ये शामें अक्सर कशमकश मे गुज़रती हैं,
जद्दोज़हद में गुज़रती है,
कभी बिना रुके, बिना थमे, दबे पाँव,
चुपचाप सरकती ज़िंदगी से,
कुछ पल अपने लिए भी चुरा लेने की कोशिशों में,
कभी खुद को खोजने में,
तो कभी अपनों को तलाशने में,
कभी ज़िम्मेदारियों के बोझ तले दबी,
ख्वाहिशों की सिसकियों को सुनने में,
तो कभी अपने ही अंदर घर चुके आँधियारे से लड़ने में,
बस कुछ इस तरह ही गुज़रती हैं ये शामें|
ये शामें हर रोज़ अपने घर से निकलती हैं,
कभी उस मंज़िल की तलाश में,
जहाँ पंहुच कर सुकून मिले,
तो कभी उस मंज़र की फिराक़ मे ,
जिसे देख,
हर ख्वाब मुकम्मल लगे,
तो कभी उस पल, उस लम्हे की आस मे,
जिसे जी कर ज़िंदगी पूरी सी लगे|
कभी कभी ये शामें सुकून की तलाश में,
यादों के गलियारों मे भी जाया करती हैं,
कभी बचपन की मासूमियत, बेफिक्री को,
नज़दीक से निहारा करती हैं,
तो कभी यारों के संग,
महफ़िल जमाया करती हैं,
कभी महबूब की गलियों मे गुज़रती हैं,
तो कभी माँ की गोदी में सर रखकर,
लोरियाँ सुनकर आया करती हैं|
ये शामें भले ही गमज़दा हैं,
पर इन्होने उम्मीद का दामन छोड़ा नही है,
ये थकी हैं, हारी नहीं हैं,
इन्हे यकीं है कि,
ये अपनी मंज़िल पाएँगी,
लाखों की भीड़ मे,
अपना एक अलग मुकाम बनाएँगी,
इनकी दास्तां लोगों के ज़हन में,
महक बनकर एक अरसे तक रहेगी,
गर ये दफ़ना भी गयी तो,
उस मिट्टी क़ी पैदाइश,
पौधे का फूल बनकर,
इस दुनिया को फिर महकाएँगी,
गर इस ज़ुस्तज़ू मे,
ये शामें गुज़र भी गयी तो,
अपना आधूरा ख्वाब पूरा करने,
ये शामें फिर आएँगी,
ये शामें फिर आएँगी|
जद्दोज़हद में गुज़रती है,
कभी बिना रुके, बिना थमे, दबे पाँव,
चुपचाप सरकती ज़िंदगी से,
कुछ पल अपने लिए भी चुरा लेने की कोशिशों में,
कभी खुद को खोजने में,
तो कभी अपनों को तलाशने में,
कभी ज़िम्मेदारियों के बोझ तले दबी,
ख्वाहिशों की सिसकियों को सुनने में,
तो कभी अपने ही अंदर घर चुके आँधियारे से लड़ने में,
बस कुछ इस तरह ही गुज़रती हैं ये शामें|
ये शामें हर रोज़ अपने घर से निकलती हैं,
कभी उस मंज़िल की तलाश में,
जहाँ पंहुच कर सुकून मिले,
तो कभी उस मंज़र की फिराक़ मे ,
जिसे देख,
हर ख्वाब मुकम्मल लगे,
तो कभी उस पल, उस लम्हे की आस मे,
जिसे जी कर ज़िंदगी पूरी सी लगे|
कभी कभी ये शामें सुकून की तलाश में,
यादों के गलियारों मे भी जाया करती हैं,
कभी बचपन की मासूमियत, बेफिक्री को,
नज़दीक से निहारा करती हैं,
तो कभी यारों के संग,
महफ़िल जमाया करती हैं,
कभी महबूब की गलियों मे गुज़रती हैं,
तो कभी माँ की गोदी में सर रखकर,
लोरियाँ सुनकर आया करती हैं|
ये शामें कुछ बेचैन सी रहती हैं,
अक्सर बेचैनी का सबब भी तलाशा करती हैं,
दरअसल,
ये गुमनामी के अंधेरों से डरती हैं,
डरती हैं,
कि इनके गुज़र जाने के बाद,
इन्हे अतीत के दरिया मे बहा दिया जाएगा,
इन्हे किसी अंधियारी कोटरी मे,
किसी बेनाम बक्से मे बंद कर,
दफ़ना दिया जाएगा,
इन्हे डर ये भी है कि,
कहीं इनका हश्र भी उन अनगिनत शामों जैसा ना हो,
आज जिनके न तो आने का चर्चा है,
ना ही जाने का ज़िक्र,
ना तो उनके अस्तित्व का पता है,
ना ही वजूद का ठिकाना,
इसीलिए, इन शामों में,
एक खलिश सी रहती है,
ये शामें कुछ बेचैन सी रहती है|
पर इन्होने उम्मीद का दामन छोड़ा नही है,
ये थकी हैं, हारी नहीं हैं,
इन्हे यकीं है कि,
ये अपनी मंज़िल पाएँगी,
लाखों की भीड़ मे,
अपना एक अलग मुकाम बनाएँगी,
इनकी दास्तां लोगों के ज़हन में,
महक बनकर एक अरसे तक रहेगी,
गर ये दफ़ना भी गयी तो,
उस मिट्टी क़ी पैदाइश,
पौधे का फूल बनकर,
इस दुनिया को फिर महकाएँगी,
गर इस ज़ुस्तज़ू मे,
ये शामें गुज़र भी गयी तो,
अपना आधूरा ख्वाब पूरा करने,
ये शामें फिर आएँगी,
ये शामें फिर आएँगी|