ बरस का यह लड़का होने को आया फिर भी देखो न कि किसी भी बात की उसमें समझ नहीं हैं। मुझे जो गुस्सा आया कि क्या बतलाऊं! लेकिन यह याद करके कि गुस्से से बच्चे संभलने की जगह बिगड़ते हैं, मैं अपने को दबाता चला गया। खैर, वह गया तो मैंने चैन की सांस ली।

लेकिन देखता क्या हूँ कि कुछ देर में प्रकाश लौट आया है।

मैंने पूछा, “क्यों?”

बोला कि आशुतोष भाग आया है।

मैंने कहा कि “अब वह कहाँ है?”

“वह रूठा खड़ा है, घर में नहीं आता।”

“जाओ, पकड़कर तो लाओ।”

वह पकड़ा हुआ आया। मैंने कहा, “क्यों रे, तू शरारत से बाज नहीं आएगा? बोल, जाएगा कि नहीं?”

वह नहीं बोला तो मैंने कसकर उसके दो चांटे दिए। थप्पड़ लगते ही वह एक दम चीखा, पर फौरन चुप हो गया। वह वैसे ही मेरे सामने खड़ा रहा।

मैंने उसे देखकर मारे गुस्से से कहा कि ले जाओ इसे मेरे सामने से। जाकर कोठरी में बंद कर दो। दुष्ट!

इस बार वह आध-एक घंटे बंद रहा। मुझे ख्याल आया कि मैं ठीक नहीं कर रहा हूँ, लेकिन जैसे कोई दूसरा रास्ता न दिखता था। मार-पीटकर मन को ठिकाना देने की आदत पड़ कई थी, और कुछ अभ्यास न था।

खैर, मैंने इस बीच प्रकाश को कहा कि तुम दोनों पतंग वाले के पास जाओ।

मालूम करना कि किसने पाजेब ली है। होशियारी से मालूम करना। मालूम होने पर सख्ती करना। मुरव्वत की जरूरत नहीं। समझे।

प्रकाश गया और लौटने पर बताया कि उसके पास पाजेब नहीं है।

सुनकर मैं झल्ला आया, कहा कि तुमसे कुछ काम नहीं हो सकता। जरा सी बात नहीं हुई, तुमसे क्या उम्मीद रखी जाए?

वह अपनी सफाई देने लगा। मैंने कहा, “बस, तुम जाओ।”

प्रकाश मेरा बहुत लिहाज मानता था। वह मुंह डालकर चला गया। कोठरी खुलवाने पर आशुतोष को फर्श पर सोता पाया। उसके चेहरे पर अब भी आँसू नहीं थे। सच पूछो तो मुझे उस समय बालक पर करुणा हुई । लेकिन आदमी में एक ही साथ जाने क्या-क्या विरोधी भाव उठते हैं !

मैंने उसे जगाया। वह हड़बड़ाकर उठा। मैंने कहा, “कहो, क्या हालत है?”

थोड़ी देर तक वह समझा ही नहीं। फिर शायद पिछला सिलसिला याद आया।

झट उसके चेहरे पर वहीं जिद, अकड़ ओर प्रतिरोध के भाव दिखाई देने लगे।

मैंने कहा कि या तो राजी-राजी चले जाओ नहीं तो इस कोठरी में फिर बंद किए देते हैं।

आशुतोष पर इसका विशेष प्रभाव पड़ा हो, ऐसा मालूम नहीं हुआ।

खैर, उसे पकड़कर लाया और समझाने लगा। मैंने निकालकर उसे एक रुपया दिया और कहा, “बेटा, इसे पतंग वाले को दे देना और पाजेब माँग लेना कोई घबराने की बात नहीं। तुम समझदार लड़के हो।”

उसने कहा कि जो पाजेब उसके पास नहीं हुई तो वह कहाँ से देगा?

“इसका क्या मतलब, तुमने कहा न कि पाँच आने में पाजेब दी है। न हो तो छुन्नू को भी साथ ले लेना। समझे?”

वह चुप हो गया। आखिर समझाने पर जाने को तैयार हुआ। मैंने प्रेमपूर्वक उसे प्रकाश के साथ जाने को कहा। उसका मुँह भारी देखकर डांटने वाला ही था कि इतने में सामने उसकी बुआ दिखाई दी।

बुआ ने आशुतोष के सिर पर हाथ रखकर पूछा कि कहाँ जा रहे हो, मैं तो तुम्हारे लिए केले और मिठाई लाई हूँ।

आशुतोष का चेहरा रूठा ही रहा। मैंने बुआ से कहा कि उसे रोको मत, जाने दो।

आशुतोष रुकने को उद्यत था। वह चलने में आनाकानी दिखाने लगा। बुआ ने पूछा, “क्या बात है?”

मैंने कहा, “कोई बात नहीं, जाने दो न उसे।”

पर आशुतोष मचलने पर आ गया था। मैंने डांटकर कहा, “प्रकाश, इसे ले क्यों नहीं जाते हो?”

बुआ ने कहा कि बात क्या है? क्या बात है?

मैंने पुकारा, “बंसी, तू भी साथ जा। बीच से लौटने न पाए।” सो मेरे आदेश पर दोनों आशुतोष को जबरदस्ती उठाकर सामने से ले गए। बुआ ने कहा, “क्यों उसे सता रहे हो?”

मैंने कहा कि कुछ नहीं, जरा यों ही-

फिर मैं उनके साथ इधर-उधर की बातें ले बैठा। राजनीति राष्ट्र की ही नहीं होती, मुहल्ले में भी राजनीति होती है। यह भार स्त्रियों पर टिकता है। कहाँ क्या हुआ, क्या होना चाहिए इत्यादि चर्चा स्त्रियों को लेकर रंग फैलाती है। इसी प्रकार कुछ बातें हुईं, फिर छोटा-सा बक्सा सरका कर बोली, इनमें वह कागज है जो तुमने माँगें थे। और यहाँ-

यह कहकर उन्होंने अपने बास्कट की जेब में हाथ डालकर पाजेब निकालकर सामने की, जैसे सामने बिच्छू हों। मैं भयभीत भाव से कह उठा कि यह क्या?

बोली कि उस रोज भूल से यह एक पाजेब मेरे साथ चली गई थी।

Saturday, December 17, 2022

जंगली बूटी - अमृता प्रीतम

अंगूरी, मेरे पड़ोसियों के पड़ोसियों के पड़ोसियों के घर, उनके बड़े ही पुराने नौकर की बिल्कुल नयी बीवी है। एक तो नयी इस बात से कि वह अपने पति की दूसरी बीवी है, सो उसका पति ‘दुहाजू’ हुआ। जू का मतलब अगर ‘जून’ हो तो इसका पूरा मतलब निकला ‘दूसरी जून में पड़ा चुका आदमी’, यानी दूसरे विवाह की जून में, और अंगूरी क्योंकि अभी विवाह की पहली जून में ही है, यानी पहली विवाह की जून में, इसलिए नयी हुई। और दूसरे वह इस बात से भी नयी है कि उसका गौना आए अभी जितने महीने हुए हैं, वे सारे महीने मिलकर भी एक साल नहीं बनेंगे।

पाँच-छह साल हुए, प्रभाती जब अपने मालिकों से छुट्टी लेकर अपनी पहली पत्नी की ‘किरिया’ करने के लिए गाँव गया था, तो कहते हैं कि किरिया वाले दिन इस अंगूरी के बाप ने उसका अंगोछा निचोड़ दिया था। किसी भी मर्द का यह अँगोछा भले ही पत्नी की मौत पर आँसुओं से नहीं भीगा होता, चौथे दिन या किरिया के दिन नहाकर बदन पोंछने के बाद वह अँगोछा पानी से ही भीगा होता है, पर इस साधारण-सी गाँव की रस्म से किसी और लड़की का बाप उठकर जब यह अँगोछा निचोड़ देता है तो जैसे कह रहा होता है— “उस मरनेवाली की जगह मैं तुम्हें अपनी बेटी देता हूँ और अब तुम्हें रोने की ज़रूरत नहीं, मैंने तुम्हारा आँसुओं भीगा हुआ अँगोछा भी सुखा दिया है।”

इस तरह प्रभाती का इस अंगूरी के साथ दूसरा विवाह हो गया था। पर एक तो अंगूरी अभी आयु की बहुत छोटी थी, और दूसरे अंगूरी की माँ गठिया के रोग से जुड़ी हुई थी इसलिए भी गौने की बात पाँच सालों पर जा पड़ी थी। फिर एक-एक कर पाँच साल भी निकल गए थे और इस साल जब प्रभाती अपने मालिकों से छु्ट्टी लेकर अपने गाँव गौना लेने गया था तो अपने मालिकों को पहले ही कह गया था कि या तो वह बहू को भी साथ लाएगा और शहर में अपने साथ रखेगा, या फिर वह भी गाँव से नहीं लौटेगा। मालिक पहले तो दलील करने लगे थे कि एक प्रभाती की जगह अपनी रसोई में से वे दो जनों की रोटी नहीं देना चाहते थे। पर जब प्रभाती ने यह बात कही कि वह कोठरी के पीछे वाली कच्ची जगह को पोतकर अपना चूल्हा बनाएगी, अपना पकाएगी, अपना खाएगी तो उसके मालिक यह बात मान गए थे। सो अंगूरी शहर आ गयी थी।

चाहे अंगूरी ने शहर आकर कुछ दिन मुहल्ले के मर्दों से तो क्या, औरतों से भी घूँघट न उठाया था, पर फिर धीरे-धीरे उसका घूँघट झीना हो गया था। वह पैरों में चाँदी की झाँजरें पहनकर छनक-छनक करती मुहल्ले की रौनक बन गयी थी। एक झाँजर उसके पाँवों में पहनी होती, एक उसकी हँसी में। चाहे वह दिन का अधिकतर हिस्सा अपनी कोठरी में ही रहती थी पर जब भी बाहर निकलती, एक रौनक़ उसके पाँवों के साथ-साथ चलती थी।

“यह क्या पहना है, अंगूरी?”

“यह तो मेरे पैरों की छैल चूड़ी है।”

“और यह उँगलियों में?”

“यह तो बिछुआ है।”

“और यह बाहों में?”

“यह तो पछेला है।”

“और माथे पर?”

“आलीबन्द कहते हैं इसे।”

“आज तुमने कमर में कुछ नहीं पहना?”

“तगड़ी बहुत भारी लगती है, कल को पहनूँगी। आज तो मैंने तौक भी नहीं पहना। उसका टाँका टूट गया है, कल शहर में जाऊँगी, टाँका भी गढ़ाऊँगी और नाक-कील भी लाऊँगी। मेरी नाक को नकसा भी था, इत्ता बड़ा, मेरी सास ने दिया नहीं।”

इस तरह अंगूरी अपने चाँदी के गहने एक नख़रे से पहनती थी, एक नखरे से दिखाती थी।

पीछे जब मौसम फिरा था, अंगूरी का अपनी छोटी कोठरी में दम घुटने लगा था। वह बहुत बार मेरे घर के सामने आ बैठती थी। मेरे घर के आगे नीम के बड़े-बड़े पेड़ हैं, और इन पेड़ों के पास ज़रा ऊँची जगह पर एक पुराना कुआँ है। चाहे मुहल्ले का कोई भी आदमी इस कुएँ से पानी नहीं भरता, पर इसके पार एक सरकारी सड़क बन रही है और उस सड़क के मज़दूर कई बार इस कुएँ को चला लेते हैं जिससे कुएँ के गिर्द अकसर पानी गिरा होता है और यह जगह बड़ी ठण्डी रहती है।

“क्या पढ़ती हो बीबीजी?” एक दिन अंगूरी जब आयी, मैं नीम के पेड़ों के नीचे बैठकर एक किताब पढ़ रही थी।

“तुम पढ़ोगी?”

“मेरे को पढ़ना नहीं आता।”

“सीख लो।”

“ना।”

“क्यों?”

“औरतों को पाप लगता है पढ़ने से।”

“औरतों को पाप लगता है, मर्द को नहीं लगता?”

“ना, मर्द को नहीं लगता?”

“यह तुम्हें किसने कहा है?”

“मैं जानती हूँ।”

“फिर तो मैं पढ़ती हूँ मुझे पाप लगेगा?”

“सहर की औरत को पाप नहीं लगता, गाँव की औरत को पाप लगता है।”

मैं भी हँस पड़ी और अंगूरी भी। अंगूरी ने जो कुछ सीखा-सुना हुआ था, उसमें उसे कोई शंका नहीं थी, इसलिए मैंने उससे कुछ न कहा। वह अगर हँसती-खेलती अपनी ज़िन्दगी के दायरे में सुखी रह सकती थी, तो उसके लिए यही ठीक था। वैसे मैं अंगूरी के मुँह की ओर ध्यान लगाकर देखती रही। गहरे साँवले रंग में उसके बदन का माँस गुथा हुआ था। कहते हैं—औरत आटे की लोई होती है। पर कइयों के बदन का माँस उस ढीले आटे की तरह होता है जिसकी रोटी कभी भी गोल नहीं बनती, और कइयों के बदन का माँस बिलकुल ख़मीरे आटे जैसा, जिसे बेलने से फैलाया नहीं जा सकता। सिर्फ़ किसी-किसी के बदन का माँस इतना सख़्त गुँथा होता है कि रोटी तो क्या चाहे पूरियाँ बेल लो। मैं अंगूरी के मुँह की ओर देखती रही, अंगूरी की छाती की ओर, अंगूरी की पिण्डलियों की ओर… वह इतने सख़्त मैदे की तरह गुथी हुई थी कि जिससे मठरियाँ तली जा सकती थीं और मैंने इस अंगूरी का प्रभाती भी देखा हुआ था, ठिगने क़द का, ढलके हुए मुँह का, कसोरे जैसा। और फिर अंगूरी के रूप की ओर देखकर उसके ख़ाविन्द के बारे में एक अजीब तुलना सूझी कि प्रभाती असल में आटे की इस घनी गुथी लोई को पकाकर खाने का हक़दार नहीं—वह इस लोई को ढककर रखने वाला कठवत है। इस तुलना से मुझे ख़ुद ही हँसी आ गई। पर मैं अंगूरी को इस तुलना का आभास नहीं होने देना चाहती थी। इसलिए उससे मैं उसके गाँव की छोटी-छोटी बातें करने लगी।

माँ-बाप की, बहन-भाइयों की, और खेतों-खलिहानों की बातें करते हुए मैंने उससे पूछा, “अंगूरी, तुम्हारे गॉंव में शादी कैसे होती है?”

“लड़की छोटी-सी होती है। पाँच-सात साल की, जब वह किसी के पाँव पूज लेती है।”

“कैसे पूजती है पाँव?”

“लड़की का बाप जाता है, फूलों की एक थाली ले जाता है, साथ में रुपये, और लड़के के आगे रख देता है।”

“यह तो एक तरह से बाप ने पाँव पूज लिए। लड़की ने कैसे पूजे?”

“लड़की की तरफ़ से तो पूजे।”

“पर लड़की ने तो उसे देखा भी नहीं?”

“लड़कियाँ नहीं देखतीं।”

“लड़कियाँ अपने होने वाले ख़ाविन्द को नहीं देखतीं?”

“ना।”

“कोई भी लड़की नहीं देखती?”

“ना।”

पहले तो अंगूरी ने ‘ना’ कर दी पर फिर कुछ सोच-सोचकर कहने लगी, “जो लड़कियाँ प्रेम करती हैं, वे देखती हैं।”

“तुम्हारे गाँव में लड़कियाँ प्रेम करती हैं?”

“कोई-कोई।”

“जो प्रेम करती हैं, उनको पाप नहीं लगता?” मुझे असल में अंगूरी की वह बात स्मरण हो आयी थी कि औरत को पढ़ने से पाप लगता है। इसलिए मैंने सोचा कि उस हिसाब से प्रेम करने से भी पाप लगता होगा।

“पाप लगता है, बड़ा पाप लगता है।” अंगूरी ने जल्दी से कहा।

“अगर पाप लगता है तो फिर वे क्यों प्रेम करती हैं?”

“जे तो… बात यह होती है कि कोई आदमी जब किसी की छोकरी को कुछ खिला देता है तो वह उससे प्रेम करने लग जाती है।”

“कोई क्या खिला देता है उसको?”

“एक जंगली बूटी होती है। बस वही पान में डालकर या मिठाई में डालकर खिला देता है। छोकरी उससे प्रेम करने लग जाती है। फिर उसे वही अच्छा लगता है, दुनिया का और कुछ भी अच्छा नहीं लगता।”

“सच?”

“मैं जानती हूँ, मैंने अपनी आँखों से देखा है।”

“किसे देखा था?”

“मेरी एक सखी थी। इत्ती बड़ी थी मेरे से।”

“फिर?”

“फिर क्या? वह तो पागल हो गयी उसके पीछे। सहर चली गयी उसके साथ।”

“यह तुम्हें कैसे मालूम है कि तेरी सखी को उसने बूटी खिलायी थी?”

“बरफी में डालकर खिलायी थी। और नहीं तो क्या, वह ऐसे ही अपने माँ-बाप को छोड़कर चली जाती? वह उसको बहुत चीज़ें लाकर देता था। सहर से धोती लाता था, चूड़ियाँ भी लाता था शीशे की, और मोतियों की माला भी।”

“ये तो चीज़ें हुईं न! पर यह तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि उसने जंगली बूटी खिलायी थी!”

“नहीं खिलायी थी तो फिर वह उसको प्रेम क्यों करने लग गयी?”

“प्रेम तो यों भी हो जाता है।”

“नहीं, ऐसे नहीं होता। जिससे माँ-बाप बुरा मान जाएँ, भला उससे प्रेम कैसे हो सकता है?”

“तूने वह जंगली बूटी देखी है?”

“मैंने नहीं देखी। वो तो बड़ी दूर से लाते हैं। फिर छिपाकर मिठाई में डाल देते हैं, या पान में डाल देते हैं। मेरी माँ ने तो पहले ही बता दिया था कि किसी के हाथ से मिठाई नहीं खाना।”

“तूने बहुत अच्छा किया कि किसी के हाथ से मिठाई नहीं खायी। पर तेरी उस सखी ने कैसे खा ली?”

“अपना किया पाएगी।”

‘किया पाएगी।’ कहने को तो अंगूरी ने कह दिया पर फिर शायद उसे सहेली का स्नेह आ गया या तरस आ गया, दुखे मन से कहने लगी, “बावरी हो गई थी बेचारी! बालों में कंघी भी नहीं लगाती थी। रात को उठ-उठकर गाती थी।”

“क्या गाती थी?”

“पता नहीं, क्या गाती थी। जो कोई जड़ी बूटी खा लेती है, बहुत गाती है। रोती भी बहुत है।”

बात गाने से रोने पर आ पहुँची थी। इसलिए मैंने अंगूरी से और कुछ न पूछा।

और अब थोड़े ही दिनों की बात है। एक दिन अंगूरी नीम के पेड़ के नीचे चुपचाप मेरे पास आ खड़ी हुई। पहले जब अंगूरी आया करती थी तो छन-छन करती, बीस गज़ दूर से ही उसके आने की आवाज़ सुनायी दे जाती थी, पर आज उसके पैरों की झाँजरें पता नहीं कहाँ खोयी हुई थीं। मैंने किताब से सिर उठाया और पूछा, “क्या बात है, अंगूरी?”

अंगूरी पहले कितनी ही देर मेरी ओर देखती रही और फिर धीरे से बोली, “मुझे पढ़ना सीखा दो बीबी जी।”

लगता है इसने भी जंगली बूटी खा ली…

“क्या हुआ अंगूरी?”

“मुझे नाम लिखना सिखा दो।”

“किसी को ख़त लिखोगी?”

अंगूरी ने उत्तर न दिया और एकटक मेरे मुँह की ओर देखती रही।

“पाप नहीं लगेगा पढ़ने से?” मैंने फिर पूछा।

अंगूरी ने फिर भी जवाब न दिया और एकटक सामने आसमान की ओर देखने लगी।

यह दोपहर की बात थी। मैं अंगूरी को नीम के पेड़ के नीचे बैठी छोड़कर अन्दर आ गयी थी। शाम को फिर कहीं मैं बाहर निकली तो देखा, अंगूरी अब भी नीम के पेड़ के नीचे बैठी हुई थी। बड़ी सिमटी हुई थी। शायद इसलिए कि शाम की ठण्डी हवा देह में थोड़ी-थोड़ी कँपकँपी छेड़ रही थी।

मैं अंगूरी की पीठ की और थी। अंगूरी के होंठो पर एक गीत था, पर बिलकुल सिसकी जैसा- “मेरी मुँदरी में लागो नगीनवा, हो बैरी कैसे काटूँ जोबनावाँ।”

अंगूरी ने मेरे पैरों की आहट सुन ली, मुँह फेर देखा और फिर अपने गीत को अपने होंठों में समेत लिया।

“तू तो बहुत अच्छा जाती है अंगूरी!”

सामने दिखायी दे रहा था कि अंगूरी ने अपनी आँखों में काँपते आँसू रोक लिए और उनकी जगह अपने होंठों पर एक काँपती हँसी रख दी।

“मुझे गाना नहीं आता।”

“आता है।”

“यह तो।”

“तेरी सखी गाती थी?”

“उसी से सुना था।”

“फिर मुझे भी तो सुनाओ।”

“ऐसे ही गिनती है बरस की… चार महीने ठण्डी होती है, चार महीने गर्मी और चार महीने बरखा…”

“ऐसे नहीं, गाकर सुनाओ।”

अंगूरी ने गया तो नहीं, पर बारह महीने को ऐसे गिना दिया जैसे यह सारा हिसाब वह अपनी उँगलियों पर कर रही हो-

“चार महीने राजा, ठण्डी होवत है, थर थर काँपे करेजवा। चार महीने राजा, गरमी होवत है, थर थर काँपे पवनवा। चार महीने राजा, बरखा होवत है, थर थर काँपे बदरवा।”

“अंगूरी?”

अंगूरी एकटक मेरे मुँह की ओर देखने लगी। मन में आया कि इसके कन्धे पर हाथ रखके पूछूँ, “पगली, कहीं जंगली बूटी तो नहीं खा ली?”

मेरा हाथ उसके कन्धे पर रखा भी गया। पर मैंने यह बात पूछने के स्थान पर यह पूछा, “तूने खाना भी खाया है, या नहीं?”

“खाना?” अंगूरी ने मुँह ऊपर उठाकर देखा।

उसके कन्धे पर रखे हुए हाथ के नीचे मुझे लगा कि अंगूरी की सारी देह काँप रही थी। जाने अभी-अभी जो उसने गीत गाया था – बरखा के मौसम में काँपने वाले बादलों का, गरमी के मौसम में काँपने वाली हवा का, और सर्दी के मौसम में काँपने वाले कलेजे का – उस गीत का सारा कम्पन अंगूरी की देह में समाया हुआ था।

यह मुझे मालूम था कि अंगूरी अपनी रोटी ख़ुद ही बनाती थी। प्रभाती मालिकों की रोटी बनाता था। और मालिकों के घर से ही खाता था, इसलिए अंगूरी को उसकी रोटी की चिन्ता नहीं थी। इसलिए मैंने फिर कहा, “तूने आज रोटी बनायी है या नहीं?”

“अभी नहीं।”

“सवेरे बनायी थी? चाय पी थी?”

“चाय? आज तो दूध ही नहीं था।”

“आज दूध क्यों नहीं लिया था?”

“वह तो मैं लेती नहीं, वह तो…”

“तो रोज़ चाय नहीं पीती?”

“पीती हूँ।”

“फिर आज क्या हुआ?”

“दूध तो वह रामतारा…”

रामतारा हमारे मुहल्ले का चौकीदार है। सबका साँझा चौकीदार। सारी रात पहरा देता। वह सबेरसार ख़ूब उनींदा होता है। मुझे याद आया कि जब अंगूरी नहीं आयी थी, वह सवेरे ही हमारे घरों से चाय का गिलास माँगा करता था। कभी किसी के घर से और कभी किसी के घर से, और चाय पीकर वह कुएँ के पास खाट डालकर सो जाता था। और अब, जब से अंगूरी आयी थी, वह सवेरे ही किसी ग्वाले से दूध ले आता था, अंगूरी के चूल्हे पर चाय का पतीला चढ़ाता था, और अंगूरी, प्रभाती और रामतारा तीनों चूल्हे के गिर्द बैठकर चाय पीते थे। और साथ ही मुझे याद आया कि रामतारा पिछले तीन दिनों से छुट्टी लेकर अपने गाँव गया हुआ था।

मुझे दुखी हुई हँसी आयी और मैंने कहा, “और अंगूरी, तुमने तीन दिन से चाय नहीं पी?”

“ना।”, अंगूरी ने ज़ुबान से कुछ न कहकर केवल सिर हिला दिया।

“रोटी भी नहीं खायी?”

अंगूरी से बोला नहीं गया। लग रहा था कि अगर अंगूरी ने रोटी खायी भी होगी तो न खाने जैसी ही।

रामतारे की सारी आकृति मेरे सामने आ गई। बड़े फुर्तीले हाथ-पाँव, इकहरा बदन, जिसके पास हल्का-हल्का हँसती हुई और शरमाती आँखें थीं और जिसकी ज़ुबान के पास बात करने का एक ख़ास सलीक़ा था।

“अंगूरी!”

“जी!”

“कहीं जंगली बूटी तो नहीं खा ली तूने?”

अंगूरी के मुँह पर आँसू बह निकले। इन आँसुओं ने बह-बहकर अंगूरी की लटों को भिगो दिया। और फिर इन आँसुओं ने बह-बहकर उसके होंठों को भिगो दिया। अंगूरी के मुँह से निकलते अक्षर भी गीले थे, “मुझे कसम लागे जो मैंने उसके हाथ से कभी मिठाई खायी हो। मैंने पान भी कभी नहीं खाया। सिर्फ़ चाय… जाने उसने चाय में ही…।”

और आगे अंगूरी की सारी आवाज़ उसके आँसुओं में डूब गई।